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दुःख किस काँधे पर

- कथाकार डॉ सत्यनारायण की डायरी के चुनिंदा अंश 

क साहित्यकार की मनोभूमि उसके अपने समय के गवाक्षों का ऐसा प्रतिबिम्ब होती है जो उसकी रचनाओं में बखूबी परिलक्षित होती है । पर फिर भी मन के कोनों में छुपे वे भाव किसी अनगिन रहस्य की तरह सामने आते हैं ,जो पाठक तक नहीं पहुंचते और डायरी के अनाम पन्नों में दर्ज होते जाते हैं।

राजस्थान साहित्य अकादमी ,आचार्य निरंजन, डॉ घासीराम वर्मा सम्मान ,के के बिड़ला फाउंडेशन द्वारा बिहारी पुरस्कार आदि से सम्मानित सुपरिचित कथाकार डॉ सत्यनारायण ने अपनी डायरी लेखन को प्रकाशित कर इस विधा को लोकप्रियता के नये आयाम दिए। उनकी कृतियाँ- फटी जेब से एक दिन ,सितम्बर में रात ,इस आदमी को पढ़ो आदि साहित्य जगत के फलक पर जगमगा रही हैं। प्रसिद्ध पत्रिका कथादेश में यायावर की डायरी नाम से बरसों-बरस स्तम्भ चला । तारीख की खंजड़ी के नाम से पूर्व में एक डायरी प्रकाशित हुई । डायरी विधा पर वर्ष २०१९ में उनकी किताब आई दुःख किस काँधे पर । मन का लेखा जोखा शीर्षक से इसकी भूमिका में डॉ सत्यनारायण लिखते हैं अपने ही लिखे विशेषकर डायरी को पढना मेरे लिए घाव पर आये खरुंट को कुरेदने की तरह होता है । अपनी अन्य रचनाओं को मैं बार बार पढ़ता हूँ पर डायरी ? हाथ जैसे कांपने लगते हैं बक्सा खोलता हूं और हर बार धकेल देता हूं मैं इसे कभी उस तरह लिख नहीं पाया जिस तरह डायरियां लिखी जाती हैं । अक्सर बचता रहा हूँ , जबकी ताप से हर हमेश चौतरफा घिरा रहता हूँ । कुछ अपने कुछ पराये । जब लगता है कि कोई बात है जो लगातार परेशान किए हुए हैं किसी को कह नहीं पा रहा हूं तब डायरी के पन्ने ही मेरी शरणगाह होते हैं।  डायरी में जाने कब से लिख रहा हूँ ।  एक तरह से होश संभाला तबसे एक बक्से में पड़ी डायरियां इसकी गवाह हैं । घर ही नहीं अपनी पढ़ाई जगहों पर कहीं भी ,कभी भी यह हमेशा मेरे साथ रहे हैं।  अपने मन का लेखा-जोखा लिखकर मैं मुक्त हुआ।  इधर-उधर बिखरे पन्ने में लिखी डायरी के अंशों को एकत्र कर दोबारा टीपना मेरे लिए उस कालबोध को पुनः जीने की तरह है जिसके बीच से गुजर कर आया हूं । एक आश्चर्य की तरह दूर खड़ा जैसे मैं खुद को ही देखता हूं कि क्या यह मैं ही था जो यहां तक आया है ।

 

डायरी के चुनिंदा अंश

 1 जनवरी 1999 -यह रात का पहला पहर था । घर जनवरी की ठंड में धूज रहा था । ओस की परत जमने लगी थी । हर बार मैं जाते हुए सोचता, आज दरवाजा जोर से खड़खड़ाऊंगा । पर दरवाजा खोलते ही कांपने लगता । वह दिन और आज का यह दिन मैं दरवाजे के बाहर ही भटक रहा हूं ।

22 फरवरी 1999- प्रेम आएगा एक दिन।  हमारे तमाम दुःख हरता हुआ । रोम- रोम में फ़ैल जायेगी उसकी सुवास । कभी सपने में दिखाई देती उसकी छवि को बाथ में भर लेंगे सचमुच ।  पेड़, हवा ,दरख्त, पशु-पक्षियों के संग गुनगुनाते।हम सब पहले जैसे हो जायेंगे । तब कितनी अच्छी होगी यह धरती । अभी-अभी जन्मे बच्चे की तरह । तब बार-बार चूमने की इच्छा होगी इस धरती को ।

28 फरवरी 1999 - आज जैसलमेर से लौटा तो बेहद खाली था । मुझे अपने खाली होने का एहसास तो तब ज्यादा होता है जब मैं अपने ही पास से लौटता हूं पिछले 5 दिन जैसे मैं सिर्फ अपने साथ था एक अकेला। सबसे परे । यह कैसी त्रासदी है कि अब मैं अपने आप से बहुत कम मिल पाता हूं ।

29 मार्च 1999 जयपुर -भेड़ बकरी चराने वाला एक दिन अचानक भागकर शहर चला आया और पढ़ने लगा। किताबों का जीवन लुभा रहा था । उसे ही फिर जीवन में खोजने लगा ।  और एक दिन लगा कि अब वह इस जीवन में ओपरा है।  अब लौटा भी नहीं जा सकता था । लौटता भी तो क्या वे उसे स्वीकारते जहाँ से वह आया था  । अंततः वह एक अजनबी ही है वह दुनिया हो या यह दुनिया हो  ।

24 अगस्त 2000 जोधपुर- जाने कब वह दिन आया कि मैं प्रतीक्षारत हो उठा  ।  मैं ही नहीं मेरा कमरा मेरी थोड़ी सी चीजें  । मेरे सुख मेरे दुख  । सुख की झाईं पड़ते ही दुख याद आने लगता है और दुख तो हमेशा से सुख की बाट देख ही रहा है ।  महीन  होठों से छनकर आती उजले  दांतो की खिलखिल ।  बारीक-सी आवाज और प्रेम पगी लबालब आंखें मेरे चौतरफ डोल रही हैं और मैं अपनी तमाम चीजों के साथ तय नहीं कर पा रहा हूं कि कैसे आवभगत करें ।  पर पता चला, शाम तक जैसे वह मेरी खातिरदारी कर रही है और मैं उस दुख को अभी से याद कर रहा हूं जो इस सुख के बाद आने वाला है । 

26 अगस्त 2000-चौतरफा पवित्र और अपनेपन से भरी सुवास है  । खिलखिल करती उजले दांतों वाली हंसी है ।  बिखरे बालों की लट है  । इधर उधर डोलती काया है  । तस्वीरों से किताबों से निकलकर मेरे इस सूने और उजाड़ घर को आबाद करती /और मैं ही नहीं मेरा घर ,घर की तमाम चीजें उसकी छुअन से थिरक रही हैं  । और मैं मैं उसका था हाथ थाम कर बार-बार पूछ रहा हूं कि तुम सचमुच तुम हो या सपना और वह रह-रहकर खिलखिला उठी है और मैं रह -रहकर फिर पूछता हूं  ।

25 मई 2001 जयपुर -घर जहाँ हम कभी भी कैसी भी स्थिति में लौट सकें जहां दो आंखें आपकी बाट देखती हों।  दो हाथ हों जिनका स्पर्श दिन भर का दुख-दर्द सोख ले ।  दो बोल जो किसी भी संकट में ताकत दें  ।  पर औचक घर जाने कब छूटा कि फिर लौट नहीं सका ।  जब जब नजदीक जाने की कोशिश की वह और परे सरकता गया  ।

4 जुलाई 2001 -इतनी पवित्र और प्रेम पगी हंसी  । लौटने  के बाद मैं  देर तक सोचता रहा इस खोड़ली होती दुनिया को क्या ऐसी ही हंसी नहीं बचाए हुए है ।  मैंने उससे कहना चाहा कि बरसों-बरस हो गए मेरी हंसी तो जाने कब कहां लोप हो गई  । बस सिर्फ एक बार हल्की सी गूंजी थी बरसों- बरस पहले और मैं लटूम गया था  । अब तो शायद यह बरसों नहीं जन्मों पुरानी बात है ।

22 अक्टूबर 2001 जयपुर - सारे दुखों ने दोस्ती कर फिर एक बार मुझे दबोचा । शायद उन्हें ईर्ष्या हुई होगी कि पिछले दिनों से मैं क्यों लगातार हंस   रहा हूं ।

23 दिसंबर 2001 जयपुर -बचपन की हंसी जिसे याद कर रोना आता है  । कोई रुदन जिसे याद कर हंसना  । एक चेहरा जो बरसों -बरस आज भी वैसा ही है  । उम्र की कोई खरोंच नहीं  । सर्दियों की किसी गहराती सांझ में माँ की उदास  आंखें  । किसी सुबह पिता का अनायास ठहाका या अपना ही कोई  अजाना दुख जिसके कारण अकेले में फूट-फूटकर  रोये थे । जीवन के कितने कितने बारीक कतरे जो समय की खोखल में जाने कहां जा कर बैठ जाते हैं  ।

यह सब कहीं जीवित रहते हैं तो भीतर या डायरी में ,पर हम भी क्या वैसे ही जीवित रह पाते हैं ?काफ्का नहीं हैं आज हमारे बीच लेकिन उनकी डायरी में टंगी फैलिस की हंसी आज भी वैसे ही ठहरी है ,और वहीं ठहरा है दिसंबर 1911 का उनका दुख जो इस दिसंबर 2001 में मेरा दुःख बन जाता है । हमारे इन तमाम परिवर्तनों की साक्षी हमारी डायरी होती है यदि हम उससे ऐसे ही बात करें जैसे रात के अंधेरे में खुद से ।

22 जून 2007 जयपुर- दिल दो शयनकक्ष वाला घर होता है सुख को जोर से नहीं हंसना चाहिए, उससे दूसरे कमरे में सोया हुआ दुख जाग जाएगा।- फ्रांज काफ्का

यह एक ऐसी सांझ है ,पता नहीं सुख है या दुख दोनों एकमेक हो गए हैं।और मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि दुख ही सुख में बदल गया या सुख जो अब दुख हो गया कोई तारीख बरसों बरस बाद भी कभी इस तरह रेत सकती है। क्या वही तारीख बाद में बहुत बाद में जीवन ही नहीं हो जाती ,जो वैसा ही बना रहता है अंत तक। एक ही तारीख में सब तारीख और हम सिर्फ कैलेंडर के पन्ने बदलते रहते हैं ।

25 जून 2007 जयपुर-काफ्का के शब्दों में यथार्थ के मुकाबले कल्पना में कम फिसलने होती हैं ।

16 जून 2008-मेरे घर के दरख़्तों पर चिड़ियों की चहचहाहट सैंकड़ों गीतों के मुखड़े , चेखव के अनुसार उनके पास इतने-इतने गीत हैं कि वे सिर्फ मुखड़े सुनाती हैं। साँझ होते ही उनके दिन भर के गीत मेरे इस घर में गूंज उठते हैं। कहीं भी हूं शाम एक बार घर जरूर लौटता हूं उनके गीत सुनने के लिए। दिनभर की थकी-हारी वे जल्दी ही सो जाती हैं और उसके बाद में बेचैन हो उठता हूं और फिर घर से निकल पड़ता हूं ।लेकिन इस शहर में ज्यादा ठौर- ठिकाने भी तो नहीं ।रघु था ,तब हम देर रात तक भटकते थे और अब जैसे यह शहर जल्दी सो जाता है ।एक खौफ का साया भी जो हम ज्यों- ज्यों सभ्य एवं शिक्षित होते जा रहे हैं ,ज्यादा बढ़ता जा रहा है।

25 जुलाई 2011 जोधपुर मैं बार बार उन संबंधों पर लटूमता हूं जो मुझसे छूट गए या एक तरह से छूटते जा रहे हैं ।शायद इसलिए कि थोड़ी देर के लिए झूठे ही सही मैं शब्दों पर विश्वास कर बैठता हूँ । शब्द होते भी हैं पवित्र और अपनापे से भरे । हम ही उन्हें विश्वसनीयऔर प्राणवान बनाते हैं और झूठे भी। 25 फरवरी 2012 -किताबें मन का शोक, दिल का डर या अभाव की हूक कम नहीं करती सिर्फ सब की आंख बचाकर चुपके से दुखते सिर के नीचे सिरहाना  रख देती हैं - निर्मल वर्मा

15 अगस्त 2012 -मैं रोज डायरी लिखने की सोचता हूं कहीं भी कभी भी रास्ते चलते विचार आते हैं। मैं शाम तक के लिए मुल्तवी कर देता हूं। शाम को रात तक के लिए और रात को अगले दिन तक के लिए और यह टलना चलता रहता है। दिनों बाद कोई अनुभव कोई एहसास कोई पंक्ति कौंधती है और मैं फिर लिखने बैठता हूं और उसे टाल देता हूं मुझे उन लोगों से ईर्ष्या होती है जो ठहर कर, तसल्ली से, समयबद्ध ढंग से लिखते हैं। मेरा लिखा हुआ अधिकतर भागते -दौड़ते ,बस- रेल, चाय की थड़ी हो या किसी दरख्त की छाया में हुआ है।

17 अगस्त 2012 -यह अजीब बात है कि जब तुम दो अलग-अलग दुखों के लिए रोने लगते हो और पता नहीं चलता, कौन से आंसू कौनसे दुख के हैं -

विटगेनष्टाइन (एक पत्र में)

20 सितंबर 2012 जयपुर -जो शब्दों का घर बनाते हैं वे तमाम घरों से निर्वासित कर दिए जाते हैं।-फ्रांज काफ्का

24 फरवरी 2013मैं दो डग भरता हूं और पांवों में छाले पड़ जाते हैं ।

1 मार्च 2013 जब-जब भी मैं बाहर जाता हूं तो कस्बे ठहरे हुए लगते हैं ,गाँव रुलते हुए और शहर के लोग हड़बड़ी में न जाने कहां भागते हुए ।और मैं ?मैं क्या हूँ ? सोचते ही कनपटियाँ बल उठती हैं ।

 5 अप्रैल 2013 -कल हसन जी ने कहा कि अपने साहित्य में आप स्वयं ही नायक हैं ।शायद इसलिए आप इतना कम लिख पाते हैं ।जो नही लिखा वह आपको लिखना चाहिए क्योंकि आप एक रहस्यमय व्यक्ति हैं ।उनकी बात पर मैं देर तक हंसता रहा और जब अब इस सांझ अपने घर में बैठा हूँ और सोच रहा हूँ कि क्या कोई मेरी बात सुनने वाला भी होगा ? जब जब सोचा और कहने की सोची वह दूर होता चला गया ,अपने घनिष्ठ मित्रों ने भी साथ छोड़ दिया जैसे रघुनंदन त्रिवेदी और मेरे ठेठ बचपन का यार गोपी और लक्ष्मण तो इस दुनिया में ही न जाने कहाँ गुम हो गये । बरसों पहले एक अनाम जगह से खत आया था । तब मैंने उसको लेकर एक कहानी लिखी थी जिसका शीर्षक था खुराफाती। काश मैं वैसा खुराफाती हो पाता।

5 अगस्त 2013 -इन दिनों मुझे गुस्सा बिल्कुल नहीं आता जो कुछ भी कोई कहता है ,सिर माथे ।मेरे बगल वाले कमरे में रहने वाले लड़के रोज कुछ ना कुछ खुराफात करते रहते हैं ,पर मैं हंस देता हूं ।हम जिंदगी से हिसाब चुकता कर रहे होते हैं तब क्या पाई-पाई का हिसाब करना चाहिए। हसन जी ने एक बार कहा था कि मुझे आत्मकथा लिखनी चाहिए पर एक आम आदमी के संघर्षों से इतर क्या है मेरी जिंदगी में ! और फिर मायकोवस्की के अनुसार- समाप्त हो गया है जीवन

पारस्परिक पीड़ाओं ,घावों और अपमानों की

बेकार है अब गिनती ।

1 फरवरी 2014 -छोटी-छोटी दिक्कतें इस लायक नहीं कि उनके लिए रोया जाये जब बड़ी दिक्कतें आती हैं तो आप रोना भूल जाते हैं ।-कोर चाक

10 फरवरी 2014 -लेखक की कोई जगह कहीं नहीं बची है ।कोई स्पेस उसका रह नहीं गया है ।अपने गांव में भी नहीं ।अपने घर में भी नहीं रह गया है। -उदय प्रकाश

 14 फरवरी 2014- दुख की आगल कभी भी खटखटा जाती है सुख की सांकल पूरी खुल भी नहीं पाती ।मैं पहले ही समझ जाता हूं शायद यही कारण है कि कभी सुख की कल्पना भी नहीं कर पाता ।

15 जून 2014- व्यक्तिगत त्रासदियाँ हमें बाहर से काट देती हैं और हमारा आंतरिक हमें जीने नहीं देता ।

मैं अकेले में अपने से बात करते हुए बाहर चल पड़ता हूं और बाहर चलते हुए फिर अकेले में आ जाता हूं। यही है अब तक की यात्रा

5जुलाई 2014 -आदमी को अपने बचपन का एक टुकड़ा हमेशा अपने पास रख लेना चाहिए- ऋत्विक घटक

 जिंदगी तकिए के सहारे लेटे हुए नहीं जी जाती।- मोहन राकेश

25 जुलाई2014- मुझे सबसे अधिक जो चीज विचलित करती है ,वह है विस्थापन । पुरखे उजड़ कर बसते रहे और मैं उजड़कर उजड़ता रहा ।वैसे बरसों  जयपुर रहा पर वहां भी एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले तक कई कमरे ।

कितना कुछ लाकर जोधपुर पहुंचा पर क्या यहाँ भी टिक पाया ?मैं इसलिए भागता रहा कि जीवन यापन का कुछ जुगाड़ होगा । हुआ भी पर कितनी गिद्ध निगाहें और अब सेवानिवृत्ति।और अब ? अब ?मैं  कुछ तय नहीं कर पा रहा । क्या सब ऐसे ही नहीं चल सकता जैसे चल रहा है

13 जनवरी 2015- प्रभात से बात करना जैसे अपने से बात करना इस खोड़ली दुनिया के बीच उसका वह आत्मीय चेहरा। फोन पर ठहरी-ठहरी आवाज। डॉक्टर साहब अपने को क्या करना मेरा लगातार देर तक बड़बड़ाना। जाने क्या बक जाता हूं ।अंत में ऐसे कैसे पार पड़ेगी ?मैं कहता हूं ।देखते हैं डॉक्टर साहब वह कहता है और मैं कुछ नहीं कह पाता।

17जनवरी 2015 -सुख न जाने किस अटारी में कब दुबक गया ।आंख खुली तब से सिर्फ दुख है ।

20 जनवरी 2015-विनोद पदरज मेरा सबसे आत्मीय जो बरसों-बरस बाद भी वैसा का वैसा ।सप्ताह दस दिन में फोन कि काईं हो रया छ महाराज ?और मैं चाहता हुआ भी कुछ नहीं कह पाता ।वह धीरे से कहता है कि काई बात जरूर छ,एक दिन खो तो सही यही वाक्य होता है कि मैं लटूम जाता हूँ ।पर फिर भी कुछ कह नहीं पाता ।आज भी यही हुआ ।उसने कहा क्यूँ गड़बड़ जरुर छ? हाँ अत्त्ती कि क्यूँ पैदा हुआ अर फेर मैं ।कहकर मैंने फोन रख दिया ।थोड़ी देर बाद फिर फोन कि-मैं जोधपुर आरयों छूँ ,क्यूँ बताओ तो सही महाराज ।

25 फरवरी 2015 -मैं कहीं भी ज्यादा देर टिक नहीं पाता ।न लेखन में न जीवन में । लोगों के प्रति भी यह उकताहट जल्दी ही हो जाती है क्योंकि जल्द ही वे अपनी औकात पर उतर आते हैं ।और मैं उनका चेहरा देखता हुआ वहां से फिर और कहीं चल देता हूँ ।दूसरे नहीं अपने प्रति भी यह उकताहट भरी हुई है पर खुद से दूर हटकर कहां जाऊं ।

28 जनवरी 2015 मैं अपनी कल्पना हर वस्तु जैसी कर सकता हूं क्योंकि मैं कुछ भी नहीं हूं अगर मैं कुछ होता तो कल्पना नहीं कर पाता एक सहायक अकाउंटेंट यह सपना देख सकता है कि वह रोमन सम्राट है लेकिन इंग्लैंड का राजा यह सपना नहीं देख सकता क्योंकि उसके सपनों में इंग्लैंड के राजा को जो वह है उससे अलग राजा समझने की मनाही है उसकी असलियत उसे जिंदगी महसूस करने की इजाजत नहीं देती।फरनान्दो पैसोआ

30 जनवरी 2015 -असल में तो हम जीवन जब जी रहे होते हैं बहुत कठिन होता है पर हमें इसका एहसास इसलिए नहीं होता कि तब हम उस पल को जी रहे होते हैं ।सोचते बाद में है ,लेकिन तब तक वह जा चुका होता है ।बाद में हमें लगता है कि हम कैसे वहाँ से निकल कर आये ।

1फरवरी 2015- यह उतरती सर्दी की दोपहर है ,आसमान से सुनहरी धूप झर रही है ।बादलों की मलाई के बीच से झरती ये धूप शरीर को सुहा रही है ।किस्मत ने मुझे दो चीज दी ।आवारगी और सपने देखना ।

2 फरवरी 2015 जयपुर- काश कोई ईश्वर होता और मेरी उदास आत्मा का संगीत सुनता ।

22 फरवरी 2015 -कुछ लिख लेता हूं तो लगता है जिन्दगी से कुछ छीन लिया है ।पर ज्यादातर तो जिन्दगी मुझी से मेरा लेती रही है मेरे दिन ,रात ,महीने, वर्ष ।

मृत्यु मेरी पीठ में छुपा एक नरम छुरा है।मलयज 

21 अप्रैल 2015 - आज रेलवे स्टेडियम के बाहर फुटपाथ पर अपना ठीया  बनाए बणजारे के डेरे उजाड़ दिए गये । पिछले दो तीन बरसों से वहीं उनका जनम मरण परण था ।घूंघट में लिपटी बालिका वधू थी तो एक बीमार बुढ़िया को घेरे बाल वृद्ध। औचक दो चार  बुलडोजर, कुछ सिपाही, कुछ कारिंदे आते हैं डरे सहमें वे अपने उठाऊ चूल्हों को उठाएं उससे पहले ही तोड़ दिए जाते हैं।एक नवजात व प्रसूता को रेलवे कॉलोनी की एक महिला अपने घर में जगह देती है।

8 नवंबर 2015सुभ औचक कृष्ण कल्पित का फोन की कहां हो ?मैंने कहा जयपुर ।दोपहर दोनों एम् आई रोड के काफी हाउस में ।बाद में शहर में निरुदेश्य भटकते रहे । एक चौपड़ से दूसरी चौपड़ ।भूले बिसरे मित्र स्मृतियों में डूबते-उतराते रहे । भीतर इतनी टूट फूट है कि पता नहीं कब क्या हो जाए ।दायें हाथ को उपर आकाश की तरफ एक झटका देकर कल्पित ने कहा। मैने हैरत से उसकी ओर देखा ।चलो सांझ हो गयी अब इस रात की अगवानी में  कहीं बैठें ।जब हम बैठे तो रात कभी की छत पर आ कर हमसे पहले बैठ गयी थी।

9 नवंबर 2015 -तब सिर्फ चीजें देख सकते थे अब खरीद सकते हो पर चीजों की तरफ देखते भी नहीं ।अब तुम चेहरों को देखते हो ,बाजार होते चेहरे ,बाजार को खरीदते चेहरे, बाजार में रूलते-पलते चेहरे ।आखिर तुम स्वयं कौन सा चेहरा हो? जो किसी को रास नहीं आया या  तुम स्वयं ही नहीं खप सके इन सबके बीच !

4 जनवरी 2016-प्रेम करते हुए भी क्या हम सम्पूर्ण दे पाते हैं?

5 फरवरी2016-जरूरी नहीं कि किसी के संग साथ ही हमारा अकेलापन दूर हो ।कोई दरख़्त कोई जीव भी उसको दूर कर सकता है पर फिर भी लगता है कि कोई प्रत्युत्तर नहीं और हम फिर अकेले हो जाते हैं।

15 फरवरी 2016 - मैं अपनी एकांत की ओर ऐसे भागता हूं जैसे नदियां समुद्र की ओर ।-फ्रांज काफ्का

20 जून 2016  - क्या उम्र के साथ स्मृति घनीभूत होती जाती है या हम ही ताउम्र उसी चक्र में घूमते रहते हैं।

16 मई 2016 -आखिर दुख में किस कांधे पर माथा टिकाएं? सारे झुके हुए हैं बोझ से नहीं, विनम्रता से भी नहीं।

8 जुलाई 2017- शायद वह अचानक मिल जाए गलियों में बाजार में, घर में मोहल्ले में ।शायद सपनें में कहीं रास्ते चलते जिसे मैं अपने मन की बात कह सकूं जो बरसों बरस से मेरे भीतर ही भीतर गूमड़े की तरह फूल रही है।

9 जुलाई 2017- गफलत में ,यदि मैंने कभी आत्मकथा लिखी तो उसका शीर्षक यही होगा । क्योंकि यह जीवन पता नहीं कैसे गफलत में ही बीत गया।

- प्रस्तुति  - सोनू चौधरी

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