मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

कोरोना दिनों में ‘कभी-कभार

अशोक वाजपेयी जी से फोन पर मैंने आग्रह किया था कि आपके कोई पुराने डायरी अंश हों तो हिंदीनेस्ट के ‘डायरी अंक’ को समृद्ध करने के लिए दे सकें तो.... उनका उत्तर था--

“ मैंने डायरियाँ तो नहीं लिखीं  लेकिन ‘कभी-कभार’ के रूप में ही मैं अपने समय को दर्ज़ करता रहा हूँ.... इन दिनों भी जो लिखा है वह तुम ले सकती हो। “

निसंदेह अशोक जी के सरोकार बहुत गहरे हैं, कला, साहित्य, शांति, जीवन और राजनीति को लेकर। कोरोना प्रकोप के चलते आज जो स्थितियाँ हैं उस पर चहुंओर दृष्टि डालते अशोक जी विचारों को ‘कभी-कभार’ की इन ताज़ा किश्तों में पढ़ें।

कभी-कभार ( सत्याग्रह से साभार) 

23 अगस्त 2020

कला का नील नभ

केरल के कुछ कलाकार मित्रों ने याद दिलाया कि इस महीने हीरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम बरसाने के 75 वर्ष हो रहे हैं. उन्होंने भारत की सीमा पर चीनी घुसपैठ को भी ध्यान में रखते हुए व्हाइट रोज़ कला समूह द्वारा इस अवसर पर ब्लू स्काई: शेडोज़ आव् हीरोशिमाकला-प्रदर्शनी आयोजित की है, ऑनलाइन. मुझसे ऑनलाइन वक्तव्य द्वारा उसका उद्घाटन करने का आग्रह किया. मुझसे पहले बोलते हुए केरल के राजनेता एमए बेबीने याद दिलाया कि जिन दो विमानों से बम बरसाये गये थे उनके नाम थे ग्रेट आर्टिस्टऔर नैसेसरी ईविल’.

संयोगवश इसी समय हमारे पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युद्ध को भी 21 वर्ष पूरे हुए. मैंने यह कहने की कोशिश की कि दूसरे महायुद्ध के बाद, शीत युद्ध के भी बाद से संसार तरह-तरह से युद्धग्रस्त रहा है. कई तरह की बगावतें, सशस्त्र विद्रोह, सिविल युद्ध आदि आज भी लगातार हो रहे हैं. यह व्याप्ति इतनी है कि हम युद्ध शब्द का इस्तेमाल संज्ञा और रूपक की तरह करने के अभ्यस्त हो गये हैं. वर्तमान कोरोना प्रकोप के विरुद्ध जो अभियान चल रहा है उसे युद्ध कहा जा रहा है और उससे निपटने-जूझने में लगे कर्मियों को कोरोना-योद्धा.

याद आता है कि प्राचीन और मध्यकालीन समय में युद्धरत सेनाएं अपने साथ कविता-संगीत-तमाशा आदि लेकर चलती थीं. याद यह भी करना चाहिये कि हमारे एक महाकाव्य महाभारतमें जो धर्मयुद्ध लड़ा गया वह अन्ततः, पाण्डवों की विजय के बावजूद, व्यर्थ सिद्ध हुआ. साहित्य और कलाओं में जहां युद्ध की वीरगाथाएं बखानी-गायीं-चित्रित की गयी हैं, वहां दूसरी ओर युद्ध की अन्ततः, विफलता और व्यर्थता का भी सत्यापन होता रहा है. दूसरे महायुद्ध के बाद विश्व शान्ति के लिए एक बड़ा अभियान चला था जिसमें अनेक मूर्धन्य चिन्तकों, वैज्ञानिकों, लेखकों-कलाकारों आदि ने भाग लिया था.

यूनेस्को के एक प्रसिद्ध आप्तवाक्य में यह अवधारणा की गयी थी कि युद्ध मनुष्य के मस्तिष्क में उपजते और लड़े जाते हैं और उनसे मनुष्य को मुक्त कराने का प्रयत्न होना चाहिये. युद्ध प्रायः दूसरोंको नष्ट करने, उनसे ज़मीन और साधन छीनने, उनको पराजित करने के लिए किये जाते हैं. हमारे देश में, कोरोना प्रकोप की आड़ में, एक और अघोषित युद्ध चल रहा है: लोकतांत्रिक स्वतन्त्रता, असहमति, न्याय की मांग, समता के आग्रह आदि के विरूद्ध जिसमें कई संवैधानिक संस्थाएं तक शामिल दीख पड़ रही हैं.

इस भयावह स्थिति में जब बाज़ार, धर्म, राजनीति, मीडिया आदि एक अनोखे गठबन्धन में लगातार नये दूसरेगढ़, उन्हें बाधित-प्रताड़ित कर रहे हैं, साहित्य और कलाएं ही वे जगहें हैं जहां कोई दूसरेनहीं हैं, किसी दूसरे को नष्ट करने का हिंसक उत्साह नहीं है. जहां नील नभ के नीचे, बिना भेदभाव के, हम स्वतंत्र, स्वायत्त, संवादरत महसूस कर सकते हैं.

हड़बड़ी का मौसम

इन दिनों काफ़ी लोगों के पास समय की कमी नहीं, अक्सर समय काटे नहीं कटता. कोरोना वायरस ने राजनीति छोड़कर सबको धीरज का पाठ सिखा दिया है. बस राजनीति में ही उठापटक की अधीरता कम नहीं हुई है. इसलिए कि काफ़ी समय है, फेसबुकिया लोग काफ़ी तेज़ी से इन दिनों तरह-तरह के झटपटिया आकलन में व्यस्त और सक्रिय हैं. सूक्तिपरक निर्णय और साहित्यिक फ़तवे जारी किये जा रहे हैं. इसका एक लाभ यह है कि ऐसे कई साहित्यकार चर्चा में हैं जिन पर अन्यथा विचार करने का विशेष अवसर न होता.

संयोगवश हिन्दी के दो मूर्धन्य और लोकप्रिय साहित्यकारों को इस समय इस आकस्मिक ध्यान की पात्रता मिली है - तुलसीदास और प्रेमचन्द. किसी कृति या किसी लेखक की किसी या कुछ रचनाओं को कूड़ा कहकर खारिज़ करने की हालिया शुरूआत नामवर सिंह ने की थी जब उन्होंने सुमित्रानन्दन पन्त की अधिकांश रचनाओं को कूड़ा कहा था. अब एक संपादक ने प्रेमचन्द की अधिकांश कहानियों को कूड़ा क़रार दिया है. तुलसीदास को दशकों पहले प्रगतिशीलों ने प्रतिक्रियावादी क़रार दिया था. बीच में उन्होंने भूल-सुधार किया. अब फिर तथाकथित जनधर्मी तुलसीदास को कुछ जुमलेबाज़ी कर अवमूल्यित करने की नयी कोशिश कर रहे हैं. इनमें से कोई भी बिना चुनौती के नहीं जाने दिया जा रहा है. इन सभी का प्रत्याख्यान भी सदलबल फ़ेसबुक पर हो रहा है.

यह नोट करना दिलचस्प है कि जो लेखक फ़ेसबुक पर इतने सक्रिय हैं और तरह-तरह के अवमूल्यन कर रहे हैं वे विधिवत् लिखकर इन स्थापनाओं को अधिकांशतः प्रमाण और तर्क के साथ, प्रस्तुत नहीं करते. साहित्य में एक वर्ग हमेशा ऐसा रहा है कि जो साहित्य को बल्कि आलोचना को अभिमत में घटाता रहा है. फ़ेसबुक की सुविधा ने इस वर्ग की सदस्य-संख्या कई गुना कर दी लगती है. कभी किसी मीर ने अपने को ही पगड़ी सम्हालने की हिदायत दी थी क्योंकि शहर दिल्ली है’. अब लगता है कि हम सभी पगड़ी उछालने, उन पर कीचड़ फेंकने में एक तरह का नीच आनन्द पाते हैं. कइयों पर इसी कारण ध्यान जाता है वरना उनकी व्यापक परिदृश्य में कोई जगह या मौजूदगी नहीं है.

पर, यह भी कहना होगा कि हिन्दी में अपने बड़े लेखकों या कुछ कृतियों को लेकर जो रन्ध्रहीन भक्तिभाव है उसे भी आलोचनात्मक मूल्यांकन से उपजा नहीं कहा-माना जा सकता. सब कुछ आलोच्य है यह साहित्य के जनतन्त्र की बुनियादी मान्यता होती है और जो झटपटिया अवमूल्यन हो रहा है उसका यह आशय या संकेत है कि हिन्दी में अधिक निर्भीक आलोचना की ज़रूरत है, उसकी जगह होना चाहिये, उसे गम्भीरता से किया जाये और उतनी ही गम्भीरता से वह ज़ेरे-बहस हो. ऐसे वाद-विवाद-संवाद से साहित्य और आलोचना दोनों लोकतांत्रिक रूप से आगे बढ़ते हैं.

रंगवितान

भारत भवन के अन्तर्गत मूर्धन्य रंगकर्मी बव कारन्त ने जो मध्यप्रदेश रंगमण्डल गठित किया था वह किसी राज्य द्वारा स्थापित पहली रिपर्टरी कम्पनी भर न थी. उसमें रंगप्रशिक्षण, रंग-व्यापार, रंगप्रयोग, रंगचिन्तन इन सभी पहलुओं को बहुत कल्पनाशील ढंग से नियोजित किया गया था. रंगमण्डल में बाक़ायदा रंगप्रशिक्षित कलाकारों के साथ लोक कलाकार भी शामिल किये गये थे. प्रसिद्ध निष्णात लोक कलाकारों को प्रशिक्षण देने बुलाया जाता था. लोक और आधुनिक का ऐसा लगातार संवाद और सहकार शायद ही इससे पहले हुआ था और बाद में कभी इस गहराई और निरन्तरता का कहीं और हुआ हो. इतनी बड़ी संख्या में वरिष्ठ और विविध रंग-कर्मी प्रशिक्षण देने शायद ही किसी और रंगसंस्थान में आये होंगे जब कि रंगमण्डल प्रशिक्षण का संस्थान नहीं था. इनमें पीटर बुक, जान मार्टिन, बादल सरकार, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त, श्यामा नन्द जालान, प्रसन्ना, इरशाद पंजतन आदि शामिल थे.

याद यह भी आता है कि कारन्त नहीं चाहते थे कि रंगमण्डल सिर्फ़ उनकी शैली में काम करे. उन्होंने बड़ी संख्या में अतिथि निर्देशक आमंत्रित किये जिन्होंने रंगमंडल के अन्तर्गत कई नाट्य प्रस्तुतियां तैयार कीं. तीन विदेशी निर्देशक पूर्वी जर्मनी, इंगलैण्ड और फ्रांस के आये थे. यह याद करने योग्य है कि इनमें से किसी को हिन्दी भाषा नहीं आती थी. फ्रिट्ज बेनेविट्ज ने शेक्सपीयर के कई नाटक हिन्दी में बगरो बसन्त है’, ‘राजा लीयर’, ‘तो सम पुरुरव न मो सम नारीऔर बर्तोल्त ब्रेख़्त का इन्साफ़ का घेरातैयार कराये. ब्रिटिश जान मार्टिन ने रंगकार्यशाला तो ली ही, तीन ग्रीक दुखान्त’ - यूरीपिडीज़ और एस्किलस के, ‘पोलिस में हफ़ीजीनिया’, ‘ट्रोजन औरतेंऔर अग्मेनाननिर्देशित किये. 1990 में फ्रांस के एक अत्यन्त प्रयोगशील रंगनिर्देशक जार्ज लवादों ने रासीन की क्लैसिक कृति फ़ेद्रा’, कृष्ण बलदेव वेद के हिन्दी अनुवाद में, तैयार की. पूरी प्रस्तुति मुख्य मंच पर नहीं, ग्रीनरूम को रंगमंच में बदलकर की गयी थी.

हिन्दी की रंगसम्भावनाओं का इतना गहन अन्वेषण शायद ही पहले या बाद में कहीं और हुआ हो. कोई भारत भवन के पहले दशक का विस्तृत इतिहास लिखे तो पता चलेगा कि वहां कितना नवाचार अनेक कलाओं में पूरी निर्भीकता और कल्पनाशीलता के साथ किया गया था. कारन्त जैसा अथक रंगकर्मठ भी फिर दूसरा नहीं हुआ. न विभा मिश्र, द्वारका प्रसाद जैसे अभिनेता.

19 जुलाई 2020

मंगल की प्रतीक्षा

इन दिनों हम अक्सर मंगल कामना करते हैं क्योंकि हमें लगता है कि समूची पृथ्वी पर अमंगल की काली छाया मंड़रा रही है. हम जैसे लोग, जिन्हें आस्था का वरदान नहीं मिला है, सोचते हैं कि अनास्था से भी मंगल कामना की जा सकती है. ऐसी कामना आस्था या अनास्था का सत्यापन नहीं है. वह मंगल की वापसी के लिए समवेत आह्वान या प्रार्थना का हिस्सा है. हम भय से, सन्देह से, झूठ से, दुराचार और अन्याय से, झांसों और निराशा से घिर गये हैं. एक पूरी तिमाही बीत गयी है और हमें कोई राहत मिलती नज़र नहीं आती. इस सारे घटाटोप के बीच यह तय है कि मंगल हमसे दूर भाग गया है. हम उसके वापस आने की अथक प्रतीक्षा कर रहे हैं.

हम जानते हैं कि मंगल किसी दैवी आशीर्वाद की तरह नहीं आयेगा. वह किसी दिव्य रथ या वचन पर चढ़कर भी नहीं आने वाला. वह ऐसी चकाचौंध करते हुए भी नहीं आयेगा जिसमें बाक़ी सारे आलोक बुझ जायें या फीके पड़ जायें. वह हमारी निपट साधारणता से, अदम्य मानवीयता से ही उभरेगा. वह आकाश से नहीं उतरेगा. वह हमारी, इन दिनों अकसर सूनी पड़ी गलियों और सड़कों से, शायद कुछ लड़खड़ाता हुआ आयेगा. वह जुलूस और भजन-कीर्तन के साथ या गाजे-बाजे का शोर करते हुए नहीं आयेगा. मंगल आयेगा हर घर पर एक सौम्य दस्तक, एक हलकी झलक, एक छाया की तरह. हो सकता है कि वह इतने धीरे से आये कि हमें पता ही न चले. वह आयेगा तो बहुत कुछ, जो हमसे दूर फिंक गया है, ‘इतने पास अपनेआ जायेगा. हमारा फिर पड़ोस और मुहल्ला होगा. हम लोगों से मिलने, उनकी तकलीफ़ सुनने और कुशल-क्षेम पूछने, सौदा-सुलूफ़ लाने की अनाटकीय कार्रवाई करते हिचकेंगे नहीं. मंगल आयेगा तो हम फिर आदमी हो जायेंगे, यों आधे-अधूरे जैसे हमेशा से थे, पर आकांक्षा में पूरे.

मंगल को हम ही लायेंगे, अपनी जिजीविषा से, अपने साहस, अपनी कल्पना से. जब वह आयेगा तो हमें कोई द्वारचार या बन्दनवार नहीं करना-लगाना होगा. मंगल हमारे बीच ऐसे आयेगा जैसे अभी थोड़ी देर के लिए बाहर जाकर फिर वापस आ गया है.

पुरखों की परछी में-1

मैंने पहले भी यह लक्ष्य किया है कि कोरोना की वजह से हुई घरबन्दी ने हम सभी को अपने परिवारों में अधिक मिल-जुलकर रहने और सबको अधिक जानने का अवसर दिया है. मेरे बेटे कबीर और बहू प्रीति ने एक उपक्रम किया है. हर रविवार की शाम को हम लोग जूमपर अपने भाई-बहनों और उनके बेटे-बेटियों के साथ एक संयुक्त संवाद करते हैं. हमारे माता-पिता को जिन्हें दिदिया-काका कहते थे, याद करते और उनसे हममें से हरेक ने क्या सीखा इस पर कुछ बताते हुए. एक सत्र इस पर भी कि युवा पीढ़ी के सदस्यों ने परिवार में किससे-क्या सीखा. एक और सत्र इस पर है कि हमने परिजनों के अलावा बाहर के किन से क्या सीखा.

यह स्पष्ट हुआ कि हम लगभग सभी यह मानते हैं कि हम अपने माता-पिता से कहीं कमतर हैं, भले हमारी भौतिक उपलब्धियां उनसे बेहतर रही हों. निजी और पारिवारिक जीवन में हम पूरे विनय के साथ इसका एहतराम करते हैं कि हमारे पुरखे हमसे बेहतर थे. हो सकता है कि इसमें कुछ आदर्शीकरण या रूमानीकरण हो जाता हो. पर ऐसा हम सहज भाव से करते हैं. साहित्य में पुरखों के साथ हमारा व्यवहार अकसर इससे ठीक उलट होता है. वहां हम अकसर ऐसी उद्धत हरकत करते हैं मानो हमें अपने पुरखों से कुछ ख़ास मिला नहीं है. हम उनसे बेहतर, अधिक उन्मुक्त, अधिक निर्भीक, अधिक उत्तेजक कर पा रहे हैं ऐसी आत्मरति हमें घेरे रहती है. कई बार हम सीधे-सीधे ऐसा कहते तो नहीं हैं पर भाव ऐसा होता है कि पुरखों के संघर्ष और उपलब्धि दोनों को अतिरंजित किया जाता है.

परिवार में तो पुरखों की स्मृति, कुल मिलाकर, पिछली चार-पांच पीढ़ियों तक सीमित होती है और उससे पहले के पुरखों के हमें नाम तक पता नहीं होते. लेकिन, इसके उलट, साहित्य में तो हम अपने पुरखों की सूची बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक पीछे ले जा सकते हैं. अक्सर हम ऐसा अपनी वैधता की तलाश में करते भी हैं. कई बार किसी पुरखे पर हम नाटकीय ढंग से ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से आक्रमण भी करते हैं. उसके कुछ बने-बनाये विमर्श सहज उपलब्ध हैं - नारी-विरोध, दलित-विरोध, राज्याश्रय आदि. कम से कम जो युवा पीढ़ी आज बहुत सक्रिय और मुखर है उसे किसी पुरखे की न तो अपने कृतित्व में, न सार्वजनिक संवाद में कमी याद आती है. उसने अपने को पुरखों की तथाकथित गिरफ़्त से मुक्त कर लिया है. उसे अपने समवयसी ही याद आते हैं. पुरखे उसके न तो पैमाना हैं, न ऐसी उपस्थिति जिससे सर्जनात्मक और आलोचनात्मक स्तर पर संघर्ष करना ज़रूरी लगे.

पुरखों को भुलाना या सिर्फ़ कभी-कभार वैधता के लिए याद करना उस व्यापक स्मृतिवंचना का हिस्सा है जो हिन्दी समाज में तेज़ी से व्याप गयी है. हम निजी-पारिवारिक जीवन में पुरखों को याद करें और साहित्यिक जीवन में उन्हें भुला दें यह एक विडम्बना है. वैसे भुला देने से पुरखे इतिहास-परम्परा-दृश्य से ग़ायब नहीं हो जाते. यह भी कि उनका किया पैमाना तो बनता है और समय हमें उन पैमानों पर नापेगा ही. पैमाने बदलते हैं पर उनमें कुछ है जो टिकाऊ शाश्वत रहता है. हम इसका एहतराम भले न करें पर हम लिखते तो पुरखों की परछी में हैं.

पुरखों की परछी में-2

पुरखों से लगातार कुछ-न-कुछ सन्देश आते रहते हैं: उन पर ध्यान देने या उन्हें सुनने का हमारे पास धीरज, समय या जतन नहीं होता. फिर भी, कभी-कभार कुछ सन्देश पकड़ में आ जाते हैं. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

जैसे हम नश्वर थे, वैसे ही तुम भी नश्वर हो. लेकिन, अपनी नश्वरता से बिंधे रहकर भी, तुम कुछ अनश्वर रच सकते हो. जैसे हमारा, वैसे ही तुम्हारा, साहित्य में उत्तरजीवन हो सकता है.

हम तुम्हारी निगरानी नहीं करते पर तुम क्या करते हो हम पर हमारी नज़र रहती है: इस पर भी हमारे से पहले के पुरखों की नज़र रहती थी. यह मत भूलो कि तुम सिर्फ़ अपने समकालीनों और भविष्यवर्तियों के लिए नहीं हम जैसे पुरखों के लिए भी लिखते हो.

अगर तुम पुरखों की परछी में आ जाओ तो वहां जगह बन ही जाती है: तुम आओगे तो सीमित होते हुए भी परछी आंगन की तरह खुल-फैल सकती है. जैसे तुमको हमारे होने से फ़र्क पड़ता है, वैसे ही हमको तुम्हारे होने से फ़र्क पड़ता है.

हमको भी अपना समय बहुत असह्य और अभूतपूर्व लगता था: हमने धीरे-धीरे जाना-सीखा कि लिखने वालों के लिए हर समय ऐसा ही होता है.

अगर तुम हमारी कतार में आना-बैठना पसन्द न करो तो यह तुम्हारा निर्णय है. पर समय तुम्हें या तो इस क़तार में मिला देगा या हमेशा के लिए बाहर कर देगा. हमारे बहुत से साथ वाले इस क़तार में नहीं आ पाये.

तुम हमारी पुकार न भी सुनो या सुनकर भी उसका उत्तर न दो कोई हर्ज़ नहीं. पर जब या अगर तुम कभी हमें पुकारोगे तो हम ज़रूर उत्तर देंगे. पुकारना और उत्तर देना, बाद में आये के लिए जगह बनाना, हमारा स्वभाव है.

हम तुम्हारे संघर्ष और बेचैनी की, जोखिम और कल्पना की क़द्र करते हैं: इतना भर याद दिलाते हैं कि अपने समय में हम तुमसे कम संघर्षरत, बेचैन या निराश या आशान्वित नहीं थे. साहित्य बेचैनी, संघर्ष, जोखिम, आशा-निराशा और कल्पना की एक अटूट बिरादरी है.

मनुष्य, जीवन, अस्तित्व, सचाई, यथार्थ, कल्पना सभी लेखक के लिए रहस्य, जिज्ञासा और विस्मय का विषय रहे हैं. न हम अनहोने थे, न तुम अनहोने होगे.

हमसे अगर तुम कुछ उधार लो तो उसे हमें नहीं लौटाना होगा. वह तुम बाद वालों को लौटाओगे. ऐसे कर्ज होते हैं जिन्हें चुकाना नहीं होता.

हम कुछ दे नहीं सकते. लेकिन यह आशय नहीं कि तुम कुछ ले नहीं सकते.

हम आधे-अधूरे हैं और तुम मिल जाओ तब भी आधे-अधूरे ही रहेंगे. मनुष्यता कभी पूरी नहीं होती, वह असमाप्य है.

5 जुलाई 2020

कला-आतिथ्य

मुंबई से किसी शोधकर्ता व्यक्ति ने फ़ोन कर बताया कि वे और उनकी एक अन्य साथी मिलकर एक पुस्तक लिखने की तैयारी कर रहे हैं कि भारत में स्वतंत्रता के बाद लेखकों-कलाकारों को किस तरह की रेसीडेन्सी की सुविधाएं उपलब्ध रही हैं. इस सिलसिले में उन्हें हमारे किसी हितैषी ने बताया है कि इस मामले में मध्य प्रदेश और भारत भवन अग्रणी रहे हैं और वे उस बारे में विस्तृत जानकारी चाहती हैं. वह तो मैंने उन्हें दे दी. याद आया कि सबसे पहले 1980 में मध्यप्रदेश शासन में जब स्वतंत्र संस्कृति विभाग बना तो उसने जो नया कार्यक्रम बनाया उसमें अतिथि लेखकों के लिए तीन सृजनपीठ बनाये: प्रेमचन्द सृजनपीठ (विक्रम विश्वविद्यालय), निराला सृजनपीठ (भारत भवन भोपाल) और मुक्तिबोध सृजनपीठ (सागर विश्वविद्यालय). इन पीठों पर एक दशक में शमशेर बहादुर सिंह, निर्मल वर्मा, हरिशंकर परसाई, त्रिलोचन, नरेश मेहता, रामकुमार, कृष्ण बलदेव वेद, दिलीप चित्रे, कृष्णा सोबती, केदारनाथ सिंह, कमलेश आदि विभिन्न अवधियों के लिए, सुविधानुसार आये.

1982 में भारत भवन की स्थापना और सक्रियता के दौरान वहां फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन के एक शर्त-मुक्त अनुदान के अन्तर्गत मल्लिकार्जुन मंसूर, भवेश सान्याल, उस्ताद ज़िया मोइउद्दीन डागर, शम्भु मित्र, नामवर सिंह, अम्बा दास, शानी, निर्मल वर्मा आदि आये. यह मूर्धन्य-श्रृंखला 1990 तक तो चली उसके बाद क्या हुआ इसका पता नहीं. इरादा इन मूर्धन्यों के भारत भवन में अतिथि के रूप में रहने के दौरान इनका विस्तृत अभिलेखन करने का था और वह काफ़ी हद तक सफल प्रयोग रहा. पण्डित मंसूर की अनौपचारिक बातचीत, शम्भु मित्र का बव कारन्त द्वारा लिया गया लम्बा इण्टरव्यू, उनका अपने नाटक का पाठ और बांग्ला कवियों की रचनाओं की नाटकीय आवृत्ति आदि की याद है. यह सामग्री, उम्मीद है, कि भारत भवन के अभिलेखागार में अब भी सुरक्षित होगी.

विश्वविद्यालयों ने सृजनपीठ पर आये अतिथि लेखकों का कोई सार्थक उपयोग नहीं किया. युवा छात्रों या कैम्पस में उभर रहे छात्र-लेखकों से उनके लगातार संवाद का कोई सुघर नियोजन नहीं हुआ. शमशेर जी का तो बेहतर इस्तेमाल कालिदास अकादेमी ने किया था. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों में अतिथि लेखकों-कलाकारों-विद्वानों के लिए एक योजना बरसों से चला रखी थी, पर अधिकांश विश्वविद्यालयों ने उसका कोई उपयोग नहीं किया. कुछ ने किया और मैं जामिया मिलिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापक रहा हूं. एक बद्धमूल पूर्वाग्रह ज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक भारत में रहा है कि साहित्य और कलाएं ज्ञान का अंग नहीं हैं. उनमें जो ज्ञान प्रगट या विन्यस्त होता है उसे ज्ञान मानने में हमारे आधुनिक ज्ञानियों को बड़ी हिचक है. जबकि दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भी इन्हें बाकायदा ज्ञान का हिस्सा माना जाता है. यह विडम्बना है कि कैसे भी पी-एचडी प्राप्त अध्यापक साहित्य और कलाएं पढ़ा सकते हैं, पर उपन्यासकार, कवि, कलाकार आदि ऐसा नहीं कर सकते?

समकालीन चीनी कविता

इस समय भारत का चीन से संबंध इस कदर बिगड़ा हुआ है कि चीनी पद्धति में बनाये भारतीय भोजन तक का बहिष्कार करने का आह्वान एक केन्द्रीय मंत्री कर चुके हैं. ऐसे समय समकालीन चीनी कविता का ज़िक्र भी आपकी देशभक्ति को संदिग्ध ठहरा सकता है. लेकिन इसकी परवाह किये बिना, हमें हर तरह से समकालीन चीनी मानस को समझने की ज़रूरत है. और निश्चय ही कविता चीनी सर्जनात्मकता का एक विश्वसनीय साक्ष्य है. मेरे सामने है टुपेला प्रेस द्वारा प्रकाशित और मिंग दी द्वारा संपादित समकालीन चीनी कविता के अंग्रेजी अनुवाद का एक संचयन - न्यू कैथे. इसमें 1951 में जन्मे युवा दुवा से लेकर 1986 में जन्मे ली सुमिन तक की कविताएं दी गयी हैं. कविताओं की कुछ बानगियां हिन्दी में आगे कभी, अभी तो संपादक द्वारा कुछ कवियों से की गयी बातचीत से जो जानकारी मिलती है उसका एक विवरण:

पूछे जाने पर कि किन पश्चिमी कवियों का समकालीन चीनी कविता पर प्रभाव पड़ा है, जिन पश्चिमी कवियों का चीनी कवियों ने नामोल्लेख किया है उसमें यूरोप, अमरीका और लातीनी अमेरिका के लगभग सभी उल्लेखनीय महत्वपूर्ण कवि शामिल हैं. ईलियट, यीट्स, रिल्के, पाउण्ड, वैलेस स्टीवेंस, गिसबर्ग, जान एशवरी, शीमस हीनी, ऑडेन, बोदेलेयर, मलार्मे, रिम्बो, ट्राक्‍ल, सेलान, पास्तरनाक, मण्डलश्टाम, आख़्मातोवा, ब्रॉडस्की, मीवोष, हेवेर्ते, विटमेन, पाल वैलरी, बोर्खेस, क्वाफ़ी, मोन्ताले, रित्सोज़, सैं जान पर्स, ट्राम्सट्रोमर, नेरूदा, लोर्का, अदम जागेयावस्की, राबर्ट लोवेल, यहूदा अमीखाई, राबर्ट फ्रास्ट आदि आदि. ज़ाहिर है कि जो चीन इस समय सक्रिय है उस पर पश्चिमी साहित्य का जितना प्रभाव है उतना शायद इससे पहले कभी नहीं रहा है. यह भी मानना चाहिये कि इस प्रभावों से प्रतिकृत होते हुए चीनी कविता विश्व कविता में अपनी जगह बना रही है.

इन कवियों से संपादक ने जब यह प्रश्न पूछा कि आज की चीनी कविता पर एशियाई किन कवियों का प्रभाव है तो उसमें से अधिकांश ने यह स्वीकार किया कि ऐसा प्रभाव बहुत कम और क्षीण है. भारत से सिर्फ़ रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम दो-तीन कवियों ने लिया और एक ने प्राचीन भारतीय कविता का. बाक़ी जिन कवियों का ज़िक्र हुआ वे हैं ख़लील ज़िब्रान, उमर ख़य्याम, आदोनिस और तानीकावा मुन्तारो

भारतीय कविता बहुत हद तक चीनी कविता की तरह ही रही है. जिन कवियों का ज़िक्र चीनी कवियों ने किया है वे सब भारतीय कवियों के भी सुपरिचित हैं. दूसरी ओर, भारतीय कविता भी चीनी कविता की ही तरह अपनी एशियाई जड़ों से अपरिचित सी है और उसे किसी बड़े कवि की तो दूर महत्वपूर्ण एशियाई कवियों तक की ख़बर कम ही है. क्या इससे यह नतीजा निकालना एक अधीर सरलीकरण होगा कि दोनों ही देशों की कविता पश्चिम से आक्रान्त है और एशिया से बेख़बर?

लोरी की तरह सच

जान बर्जर कला-जगत् में एक विश्व-प्रसिद्ध कलालोचक रहे हैं जिन्होंने कला को देखने की विधियों और पिकासो की कला को समझने के लिए रेडिकल दृष्टि दी. उन्होंने उपन्यास भी लिखे जिनमें से एक को बुकर पुरस्कार मिला. बर्जर कवि भी थे और भारत के एक प्रकाशन-गृह कॉपर क्वाइन ने उनकी सारी कविताएं कलेक्ट्रेड पोएम्सके नाम से प्रकाशित की हैं. बहुत सुगठित कविताएं हैं जिनमें अंग्रेज़ी भाषा के अन्तःसंगीत का बड़ा सुघर और कल्पनाशील उपयोग है, उनमें से दो कविताएं अनुवाद में देखें:

प्रवासी शब्द

धरती के एक विवर में

मैं रख दूंगा सारे उच्चारण

अपनी मातृभाषा के

वहां वे पड़े रहेंगे

चींटियों द्वारा जमा की गयी

पाइन की सुइयों की तरह

एक दिन लड़खड़ाती चीख़

एक और यायावर की

उन्हें प्रज्वलित कर सकती है

तब गर्माहट-भरा और आश्वस्त

वह सुनेगा रात भर

लोरी की तरह सच

नेप्लाम

माँ, मुझे रोने दो

लैटरप्रेस नहीं

न टैलेक्स

न बेदाग़ भाषण

बुलेटिन

तबाही की, ढिठाई से

घोषणा करते हुए

लेकिन घाव के पृष्ठ

मां, मुझे बोलने दो

विशेषण नहीं

उनकी बदहाली के नक़्शे रंगने के लिए

न ही संज्ञाएं

कोटियां बनाती

यातना के परिवारों की

लेकिन क्रिया तकलीफ़ की

मेरी मातृभाषा खटखटाती है

वाक्य

जेल की दीवार पर

मां, मुझे लिखने दो

आवाज़ें

चीखतीं पराजय में

-अशोक वाजपेयी

Top    

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com