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एक ख़बरनवीस की बीहड़ डायरी डॉ राकेश पाठक हमारे समय के महत्वपूर्ण वरिष्ठ एवं गांधीवादी पत्रकार हैं। गांधी उनकी जीवनचर्या का हिस्सा हैं। पत्रकार होने के नाते उनके पास अनुभवों का खज़ाना है। उस ख़जाने में से एक पन्ना हिंदीनेस्ट ने मांग लिया था। बीहड़ डायरी
बाबा के साथ नरसिंह भगवान की आरती...! •डॉ.राकेश पाठक तीन दशक लम्बे पत्रकारिता के जीवन में यूं तो बेशुमार तजुर्बे हैं जो यादगार बन गये। कुछ खट्टे कुछ मीठे। देश-विदेश में फैले-पसरेइन तजुर्बों में एक किस्सा ऐसा भी है जो आज भी याद करके रोमांच हो जाता है।
बात उन दिनों की है जब अपन नवभारत, ग्वालियर में संपादक थे। बतौर रिपोर्टर चम्बल की डकैत समस्या पर खूब लिखा था। कई छोटे-मोटे इनामी डकैतों से मिला भी था और कुछेक को 'हाज़िर' भी करवाया था। लेकिन असल धमाका अभी बाकी था। ये धमाका हुआ लाखों के इनामी डकैत फक्कड़ से मुलाकात पर। उस दौर का सबसे बड़ा डकैत फक्कड़ बाबा चम्बल के इस पार यानी मध्य प्रदेश में ज्यादा सक्रिय था। वैसे वो यूपी, राजस्थान, दिल्ली तक वारदातें करता रहा था। महिला डकैत कुसमा नाइन, उसका दाहिना हाथ, छाया की तरह उसके साथ रहती थी। फक्कड़ दो दशक से ज्यादा से फरार था और कई राज्यों की पुलिस लाख कोशिशों के बाद भी उसकी परछाईं से भी दूर थी। असल में फक्कड़ जबरदस्त सतर्क और चालाक डकैत था। वो किसी पर भरोसा नहीं करता था न किसी बाहरी आदमी से मिलता था। अपने दिमाग में फितूर चढा कि फक्कड़ से मिलना ही है। संयोग से इटावा में अपन को एक बन्दा ऐसा मिल गया कि उसने फक्कड़ से तार जोड़ दिये। दरअसल फक्कड़ का पूरा नाम रामआसरे तिवारी है। हमारी माँ भी तिवारी, करहल (मैनपुरी) की रहने वालीं थीं। बस हमारे विश्वासपात्र बन्दे ने इसी 'तिवारी' के बहाने फक्कड़ से नातेदारी निकाल ली और उसे मिलने के लिये राजी कर लिया। सन दो हजार दो की सर्दियों के दिन थे। महीनों की कवायद के बाद खबर मिली कि फलां तारीख को फक्कड़ पचनदा क्षेत्र में कहीं मिलेगा। पचनदा यानी पंचनद लहार (मप्र) और जालौन (यूपी) के बीच एक ऐसा अबूझ बीहड़ इलाका है जहां एक जगह पांच नदियों चम्बल, यमुना, क्वारी, सिन्ध और पहूज़ नदियों का संगम होता है। अपन को अकेले लहार के आगे एक गांव में चाय-बीड़ी की गुमटी पर पहुंचने को कहा गया। पहचान के लिये अपन को गले में लाल गमछा डालना था। बस इसके आगे कुछ नहीं। अपन एक जीप से दोपहर बाद उस गांव पहुंच गये। गुमटी पर बहुत देर बैठे रहे, दो बार चाय भी पी ली, कोई नहीं आया। एक बारगी लगा कि अब आगे क्या! वापस लौट लिया जाये?? लेकिन कुछ देर बाद ही एक मोटर साइकिल सवार आया। गुमटी पर बीड़ी फूंकी और बैंच पर पास आकर बैठ गया। जै राम जी की पण्डित जी कह कर बोला- 'जीप यहीं छोड़ दो, मेरी मोटर साईकिल पर बैठ जाओ.' ड्राइवर को रुकने को कह कर अपन मोटर साईकिल पर सवार हो लिये। आधा घन्टे बाद मोटर साइकिल का सफ़र खेतों के बीच से होते हुये एक ट्यूब वेल पर थमा। यहां अपन को दूसरे आदमी के हवाले कर दिया गया। अब आगे का रास्ता पैदल तय करना था। खेतों के कुछ आगे बीहड़ दिखने लगे। हम कुछ देर बीहड़ में चलते रहे, मैंने साथ चल रहे आदमी से पूछा कि हम किधर जा रहे हैं लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। घनघोर बीहड़ में यह समझना ही मुश्किल था कि इतना चलने के बाद आखिर हम हैं किस दिशा में! कुछ देर बाद तीसरा आदमी मिला, अब हम उसके हवाले थे।
फ़िर वही बीहड़ का अबूझ रास्ता। चलते चलते आखिर शाम घिरने लगी तब फक्कड़ का
ठिकाना आया। मिट्टी के भरकों के बीच कुछ समतल जगह थी।चारों तरफ बन्दूकें थामे गिरोह के लोग पहरा दे रहे थे। बीच में फक्कड़ और कुसमा नाइन खड़े थे। अब हमारे सामने वो दस्यु सरगना खड़ा था जिसने दो दशक से ज्यादा समय से कई राज्यों की पुलिस को छका रखा था। जिस पर हत्या, अपहरण, लूट, डकैती के डेढ सौ से ज्यादा मुकदमे दर्ज थे। जिसकी फोटो तक पुलिस के रिकॉर्ड में नहीं थी। एक पल को शरीर में फुरफुरी सी दौड़ गई। डर भी लगा कि आखिर है तो डकैत ही, कहीं अपन को ही पकड़ कर बिठा लिया तो??
फक्कड़ ने राम जुहार के बाद बैठने को कहा। फ़िर अचानक उसे कुछ याद आया। बोला- "अरे पंडिज्जी, आप तौ हमाये भानैज लगत हौ, तुमाई अम्मा तिवारी हैं ओ हमहूं तिवारी हैं। तुम तौ हमाये 'मान्य' भये।" इतना कह कर फक्कड़ ने पांय लागन कह कर हमारे पांव छुये। देखादेखी कुसमा ने भी पैर छुये। (चम्बल क्षेत्र में भांजे को भानैज कहा जाता है और पैर पूजे जाते हैं।) बातचीत का सिलसिला चला तो वक्त का पता ही नहीं चला। लम्बी बात हुई। फक्कड़ तैयार नहीं था लेकिन अनुरोध करने पर उसने छोटे से केमरे से फोटो भी खिंचवाई। अब तक अन्धेरा घिर चुका था। दुरूह बीहड़ का अंधेरा कुछ ज्यादा ही घना था। अपन ने कहा कि अब चलना है तो फक्कड़ ने कहा- "संजा बिरियाँ हो गई है, आरती का बखत है। नैक रुक जाओ।" फ़िर उसने एल्युमिनियम की सन्दुकीया (पेटी) से भगवान नरसिंह की छोटी सी मूर्ति निकाली। लकड़ी के पटे पर लाल कपड़ा बिछा कर भगवान को बिठाया। फक्कड़ ने बताया कि वो नरसिंह भगवान की रोज पूजा करता है और ये मूर्ति हमेशा उसके साथ रहती है। तश्तरी में दीपक रख कर पूजा हुई। '"ओम जय जगदीश हरे " भी पूरे गिरोह ने समवेत स्वर में गाया। यह सब इतना रोमांचक था कि शब्दों में बयान नहीं हो सकता। अपन ने भी तश्तरी लेकर आरती की। प्रसाद में गुड़ की डिलिया दी गई। तब तक खाने का वक्त हो चला था। पास ही गिरोह के लोग लकड़ी जला कर खाना बना रहे थे। कुसमा ने कहा- "महराज सबेरे के निकरे होओगे, भूख लगि आई होयेगी। दाल टिक्कर खाय लेओ।" अपने राम को सचमुच भूख लगी थी सो मना नहीं किया गया। फक्कड़ और अपन ने साथ बैठ कर दाल के साथ घी में डूबे हुये मोटे मोटे टिक्कर खाये।बातचीत में अपन ने फक्कड़ से कहा कि- ' बाबा,कब तक इस तरह भागते रहोगे,उमर भी हो रही है,सरेंडर क्यों नहीं कर देते?' फक्कड़ ने कहा- अबै नहीं कर रये...आगे सोचेंगे। बस और कुछ नहीं कहा। रात हो चली थी। अब लौटना ही था। फक्कड़ ने कुसमा से कहा कि पण्डित जी को टीका कर के विदा करो। कुसमा ने उसी पूजा की तश्तरी में से रोली चावल लेकर हमारे माथे पर टीका किया, पैर छुये और मुट्ठी में कुछ रुपए थमा दिये। कहा कि ये नेग है। फक्कड़ ने कहा कि पहले हम लोग यहां से निकलेंगे उसके थोड़ी देर बाद आप रवाना होंगे। चंद मिनट में गिरोह ने सारा समान समेट लिया। हमारे पास उस तीसरे आदमी को छोड़ा गया जो यहां तक लेकर आया था। फक्कड़,कुसमा और पूरा गिरोह कुछ ही देर में बीहड़,भरकों में बिना पद्चाप किये चला गया। चंबल घाटी के बीहड़ ऐसे हैं कि एक टीले के पीछे जाने के बाद कौन कहां गया पता ही नहीं चलता। आधा घन्टे बाद वो आदमी अपन को लेकर रवाना हुआ।जैसे आये थे ठीक वैसे ही वापस गांव की गुमटी तक पहुंचे। आधी रात बाद ग्वालियर आये। तीसरे दिन जब 'नवभारत' में आधे पेज से ज्यादा की स्टोरी छपी तो ग्वालियर से भोपाल और इटावा से लखनऊ तक हल्ला मच गया। सबसे ज्यादा परेशान उत्तर प्रदेश की पुलिस हुई। इटावा से लखनऊ तक के जिस फक्कड़ की तस्वीर तक से वंचित थे उसका अख़बार में इंटरव्यू छप जाना उनके लिये सचमुच परेशानी का सबब ही था। प्रसंगवश: फक्कड़ ने कुसमा और कुछ साथियों के साथ सं 2003 में एक राजनेता के जरिये रावतपुरा आश्रम,भिंड में आत्म समर्पण किया। इन दिनों वो कानपुर जेल में है। |
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