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मुंबई डायरी/ जयंती रंगनाथन

वो छोकरा

मुंबई, साल 1989, 20 जुलाई

सुबह के 8 बजकर 37 मिनट। कोलीवाड़ा स्टेशन पर अपार भीड़। बारिश के मौसम में अकसर सुबह के समय एकाध ट्रेन कैंसिल हो जाती है। दूर से प्लेटफॉर्म पर ट्रेन आने के संकेत। सिगनल डाउन हो गया है, धक्कामुक्की के बीच अपना हैडबैग संभालना भारी। ऊपर से यह चिंता भी कि इतनी भीड़-भाड़ में लेडीज फर्स्ट क्लास में दूसरे लोग ना घुस जाएं। उमस, पसीना और मछली की सडांध के बकबकाते बदबू के बीच ट्रेन धीरे से प्लेटफॉर्म पर आती है। कई जोड़ी पांव तैयार। ट्रेन रुकने से पहले ठसाठस भर गई है। मुश्किल से कोई अंदर चढ़ पा रहा है। दरवाजे पर लटकी औरतें यह भी नहीं कह पा रही है कि जरा थांबा, पुढ़े ट्रेन आहे। ना, सबको इसी ट्रेन में चढ़ना है। समय पर ऑफिस पहुंचना है। मस्टर में साइन करना है। मैं अंदर हूं। आधे साइज के डिब्बे में इतनी मुंडियां दिख रही हैं कि सांस लेना मुश्किल हुआ जा रहा है। ऊपर से ट्रेन है कि ठिठकी हुई है हार्न हुआ, ट्रेन सरकी और अर्ररे अर्ररे, इधर काय कू चढ़ता है की आवाजें तेज होने लगीं। भीड़ के बीच से देखा, एक दस-ग्यारह साल (या तेरह-चौदह?) का लड़का। हॉफ पैंट, बेहद ढीली शर्ट। काले कंधे तक झूलते घुंघराले बाल। धम से नीचे बैठ कर वह चालू हो गया- तिरछी टोपी वाले, बाबू भोलेभाले... दो सप्ताह पहले (6 जुलाई, 1989)रिलीज त्रिदेव का हिट गाना। सुर में गा रहा था। बीच-बीच में वह अंगुलियों के बीच फंसे चिकने पत्थर से थाप देता और मुंह से टप, टप्पी, टप्प की आवाज निकालता। आधा गाना गा कर उसने पैसे मांगने शुरू किए। उन दिनों एक रुपया बड़ी बात थी। मेरे पास आया, मैंने नहीं दिए। उसने कुछ अकड़ कर कहा, ‘मैडम, पैसे दो।’ ‘किस बात के?’ ‘गाना गाएला है।’ चेहरे पर वही बदतमीजी। ‘मैंने तो नहीं कहा था।’ अचानक वह कुछ तेजी से बोल कर आगे निकल गया। शायद दूसरे-तीसरे स्टेशन के बाद वह उतर गया। ऑफिस पहुंच कर भी याद रहा वो लड़का। आवाज अच्छी थी। सबसे अच्छी उसकी मस्ती और अक्खड़पन था। मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी उसे दोबारा देखूंगी।

मुंबई, साल 1989, 28 जुलाई

सप्ताह भर बाद वडाला स्टेशन से मुझे बांद्रा के लिए ट्रेन लेनी थी। फिर वहां से आगे गोरेगांव फिल्म सिटी जाना था, फिल्म की शूटिंग कवर करने। प्लेटफॉर्म पर लोकल ट्रेन के इंतजार में टहल रही थी। अगस्त महीने की उमस भरी सड़ी गर्मी। दोपहर का समय। प्लेटफॉर्म पर ज्यादा भीड़ नहीं थी। कोल्डड्रिंक के स्टाल से अपने लिए एक थम्स अप खरीदा और समय काटने के लिए मैगजीन स्टाल पर पत्रिकाओं को उलटने-पुलटने लगी। अचानक शोर सुन कर पीछे मुड़ी। चारेक कचरा बीनने वाले बच्चे भागते हुए मेरी तरफ कर आ रहे थे। उनके पीछे एक बच्चा। पास आया तो पहचान लिया- वही तिरछी टोपी गाना गाने वाला। सामने भाग रहे बच्चे तेजी से आगे बढ़ गए। एक बच्चे ने हाथ का पत्थर जोर से उसकी तरफ फेंका। बचते-बचते भी तिरछी टोपी के माथे पर लग गया। गाली देते हुए वह जमीन पर बैठ गया। मेरे बिल्कुल सामने। मेरे कुछ बोलने से पहले ही मैगजीन वाले ने उसे डपट कर कहा, ‘चलो, निकलो यहां से। कूड़ा फैला रखा है यहां।’ उस लड़के ने माथे पर से हाथ निकाला। खून की पतली धारा सी बह कर आंख तक आ गई।... मैंने कहा, ‘चोट ज्यादा लग गई है। पास में कोई डॉक्टर के पास जा कर पट्टी करवाओ।’ आज अपनी उस बुद्धि पर तरस आता है। कहां के डॉक्टर, कहां की मरहम पट्टी। सड़क पर पलने-बढ़ने वाले बच्चों को इनमें से किसी चीज की दरकार नहीं होती। उस बालक ने जवाब देने के बजाय अपने हाथ से माथा पोंछ लिया। मैंने थोड़ा जोर से पूछा, ‘मारा-पीटी क्यों कर रहे थे?’ उसने मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया। एक नंबर का अक्खड़। मैं थोड़ा पास चली गई, ‘उस दिन तुम ट्रेन में गाना गा रहे थे...’ ‘वो तो रोज गाता हूं। मेरा काम है।’ ‘कहां रहते हो?’ उसने कोई जवाब नहीं दिया, बस अपनी कमीज से माथे का घाव पोंछता रहा। अबकि थोड़ी तुर्शी से मैंने पूछा, ‘अरे, तुम तो बहुत अक्खड़ हो।’ उसके माथे पर बल आए, पर वह जानकर सिर झुकाए बैठा रहा। अबकि मैंने उसे गौर से देखा... इतने सालों बाद भी मुझे अच्छी तरह याद है हीरा के बाल, घुंघराले, मटमैले और बढ़े हुए। गोल चेहरा, गर्मी से तपा हुआ आबनूसी रंग और बेहद चमचमाती आंखें... कुछ तो बात थी पट्टे में। वह उठने को हुआ। मैंने पूछ लिया, ‘कुछ ठंडा पियोगे? थम्स अप? ऑरेंज?’ उसकी आंखों की चमक बढ़ी,‘माजा... ’ मुंबई का फेमस आमवाला ड्रिंक। मैं बोतल खरीद कर ले आई। उसके हाथ में पकड़ाया। एक सांस में वह पूरी बोतल गटक गया। खुद ही खाली बोतल दुकान में रख आया। इस बार उसके तेवर अलग थे। मेरे पास आ कर उसने कहा, ‘मैडम, वडाला की चाली में रहता है। भाड़े पर। बहुत मारामारी है स्साला उधर। एकदम गपचप। बोले तो हरामी टाइप लोंग उधर कू रहते हैं। वहीं का टपोरी लोग था ये बच्चा। मैंने वड़ा-पाव खरीदा, पैसा देने को वेा बाजू मुड़ा, तब तक ये टपोरी लोग मेरा वड़ा-पाव ले कर फंटूश हो गएला। मैं भी इनको छोड़ेगा नहीं। एक-एक के कान के नीचे बजाएगा।’

‘तुमने गाना कहां से सीखा?’

‘उस्ताद से।’

उसका उस्ताद कौन है, पूछने से पहले ट्रेन आ गई। मैं दौड़ कर फर्स्ट क्लास में चढ़ गई। लड़का नीचे खड़ा रह गया। मैंने चलती ट्रेन से हाथ हिलाया, उसने भी पलट कर हाथ हिलाया और पता नहीं क्या हुआ, तेज चलती ट्रेन में वह दौड़ कर चढ़ गया। डिब्बे की दूसरी लेडीज चिल्लाने लगी-ऐ छोकरे, मरना है क्या? वह हंसने लगा। मैं दरवाजे के पास खड़ी थी, वो मेरे पास आ कर नीचे बैठ गया। वहां खड़ी दूसरी औरतें उससे बच कर इधर-उधर चली गईं। उसे शायद इसकी आदत थी। मैंने उससे पूछा, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’ कुछ सोच कर उसने कहा,‘हीरा।’ ‘इतना सोच कर क्यों बोले? असली नाम नहीं है क्या तुम्हारा?’ उसने सिर हिलाया, ‘मालूम नहीं। उस्ताद का नाम हीरा था। मैंने अपुन का भी वइच नाम रख लिया।’ ‘तुम आज गाना क्यों नहीं गा रहे?’ ‘मूड नहीं है।...’ मैं मुंह घुमा कर ट्रेन से बाहर की तरफ देखने लगी। अचानक हीरा ने अपने हाथ से थाप देते हुए मुंह से टिप्प, टिप्प, टिप्प की आवाज निकाली और जोर से ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा,’ गाने लगा। कयामत से कयामत तक एक साल पहले रिलीज हुई थी। इस समय भी उसके गाने खूब चल रहे थे। हीरा ने दो-तीन महिलाओ को टहोक कर पैसे मांगे, किसी ने नहीं दिए। वह शांत हो कर बैठ गया। मैं उसे गौर से देख रही थी, ‘अब क्या करोगे? आज तो पैसे मिले नहीं?’ ‘अर्रे, बहुत पैसा हैं अपुन के पास। देखो, मेरा पॉकिट में कितना चेंज रखेला है,’ उसने खनखना कर दिखाया। ‘तो आज काम फिनिश? अब क्या करोगे? घर जाओगे?’ ‘अभी कहां मैडम। अभी तो बहुत काम बाकी होगा। पहले उन टपोरी बच्चा लोगों को सबक सिखाने का। ’ हीरा की आवाज थोड़ी तेज थी। आस-पास खड़ी कुछ महिलाओं ने इंग्लिश में मुझसे कहा कि मैं सड़क छाप इस बच्चे के मुंह ना लगूं। इन लोगों से ज्यादा बोलना-चालना ठीक नहीं। एक एंग्लो इंडियन घुटने तक लंबी फ्रॉक पहनी अधेड़ महिला ने मुझे चेतावनी दे डाली, ‘लिसन गर्ल, दीज काइंड ऑफ अर्चिन विल टैक यू फॉर ए राइड। डोंट मिक्स विद देम। यू अंडरस्टैंड।’ मैंने सिर हिलाया। हीरा समझ गया कि उसके ही बारे में बात हो रही है। उसने पलट कर पूछा, ‘क्या बोल रहे हैं सब जनाना लोग? मुझसे बात नहीं करने का? मैं तुम्हारा पर्स छीन कर भाग जाएगा?’

मुझे हंसी आ गई, ‘हां, ऐसा करते हो क्या तुम?’

 ‘ नको मैडम। अपुन चोर नहीं है। मेहनत करते पैसा कमाता है।’

एंग्लो इंडियन महिला मुझे गुस्से से देखने लगी, ‘तुमको बोला ना, ऐसा लोगों को इधर नहीं लाने का। तुमको इनके साथ बात करना मंगता तो सेकेंड क्लास में जाने का। फर्स्ट क्लास में नहीं अलाउड है रैग पिकर्स।’

बांद्रा आते ही मैं उतर गई, मेरे पीछे हीरा भी। मुझे प्लेटफॉर्म पार करना था। मैं जल्दी में थी। बात तो करना चाहती थी हीरा से, यह भी उसे बताना चाहती थी कि मैं उसके बारे में एक लेख लिखना चाहती हूं। बांद्रा की भीड़ में वो खो गया और मैं तेजी से सीढि़यों की तरफ बढ़ गई।

मुंबई, साल 1990, 18 मार्च

इतवार का दिन। मैं अम्मा के साथ कांदिवली से मौसी के घर चेंबूर जा रही थी। (हम लोग एंटॉप हिल से कांदिवली रहने चले गए थे) स्टेशन पर जबरदस्त भीड़। मेरे पास ट्रेन का मंथली पास था, पर अम्मा के लिए टिकट लेना था। लाइन में खड़ी थी। अचानक सामने से हीरा आ गया। मेरे सामने खड़े एक बुजुर्ग से आदमी से गिड़गिड़ा कर पैसे मांगने लगा,‘साबजी, दस रुपए दे दो। मां बीमार है। अस्पताल ले के जाना पड़ेंगा।’ वह कहते-कहते रोने लगा। बुजुर्ग ने आगे जाने का इशारा किया। हीरा की नजरें मुझसे मिलीं। चेहरे पर पहचान के भाव आए। अबकि वो धीरे से बोला, ‘मैडमजी, दस रुपए...मां,’ कहते-कहते वह रुक गया। मैंने जरा जोर से कहा, ‘हीरा, तुम हीरा हो ना? तुम्हारी मां है? सच में?’ वह पल भर को रुका और बिना कुछ कहे प्लेटफॉर्म के अंदर भाग गया। मैं टिकट ले कर अम्मा के साथ प्लेटफॉर्म पर आई। खाली बैंच पर बैठे ही थे कि हीरा दौड़ता हुआ आया और मेरे पास नीचे बैठ गया, ‘तुम्हारे पास दस रुपए होंगा?’ ‘क्यों, मां के इलाज के लिए चाहिए?’ उसने सिर झुका लिया, ‘मेरे ऊपर बहुत कर्जा हो गएला है। नहीं चुकाएंगा, तो बहुत मार पड़ेगा।’ ‘क्यों हो गया कर्जा?’ ‘जुआ खेला था। हार गया। दो सौ रुपए से ज्यादा।’ मैंने पर्स खोल कर दस रुपए निकाले। हीरा जल्दी से बोला, ‘तुम पचास रुपए देगा, आई शपथ, मैं सात दिन के अंदर चुका देंगा।’ ‘कैसे चुकाओगे? तुम्हारे ऊपर पहले से इतना कर्ज है। क्या फिर से जुआ खेलोगे?’ उसने शायद मेरी बात ठीक से सुनी नहीं। बस जल्दी-जल्दी बड़बड़ करता रहा, ‘मैं सच्ची बोलता है। पैसा लौटा देगा।’ ‘मुझे तो यह भी नहीं पता कि तुम कहां रहते हो? क्या करते हो?’ ‘ मेरा पता लिख लेने का। धारावी का है। उधरीच रहता है। दो बटा तीन सौ चौसठ, नागौरी मक्का मदीना के बाजू, इंदिरा नगर। मैं जास्ती नहीं बोलता। ’ मैंने पर्स से पचास रुपए निकाल कर दे दिया, ‘देख हीरा, अगले शनिवार को शाम को पांच बजे मैं कांदिवली स्टेशन पर आऊंगी। तू तब पैसे वापस कर देना।’

‘नक्की!’ वह मेरे हाथ से नोट ले कर दौड़ता हुआ चला गया। अम्मा की आंखों में कौतूहल था। मैंने उन्हें हीरा के बारे में बताया। अम्मा हंसने लगीं, ‘तेरे पचास रुपए तो गए।’ ‘जाने दो अम्मा। मैं इसके बारे में एक लेख लिखूंगी। कभी न कभी तो जरूर लिखूंगी। एक अनुभव के लिए पचास रुपए ज्यादा तो नहीं।’

मुंबई, साल 1990, 25 अगस्त

शनिवार का दिन। भाई रवि से नाश्ते के दौरान बातों-बातों में हीरा का जिक्र आया। उसने कहा, ‘इतना अच्छा कैरेक्टर मिला है तुझे। तू लिखती क्यों नहीं उसके बारे में?’

 मैंने बहस की,‘क्या लिखूं? ऐसी चीजें कहीं नहीं छपतीं।’ ‘छपने के लिए नहीं, अपने लिए लिख।’

 ‘अब वो मुझे कहां मिलेगा?’

 ‘उसने अपना एड्रेस दिया है ना? चल उसे ढूंढते हैं।’ रवि पीछे पड़ गया। मैंने टालने की कोशिश की। शनिवार हमें आधे दिन की छुट्टी होती थी। तय हुआ कि वह मेरे ऑफिस आएगा। मैं उसे बियर पिलाऊंगी, लंच कराऊंगी। इसके बाद वो मुझे धारावी ले कर जाएगा। तय अनुसार बियर और लंच के बाद मैंने टालना चाहा, पर वो अड़ा रहा। हम दोनों उसकी मोटरसाइकिल पर धारावी चल पड़े। इंदिरा नगर में नागौरी मक्का मदीना फेमस जगह थी। वहां एक वड़ा पाव वाले से पूछा तो उसने बता दिया कि हीरा कहां रहता है। संकरी गलियां। दोनों तरफ से बहती हुई नालियां। कच्चे घर। दरवाजे पर लटका बेपरदा करता हुआ बदरंग परदा। हर तरफ लोग। हर तरफ शोर। अजीब किस्म की गंध। घरों के आगे कूड़ा। कूड़े पर खेलते बच्चे। हीरा...वो ही गाना गाने वाला...अच्छा वो। इधर से पांच खोली छोड़ कर आगे जाने का। उधर शकीला है। उससे पूछने का। शकीला के नाम से लगा कि अधेड़, खिचड़ी बालों वाली, पान चबाती मोहतरमा होंगी। खोली का परदा अच्छा सा था। नीले रंग के छींट के फूलों वाला। शकीला के नाम से जो लड़की सामने आई, वो बाईसेक साल की गठीली शरीर वाली युवती निकली। आंखों में सवाल। हीरा को क्यों पूछ रहे हो? कैसे जानते हो? कुछ गड़बड़ किया क्या? मैं अचकचा गई। हीरा है क्या? ‘नई, वो तो सुबु निकल जाता है। कोई काम है तो मेरे को बताने का।’ उसे बताना पड़ा कि हीरा ने पैसे लिए हैं। वापस लेने आए हैं। उसकी आंखों में शंका उभर आई, ‘कित्ते?’ पचास कहने की हिम्मत नहीं हुई। शर्म आई, क्या सोचेगी, पचास रुपए के लिए इतनी दूर चली आई। मुंह से पांच सौ निकल गया। उसके चेहरे पर गुस्से के भाव आए। पर कुछ संभल कर बोली, ‘अपना एड्रेस मेरे कू दे कर जाओ। मैं उसको बोलेंगा, तुमसे मिलने को। खैर रखो, पैसा तुमकू मिल जाएंगा। पर बाई...तुम उसको कायकू इतना पैसा दिया?’ उसने कहा था कि कोई उधारी चुकाना है। कहने के बाद लगा कि उसे नहीं कहना चाहिए था। पता नहीं वह हीरा की क्या लगती है? शकीला को पता देना पड़ा। मना करने के बावजूद वह अड़ गई कि हीरा तुम्हारे पास आ कर पैसा चुका देगा। तुम कोई केस मत कर देना। रवि ने बता दिया था मैडम पत्रकार हैं। मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया का पता दे दिया। वीटी स्टेशन के सामने। शकीला से बहुत पूछने की कोशिश की कि हीरा क्या करता है? कहां मिलेगा। पर उसने नहीं बताया।

मुंबई, साल 1990, 27 अगस्त

सोमवार को लंच टाइम में जब रिसेप्शन से फोन आया कि तुमसे कोई मिलने आया है, तो मुझे अंदाज नहीं था कि वो हीरा होगा। वो बिल्डिंग के बाहर खड़ा था। हीरा गुस्से में था। मुझे देखते ही लड़ने लगा, ‘मेरी खोली में तुम क्यों आई? झूठ क्यों बोला कि अपुन ने पांच सौ रुपए उधारी लिया?’ मैंने समझाने की कोशिश की, पर वह जोर-जोर से बोल रहा था। मुझे लगा कहीं मुझ पर हमला ना कर दे। किसी तरह उसे रोक कर मैंने कहा ,‘हीरा, मुझे तुमसे पैसा नहीं चाहिए। मेरी बात सुनो। चलो कहीं चल कर चाय पीते हैं। 

‘नको।’

बहुत मुश्किल से उसे चाय पीने के लिए तैयार करवाया। टाइम्स ऑफ इंडिया के पीछे खाऊ गली में ले गई। वहां भी वह लड़ता रहा। मैंने अचानक कहा, ‘हीरा, मेरे साथ जो आदमी आया था तुम्हारे घर, वो फिल्म बनाता है। वो मिलना चाहता था तुमसे?’

 ‘मेरे ऊपर फिल्म बनाएगा?’ मैंने हां में सिर हिलाया। थोड़ा सा शांत हुआ। मैं उसे विठ्ठल्स रेस्तरां ले गई। उसके लिए भेलपुरी मंगवाया और अपने लिए रगड़ा पेटीज। हीरा की आंखों में अब भी शंका थी। मैंने उसे पूरा भेलपुरी खाने दिया। इसके साथ काला खट्टा ड्रिंक भी। थोड़ा सहज हुआ तो मैंने पूछा, ‘तुम अपनी स्टोरी मुझे बताओगे? क्या काम करते हो? कहां रहते हो? पूरी जिंदगी।’ वह चुप था। कुरेदा तो बोला, ‘अपुन क्या बताएगा? ऐसा कुछ तो किएला नहीं।’ ‘ठीक है। मैं जो सवाल पूंछूं, उसके जवाब दे देना।’ वह सोच में पड़ गया। मैंने कहा, ‘देखो हीरा, कोई जबरदस्ती नहीं है। बोलना है, बोलो। नहीं तो कोई बात नहीं।’

 ‘तुमको अपना पैसा नहीं चाहिए?’

‘नहीं।’

हीरा ने अपने बारे में बताना शुरू किया। बचपन के बारे में बहुत याद नहीं। बेलगांव में उसके पिता सड़कों पर गाना-बजाना करते थे। उसे याद नहीं कि उसके पिता मर गए या उनको छोड़ गए। मां ने दूसरी शादी की। हीरा उस समय शायद तीन साल का था। उसे यह भी याद नहीं कि वह मुंबई कैसे आया।

‘तुम कितने साल के हो हीरा?’

 ‘नई मालूम। अठ्रा का, उन्नीस का भी हो सकता है। ’ ‘पर तुम तो तेरह साल के दिखते हो।’

‘जाड़्या है ना...होगा अपुन को नहीं पता।’

 ‘वो शकीला कौन है, जिसके घर में तुम रहते हो?’

 वो सोचने लगा। फिर धीरे से बोला, ‘वो तीन पत्ती का धंधा करती है। उसका खोली में हम लोग जुआ खेलने को जाता।’

‘अरे। तुमने उसकी उधारी की है?’

हीरा ने सिर झुका लिया। इसके बाद उसने कुछ नहीं बताया। हीरा ने बहुत पुरानी सी घिसी जीन्स पहनी थी। मैंने कहा,

‘तुमको नए कपड़े चाहिए? नई पैंट, शर्ट?’ उसकी आंखें चमकने लगीं। ‘ठीक है। तुम बुधवार को आ जाना यहां। मैं तुम्हें ले जाऊंगी कपड़े खरीदवाने।’

हम दोनों वीटी स्टेशन तक साथ आए। हीरा शांत था। मैं ऑफिस की तरफ मुड़ी, वो स्टेशन की तरफ। जाते-जाते मुड़ कर बोला, ‘परसों नक्की ना?’  मेरे हां में सिर हिलाते ही वो दौड़ता हुआ वहां से चला गया।

मुंबई, साल 1990, 29 अगस्त  

बुधवार को करीब तीन बजे वो आया। मुझे ऑफिस में काम था। मैंने कहा--मुझको एक घंटा लगेगा काम खत्म करने में । उसने कहा, ‘वांदा नहीं, मैं इधरीच किधर टाइमपास कर लेगा।’ मुझे ऑफिस से निकलते-निकलते पांच बज गए। हीरा टाइम्स ऑफ इंडिया के बाहर खड़ा था। मुझे देखते ही लपक कर आया। मैं उसे वीटी स्टेशन के दाईं ओर बने फुटपाथ पर ले गई। वहां रेडिमेड कपड़ों की रेहड़ी लगती थी। मुझसे पहले हीरा कपड़े उलट-पुलट कर देखने लगा। जिस जीन्स पर उसका दिल आया, उसकी कीमत दो सौ रुपए थी। मोलभाव के बाद डेढ़ सौ। मुझे ज्यादा लगा। मैं सोच रही थी कि सौ रुपए के अंदर काम बन जाएगा। अब शर्ट की गुंजाइश नहीं थी। मैंने दो-तीन बार कहा--महंगा है, चलो कहीं ओर चलते हैं। पर हीरा वहीं खड़ा रहा। मैंने पैसे दे दिए। जीन्स हाथ में आते ही हीरा गायब हो गया। दुकान के पीछे जा कर उसने अपनी पुरानी पेंट उतार कर जीन्स पहन ली। अब घिसे हुए लाल टीशर्ट के साथ नई कड़क जीन्स अजीब सी लग रही थी। जीन्स में उसके पांव और भी रिकेटी से दिख रहे थे। ना जाने क्यों अब उसके साथ चलने में मैं अजीब सा महसूस करने लगी। हीरा ने खुद ही कहा, ‘मैं ना आज पाव भाजी खाएगा।’ पाव भाजी की जगह वहां से दो फर्लांग की दूरी पर पंचम पूरी वाले की दुकान थी। मैं उसे वहां ले गई। फर्स्ट फ्लोर पर लकड़ी की सीढि़यां चढ़ कर हम एक बैंच पर बैठ गए। दो प्लेट पूरी भाजी मंगवाई। कद्दू की खट्टी-मीठी सब्जी और कड़क पूरियां। साथ में मिर्च का अचार। खाने के बाद हीरा ने पूछा, ‘तुम मेरे बारे में स्टोरी लिखने को बोल रहा था। कैसा स्टोरी लिखेगा? फिल्म बनाएगा क्या?’ मुझे हंसी आ गई। पंचम पूरी वाले की दुकान से निकल कर हम सड़क पर आ गए। मैं हीरा का इंटरव्यू लेने के मूड में कतई नहीं थी। पर यह भी लग रहा था कि जो बातें करना है, कर लेती हूं। कितनी बार बुलाऊंगी उसे? फिर आज नई जीन्स की मेहरबानी से कुछ तो बताएगा। मैं उसे ले कर वीटी स्टेशन के सामने बने बस स्टॉप पर आ गई। नरीमन पाइंट जाने वाली बसें भर कर आ रही थी। ऑफिस छूटने का समय था। दस मिनट बाद मैंने टैक्सी कर लिया। हीरा टैक्सी में आगे बैठा। टैक्सी ड्राइवर ने मुझसे सवाल करना शुरू कर दिया, ‘मैडम जी, कौन है ये छोकरा? कहां ले कर जा रही हो? मुंबई अभी पहले की तरह नहीं रहा। थोड़ा चौकस रहा करो।’ गुस्सा आया, झींक उठी पर ऊपर से शांत दिखती हुई बोली, ‘भैया, मैं पत्रकार हूं।’ टैक्सी मैंने चर्चगेट से आगे रुकवा दी। मैं और हीरा पैदल चलते-चलते नरीमन पाइंट पहुंचे। सागर किनारे। सीमेंट की बेंच। शाम ढल चुकी थी। कुछ लोग वॉक कर रहे थे, कुछ दौड़ रहे थे। मूंगफली बेचने वाले का मेला सा लगा था। समंदर से अच्छी सी पुरवाई बह रही थी। एक सीमेंट की बेंच पर बैठ कर मैंने हीरा को बैठने का इशारा किया। वो बैठ गया। उसकी आंखों में अजीब सी चमक थी। ‘पहली बार आए हो यहां?’

उसने हां में सिर हिलाया,‘अपुन जुहू चौपाटी गएला है। पर इधर कभी नहीं आया।’

मैंने उसे कुछ पल मुंबई के सागर तट का आनंद लेने दिया। मेरे आसपास गर्म और भुनी मूंगफली की खूशबू तैर रही थी।

मैंने बातचीत शुरू की,‘हीरा, आज गोलमोल जवाब मत देना। सच्ची बात बोलना।’

हीरा ने सिर हिलाया। मैंने पूछना शुरू किया, ‘तुम अपने उस्ताद के बारे में कुछ बताओ। कहां रहते थे, कैसे दिखते थे और तुम उनसे कैसे मिले।’

हीरा बिना वजह के हंसने लगा। फिर एकाएक चुप हो गया।

‘इसमें हंसने की क्या बात है? बताना है कि नहीं?’

‘बोल रहा है ना...अपुन को एकदम नक्की याद नहीं... अपुन दादर स्टेशन पर कबाड़ उठाने का काम करता था। कप- प्लेट, खाली बोटल, और भी बहुत सारा कबाड़। वहीं स्टेशन पर खा लेता, वहीं सो लेता। मेरे को मेरा साथी लोग दिवैया बुलाते थे। मैं उनमें सबसे छोटा। काम मैं बहुत करता था। सबके हिस्से का कबाड़ जुटा लेता। पर मेरा पैसा दूसरे लोग खा लेते। ऐसे ही टाइम गुजरता गया। मुझको याद था दादर स्टेशन पर कब कौन सी गाड़ी आएंगा, कौन सी लेट होएंगा। अपुन का एक अलग लाइफ था। मौज था। कोई गुस्सा करने वाला नहीं, कोई टाइम खोटी करने वाला नहीं। फिर एक रोज जोगी से मेरा झगड़ा हो गया। कबाड़ में मेरे को एक लेडीज पर्स मिला था। लाल रंग का लेडीज पर्स। अंदर भी भौत सामान था। पाउडर, गीडर, लिपटिक, थोड़ा पैसा भी। पर जोगी मेरे से छीन कर भागा। मैं भी पीछे दौड़ा। मेरे कबाड़ में एक कांच का बोटल था, मैंने खींच के मारा। जोगी के सिर पर लगा और सिर फूट गया। खून-खून। मैं डर गया। दूसरे साथी लोग बोले--भाग नहीं तो पोलिस तेरे को पकड़ लेगी। मैं भाग गया। दूसरा लोकल ट्रेन पकड़ा तो कल्याण स्टेशन पहुंच गया। थोड़ा दिन उधर प्लेट फार्म पर रहा। कोई काम नहीं मिला। भूख लगती थी, तो भीख मांग लेता। उधरीच सो लेता। कभी कुली बन जाता, कभी पाकेट मार लेता। पता नहीं कितना दिन बीत गया। प्लेटफॉर्म का पुलिस ने मुझको वहां से भगा दिया। वो वापस मेरे को दादर स्टेशन छोड़ कर गए। इधर अब कोई नहीं था। मेरा पुराना साथी लोग पता नहीं कहां चला गया था। कबाड़ उठाने के लिए भी नया गैंग आ गया। बहुत बुरा टाइम था। एक दिन रात को मैं ट्रेन में किधर तो जा रहा था। ट्रेन में बहुत गर्दी था। मैं दरवाजे के पास बैठा था। उसी ट्रेन में उस्ताद भी था। उस्ताद का आंख नहीं था। बोले तो सूरदास। हाथ में ढपली पकड़ कर गा रहा था। दाढ़ी- बीढ़ी। बाल का चोटी करके रखता था। वह कोई गाना गा रहा था, मैं हंसने लगा। मेरे को पैर से लात मारा। बोला--तू मेरा मजाक उड़ाता है, तू मर जाएगा। उसके साथ जितने लड़के थे, वो भी मेरे को लात मारने लगे। मैं उधरीच बेहोश हो गया। जब होश आया तो मैं बोरिवली के प्लेटफॉर्म में पड़ा था। उस्ताद ने मेरे को उठा कर चाय पिलाया और उस दिन से मैं उसके साथ रहने लगा। मेरे को गाना गाना सिखाया। ऐसा मैं जो टप्प टप्प टप्प का आवाज निकालता है ना, उस्ताद निकालता था। अपुन फटाक से सीख लिया। उस्ताद गाता, और मैं मुंह से आवाज निकालता। उस्ताद बहुत मारता था। जो हाथ में मिला, उससे मारता। इतना दफा चोट लगा। बर्तन-भांडी किसी से भी। साइन और कुर्ला के बीच नाली के पास जो चाली है, उधर रहता। मुझसे उस्ताद खाना बनाने को बोलता। नमक अधिक पड़ गया तो चांटा। चावल ज्यास्ती पक गया तो बाल खींच कर मारता। रोज मार खाता। आदत पड़ गया। बदन सूज जाता। हर बखत खून निकलता रहता। पर...आदत पड़ गया। चाली में हमारा खोली के पास एक मुसलमानी रहती। उस्ताद को शक हो गया कि मैं उस पर लाइन मारता है। सच्ची बोलता है, मैं ऐसा नहीं किया। इसके बाद तो मेरे पीछे पड़ गया। हर घड़ी मेरे को कोसता। गाली देता। मारता। एक दिन गुस्से में मैंने उसका चावल में कॉकरोच का दवाई मिला दिया। रात भर उस्ताद ने उलटी किया। सुबह दवाखाने ले कर गया। उसका हालत बहुत पतला था। पर उसको अपुन पर शक नहीं हुआ। वो बिस्तर पर पड़ गया। अपुन ने उसका सेवा किया। उसका उलटी साफ किया, गू साफ किया। खाना बना कर खिलाया। पैसे का एकदम वांदा। उस्ताद का जेब खाली। उसका दवादारू का खर्चा। मैं काम पर जाने लगा। उस्ताद के जैसे गाता। पहले वो लीडर था, मैं पीछे-पीछे। अभी मैं सब कुछ। सब पूछते नाम क्या है? मेरे को अपुन को दिवैया नाम भंकस लगा। हीरा बोलने लगा अपुन को। अपने उस्ताद का नाम। हीरा बरोबर है ना? सब बोलते हैं तू हीरा के माफिक गोरा नहीं है। मैं बोलता, परवाह नक्को। मेरा आवाज है हीरा के माफिक। कितना दिन हो गया... ऐसे ही चलता था सबकुछ। मैं पैसा कमा कर लाता। उस्ताद के लिए खाना बनाता। उसको खातिर करता। और वो क्या करता? मारता, गुस्सा करता। गाली देता। उस्ताद बिस्तर से उठता नहीं था। मैं पैसा ले कर आता, उस्ताद पूरा रख लेता। गुस्सा करता कि तू गांजा पीता है, मेरे को शेंडी लगाता है। तुमीच बताओ, मेरे को गुस्सा नहीं आएगा? मैं भी उसको जवाब देने लगा। वो मेरे को जलील करने लगा। ट्रेन में अपना कुछ साथी लोग बन गया था। वो वडाला में रहता था। मैं एक दिन उधर गया। रात को दारू पिया, मस्ती किया। पूरा पैसा उड़ा दिया। अगले दिन उस्ताद के पास गया, तो वो बोला-रात को किधर था? मैं झूठ बोला कि टुल्ला पकड़ लिया था। उस्ताद पकड़ लिया कि मैं झूठ बोल रहा है। वो बोला--मेरे को टुल्ला से मिलने का है। मैं कुछ जवाब दिया तो वो भड़क गया। वो सूरदास था, पर निशाना एकदम फर्स्ट क्लास था। अपने हाथ का डंडा जोर से घुमा कर उसने फंेका। मेरा माथा फूट गया। ये देखो, निशान। मैं गिर गया। कोई बगल वाला मेरे को दवाखाना ले गया। इंजेक्शन दिलाया। मुंडी को डॉक्टर ने सिला। तभीच मैंने डिसाइड कर लिया अब उस्ताद के पास नहीं रहेगा। मेरा टाइम हो गया उधर से निकलने का। मेरा एक दोस्त था। बोले तो ट्रेन मेइच पहचान हुआ। वो पॉकेट मारता था। एकदम हीरो का माफिक दिखता था। मेरे को उसका याद आया। वो वडाला में किधर तो रहता था। बहुत हरामी टाइप का था। गांजा पीता, बियर बार में जाता, छोकरी लोगों पर पैसा फेंकता, और भी बहुत कुछ करता। पर मेरे को अच्छा लगता था। अनिल कपूर का भौत बड़ा फैन। वैसे ही मुच्छा रखता, वैसे ही बात करता। नाम भी उसने मुन्ना रखा था अपना। (तेजाब में हीरो अनिल कपूर का नाम मुन्ना था।) उसको ढूंढके मैं वडाला गया। दो दिन तक स्टेशन पर बिताया। वहीं मुन्ना मेरे को मिलने आया। मैंने बोला, मुन्ना मेरे को तेरे साथ रहने का। वो बोला--चल। वडाली का चाली में रहता था मुन्ना। एकदम हीरो का माफिक। टीवी, वीसीआर सबकुछ। दारू पीता, चिकन खाता। मस्त। मेरे को बोला--तू भी गाना-बीना सूरदास वाला काम छोड़। पॉकेट मारी में ज्यास्ती पैसा है। शान है। मैं उसके साथ एंटाप हिल में बियर बार गया। छोकरी लोगों का डांस देखा। गांजा पिया। मेरे को उसने सिखाया कैसे पॉकेट मारने का। कैसे ब्लेड मारने का। पहली दफा ये तुम्हारा परेल स्टेशन में पॉकेट मारने गया। पकड़ा गया। इतना धुनाई हुआ कि मेरा हाथ टूट गया। (मुझे याद आ रहा है कि जब पहली बार मैंने हीरा को देखा था, उसके हाथ में पट्टी बंधी थी।) मुन्ना का दोस्त लोग मेरा मजाक बनाता था। उसका खोली में रोज रात को धमाल। मेरे से घर का काम करवाता। मेरा हाथ टुटेला था। पर भी मैं खाना बनाता, कपड़ा साफ करता, भांडी घिसता। ऐसा लाइफ हो गया था अपुन का। उस्ताद से बचा तो एक मुन्ना मिल गया। मेरा पाकेटमारी का धंधा नहीं चला, तो मैं फिर से ट्रेन में गाना गाने का बिजनेस करने लगा। मेरे को थोड़ा बहुत पैसा मिल जाता। अगर मौका लगा तो जेब भी साफ कर लेता। मुन्ना ने मेरे को जुआ का आदत लगाया। तीन पत्ता। मैं रोज हार जाता। सारा पैसा मुन्ना का दोस्त लोग ले लेता। मेरे को मुन्ना ने गलत काम पे लगाया...

 गलत काम? मैं रुकी।

 हीरा सोच कर फिर से बोलने लगा, ‘अभी छोड़ो ना। हम लोगों का लाइफ ऐसाइच चलता है। हमारा खोली में बच्चा लोग भी सेफ नहीं है। वो तो उस्ताद भी करवाता था। किसको बोलेगा? फिर खाली-पीली मजा लेने का।’

‘अच्छा फिर? तुमने कभी मुन्ना को गलत काम करने से मना नहीं किया?’

हीरा तुरंत बोला, ‘सब लोग करता है। मुन्ना को फॉरेनर लोग फ्रेंड था। एक जार्ज करके आदमी आता था हमारी चाली पर। हम लोगों को फॉरेन का चॉकलेट देता, जूता देता। उसीके साथ भेजता था मुन्ना मेरे को। जार्ज जो बोलता, मेरे को समझ में नहीं आता। बांद्रा में किधर तो एक फ्लैट में ले कर जाता था टैक्सी से। पहले बोलता, स्नान करके आने का। फिर पाउडर-बीडर डालता। बिरयानी खिलाता। उसके बाद...शुरू में थोड़ा प्रॉब्लम हुआ। फिर चलता था। पैसा भी देता था। मुन्ना को भी, मेरे को भी। हर बार उसका घर में नया आदमी आता। एक बार मेरे को जार्जी बोला--गोआ चल। मैं बोला-नको। मेरे को डर लगा। पता नहीं उधर जाने के बाद मैं इधर मुंबई में आएगा नहीं आएगा। मुन्ना गयेला था गोआ।’

इसके बाद हीरा ने जो मुझे बताया, वो चौंकाने वाला था। हीरा शकीला के पास रहने कैसे आया? मुन्ना ने उसे शकीला को बेच दिया था, हीरा को नहीं पता कितने रुपए में। पर उस पर बहुत सारा कर्जा हो गया था मुन्ना का। मुन्ना या तो उसे जार्ज को बेच देता या शकीला को। शकीला जुए का अड्डा चलाती थी, जहां मुन्ना और हीरा जैसे टपोरी अपनी मेहनत की कमाई लुटाते थे। शकीला मुन्ना से अपने मतलब का काम करवाती थी। हीरा की बात से समझ में आया कि स्मगलिंग का कुछ काम करवाती थी। हीरा आगे कुछ बताने से बचने लगा। वह उठ कर चहलकदमी करने लगा।

अचानक उसने कहा, ‘मेरे को जाने का। नहीं तो बीबी बहुत गुस्सा करेगी।’ बीबी यानी शकीला। शकीला को वह बीबी कहता था। मैं उठ गई। समंदर में दूर कहीं स्टीमर की आवाज आ रही थी।

 मैंने पूछा, ‘कुछ खाओगे?’ हीरा ने नहीं में सिर हिलाया। हम दोनों चलने लगे। चर्चगेट स्टेशन की तरफ। हीरा कुछ अनमना सा लगा। मैंने पूछा, ‘शकीला को बोल कर नहीं आए तुम?’ हीरा के चेहरे पर अचानक तनाव झलक गया, ‘मरने का नहीं है अपुन का। बाप रे। वो तो चिमटा दाग देगी।’ ‘तुमको कब तक उसका काम करना होगा?’ हीरा कुछ सोचने लगा, ‘दो-तीन साल। पर लगता नहीं कि वो अपुन को छोड़ेगा।’

‘क्यों?’

 ‘वो मेरे से शादी बनाना चाहती है।’

 मुझे लगा मैंने ठीक से सुना नहीं। मैंने टोक कर पूछा, ‘क्या कह रहे थे तुम?’

हीरा चुप रहा। मैंने उसका कंधा झकझोर कर अबकि कुछ सख्त आवाज में कहा, ‘तुम आधी बात बता कर चुप क्यों हो जाते हो? ठीक से बताओ ना...’

‘बोल तो दिया।’ उसकी आवाज में रुखाई थी। या दर्द? या कुछ और? मुझे झुरझुरी सी हो आई। शकीला का चेहरा आंखों के सामने आ गया। भरे-पूरे शरीर की औरत। बहुत मुश्किल से हीरा यह बताने को तैयार हुआ कि शकीला के पैसे चुकाने के लिए उसके सामने बस यही रास्ता है। चर्चगेट स्टेशन आ चुका था। मुझे ट्रेन पकड़नी थी। उसने कहा, ‘मैं वीटी से ट्रेन लेगा। इधर से अपुन को उलटा पडे़ंगा।’ मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था। मैंने पर्स में हाथ डाल कर सौ का नोट निकाला और उसके हाथ में देते हुए कहा, ‘तुम बस से चले जाना। देखो हीरा, शकीला से शादी करके अपना लाइफ चौपट मत करो। तुमको कोई जरूरत लगे, तो मेरे पास आना। ’ उसने सिर हिलाया और नोट को मुठ्ठी में दबा कर वहां से भागता हुआ चला गया।

मुंबई, साल 1991, 24 मार्च 

शनिवार को ऑफिस आधे दिन का होता था। एक बजे छुट्टी हो जाती। मैं लंच करने के बाद चाय पी कर निकलती। अगर किसी से मिलना होता, इंटरव्यू के सिलसिले में तो सीधे वहां निकल जाती, वरना घर। उस दिन चाय पीते और गप्प लड़ाते देर हो गई। तीन बज गए। आराम से चौथे माले के ऑफिस से नीचे उतरी। जैसे ही मैं टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग से वीटी स्टेशन की तरफ बढ़ी, मेरे सामने आ गया-हीरा। लंबे समय बाद उसे देख रही थी। बीच में उसके बारे में सोचा भी, पर ना मुझसे मिलने आया और ना मेरी हिम्मत उससे मिलने धारावी जाने की हुई।

इस बार उसे बाल बढ़े हुए थे, एकदम गंदे और जट पड़े हुए। रूखा सा चेहरा। घिसी हुई शर्ट। पास आते ही एक अजीब सी गंध आई। बाद में पता चला कि वह चरस की गंध थी। हीरा की आंखें लाल थीं। कंधे पर एक झोला था। पता नहीं वह कितनी देर से नीचे खड़ा था। उसने बताया कि सिक्योरिटी ने कह दिया था कि आज आधे दिन की छुट्टी होती है और धर्मयुग का पूरा स्टॉफ चला गया है। फिर तुम क्यों नहीं गए?

 मिलने का था तुमसे!

 पैसा चाहिए?

हीरा सोचने लगा, फिर धीरे से बोला, ‘बहुत भूख लगा है अपुन को।’ मैं उसे वही पुराने वाले अड्डे  में ले कर गई। टाइम्स ऑफ इंडिया के पीछे खाऊ गली में। उसके लिए पाव भाजी मंगवाई। उसने ताबड़तोड दो प्लेट खा लिया। दो गिलास पानी पी लिया। पैसे दे कर मैं उसके साथ आजाद मैदान में आ गई। उसकी चाल थोड़ी तेज हो गई। आवाज भी खुल गई।

‘हीरा कैसे हो? शकीला के साथ शादी बना लिया?’

 वो रुक गया। मेरा चेहरा देखने लगा।

मैंने टहोका, ‘तुम इतने घबराए क्यों लग रहे हो? और इतने गंदे कपड़े? क्या हो गया?’

वो चुपचाप नीचे देखता रहा। फिर जोर से बोला, ‘अपुन के साथ बहुत कुछ हो गएला है।’

 ‘क्या हुआ?’

 ‘वो तुमको बताया था ना मुन्ना? उसका मर्डर हो गया। पुलिस मेरे को उठा के ले कर गया। दो दिन हवालात में रहा।’

 ‘सच बताओ हीरा, तुमने कुछ किया था क्या?’

 ‘नक्को। अपुन तो उसका फ्रेंड था।’

 ‘तो आजकल कहां रहते हो?’

 बहुत मुश्किल से उसके गले से आवाज निकली, ‘दादर स्टेशन में।’

उसकी शक्ल से लग रहा था कि वह फिर से कूड़ा बीनने का काम करने लगा है। काला भुस्स बना चेहरा। शरीर में ना जाने कितने दिनों की कालिख।

 ‘शकीला का क्या हुआ? उसने छोड़ दिया तुमको?’ ‘नक्को। वो तो अभी तलक पिछू पड़ा है।’

‘तो?’

 ‘तुम हमसे शादी बना लो। अपुन तुम्हारे साथ रहेगा।’ उसने रौ में कह दिया। पहले मुझे उसकी बात समझ नहीं आई। मेरे चेहरे का भाव देख कर उसने कुछ जोर दे कर कहा, ‘मैं शकीला को छोड़ देगा। तुम्हारे पास आ जाएगा। बोलो? मंगता है?’

उस समय मेरी समझ नहीं आया कि क्या कहूं? उसे डांटूं, मारूं या समझाऊं?  

मैं डर गई थी। मैं बिना जवाब दिए पलट कर तेजी से चलने लगी। वो पीछे से पुकारता रहा। ‘क्या सोचा? बोलो, बो.. लो.. लो! ’ मैं उसे अनसुना कर लगभग दौड़ती हुई वीटी स्टेशन आ गई। बांद्रा जाने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लगी थी। मैं दौड़ कर चढ़ गई। पीछे मुड़ कर देखा, कहीं हीरा तो नहीं आ रहा? समझ नहीं आ रहा था कि उस स्थिति में क्या करूं? उस बालक को कैसे हैंडल करूं? हीरा के साथ वो मेरी आखिरी मुलाकात थी। गुस्सा भी आया कि उसकी हिम्मत कैसे हुई मेरे सामने ऐसा प्रस्ताव रखने की? बहुत दिनों तक हीरा के नाम से खौफ खाती रही। गुजरते समय के साथ अहसास होने लगा कि मैंने एक कहानी को उसकी परिणिती तक नहीं पहुंचाया। हीरा का क्या था, वो तो कहीं भी रह लेता। हर हाल में अपने लिए रास्ता बना लेता। जैसा मुंबई के हजारों बच्चे बना लेते हैं। आज भी मेरे अंदर गिल्ट है कि मैं उस दिन भाग क्यों आई? पच्चीस साल से ज्यादा हो गए हैं। हीरा अगर जिंदा है तो चालीस साल का भरा-पूरा आदमी होगा.. जेल के अंदर, बाहर? चरसी? जुआरी? कॉन्ट्रेक्ट किलर? शकीला के साथ? पता नहीं...

-जयंती रंगनाथन

जयंती रंगनाथन चर्चित कथाकार व पत्रकार हैं. उनके खुद के शब्दों में, "जिंदगी में काफी-कुछ वही किया, जो अच्छा लगा और ठान लिया. एमकॉम करने के बाद बैंक की नौकरी ठुकरा कर पत्रकारिता में उतर आई. धर्मयुग पत्रिका में दस साल काम करने के बाद चुनौती की तरह सोनी एंटरटैनमेंट टेलिविजन में एक नई चौंकाने वाली दुनिया में कदम रखा. तीन साल बाद एक शाम मुंबई से दिल्ली चली आई महिला पत्रिका वनिता की संपादक बन कर. वहां से अमर उजाला से होते हुए अब दैनिक हिंदुस्तान में एक्जीक्यूटिव एडिटर और नंदन की संपादक के तौर पर कार्यरत.  नौकरी वाली सुरक्षा की छतरी तले वही लिखा और तभी लिखा, जब और जो मन किया.''

जयंती रंगनाथन ने सृजन की बहुविध विधाओं में हाथ आजमाया. खूब लिखा. न केवल प्रिंट में, सोशल मीडिया और छोटे परदे के लिए भी. अब हिंदीनेस्ट पर पढ़िए उनकी मुंबई डायरी के पन्नों को। 

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