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लंदन डायरी - 33 ए स्पेन्सर रोड की ख़ामोशी

पंकज सुबीर

8 अक्टूबर 2013 सुबह 6:30 बजे

यर इंडिया का बोइंग 777 विमान मुम्बई के आकाश में उठता जा रहा है, पीछे छूटती जा रही है ज़मीन। पीछे छूटता जा रहा है देश। देश के बाहर की पहली यात्रा। यात्रा उस देश की जिस देश ने बरसों हम पर राज किया। और अंग्रेज़ी भाषा के रूप में आज भी कर रहा है। कुछ घबराहट सी मन में है, कुछ तनाव भी है। कथा यूके की मुम्बई प्रतिनिधि मधु अरोड़ा साथ में हैं जो 2007 से लगातार कथा यूके के हर आयोजन में जा रही हैं। उनका साथ होना तनाव को कुछ कम कर रहा है। चूँकि वे कई वर्षों से जा रही हैं इसलिये इमिग्रेशन तथा कस्टम की सारी औपचारिकताएँ उन्हें पता है, अपने को तो बस उनके पीछे-पीछे ही चलना है। तनाव व घबराहट इसलिए क्योंकि जिस व्यक्ति को देश के अंदर ही यात्राएँ करने में ही परेशानी होती हो वह सात समुंदर पार जा रहा है। विशेषकर वह व्यक्ति जो कि एक तो पूर्ण शाकाहारी हो और दूसरा शाकपेयी भी हो, मतलब कि जो रसरंजन न करता हो बस फ्रूट जूस जैसे फालतू के पेय पदार्थ पीता हो, जिनको कहीं से भी पीना नहीं कह सकते।

विमान अपनी ऊँचाई पर आकर अब उड़ चला है अपने गंतव्य लंदन के हीथ्रो हवाई तल की ओर। हीथ्रोजिसका नाम जब भी सुना तो एक विचित्र-सा आकर्षण हुआ कि काश....। विमान आगे भाग रहा है और मन पीछे। भोपाल के विमान तल पर छोड़ने आईं बेटियाँ याद आ रही हैं। और याद आ रहा है बचपन में सुना गीत सात समुंदर पार से गुड़ियों के बाज़ार से अच्छी सी गुड़िया लाना प्यारी सी गुड़िया लाना पाप्पा जल्दी आ जाना। क्यों होती हैं ये बेटियाँ इतनी मोहिली। याद आ रहा है कि बेटियों ने अपनी-अपनी सूची दी है सामानों की। विमान की खिड़की से नीचे देखने पर बस समुद्र नज़र आ रहा है। अनंत तक फैला समुद्र।

एक बात बहुत विचित्र लग रही है, वो यह कि जब ये हवाई जहाज़ हीथ्रो में उतरेगा तो वहाँ सुबह के साढ़े ग्यारह बज रहे होंगे। मतलब ये कि हम केवल पाँच घंटे ही चले, सुबह साढ़े छः बजे मुम्बई से चले और साढ़े ग्यारह बजे लंदन। मगर ऐसा है नहीं है, बीच में कुछ घंटे कहीं ग़ायब हो रहे हैं। कहाँ...कोई नहीं जानता। विमान सूरज की धूप पकड़ कर उड़ रहा है। सूर्योदय की दिशा में। पूर्व से पश्चिम की दिशा में। कभी ऐसा भी होगा कि कोई यात्री विमान ऐसा भी होगा, जो इतनी तेज़ गति से भी चलेगा कि आप सुबह साढ़े छः बजे मुम्बई से उड़ेंगे और जब साढ़े सात-आठ हज़ार किलोमीटर का सफर पूरा करके लंदन पहुँचेंगे, तो वहाँ भी उसी दिन की सुबह के साढ़े छः ही बज रहे होंगे। यात्रा का पूरा समय आपके जीवन से विलोपित हो जाएगा। कैसा अजीब-सा लगेगा ना? सामने की सीट के बैक पर लगी एलसीडी स्क्रीन बता रही है कि विमान अरब सागर से ओमान की खाड़ी की तरफ बढ़ रहा है। पाकिस्तान के आकाश में नहीं उड़ना चाहता है शायद इसीलिए कुछ लम्बा चक्कर मार रहा है। जो रूट दिखाई दे रहा उसमें ईरान को पार करके केस्पियन सागर के ऊपर से उड़ता हुआ विमान मास्को के कहीं पास से मुड़ेगा और लंदन की राह पकड़ेगा। ये सब जगहें तो मुझे देखनी हैं। काला सागर और केस्पियन सागर तो मुझे हमेशा से अपने नाम से आकर्षित करते रहे हैं और ये दोनों ही सागर रास्ते में पड़ने वाले हैं। मगर इसी बीच विमान परिचारिका ने आकर सभी यात्रियों से खिड़की के शटर गिराने का अनुरोध कर दिया है। उसे क्या मालूम कि कोई पहली बार विदेश यात्रा पर जा रहा है। भारी मन से शटर गिरा दिया। बाकी सब पहले ही गिरा चुके थे। विमान अब एक वातानुकूलित सभाकक्ष की तरह लग रहा है अंदर से।

विमान लगभग ख़ाली है। लगभग इसलिए कि तीन की सीट पर एक ही यात्री है बस। सरकारी सेवा है इसलिये किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। रात दो बजे से मुम्बई विमानतल पर आ गये थे मधु जी और मैं, इसलिये अब नींद अपना प्रभाव दिखा रही है। लगभग सभी यात्रिओं ने तीन यात्रिओं वाली सीट के बीच में लगे हत्थे ऊपर करके उसे ट्रेन की बर्थ जैसा बना लिया है। सब सोने की तैयारी में हैं। मैंने और मधु जी ने भी वैसा ही किया है। ये नहीं सोचा था कि पहली विदेश यात्रा के दौरान विमान में ट्रेन जैसी सुविधा भी मिलेगी। विमान ईरान के ऊपर शायद चालीस हज़ार फीट की ऊँचाई पर उड़ रहा है। केस्पियन सागर को विमान की खिड़की से झाँक कर देखने की तमन्ना को नींद ने ख़ारिज कर दिया है। चालीस हज़ार फीट की ऊँचाई पर पाँव फैला कर लम्बी तान के सोने का भी आनंद है। मन अब कुछ सहज हो गया है। तनाव और घबराहट अब कुछ कम है। शायद यात्रा पूर्व की एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है वह। पलकें धीरे-धीरे विमान की खिड़की के शटर की तरह बंद होती जा रही हैं। विमान में भी स्वप्न आते हैं ? बचपन में सुना था कि सपने लाने वाली कुछ परियाँ होती हैं जो सोते ही अपना काम शुरू कर देती हैं। हैरत है चालीस हज़ार फीट की ऊँचाई पर भी परियाँ अपना काम कर रही हैं। वैसे यहाँ तो उनको और आसानी होती होगी। उड़ कर नीचे धरती तक नहीं जाना पड़ता होगा। मगर ये विमान के अंदर कहाँ से आईं होंगी। अपने को क्या ? अपन तो सपने देखते हैं। सपने में इछावर का घर आ रहा है जिसे बीस साल पहले छोड़ दिया था। बचपन के सारे दोस्त जिनको विश्वास था कि छुट्टू (मेरा घर का नाम) एक दिन विदेश ज़रूर जाएगा। कई चेहरे हैं जो गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। कई आवाज़ें हैं जो एक दूसरे में घुल-मिल रही हैं।

हलचल से नींद खुली तो पता चला कि खूब सोना हो चुका है। विमान काफी यात्रा पूरी कर चुका है और अब योरोप के ऊपर कहीं उड़ रहा है। खिड़की का शटर खोल कर देखा तो नीचे केवल बादल हैं। दूर तक बस बादल ही बादल। ऐसा लगता है कि आज सबने मेरे ख़िलाफ़ साज़िश कर रखी है कि इसको आज नीचे को कोई दृश्य नहीं देखने देना है। हुँह.....। सामने की ट्रे पर परिचारिका ने खाने पीने (पीने का मतलब पानी) का सामान रख दिया है। लंदन उतरने से पहले का विदाई भोज। कुछ सामानों के नाम पता हैं तो कुछ के नहीं। वेज कह कर दिये गये हैं तो खाने में कोई हर्ज नहीं है । खाना-पीना पूरा करते न करते पता चल गया है कि हम बहुत जल्द लंदन में हीथ्रो पर उतरने जा रहे हैं। आ गये ? इतनी जल्दी ? इससे ज़्यादा देर तो शताब्दी लगा देती है भोपाल से नई दिल्ली पहुँचने में। लंदन..... उत्सुकता में खिड़की का शटर खोल कर देखा तो नीचे नॉर्थ सी नज़र आ रहा है। नॉर्थ सी पर मँडराते कुछ छोटे-मोटे आवारा से बादल और नीचे पानी में नज़र आते कुछ जहाज़, जो ऊपर से काग़ज़ की कश्ती समान दिख रहे हैं। लंदन अभी भी दूर है।

अचानक ही ज़मीन और पानी का संगम दिखाई देने लगा है। कोई नदी है जो समुंदर में समा रही है। मन ने कहा
, कोई नदी नहीं, ये टेम्स है। नदियाँ मेरे मन में हमेशा विस्मय जगाती हैं। जाने कब से बह रही हैं, जाने कब तक बहना है। क्या-क्या देखा है नदियों ने। यदि नदियाँ इतिहास बोल कर सुना सकतीं, तो शायद कई सारे झूठ आज सच की कुर्सी पर बैठे नहीं हुए होते। नदियाँ कुछ बोलती नहीं, गहरी होती हैं ना। विमान आगे बढ़ रहा है और टेम्स का सागर संगम अब बिल्कुल स्पष्ट दिख रहा है। दोनों हाथ उठाए हुए ज़मीन सागर के अंदर नदी को समाहित कर रही है। हिम्मत करके कुछ फोटो लिये अपने मोबाइल से। विमान का एक विंग फोटो में बाधा बन रहा है। कमबख़्त बादल तो हैं ही।  बात की बात में पूरा लंदन शहर दिखने लगा है। रोमांच जैसा कुछ हो रहा है। हवा में कई सारे दूसरे विमान नज़र आने लगे हैं, कुछ उड़ रहे हैं तो कुछ उतर रहे हैं। लंदन आ गया है, हीथ्रो आ गया है। विमान ने निर्धारित समय से लगभग आधे घंटे पूर्व ही लंदन की ज़मीन को छू लिया है। तनाव एक बार फिर से बढ़ गया है। इमिग्रेशन पर अधिकारियों द्वारा कुछ दिनों पूर्व ही एक योग गुरु के साथ किया गया व्यवहार याद आ रहा है। कुछ अन्य सेलिब्रिटियों के साथ किया गया व्यवहार भी याद आ रहा है। अच्छा है मैं सेलिब्रिटी नहीं हूँ।

हम्ममम.... ये है हीथ्रो ? चकाचक, झकाझक। इमिग्रेशन की कतार में लग कर एक गोरे अधिकारी तक पहुँचे। पासपोर्ट तथा दूसरे काग़ज़ात चैक हो रहे हैं। तो आप अवार्ड लेने आए हैं ?’ गोरा अधिकारी कथा यूके का कार्ड देख कर अंग्रेज़ी में पूछता है। हाँ,’ मैंने उत्तर दिया। किस विषय पर कहानियाँ लिखते हैं आप ?’ उसने फिर पूछा । सोशल इश्यूज़ पर,’ मैंने उत्तर दिया। गुड... कांग्रेचुलेशन मिस्टर फेंकज (पंकज)। कहते हुए उसने मेरा पासपोर्ट और अन्य काग़ज़ मुझे वापस कर दिये। धन्यवाद देकर मैंने पूछा मैं जाऊँ ?’ उसने कहा जी बिल्कुल। सारी प्रक्रिया में एक मिनट का समय लगा और मैं इमिग्रेट हो गया। बस...? इतना...? इसको ही लेकर तनाव था ?

पहली समस्या सामने आ गई है। मधु जी का सामान तो आ गया है लेकिन मेरा नहीं। मेरा सामान भोपाल से मुम्बई और मुम्बई से लंदन दो अलग-अलग फ़्लाइटों में आना था। पता नहीं क्या हो गया है। सामान का पट्टा अब खाली घूम रहा है। मुझे परेशान देख कर एक व्यक्ति सामने आया है उसके सीने पर इंग्लैंड का रॉयल निशान बना है। उसके पूछने पर मैंने अपनी समस्या बताई कि शायद एयर इंडिया ने मुम्बई से मेरा सामान लोड नहीं किया। वो मुझे लेकर अपने कार्यालय आया और कहा कि आप ये फार्म भरो मैं एयर इंडिया के ऑफिस में पता करके आता हूँ । वो चला गया, पूछने पर पता चला कि वो एयरपोर्ट का कोई बड़ा ऑफिसर है। कुछ देर बाद वो लौटा मुझसे मेरे सूटकेस के रंग आदि का पूछा और फिर चला गया। थोड़ी देर में ही वो एक ट्राली पर मेरा सामान लिये आ गया। अंग्रेज़ी में बोला कि आप खुशक़िस्मत हो, ये ग़लत ट्रेक पर आ गया था । मेरी जान में जान आई। उस ऑफिसर के रूप में इंग्लैंड से मेरा पहला परिचय हो गया है। मेरे पास शब्द नहीं हैं उसको धन्यवाद देने के। मेरी आँखों की चमक उस तक पहुँच गई हो शायद। वो मुस्कुरा दिया है। एक दरवाज़ा पार करते ही हम बाहर आ गये हैं, जहाँ तेजेन्द्र जी खड़े हैं हमारे स्वागत के लिये। गर्मजोशी और आत्मीयता तेजेन्द्र जी की विशेषता है, तो ये अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि हमारा स्वागत किस प्रकार से हुआ। साथ में एक सूटेड-बूटेड सज्जन हैं, वे भी गर्मजोशी से मिलते हैं। वे इख़लाक़ भाई हैं, टैक्सी ड्रायवर हैं, पाकिस्तान से हैं।

गाड़ी लंदन की सड़कों पर दौड़ रही है। मैं अपने आपको विश्वास दिलाने में लगा हूँ कि मैं किसी दूसरे देश में हूँ। सड़क के दोनों तरफ एक जैसे मकान बने हैं। जैसे कोई पेंटिंग हो। कुछ पेड़-पौधे जाने-पहचाने लग रहे हैं तो कुछ अनजाने हैं। एक पेड़ चिनार की तरह दिख रहा है, पता चला ये मेपल ट्री है। ऑटम में इसके पत्ते लाल-सुनहरे हो जाते हैं, ऐसा पता चला। कश्मीर में चिनार के भी होते हैं, पर पता नहीं कब होते हैं। अपने राम तो कभी गये नहीं कश्मीर। सुना है इंदिरा गाँधी चिनार के पत्तों के लाल सुनहरे होने के मौसम में अवश्य जाती थीं कश्मीर। आरजूफिल्म में बेदर्दी बालमा तुझको गीत में साधना सफेद कपड़े पहन कर चिनार के गिरे हुए पत्तों पर चलती हुई दिखाई गई है। ख़ैर तो ये भी पता चला कि लंदन में अभी ऑटम ही चल रहा है। पर अभी शुरू हुआ है। इसलिए बरसात के साथ मिला-जुला कार्यक्रम चल रहा है। लंदन में अभी दोपहर के बारह बज रहे हैं पर मुझे बार-बार ऐसा क्यों लग रहा है कि शाम हो गई है। शायद इसलिए कि वहाँ भारत में शाम हो गई है और शरीर की घड़ी अभी भी भारत से ही मिली हुई है। मोबाइल की घड़ी तो हमने सेट कर ली है।

एजवेयर, मधु जी को जहाँ ठहरना है, गाड़ी वहाँ पहुँच गई है। ये ललिता जी का घर है। बाहर से परिकथा के शहर के मकानों की तरह नज़र आ रहे मकान में प्रवेश। अंदर भी परिकथा के मकान की ही तरह है। सुव्यवस्थित और सुरुचिपूर्ण। ललिता जी ब्रह्मकुमारी संस्था से जुड़ी हैं। घर में एक शांत-सा संगीत बज रहा है। कुछ ही देर में यूके की दो महत्त्वपूर्ण महिला कथाकार ज़किया ज़ुबैरी जी और नीना पाल जी भी आ जाती हैं। ज़किया जी से मिल कर हमेशा बहुत अच्छा लगता है। ज़किया जी ने आते ही ललिता जी के घर में बने मंदिर के सामने माथा टेका। मन में एक ठंडक-सी दौड़ गई। नीना जी से पहली बार मिलना हो रहा है अभी तक उनकी कहानियों से ही मिलना हुआ था। नीना जी लेस्टर शहर से आईं हैं मधु जी को कम्पनी देने। वे एक सप्ताह यहीं रुकेंगीं। पंजाब में लस्सी बड़े गिलासों में पी जाती है, तो लंदन में लगभग उतने ही बड़े गिलासों में कॉफी पी जाती है। सकोनीनाम के भारतीय शाकाहारी रेस्टोरेंट में दोपहर का खाना खाने के बाद मैं और तेजेन्द्र जी 33 ए स्पेन्सर रोड की ओर रवाना हो गये । ये तेजेन्द्र जी का निवास है जहाँ आने वाले सप्ताह भर मेरा डेरा रहना है। छोटा-सा सुव्यवस्थित घर। दोनों तरफ दो कमरे और बीच में किचन । कमरों में बाहर की तरफ दीवारें नहीं हैं केवल काँच की बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ हैं ताकि बाहर का सब दिखता रहे। अंदर आते ही सुकून मिला। अब शाम तक एक ही काम है, गप्पें मारना। गप्पें मारने से अच्छा कोई नशा हो ही नहीं सकता। मूर्ख हैं वे लोग जो शराब को रसरंजन कहते हैं, असल में तो गप्पें ही रसरंजन है, उसमें भी अगर छोटा मोटा निंदा का तड़का लगा हो, तो कहने ही क्या। हमने निंदा तो नहीं की मगर गप्पें जी भर कर कीं । शाम को कैलाश बुधवार जी के घर जाना है डिनर लेने।

कैसा लगता है किसी आवाज़ से मिलकर ? कैलाश बुधवार जी को मैं केवल एक आवाज़ के रूप में ही जानता हूँ, वो आवाज़ जिसे बीबीसी पर इतना सुना है, इतना सुना है कि वो आवाज़ ही मानों व्यक्ति बन गई है। बुधवार जी सामान्य रूप से भी बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि बीबीसी पर बोल रहे हैं। बहुत ही ख़ूबसूरत तरीके से सजाया गया घर। विनोदिनी बुधवार जी (कैलाश जी उन्हें बानो बेगम कह कर बुलाते हैं) की मेज़बानी डाइनिंग टेबल पर शुद्ध भारतीय भोजन के रूप में सजी हुई है। पद्मजा जी, जो भारतीय उच्चायोग में पदस्थ हैं, उनको पहुँचना है किन्तु कई सारी ट्रेनें रद्द होने के कारण वे रास्ते में कहीं अटकी हुईं हैं। उनके आते ही भोजन और बातें प्रारंभ। सुस्वादु भोजन और उतनी ही स्वादिष्ट बातें। भोजन और मिठाई के बीच ग़ज़लों का पाठ, कुछ मेरी, कुछ नीना पॉल जी की। मुझे लगता है कि हर कहानीकार को एक-दो ग़ज़लें लिख लेनी चाहिये क्योंकि कहानी सुनना और सुनाना दोनों ज़रा मुश्किल से काम हैं, ऐसे में जब किसी कहानीकार से कोई कुछ सुनना चाहे, तो ग़ज़लें खूब काम आ सकती हैं। ज़किया जी और बुधवार जी बहुत अच्छे श्रोता हैं, शायर को जिस प्रकार के श्रोता चाहिये होते हैं वैसे ही।

हम वापस 33 ए स्पेन्सर रोड आ गये हैं। तेजेन्द्र जी और मैं। मधु जी और नीना जी एजवेयर चली गईं हैं और ज़किया जी अपने घर। अब नींद घेर रही है। दो रातों का बैलेंस है नींद का, हिसाब तो माँगेगी ही। तेजेन्द्र जी को अपने लैपटॉप से उलझा छोड़ कर मैं अपने कमरे में सोने आ गया हूँ। कैसी अजीब-सी ख़ामोशी है ये। कहीं कोई आवाज़ ही नहीं। अपनी साँसों की आवाज़ के अलावा कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा। एक भरे-पूरे शहर में बैठे हैं पर आँखें बंद कर लो, तो लगे कि कहीं सुनसान जंगल में हैं। नींद आ गई, जल्दी आ गई, आनी ही थी, भारत में रात के तीन बज रहे होंगे नींद तो आएगी ही। सपनों की परियाँ फिर आ गईं हैं। बचपन के शहर इछावर का घर दिख रहा है, लंदन में भी पीछा नहीं छोड़ रहा। कालू बाहर की कुर्सी पर पैर लटका कर सो रहा है और मियाँ उसके ऊपर मेंढक छोड़ रहा है। देखा हुआ सपना है, परियों लंदन में तो कुछ नया दिखाओ।

9 अक्टूबर 2013

शरीर की घड़ी ने भारतीय समय के हिसाब से उठा दिया है। पारदर्शी शीशे के बाहर लंदन रात की बाहों में है। फिर नींद, फिर जागना, फिर नींद, फिर जागना, यही चलता रहा, तब तक, जब तक सचमुच ही सुबह नहीं हो गई। सुबह के नाश्ते में तेजेन्द्र जी ने पराँठा सेंका है। पता चला कि यहाँ स्टफ़्ड पराँठे बाज़ार में मिलते हैं, लाकर डीप फ्रीज़र में रख लो और फिर अपनी  सुविधा के अनुसार जब चाहे सेंक कर खा लो। पराँठा स्वादिष्ट तो है ही लेकिन उसके साथ साथ सुंदर भी है। खाने में कुछ कुछ पेटीस का स्वाद दे रहा है। प्याज़ के पराँठे के साथ ब्रेक फास्ट का समापन हुआ। शानदार था प्याज़ का पराँठा और भारत में प्याज़ की क़ीमत को देखते हुए शाही पराँठा भी उसे कह सकते हैं। शाही ब्रेक फास्ट के बाद कुछ समय है गप्पों के लिये। मैंने महसूस किया कि हम बात करते-करते जब चुप हो जाते हैं, तो सूई पटक सन्नाटा छा जाता है, इतना, कि डर लगने लगे और आप तुरंत कुछ न कुछ बोल पड़ो। अजीब देश है ये, याद आ रही है भारत की सुबह, जिसमें गाड़ियों के हॉर्न, लाउड स्पीकर पर बजते फुल वाल्यूम में भजन, दूध ब्रेड वाले की आवाज़ें, गाय-कुत्तों-कव्वों के समवेत स्वर और न जाने क्या-क्या होता है। कितनी भरी-पूरी होती है वो सुबह। सुहागन की तरह। यहाँ तो कोई भी आवाज़ नहीं।

आज का दिन घूमने-फिरने के नाम है। कल मुख्य कार्यक्रम है फिर उसके बाद तीन दिन घूमना-फिरना है। तेजेन्द्र जी का डेंटिस्ट के साथ अपाइंटमेंट है और वहीं नीना जी, मधु जी को ज़किया जी के साथ आना है। तेजेन्द्र जी डेंटिस्ट के पास अंदर चले गए हैं और मैं अब लंदन को महसूस रहा हूँ बाहर सड़क पर टहलते हुए। हर तीसरा व्यक्ति यहाँ भारतीय दिख रहा है। मेपल के पत्ते गिर रहे हैं, एक पत्ता उठाता हूँ, बिल्कुल चिनार के पत्ते की तरह है। एक मेपल ट्री के पास उदास-सी बैंच लगी है, मन कर रहा है उस पर बैठूँ, लेकिन परदेस में होने के कारण एक अज्ञात भय भी साथ चिपका है। बैंच की उदासी और उस पर गिरे हुए मेपल के पत्ते बार बार खींच रहे हैं अपनी ओर। बरबस अपने आप को सड़क पर दौड़ रहे ट्रेफिक की तरफ ले आता हूँ। कितना सुव्यवस्थित है सब कुछ। कार चालक एक दूसरे को रास्ता दे रहे हैं और बदले में दूसरा उनको हाथ उठा कर धन्यवाद दे कर जा रहा है। ज़ेबरा क्रासिंग पर यदि पैदल चालक है, तो सारी गाड़ियाँ यूँ रुक रहीं हैं जैसे कोई अत्यन्त वीआईपी हो। पता चला कि यहाँ पैदल चालक बहुत वीआइपी होता है। हैरत में हूँ कि कहीं कोई मोटर साइकिल, स्कूटर, मोपेड नहीं दिख रही है। हाँ साइकिलें बहुतायत में हैं। फुटपाथ पर उनके लिये बाक़ायदा निशान भी बने हैं।

घूमने-फिरने का पहला चरण है हैरो व्यू। ज़किया जी की शानदार काली मर्सीडीज़ में हम सब सवार हो गये हैं। हैरो व्यू एक पहाड़ी है जहाँ से हैरो का नज़ारा दिखता है। कच्च हरे रंग से सराबोर पहाड़ी। ज़मीन पर लगी वनस्पतियों से परिचय पूछता हूँ, तो अधिकांश परिचित निकलती हैं। कुछ वही हैं जो भारत में होती हैं तो कुछ उनकी रिश्तेदार टाइप की लग रही हैं। घास तो ख़ैर होती ही घास है, सीहोर में लगी हो चाहे लंदन में। ठंड बढ़ रही है। लंदन आने के बाद पहली बार कोई चिड़िया दिखी है। चिड़िया नहीं कव्वा। पर कुछ अलग-सा कव्वा है। इसे कव्वा नहीं रेबन कहते हैं। ओ ओ ओ, हम तो समझते थे कि रेबन एक अमीरों के पहनने वाला चश्मा है, जिसे पहन कर कव्वे भी हंस हो जाते हैं। कव्वे के इस रिश्तेदार के ऊपर कव्वे की तरह सफेदी नहीं है ये पूरा काला है।

दूसरा पड़ाव सेंट एन्स शापिंग सेंटर। सेंट एन्स, यही तो बच्चों के स्कूल का भी नाम है सीहोर में। एक फोटो सेंट एन्स के बोर्ड के साथ खिंचवा ली है ताकि बच्चों को बताया जा सके। लंच का समय है सो पहले पेट पूजा का स्थान तलाश जा रहा है। मेरे शाकाहारी होने के कारण सबको ही परेशानी हो रही है। ख़ैर तय हुआ कि दूसरी मंज़िल पर स्थित पिज़्ज़ा हट पर पिज़्ज़ा खाया जाए साथ में आलू की उँगलियाँ और कोक। पता ये भी चला है कि यहाँ खाने के साथ पानी अमूमन नहीं पिया जाता। या तो जूस या कोक के साथ खाना खाया जाता है। पिज़्ज़ा थोड़ा स्पाइसी है मगर लाजवाब है। आलू की उँगलियाँ भी एक-एक बालिश्त की हैं। सोचिए जब उँगलियाँ एक बालिश्त की हैं तो आलू कितना लम्बा होगा।

पिज़्ज़ा के बाद शॉपिंग का एक दौर। प्राइमार्क के बारे में बताया गया कि ये मेरे जैसे मध्यमवर्गीय सोच वालों के लिये अच्छा स्टोर है जहाँ ठीक-ठाक रेट में चीज़ें मिल जाती हैं। बच्चियों की सूची याद आ गई है, और वे नोट भी याद आ गये हैं, जो भारत के हज़ारों रुपये देने के बाद मिले हैं। ज़किया जी को सूची और अपना बजट बताया, तो वे उत्साह से दौड़-दौड़ कर बच्चियों के लिये चीज़ें पसंद करने लगीं। उनके उत्साह को देख कर मन भीग गया। जब कोई आपकी भावनाओं को समझने लगे तो मन को अच्छा लगता है। ज़किया जी चीज़ें पसंद करने में मेरे बजट का विशेष ध्यान रख रही हैं। यदि कोई चीज़ मेरे बजट के बाहर होती है तो उसे चुपचाप अलग रख देती हैं, उस प्रकार कि मुझे पता नहीं चले कि महँगी होने के कारण उस हटाया गया है। बहुत-सी शॉपिंग हो गई है। प्राइमार्क से बाहर आते समय कोई हमारे बैग या पैमेंट स्लिप चैक नहीं करता, अंदर जाते समय भी किसी ने नहीं कहा था कि अपना सामान बाहर जमा करवा दीजिये। आप ईमानदार हैं, ये मान कर चला जाता है।

अब हम वन पाउंड शॉप में हैं, यहाँ हर चीज़ केवल एक पाउंड की है। यहाँ से भी ज़किया जी मुझे कुछ ख़रीददारी करवाती हैं। हर माल सौ रुपये। कुछ चीज़ें अच्छी हैं लेकिन ले जाने की दिक़्क़त है। तेजेन्द्र जी अपनी बिटिया के लिये कुछ शॉपिंग करने कहीं गए हैं। मैं, मधु जी, नीना जी और ज़किया जी अब सेंट एन्स मॉल के ओपन स्पेस में बैठे हैं। साफ सफाई को लेकर जो धारणा मैं लेकर आया था, वो टूटी है। जगह-जगह कचरा दिखाई दे रहा है। चॉकलेट के रैपर, कैन और भी कुछ कुछ। मतलब कि भारत जैसी ही स्थिति है। सॉफ्टी वैन देख कर मेरे अंदर का बच्चा मचलता है किन्तु अंदर का भद्र पुरुष जो बच्चे के दुर्भाग्य से लेखक भी है, उसे रोक रहा है। तीनों महिलाओं ने शायद बच्चे की आवाज़ सुन ली है और साफ्टी खाने का प्रस्ताव रख दिया है। साफ्टी खाते हुए बच्चा उस नीग्रो का गाना सुन रहा है जो ओपन स्पेस में गिटार लेकर गा रहा है। अपनी ही धुन में। लोग उसके सामने सिक्के डाल कर जा रहे हैं। तेजेन्द्र जी आ गए हैं। वे मुझे एक पाउंड का सिक्का देकर कहते हैं ‘‘पंकज उसे दे दो ताकि तुम भारत जाकर कह सको कि लंदन में भी भिखारी होते हैं और मैंने उनको भीख भी दी है, सौ रुपये की।’’

अब हमारी काली मर्सिडीज हैरो ऑन द हिल की तरफ जा रही है। विश्व प्रसिद्ध स्कूल देखने। जहाँ जवाहर लाल नेहरू ने भी पढ़ाई की थी। हम्ममम, यहीं से अंग्रेज़ी भाषा के भक्त हो गये थे वे। 15 वर्ष की उम्र में उन्हें यहाँ पढ़ने भेजा गया था शायद 1905 में। यहाँ का फीस स्ट्रक्चर सुन कर एक बारगी गश आ गया। काफी बड़े क्षेत्र में फैला है स्कूल। पारंपरिक स्थापत्य का शानदार नमूना। लंदन की चिर-परिचित लाल और पीली ईंटों से बने हुए भवन। ढालदार छतों वाले। छतों पर कवेलू हैं और बीच-बीच में चिमनियाँ। दीवारों पर सीमेंट का पलस्तर नहीं है। बाहर से बस ईंटें। पूरे लंदन में कमोबेश ऐसे ही घर हैं। स्कूली बच्चे आ-जा रहे हैं। इतनी ख़ामोशी है कि लग ही नहीं रहा कि ये स्कूल है। लंदन! तुम इतने ख़ामोश क्यों हो ? इतने बरसों तक भारत में रहे हो शासक बन कर, इतना कुछ लूट लाए वहाँ से, कोहीनूर से लेकर भोजशाला की सरस्वती प्रतिमा तक, तो फिर कुछ शोर-शराबा क्यों नहीं ले आये वहाँ से। जीवन में इतनी ख़ामोशी भी ठीक नहीं। जीवन में मृत्यु का आभास होने लगता है इस ख़ामोशी से। शाम हो रही है और ठंड बहुत बढ़ गई है। दिन भर की सैर से अब थकान भी हो रही है। मर्सिडीज़ अब घर की तरफ लौट रही है। हम चारों को तेजेन्द्र जी के घर पर ड्राप करके ज़किया जी चली जाती हैं। अब फिर गप्पें और डिनर कहाँ हो इस पर विमर्श। विमर्श....?

डिनर के लिये हम पैदल आ गये हैं श्रीलंकन रेस्टोरेंट मीटिंग प्लेस में । छोटा और सुंदर भोजनालय। पूरा रेस्टोरेंट एक अकेली युवती सँभाल रही है। सुंदर और आकर्षक युवती। जिसकी मुस्कुराहट इतनी सुंदर है कि यहाँ रहने वाला शायद बार-बार यहाँ आने से अपने को रोक नहीं सकता। हर मुस्कुराहट के साथ उसकी बड़ी-बड़ी आँखें भी चमक उठती हैं। हर तरफ नारियल की रस्सी का हस्तशिल्प दिख रहा है। और कोई श्रीलंकन गीत भी बज रहा है। समझ तो नहीं आ रहा लेकिन धुन किसी इंडियन गाने की है। श्रीलंकन रेस्टोरेंट है इसलिए ज़ाहिर-सी बात है दक्षिण भारतीय व्यंजन ही उपलब्ध हैं। सुस्वादु हैं सारी चीज़ें। केले के पत्तों की आकृति वाली प्लेटों में मसाला डोसा, नारियल की चटनी, साँभर और साथ में कोक (पानी मैंने दिन भर से नहीं पिया है।)। तिस पर वो मुस्कुराहट। डिनर आनंदमय सम्पन्न। नीनाजी और मधुजी को टैक्सी से एजवेयर रवाना करके तेजेन्द्र जी और मैं स्पेन्सर रोड लौट रहे हैं। ख़ामोश और ठंडी रात में। किसी स्वप्न-सा लग रहा है सब। ठंड सचमुच बहुत ठंडी है यहाँ पर।

10 अक्टूबर 2013

आज कार्यक्रम का दिन है। मौसम विभाग ने सुबह से ही मौसम ख़राब रहने की चेतावनी दी है। बरसात और ठंड की। तेजेन्द्र जी चिंतित हैं। यहाँ बरसात के साथ ही इस मौसम में कड़ी ठंड भी हो जाती है। ख़राब मौसम कार्यक्रम में उपस्थिति पर प्रभाव डालता है। मैंने अपनी चिंता व्यक्त की कि मैंने कल दिन भर पानी नहीं  पिया है, आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई और कहीं मिला भी नहीं। उन्होंने कहा चिंता की कोई बात नहीं यहाँ उतनी आवश्यकता नहीं होती है पानी की। तेजेन्द्र जी कार्यक्रम की तैयारियों में लगे हैं। शाम 6 बजे कार्यक्रम है। दोपहर बाद हमें घर से वहाँ के लिये रवाना होना है। पहले वहाँ पहुँच कर कुछ घूमेंगे-फिरेंगे टेम्स के किनारे, तब तक ज़किया जी, मधु जी और नीना जी भी सीधे कार्यक्रम स्थल पहुँच जाएँगीं। तेजेन्द्र जी आज दूसरे किस्म के पराँठे बना रहे हैं किचन में।

लंच की व्यवस्था के लिए हम वापस सेंट एन्स बाज़ार आ गये हैं। तेजेन्द्र जी को बैंक में कुछ काम है, सो पहले हम बैंक में हैं। वे लाइन में लग गये हैं और मैं एक तरफ खड़ा हूँ। बैंक में आने वाला हर नया ग्राहक  मुझसे पूछ रहा है -क्या आप लाइन में हैं?’, मेरे द्वारा मना करने पर ही वह लाइन में लग रहा है। इस बीच दो ऑफिसर भी मुझसे आकर पूछ गये हैं कि मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूँ क्या। अपने आप को बहुत वीआईपी महसूस कर रहा हूँ। मगर यहाँ तो सारे ही ग्राहक वीआइपी होते हैं। सुन रहे हो न भारतीय स्टेट बैंक। लंच हमने एक गुजराती दुकान से पैक करवाया है। जहाँ सब कुछ भारतीय है। दो पाउंड का समोसा दो की कचोरी। लगभग दो सौ रुपये की एक। हमने पैक करवाया है पोहा और साबुदाने की खिचड़ी। भारत में नवरात्र चल रहे हैं न, तो इच्छा हुई कि साबुदाने की खिचड़ी खाई जाये। बचपन में केवल साबुदाने की खिचड़ी खाने के लिये ही व्रत रखता था मैं। और बचपन की आदतें भी कहीं जाती हैं ?

नहा-धोकर, लंच करके हम तैयार हुए ही हैं कि इख़लाक़ भाई आ गये हैं हमें लेने । यहाँ समय की बहुत क़द्र है। इख़लाक़ भाई हमें रेलवे स्टेशन छोड़ेंगे; क्योंकि मैंने लंदन की भूमिगत में यात्रा करने की इच्छा जताई है। मैं और तेजेन्द्र जी लंदन मेट्रो से कार्यक्रम स्थल जाएँगे और इख़लाक़ भाई मधु जी, नीना जी तथा ज़किया जी को लेकर सीधे हाउस ऑफ कामन्स पहुँचेंगे।

अब हम लंदन की विश्व प्रसिद्ध मेट्रो में हैं। सब कुछ दिल्ली मेट्रो की ही तरह है। सब कुछ। खिड़की से दिखाई देता है सुप्रसिद्ध वैम्बली स्टेडियम। और भी कुछ महत्त्वपूर्ण स्थान। बाहर बरसात हो रही है।

वेस्टमिन्स्टर पर उतर कर जब हम स्टेशन से बाहर निकले, तो ठीक सामने बिग बेन जगमगा रही है और ब्रिटिश संसद की भव्य आर्किटेक्चर वाली इमारत। इमारत, जो हैरत में डाल रही है। ऐसा अद्भुत स्थापत्य? हल्की बरसात है और भारी ठंड भी। भारत में ठंड के मौसम में जो सबसे ठंडा दिन होता है उससे कहीं ज़्यादा ठंड है । सड़क के किनारे चलते हुए हम टेम्स के पुल पर आ गये हैं। ये है टेम्स? इतना मटमैला पानी? हम निर्मल नीर देखने आए थे। तेजेन्द्र जी ने बताया कि कुछ ही दूरी पर टेम्स समुद्र में मिली है, इसलिये ये बैक वाटर है। चलो ठीक है। पुल पर एक तरफ है लंदन की आँख दूसरी तरफ बड़ी बेन। और नदी के किनारे-किनारे खड़ी ब्रिटिश संसद की इमारत। सब कुछ देखने लायक है। लेकिन ये ठंड, खून को भी जमा रही है। अब तो खड़े भी नहीं होते बन रहा है। तेजेन्द्र जी समझ गये हैं मेरी हालत। जल्दी-जल्दी फोटो सेशन करके वे मुझे लेकर वापस वेस्टमिन्स्टर स्टेशन के भवन में आ गए हैं। स्टेशन की हीटिंग व्यवस्था ने जान में जान डाली। और साथ में गरमा-गरम कॉफी। पटियाला गिलासों में। पीते-पीते ही थक जाओ।

मधु जी,नीना जी और ज़किया जी का इंतज़ार। मेरे पीछे एक मोटा व्यक्ति छड़ी लेकर खड़ा है, सड़क के उस पार। ये चर्चिल हैं। चर्चिल की प्रतिमा। सब आ गए हैं और अब हम लोग ब्रिटिश संसद में प्रवेश कर रहे हैं। द्वार पर एक सिक्यूरिटी ऑफिसर सभ्यता से पूछताछ करता है और हमारे गंतव्य हाल तक जाने का रास्ता समझाता है। सिक्यूरिटी चैक पर हमारा सारा सामान मशीन से होकर गुज़रा है। और हम भी। चैकिंग के बाद मैं अपना सामान उठाकर, कोट पहनकर चलने को होता हूँ कि एक बड़ा ऑफिसर मुझे पीछे से आवाज़ देकर रोकता है। मैं वहीं रुक जाता हूँ। वो मेरे पास आता है और मेरे कोट की कॉलर पीछे से ठीक करने लगता है, जो मुड़ी रह गई थी। कॉलर ठीक करके वो मुस्कुराहट के साथ मुझे जाने को कहता है। मैं हतप्रभ-सा धन्यवाद देकर बढ़ जाता हूँ।

संसद भवन अंदर से भी उतना ही भव्य है। आँखें फटी की फटी रह जाने वाला मुहावरा वाक्य में प्रयोग किया जा सकता है। मगर हमारे सामने एक दूसरा मुहावरा आ गया है, हाथों के तोते उड़ जाने का। तेजेन्द्र जी ने गलती से एक छोटा-सा कमरा बुक कर दिया है नाम के धोखे में। जुबिली हॉल असल में एक चाय-पार्टी कक्ष का नाम है। तेजेन्द्र जी का चेहरा बता रहा है कि मामला गंभीर है। ज़किया जी उन्हें आश्वस्त करके सांसद वीरेन्द्र शर्मा से संपर्क करने में जुट गईं हैं। ज़किया जी लेबर पार्टी की काउन्सलर हैं और वीरेन्द्र जी उसी पार्टी के सांसद हैं। कुछ ही देर में एक सुंदर, आकर्षक नौजवान अर्जुन, जो सांसद के निजी स्टॉफ से है, आ गया है समस्या को समझने के लिए। उसके चेहरे पर भी चिंता की लकीरें हैं। मुझे तो जुबिली रूम भी ठीक लग रहा है। इतना छोटा भी नहीं है। अर्जुन अधिकारियों से समस्या का हल जानने का प्रयास कर रहे हैं। बीच-बीच में वे मोबाइल पर किसी से बात भी कर रहे हैं। कुछ ही देर में सांसद वीरेन्द्र शर्मा आ पहुँचते हैं। बिना किसी ताम-झाम के, अकेले। वे हम सब से मिलते हैं और समस्या के बारे में पता करते हैं। अब तेजेन्द्र जी और हम सब एक तरफ बैठ गए हैं और वीरेन्द्र जी अर्जुन को साथ लेकर समस्या का हल तलाश कर रहे हैं। मुझे भारत के सांसद याद आ रहे हैं। लगभग आधे घंटे की मशक्कत के बाद वीरेन्द्र जी चेहरे पर उल्लास लिये आते हैं और हम सब से कहते हैं चलिए। बात की बात में हम एक अत्यंत भव्य कक्ष में आ गए हैं। संसद के सबसे भव्य कमेटी कक्ष में। कक्ष की आंतरिक साज सज्जा हतप्रभ कर देने वाली है। वीरेन्द्र जी हमारे साथ अर्जुन को छोड़कर वापस चले गए हैं किसी मीटिंग में। कार्यक्रम में कुछ देर बाद उनको आना है। ज़किया जी और शिखा वार्ष्णेय जी कार्यक्रम की तैयारी में लग गईं हैं। मैं कक्ष को घूम कर देख रहा हूँ। खिड़कियों से सटकर बह रही है टेम्स। इतनी सटकर कि लग रहा है मानों हम किसी क्रूज़ में बैठे हैं। लोग आ रहे हैं और कक्ष भरता जा रहा है। कई चेहरे, जिनके नाम सुने हैं पर मिल पहली बार रहा हूँ। मोहन राणा, विजय राणा, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, डॉ. कृष्ण कुमार, कादम्बरी मेहरा, अरुण सभरवाल, साथी लुधियानवी, शिखा वार्ष्णेय, डॉ. श्याम मनोहर पाण्डेय जैसे जाने-पहचाने नाम और कई सारे लोग। हाँ मेरे शहर की एक बेटी जो मेरी छात्रा भी रही है श्रुति झँवर, वो अपने पति अंकुर के साथ आई है। उसकी आँखों की चमक मेरे शहर सीहोर की चमक को दिखा रही है। सफलता की चमक जब अपनों की आँखों में दिखे, तो कितना अच्छा लगता है ना ?

कार्यक्रम ठीक साढ़े 6 बजे प्रारंभ हो गया है। सभाकक्ष पूरा भर गया है। मंच पर कैलाश बुधवार जी, कृष्ण कन्हैया जी, वीरेन्द्र शर्मा जी, ज़किया जी, मैं और तेजेन्द्र जी बैठे हैं। साथ में मंच पर हैं भारतीय उच्चायोग की ओर से संगीता बहादुर जी और पद्मजा जी। न कोई हार-फूल, न कोई अन्य औपचारिकता, कार्यक्रम सीधे प्रारंभ हो गया है। ज़किया जी को मेरी कहानी दो एकांत कितनी पसंद है, ये उनके उद्बोधन से पता चला। पहले डॉ. कृष्ण कन्हैया को पद्मानंद सम्मान और फिर मुझे इंदु शर्मा कथा सम्मान। सम्मान हाथ में लेकर याद आ रही हैं नानी, जिन्होंने कहानी से परिचय करवाया। टेम्स खिड़की के बाहर बह रही है और देख रही है कि सीवन किनारे (मेरे शहर सीहोर की नदी) का भदेस क़स्बाई लेखक हाउस ऑफ कॉमन्स के भव्य सभागार में सम्मान प्राप्त कर रहा है। कविता वाचक्नवी जी ने महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ पर बहुत अच्छा बोला, एक-एक कहानी पर चर्चा की। पद्मजा जी ने भी बहुत अच्छा बोला संग्रह पर। तेजेन्द्र जी संचालन करते हुए मेरे बारे में तथा संग्रह के बारे में बात कर ही रहे हैं। पहली बार एक सम्मान कार्यक्रम देख रहा हूँ जो पूरी तरह से लेखक और उसकी कृति पर केन्द्रित है। पुरस्कृत कृति पर। याद आ रहे हैं एक लेखक जिन्होंने कहा था कि कथा यूके के कार्यक्रम में पूरा कार्यक्रम कथा यूके को प्रमोट करने पर ही होता है, लेखक और कृति की बात ही नहीं होती। और मैं देख ये रहा हूँ कि यहाँ पूरा कार्यक्रम मुझ पर और महुआ घटवारिन पर ही केन्द्रित है।

ये मेरे जन्मदिन की पूर्व संध्या भी है, और भारत में तो मेरा जन्मदिन शुरू भी हो गया होगा क्योंकि वहाँ रात के बारह बज चुके होंगे। कुछ ऐसे ही अपने वक्तव्य की शुरुआत की मैंने। पता नहीं क्या-क्या बोला। पीछे की पंक्ति में हमारे ड्रायवर इख़लाक़ भाई बैठे हैं। अपने वक्ततव्य के समापन पर ज़किया जी के और श्रोताओं के अनुरोध पर सुनाई ग़ज़ल के कुछ शेर मैंने इख़लाक भाई को समर्पित किये। मर गया हूँ या कि पत्थर हो गया हूँ, आदमी  से थोड़ा बेहतर हो गया हूँ, तू अगर दरिया है तो मेरी बला से, आजकल मैं तो समंदर हो गया हूँ।

मेरे वक्तव्य के ठीक पहले एक मज़ेदार घटना हुई। प्यास लगने पर मैंने ज़किया जी से पानी माँगा तो उन्होंने सांसद जी के सामने रखी ब्रिटिश रॉयल निशान वाली काँच की बोतल से पानी मुझे एक गिलास में डाल कर दे दिया। मैंने पानी पिया, तो तीखा, चुभता हुआ लगा वो पानी। मुझे लगा कि कहीं ये रसरंजन तो नहीं था। ज़किया जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि ये स्पार्क्लिंग वाटर है, गला साफ कर देता है। चैन पड़ा मुझे कि रसरंजन नहीं है, नहीं तो वक्तव्य का क्या होता।

कार्यक्रम समापन के बाद मिलने-मिलाने का एक और दौर। दिव्या जी, कादम्बरी जी, उषा राजे जी, कृष्ण कुमार जी, सब बड़ी आत्मीयता से मिल रहे हैं। मिल रहे हैं और विदा ले रहे हैं। बाहर निकलते समय वीरेन्द्र जी अपने संसद भवन से परिचित करवाते हैं। अंदर का स्थापत्य हैरत में डालने वाला है। कैसे बनाया होगा ये भवन? एक स्थान है जहाँ कोई भी व्यक्ति आकर अपने सांसद को बुला सकता है मिलने के लिए। यदि सांसद संसद भवन में नहीं होगा तो उसके लिये मैसेज छोड़ आयेगा वो व्यक्ति । उसके बाद सांसद की जवाबदारी होगी कि वो उस व्यक्ति से संपर्क करे। क्या कहूँ इस पर। काश....। वीरेन्द्र जी स्नेह से विदा दे रहे हैं हमको। क्योंकि वे मेज़बान हैं।

दो-तीन गाड़ियों का कारवाँ अब डिनर के लिये निकल पड़ा है । कल श्रीलंका में डिनर लिया था, आज डिनर के लिये पाकिस्तान जा रहे हैं। लाहौर टिक्का मसाला, रेस्टोरेंट का नाम सुन कर लगा कि यहाँ मेरे लिये क्या मिलेगा, लेकिन पता चला कि यहाँ वेज भी मिलता है। टेबल पहले से तैयार है। श्रुति को जब मैंने बताया कि तेजेन्द्र जी ने शांति सीरियल लिखा था, तो वो उछल पड़ी, सच में ? आपने ही गढ़ा था कामेश महादेवन का पात्र बातचीत के बीच ही एक जग भर कर लस्सी आ गई है, लाहौर की लस्सी। लस्सी खत्म करते न करते तक डिनर लग गया है। हम्ममम सुगंध तो बहुत अच्छी आ रही है। रात भी बहुत हो गई है, सो भूख तो लग ही रही है। खाना बहुत स्वादिष्ट है, मसाले खूब महक भी रहे हैं और स्वाद भी दे रहे हैं। रेस्टोरेंट के मालिक फिलहाल यहाँ नहीं हैं, अपने दूसरे रेस्टोरेंट पर हैं, लेकिन, वहीं से वो यहाँ को सारा दृश्य देख रहे हैं और वेटरों को निर्देश भी दे रहे हैं। तड़के वाली दाल, सब्जी और खाना, क्षुधा को धीरे-धीरे संतृप्त कर रहा है। खाने के बाद खीर आ गई है, ये तो हमने ऑर्डर नहीं की थी। पता चलता है कि ये मुझे अवार्ड मिलने की खुशी में रेस्टोरेंट के मालिक की तरफ से कॉम्प्लीमेंट्री है। खीर तो स्वादिष्ट है ही, लेकिन उसके पीछे की भावना ने खीर को और मीठा तथा स्वादिष्ट कर दिया है। पाकिस्तान ने भारत की सफलता पर खीर खिलाई है। मन फिर से भीग गया। भावुक होना भी ऐसा ही होता है, आप हर कभी भीग जाते हो।

11 अक्टूबर 2013

कब सोचा था कि कभी कोई जन्मदिन लंदन में मनाऊँगा। तेजेन्द्र जी कल के समाचार को, फोटोग्राफ्स को प्रेस रिलीज़ करने में जुटे हुए हैं। मुझे देखते ही गले लगाकर जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हैं। बाहर मौसम बहुत ख़राब है। तेज़ पानी गिर रहा है। आसमान काले बादलों से भरा हुआ है। आज घूमने-फिरने का जो कार्यक्रम है उस पर मौसम पानी फेर देगा ऐसा साफ दिखाई दे रहा है। समाचारों से पता चला है कि उधर भारत में भी कोई बड़ा तूफान उड़ीसा तथा आंध्र के तट से टकराने वाला है। फेसबुक पर जन्मदिन की शुभकामनाओं के संदेश धड़ाधड़ आ रहे हैं। कुछ पत्रकार मित्रों के भी संदेश हैं, जिन्हें कल के कार्यक्रम का समाचार और फोटो चाहिये। तेजेन्द्र जी द्वारा बनाया गया प्रेस रिलीज़ और फोटो उन पत्रकार मित्रों को फेसबुक के माध्यम से ही भेज देता हूँ। अजब है ये फेसबुक भी, जो चाहो वो कर लो। कुछ ही देर में एक समाचार पत्र के वेब संस्करण का लिंक भी आ गया है जिस पर समाचार लग चुका है। छोटे भाई-बहनों (चचेरे, ममेरे, मौसेरे) ने मुझे लेकर जो कमेंट लिखे हैं उन्हें पढ़ रहा हूँ और मुझे लेकर उनके गर्व को देख कर अंदर तक भीगता जा रहा हूँ। एक बहन का कमेंट अंदर के भीगेपन को बाहर भी ले आया है, आँखों के रास्ते से। तेजेन्द्र जी मेरा सिर थपथपा रहे हैं और मैं बह रहा हूँ ।

मौसम अब भी ख़राब है। ज़किया जी अपनी कार में मधु जी और नीना जी को लेकर यहाँ आ गईं हैं। मेरा जन्मदिन कहीं मनाए जाने का कार्यक्रम है। कहीं, का नाम साउथ हाल है। ज़किया जी बता रही हैं कि साउथ हाल में जाकर ऐसा लगता है कि भारत में आ गए हैं। मुझे लग रहा है कि लंदन में आकर तो कम से कम लंदन ही घूमना चाहिये, भारत तो भारत में भी देख सकते हैं। बाहर पानी तेज़ हो गया है। कार साउथ हाल की तरफ बढ़ रही है। दोनों तरफ खूब हरियाली है। कुछ सुंदर से पेड़ हैं। लाल-पीले छोटे-छोटे फलों से लदे हुए । साउथ हाल जब हम पहुँचे तब भी पानी गिर ही रहा है। हम पाँचों अपनी-अपनी छतरियाँ लगाए निकल पड़े हैं साउथ हाल का बाज़ार घूमने। लग रहा है जैसे भोपाल के चौक बाज़ार में हों। साइन बोर्ड भी हिन्दी में हैं कहीं-कहीं तो। यहाँ पर दुकानें भी भारत की ही तरह हैं। सड़क तक सामान जमा रखा है दुकानदारों ने। खुले में जलेबियाँ और दूसरे सामान बिक रहे हैं। पालिका बाज़ार, शेरे पंजाब, ताज ज्वेलर्स, मिर्च मसाला जैसे साइन बोर्ड पढ़ कर अच्छा लग रहा है। 99 पेन्स शॉप (लगभग 99 रुपये प्रति माल) पर हम रुक गये हैं। सबने थोड़ा बहुत कुछ छोटा-मोटा खरीदा है। मैंने बेटियों के लिये दो सुंदर सी टोपियाँ खरीदी हैं। लड़कियों के लिये बाज़ार में खूब सामान मिलता है, लड़कों के लिये क्या ख़रीदो, समझ ही नहीं आता। पानी और ठंड दोनों बढ़ रहे हैं। तय किया गया है कि पहले लंच ले लिया जाए, तब तक शायद पानी रुक जाए। तेजेन्द्र जी ने सुझाया है कि मोती महल में लंच लिया जाए। याद आ गई है भोपाल की मोती मस्जिद।

मोती महल एक भारतीय रेस्टोरेंट है। बाहर ही शुद्ध घी की जलेबियाँ मिल रही हैं। कुछ गोरे लोग खरीद रहे हैं, कुछ हैरत से जलेबी को देख रहे हैं। वही चुटकुला याद आ रहा है कि इसमें शुगर का पानी कहाँ से भरा गया है। भारतीय खाना और साथ में संतरे तथा गाजर का मिला-जुला जूस। पानी....? बताया तो कि पानी यहाँ कोई नहीं पीता। पानी माँगो तो होटल वाला हैरत से देखता है। सामने ही मशीन लगी है उसमें संतरे डालने पर कुछ ही देर में नीचे गिलास में जूस एकत्र हो जाता है। पूरी प्रोसेस आपको पारदर्शी काँच में से दिखाई देती है। हमने शुद्ध भारतीय खाना बुलवाया है। आस पास कुछ अंग्रेज़ भी वही खा रहे हैं। शायद पिज़्ज़ा बर्गर खा-खा कर ऊब गए होंगे। खाना बस ठीक-ठाक ही है। शायद पानी ने मूड ख़राब कर रखा है। खाने के बाद तेजेन्द्र जी जलेबियाँ मँगवाते हैं। करारी तो हैं लेकिन स्वाद एवरेज है। मालवा की जलेबियाँ खा चुके व्यक्ति को कहीं और की जलेबियाँ क्या पसंद आएँगी।

पानी बंद नहीं हुआ है। तय किया गया है कि लौटा जाए और बाकी का दिन सेंट एन्स मॉल में गुज़ारा जाए क्योंकि वो कवर्ड है। हम लौट रहे हैं। पानी तेज़ होता जा रहा है। ट्रेफिक भी बढ़ा हुआ है क्योंकि शनिवार की दोपहर है। लगभग पन्द्रह किलोमीटर चलना है वापस जाने के लिए और ट्रेफिक कार को थाम-थाम कर चला रहा है। कार अब नॉर्थ हॉल्ट की सड़क पर है। बरसात में भीगी सड़क पर तेज़ रफ़्तार से भागती काली मर्सीडीज़। हम सब बातों में लगे हैं। प्लानिंग हो रही है मेरा जन्मदिन मनाने की। घटनाएँ अचानक ही तो घटती हैं। कार अचानक स्किड होती है और अपनी तरफ से दूसरी तरफ चली जाती है। दूसरी तरफ कुछ कारें बत्ती के लाल से हरी होने की प्रतीक्षा में खड़ी हैं। उनमें से सबसे किनारे की कार से जाकर काली मर्सीडीज़ भिड़ जाती है। भिड़ने के ठीक पहले मेरी चीख निकलती है क्योंकि मैं आगे की सीट पर ही बैठा हूँ। ज़किया जी के ठीक पास में। जिस कार से भिड़ंत हुई है उसे भी महिला ही चला रही है। रुकी हुई कार से टक्कर होने के कारण किसी को कोई चोट नहीं आई है। ज़किया जी उतर कर उस महिला के पास गईं हैं, वो भी सकुशल है। दोनों ने पुलिस को फोन कर दिया है। राह चलते लोग देख तक नहीं रहे हैं कि यहाँ क्या हुआ है। इन लोगों को तमाशा देखने का शौक नहीं है शायद । दोनों महिलाएँ (ज़किया जी तथा वो महिला) आपस में घुल मिल कर बातें कर रही हैं। एक दूसरे से पूछ रहीं हैं कि चोट वगैरह तो नहीं है। लग ही नहीं रहा है कि इन दोनों ने एक दूसरे की गाड़ी कुछ देर पहले ही ठोंक दी है। अहा वो भारत के झगड़े... वो ठोंक-पिटाई...वो राहगीरों का हस्तक्षेप...ये भी कोई एक्सीडेंट है?

सायरन के साथ पुलिस की गाड़ी आ गई है। दो-तीन नौजवान पुलिस वाले हैं। साथ में एम्बुलेंस भी है। तीनों पुलिस वाले आते ही हम सब से एक ही बात पूछ रहे हैं, आप सब ठीक हैं? किसी को कोई चोट तो नहीं ? कोई घबराहट तो नहीं ? याद आ रहे हैं भारत के पुलिस वाले। पूरी तरह से मुतमईन होने के बाद कि किसी को कोई समस्या नहीं है पुलिस वालों ने एंबुलेंस को वापस रवाना कर दिया। दोनों गाड़ियों को उन्होंने मुख्य मार्ग से हटा कर साइड के एक कम चलने वाले मार्ग पर खड़ा कर दिया है। ज़किया जी से उन्होंने केवल इतना पूछा कि कैसे हो गई ये दुर्घटना। ज़किया जी के बताने पर कि बरसात के कारण गाड़ी सड़क पर स्किड कर गई, पुलिस वालों ने कहा कि हाँ इस मौसम में ऐसा हो जाता है। उन पुलिस वालों ने दोनों महिलाओं के बीमा के काग़ज़ तथा ड्रायविंग लायसेंस चैक किये जो सही पाये गये। दोनों महिलाओं से कहा कि आप अपनी-अपनी बीमा कम्पनियों को सूचित कर दें आगे का काम उनका है। दुर्घटना के मामले में पुलिस यहाँ तभी काम करती है, जब या तो किसी को चोट लगी हो या चालक के पास लायसेंस नहीं हो। पुलिस अपना काम ख़त्म करके चली गई है। अब बीमा कम्पनी वालों के आने का इंतज़ार करने हम लोग एक कैफे में  बैठ गये हैं कॉफी पीने। सबका मूड उखड़ गया है। ज़किया जी की मर्सिडीज़ को सामने से बहुत नुकसान हुआ है।

ज़किया जी कार को लेकर बीमा कम्पनी की गाड़ी के साथ चली गईं हैं और मैं, तेजेन्द्र जी, मधु जी, नीना जी लंदन डबल डेकर बस की दूसरी मंज़िल पर बैठे वापस घर लौट रहे हैं। सब चुप हैं। मैं खिड़की के बाहर हो रही बरसात को देख रहा हूँ। घर आकर नीना जी ने कहा कि अब केक लाया जाए और जन्मदिन सेलिब्रेट किया जाए। मैंने प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया और मधु जी से कहा कि आप खिचड़ी बनाएँ आज वही खाने की इच्छा है। सुस्वादु खिचड़ी ने भारत की याद दिला दी। हम चारों अब सहज हो गये हैं। खिचड़ी के बहाने हल्का-फुल्का मज़ाक कर रहे हैं। मैंने अपने बचपन की एक कहानी सुनाई कि हम लोग इछावर के सरकारी घर में रहते थे।  ड्राइंग रूम की एक दीवार का पलस्तर ख़राब हो जाने पर पिताजी ने एक ब्रिज की बड़ी-सी तस्वीर उस पर लगा दी थी। हम बच्चे किसी के जन्मदिन या त्योहार पर उसी पोस्टर के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाते थे। हमें ये पता चल गया था कि ये ब्रिज लंदन में है। हम उसे लंदन ब्रिज कहते थे (लंदन आकर पता चला कि उसे टॉवर ब्रिज कहते हैं)। बचपन में मैं अक्सर कहता था कि एक दिन मैं इस ब्रिज पर खड़े होकर भी फोटो खिचवाऊँगा। तेजेन्द्र जी मेरी बात सुन कर उदास हो गए हैं, बोले कि मौसम यदि बिगड़ा रहा, तो ये इच्छा पूरा होना बहुत मुश्किल है, मौसम विभाग ने कल भी बरसात की चेतावनी दी है और ये लंदन का मौसम विभाग है। डिनर समाप्त होने तक मधुजी और नीना जी को लेने टैक्सी आ गई है। उनको रवाना करके मैंने भी तेजेन्द्र जी को गुड नाइट कहा और अपने कमरे में सोने चला गया। रात को सोने से पहले एक छोटी-सी प्रार्थना की अपनी इच्छा को लेकर और अज्ञात से कहा कि यदि बरसात कल भर के लिये रुक जाए तो मैं अपनी इच्छा पूरी करके लंदन से लौटूँ। 14 को मुझे वापस भी लौटना है। रात को सपने में वो जींस आई जो बीस साल पहले के जन्मदिन पर भोपाल जाकर खरीदी थी।

12 अक्टूबर 2013

प्रार्थना सुन ली गई है। सुबह खिलखिलाकर धूप निकली है। बादलों का कहीं नामो-निशान नहीं। लंदन के मौसम विभाग पर भारत की प्रार्थना भारी पड़ गई है। तेजेन्द्र जी भी प्रसन्न हैं कि आज मेरी इच्छा पूरी हो जाएगी। तेजेन्द्र जी ने मधु जी और नीना जी को सीधे हैरो बस स्टॉप पहुँचने के निर्देश दिये हैं। इच्छाओं के पूरा होने में यदि बाधाएँ नहीं आएँ तो इच्छाओं का आनंद ही क्या है। हैरो ऑन द हिल स्टेशन पर जाकर पता चला कि वीकेंड के कारण कई सारी ट्रेन्स स्थगित हैं। तेजेन्द्र जी ने मन ही मन कुछ आकलन किया और कोई रास्ता निकाल लिया है। हम लंदन मेरलीबोन जा रहे हैं जहाँ से हम पैदल बेकर स्ट्रीट जाएँगे और फिर वहाँ से ट्रेन पकड़ कर टॉवर हिल जाएँगे। मेरलीबोन पर एएमटी की प्रसिद्ध कॉफी पीकर हम बेकर स्ट्रीट की तरफ बढ़ गये हैं। पैदल टहलते हुए। मैडम तुसाद के संग्रहालय के अंदर जाने के प्रति मैंने अनिच्छा व्यक्त कर दी। मेरे लिये टॉवर ब्रिज महत्त्वपूर्ण है अभी। बेकर स्ट्रीट से हमने ट्यूब ट्रेन पकड़ी है। अंदर आगे से पीछे तक एक डब्बे समान ट्रेन। टॉवर हिल पर हम उतर गये हैं। यहीं टॉवर ब्रिज है। मन उछल रहा है। गलियों से गुज़रते हुए जब हम एक जगह मुड़ते हैं तो........! सामने सपना खड़ा है। कत्थई, फ़िरोज़ी रंग का टॉवर ब्रिज। नीचे बहती टेम्स और ऊपर आलीशान टॉवर ब्रिज। मैं लगभग दौड़ता हुआ उसकी ओर बढ़ता हूँ। मेरी उत्सुकता देख कर तेजेन्द्र जी गद्गद् हैं। तीनों को एक स्थान पर छोड़कर मैं पूरे टॉवर ब्रिज का एक चक्कर लगाता हूँ, इस सिरे से उस सिरे तक। मैं टॉवर ब्रिज पर खड़ा हूँ। याद आ रही हैं दस्विदानिया के हीरो की 10 इच्छाएँ। उसे छूकर अपने को विश्वास दिला रहा हूँ। विश्वास आ जाने पर मैं सिर उठा कर टॉवर ब्रिज को देखता हूँ। अविश्वसनीय स्थापत्य...! ऐसा कैसे बनाया होगा ? कैसे ? मानव निर्मित होने पर ही विश्वास नहीं आ रहा।

अब हम टॉवर ब्रिज के समानांतर एक लॉन में आ गये हैं, टेम्स के तट पर । फोटो सेशन के लिये। बच्चों ने कहा था कि शाहरुख स्टाइल में फोटो खिंचवा के साथ लाना। मैं पूरी तरह से बेशर्म होकर फोटो सेशन करवा रहा हूँ, तेजेन्द्र जी उत्साह के साथ फोटो ले रहे हैं। तिरछे में खड़े हैं हम टॉवर ब्रिज के। पेट भर के फोटो खिंचवा लिये गये हैं। पेट भर के..? अब वापसी की तैयारी, क्योंकि लंच का समय हो चुका है। तेजेन्द्र जी ने कहा कि अब हम यहाँ से क्रूज़ द्वारा टेम्स नदी पर से होते हुए लौटेंगे वेस्ट मिनस्टर की ओर। क्रूज़ शानदार है। हम छत पर बैठे हैं। एक महिला कमेन्ट्री कर रही है लेकिन किसी अन्य भाषा में करने के कारण समझ नहीं आ रहा है। किनारे-किनारे ग्लोब थिएटर और दूसरी महत्त्वपूर्ण इमारतें आ रही हैं। लंदन की आँख लंदन आइ के ठीक पास से होकर क्रूज़ गुज़र रहा है। ठंड तेज़ से और तेज़ होती जा रही है। वेस्ट मिन्स्टर, मतलब दो दिन पहले जहाँ सम्मान लेने आए थे। ब्रिटिश संसद। वेस्टमिन्स्टर से आक्सफोर्ड सर्कस। मुझे पता चला है कि अब हम लंदन के दिल में हैं। वो स्थान जहाँ फिल्मी सितारे शॉपिंग करने आते हैं। ऑक्स्फोर्ड स्ट्रीट। पहले हम मेक्डॉनल्ड में घुसे हैं। पेट पूजा फिर काम दूजा। बर्गर, आलू की उँगलियाँ और कोक। पेट भरने का पूरा साधन। बर्गर स्वादिष्ट है। या शायद भूख ही कुछ अधिक लगी है। एक और व्यंजन हमने लिया है जिसमें बर्गर के मसाले को एक मेक्सिकन रोटी में लपेट कर दिया है। नाम अब याद नहीं आ रहा। छक कर खाया जा रहा है।

अब फिर से ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर हैं हम। दोनों महिलाओं को अब पेट पूजा के बाद शॉपिंग की याद आ गई है। मैंने अपने लिए कल का दिन शॉपिंग के लिये तय कर रखा है। इसलिये मैं बहुत दिलचस्पी नहीं ले रहा हूँ शॉपिंग में। और आज ज़किया जी भी नहीं हैं, उन्हें मेरी शॉपिंग के बारे में सब पता है और बजट के बारे में भी। तेजेन्द्र जी भी शॉपिंग कर रहे हैं। मुम्बई में रहने वाली बिटिया दीप्ति के लिये। उसने भी एक लिस्ट भेजी है मधु जी के हाथों। बेटे बिचारे कहीं कोई लिस्ट नहीं बनाते, जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया। मैं ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट को महसूस करने की कोशिश कर रहा हूँ। भव्य से भव्यतम दुकानें। वीकेंड के कारण भारी भीड़। सेल के ऑफर। भीड़ का हिस्सा बन कर घूम रहा हूँ। रोड साइड कुछ लड़के खड़े होकर लड़कियों को ताड़ रहे हैं। कुछ जोड़े किनारे खड़े गहरे चुंबन ले रहे हैं। कहीं-कहीं पटरियों पर भारत की तरह दुकानें भी लगी हैं, सस्ते सामान की। भीड़ उनके पास भी है। यह है असली लंदन। केन्द्रीय लंदन। उल्लास और उमंग से भरा हुआ। तेजेन्द्र जी मार्क एण्ड स्पेन्सर में गए हैं। मैं देख रहा हूँ एक दुकान पर एचएमव्ही का बोर्ड और उसका सुप्रसिद्ध रिकार्ड सुनता हुआ कुत्ता। देख रहा हूँ अत्यंत सुंदर लड़के और लड़कियाँ, उनके बदन पर बने टैटू। सुंदर तो हैं ये लोग। पर ये भी है कि जो नहीं सुंदर है वो बिल्कुल ही नहीं है। दुकान में रखे सामानों और उन लिखी क़ीमत को भी देख रहा हूँ। दुनिया भर के फिल्मी सितारे जहाँ खरीददारी करने आते हों, वहाँ तो ऐसी क़ीमतें होंगी ही। शाम ढल गई है। ठंड बहुत ज़्यादा हो गई है। अब हम लौट रहे हैं शायद मार्बल आर्क नाम के स्टेशन की तरफ, जहाँ से हमें घर की ओर लौटना है। उन्हीं जाने पहचाने स्टेशनों से होते हुए हम ट्रेन से वापस हो रहे हैं। मेरे ठीक सामने एक जोड़ा बैठा है। लड़का रितिक रोशन से शायद दोगुना सुंदर है। दोनों कुछ हरकतें कर रहे हैं जिन्हें मेरी चोर निगाहों के अलावा कोई नहीं देख रहा है। एक स्टेशन पर ट्रेन बदल कर फिर सफ़र जारी। हैरो आन द हिल के बाद हम बस में हैं। तेजेन्द्र जी के घर की तरफ़ लौट रहे हैं।

अब तय हुआ है कि आज नीना जी खिचड़ी बनाएँगी। दिन के बर्गर के बाद अब कुछ और उस तरह का खाने की इच्छा नहीं है। बस स्टॉप के ठीक पास बने घंटाघर से ही तेजेन्द्र जी के घर की तरफ रास्ता जाता है। खिचड़ी के लिये सामान खरीदते हुए घर तक आते आते डिनर का समय हो गया है।  खिचड़ी बनने तक गप्पों का दौर शुरू हो गया है। मैंने पिछले पाँच दिनों से कमरे की कार्नर टेबल पर रखे नकली फलों में से एक को हाथ में लिया, अरे...! ये तो असली हैं। इतने चमकदार और पाँच दिन से बाहर रखे होने के बाद भी जस के तस। तेजेन्द्र जी कह रहे हैं तुम्हारे लिये लाकर रखे थे पर तुमने हाथ भी नहीं लगाया। हाथ तो तब लगाता जब असली समझता। पाँच दिन की कसर पूरी कर ली है। और अब खिचड़ी...म्म्ममममम, आनंद तो आ ही गया है। साथ में कच्चे सेवफल की चटनी। डिनर के बाद मधु जी और नीना जी अपने ठिकाने एजवेयर रवाना हो जाती हैं। थके हुए मैं और तेजेन्द्र जी अपने-अपने कमरे में। रात को परी आती है सपना लेकर। सपना कि मैं फिर से बच्चा हो गया हूँ। साथ के सारे छोटे भाई-बहन भी वैसे ही हो गये हैं। हम सब टॉवर ब्रिज पर खड़े हैं। अलग-अलग पोज़ में फोटा खिंचवा रहे हैं। मैं परी को प्रार्थना सही जगह पहुँचाने के लिये धन्यवाद देता हूँ और सो जाता हूँ। नहीं सोया तो पहले से ही हूँ।

13 अक्टूबर 2013

पानी सुबह से फिर उसी तरह गिर रहा है जैसे 11 को गिर रहा था। ठीक है प्रार्थना भी तो एक ही दिन के लिये की गई थी। आज ज़किया जी की लेबर पार्टी के लिये हम लोगों को चुनाव प्रचार में जाना है। ये मेरी इच्छा है, मैं वहाँ का चुनाव प्रचार देखना चाहता हूँ।  तेजेन्द्र जी और मैं, मधु जी तथा नीना जी को साथ लेते हुए कालिण्डेल क्षेत्र के ब्यूफॉर्ट पार्क में पहुँच गये हैं जहाँ चुनाव प्रचार होना है। पानी तेज़ हो चुका है। ज़किया जी की प्रतीक्षा में हम नज़दीक की कॉफी शॉप द कॉफी अफेयर में बैठ गये हैं। ये कॉफी पटियाला कॉफी से भी बड़ी है। पिलाने वाली कुछ सुंदर युवतियाँ हैं। कुछ ही देर में ज़किया जी के साथ उनकी पार्टी के दो लोग आते हैं। ज़किया जी अपनी पार्टी के लाल रंग का हाई नैक पहने तथा लाल बैग लिये हैं। मैं देख रहा हूँ कि कहीं कोई ढोल, डीजे, झंडा वगैरह वगैरह कुछ दिखे। मगर कुछ नहीं है। पता चला कि कुछ बिल्डिंगों में जाना है और वहाँ जाकर कुछ निश्चित घरों में अपना पत्र धीमे से दरवाज़े में बने लेटर डालने वाले स्थान में से डालना है, बिना कोई आवाज़ किए। हर घर में नहीं डालना है, जिनकी सूची है उनमें ही डालना है।  एस्टोरिया हाउस, एलार्ड हाउस, एराडो हाउस, एसेण्ट हाउस, एवरो हाउस, उस प्रकार की कुछ मल्टी सामने बनी हैं जिनमें हमको जाना है। इनमें प्रवेश के लिए हमें निश्चित समय के लिये पास दिये गये हैं, उतनी देर के लिए दरवाज़े हमारे लिए खुल जाएँगे। हमें बताया गया है कि ये ग़रीबों (...?) के लिये सरकार द्वारा दिये गये फ्लैट्स हैं। हवा और बरसात दोनों तेज़ हैं, छतरियाँ उल्टी हो रही हैं। हम भीग रहे हैं। हम पहली मल्टी में प्रवेश करते हैं। ये ग़रीबों के घर हैं ? ये ? पूरी मल्टी ताप नियंत्रित है। प्रवेश के लिये टोकन लगाना पड़ता है। हर गलियारे में आप जैसे ही दरवाज़ा खोलते हैं वैसे ही लाइट जल जाती है, लिफ्ट तो ख़ैर है ही। तेजेन्द्र जी, मैं, मधुजी, नीना जी और ज़किया जी ने प्रचार प्रारंभ कर दिया है। सूची में मकान नंबर देखना और पत्र डालना। एक मकान मालिक पत्र डालते ही बाहर आया है और डाँटने लगा है। ज़किया जी उसे समझा कर आगे बढ़ जाती हैं। उसके बाद मैं प्रचार से पीछे हो जाता हूँ। क़रीब आधे घंटे में प्रचार समाप्त हो जाता है। आपको हँसी आ रही होगी। मुझे भी आ रही थी। लेबर पार्टी के एक कार्यकर्ता हमें अपनी कार से कालिण्डेल अंडर ग्राउण्ड स्टेशन पर छोड़ते हैं जहाँ से हमें आगे जाना है।

आगे जाने का मतलब ये कि आज मुझे फाइनल शॉपिंग करनी है। बच्चों की लिस्ट के हिसाब से। मगर चूँकि लंच का समय है इसलिए पहले लंच फिर शॉपिंग। लंच के लिये हम बांग्लादेश जा रहे हैं। बांग्लादेश का रेस्टोरेंट है यूस्टन में जिसका नाम है दीवाना। वहीं पर हम बफेट लंच लेने जा रहे हैं। ट्यूब ट्रेन तेज़ी से भाग रही है दीवाना की तरफ। दीवाना छोटा सा रेस्टोरेंट है, मगर खूब सुंदर बना है। एक तरफ बफेट लगा है और वहीं रखीं हैं प्लेटें। हम एक टेबल पर बैठ कर कुछ पापड़-शापड़ खाते हैं स्टार्टर के रूप में। खाना बस ठीक-ठाक है। भारतीय खाना भारत में ही अच्छा लगता है। इससे अधिक स्वादिष्ट तो वो बर्गर और पिज़्ज़ा था। हर देश में उस देश के अनुसार ही खाना चाहिये, अपना देश हर जगह नहीं ढूँढ़ना चाहिये। गुलाब जामुन को चाकू से चार हिस्सों में काट कर रखा गया है। ख़ैर मेरी मनपसंद अरबी के पत्तों और बेसन की सब्जी मिल गई है, अपना काम तो हो गया।

अब हम ट्रेन से सेंट एन्स शॉपिंग मॉल की तरफ बढ़ रहे हैं। मुझे अपनी शॉपिंग के लिये प्राइमार्क ही सबसे अच्छी जगह लगी है और आज तो ज़किया जी भी साथ हैं। आज संडे है और आज शाम पाँच बजे प्राइमार्क बंद हो जाएगा, इसलिये भी जल्दी है। ज़किया जी को मैंने अपनी लिस्ट और हर सामान के आगे उसका संभावित बजट लिख दिया है। वे लिस्ट लेकर चीज़ों की तलाश में जुट गईं हैं। अच्छी-अच्छी चीज़ें वे निकाल कर लाकर मेरी ट्राली में रखती जा रही हैं। कपड़े, स्वेटर, कैप्स जाने क्या-क्या। शॉपिंग लिस्ट में शामिल दो चीज़ों के बजट को देखकर उन्होंने कहा यदि इनके लिए इतना बजट है, तो इनको हम मार्क एंड स्पेन्सर से खरीदेंगे। प्राइमार्क में करीब डेढ़ घंटे की ख़रीददारी के बाद हम दोनों बाहर आये हैं। अन्य तीन बाहर ही बैठे हैं। अब हम अपना सामान उन तीनों के पास छोड़ कर मार्क एंड स्पेन्सर की तरफ बढ़ गए हैं। ज़किया जी को देख कर एक बात बहुत अच्छी लग रही है, वो ये कि मेरा काम वो इस उत्साह से कर रही हैं जैसे ये सामान वे अपने ही परिवार के लिये तलाश रही हैं। ये सीखने वाली बात है, हर किसी के काम को अपना समझ कर करना। मार्क एंड स्पेन्सर, अमीरों की दुकान। हमारी पसंद का सारा सामान वहाँ मिल जाता है, हमारे बजट में ही। ज़किया जी के कहने पर कुछ सौंदर्य प्रसाधन भी मैं पत्नी के लिये लेता हूँ। ज़किया जी ने मेरे लिये एक पुलोवर, मफलर और घड़ी खरीदी है, मेरे जन्मदिन का उपहार। इस उम्र में भी गिफ्ट मिले तो बच्चों के समान खुशी होती है। फुटपाथ पर लगी एक दुकान से मैं कुछ हैंड बैग्स खरीदता हूँ, चलते-चलते की खरीददारी। तेजेन्द्र जी, मधु जी और नीना जी ऊबे हुए बैठे हैं इंतज़ार से। मेरी खरीददारी पूरी होने की ख़बर उन्हें राहत प्रदान करती है। विदा सेंट एन्स, विदा प्राइमार्क, जीवन ने कभी फिर मौका दिया तो आऊँगा तुमसे मिलने। अभी तो अपनी बेटियों की, अपनों की कुछ खुशियाँ ले जा रहा हूँ तुमसे। बस में बैठे-बैठे मुझे चिंता ये लग रही है कि ये सारा सामान मेरे सूटकेस में आएगा कैसे। घर पहुँचते तक शाम रात में बदल गई है। डिनर के लिए आज फिर खिचड़ी का प्रस्ताव तेजेन्द्र जी ख़ारिज कर देते हैं। श्रीलंकन रेस्टोरेंट द मीटिंग प्लेस जाने का निर्णय होता है। पता चलता है कि दिव्या माथुर जी भी वहीं आ रहीं हैं मुझसे मिलने। हमारे डिनर के लिए निकलने से पहले श्रुति और अंकुर आ गये हैं। श्रुति के लिए सीहोर से उसकी मम्मी ने कुछ सामान भेजा है वो लेने और यहाँ से कुछ सामान भेजने। माँएँ बेटियों को नहीं भूलतीं कभी और बेटियाँ माँओं को।

मीटिंग प्लेस पर इस बार उस सुंदर युवती के साथ एक युवक भी है। हमारे खाना ऑर्डर करने तक दिव्याजी भी आ गईं हैं। दिव्याजी से मिलकर हमेशा बहुत अच्छा लगता है। वे बहुत आत्मीयता से मिलती हैं। बच्चियों के लिये वे चॉकलेट्स का डब्बा लाईं हैं। उन्हें पता नहीं है कि बच्चियों का पिता बड़ा चटोरा है। खाना स्वादिष्ट है। बीन्स की सब्ज़ी खूब अच्छी बनी है। खाना और उसके साथ साहित्यिक चर्चा। चार महिला कहानीकार और दो पुरुष कहानीकार। चर्चा भारत से यूके और यूके से भारत तक दौड़ रही है। दिव्या जी दिसम्बर में भारत आ रही हैं। भोजन के बाद एक विशेष श्रीलंकन व्यंजन हमारे सामने आ गया है, चावल की कटोरियों में भरी हुई चाशनी। ये कॉम्प्लीमेण्ट्री है हम लोगों के लिये। बहुत स्वादिष्ट है वो। किसी अपने यहाँ के व्यंजन की याद दिला रहा है पर याद नहीं किसकी। डिनर के बाद तय होता है कि दिव्या जी यहाँ से मधु जी, नीना जी और ज़किया जी को अपनी कार में ले जाएँगी और उनको उनके उनके स्थानों पर ड्रॉप करती हुईं अपने घर चली जाएँगीं।

लंदन में आख़िरी रात। तेजेन्द्र जी अपने कम्प्यूटर से उलझे हैं और मैं अपने सामान से। एक सूटकेस को लबालब भर कर उसे बंद करने के लिये बचपन की तकनीक अपनाता हूँ, उस पर बैठ कर उसे बंद करने की। दूसरा भी उसी प्रकार पैक करता हूँ। बाकी सब बचा-खुचा बैग में ठुँस जाता है। घंटे भर की मेहनत के बाद सब सेट हो गया है। अपना सामान भी और श्रुति का भी। अगले दिन दोपहर एक बजे की फ्लाइट है इसलिए सुबह जल्दी निकलना होगा घर से। जल्दी निकलना है तो जल्दी सोना भी होगा। मगर नींद है कि आ ही नहीं रही है, पता नहीं कब आती है पता भी नहीं चलता।

14 अक्टूबर 2013

मौसम खुल गया है। आज भारत में दशहरा होगा। बच्चों ने अपना रावण बनाया होगा काग़ज़ का। तेजेन्द्र जी ने आज फिर दो प्रकार के पराँठे सेंके हैं। एक बात तो तय है कि यहाँ से मैं तेजेन्द्र जी और ज़किया जी की मेहमान नवाज़ी का क़ायल होकर जा रहा हूँ और बहुत कुछ सीख कर जा रहा हूँ कि किसी प्रकार से मेहमानों का ध्यान रखा जाता है। और हाँ नीना पॉल जी की विनम्रता का भी। तेजेन्द्र जी के दाँत में बहुत दर्द है, आज डेंटिस्ट से उनका अपाइंटमेंट है। मैंने उन्हें एयरपोर्ट आने का मना कर दिया है। दर्द उसी दिन से है जिस दिन से मैं आया हूँ। मगर वे पेन किलर खा-खा कर काम चला रहे हैं। नियत समय पर टैक्सी आ गई है। इख़लाक़ भाई नहीं आए हैं, कोई और हैं। हम एजवेयर पहुँचते हैं। ललिता जी को शिकायत है कि मैं उस दिन के बाद आज आ रहा हूँ। ज़किया जी भी यहाँ आ गईं हैं उन्हें बीमा कम्पनी ने अस्थाई रूप से एक कार दे दी है उपयोग के लिए। समय कम है सो सड़क पर ही मिलना जुलना हो रहा है। ललिता जी मुझे भावुक देख कर अंदर चली गईं हैं, कुछ ही देर में चॉकलेट्स लेकर लौटी हैं मेरी बेटियों के लिये। ज़किया जी, तेजेन्द्र जी, नीना जी सबसे विदा लेता हूँ। भीगी हुई विदाई। विदा में हाथ हिल रहे हैं, चेहरे धुँधले हो रहे हैं, टैक्सी हीथ्रो की तरफ बढ़ रही है।

चैक इन, सुरक्षा जाँच, बोर्डिंग को पार करते हुए हम अंदर आ गए हैं। शानदार वेटिंग स्पेस में। दोनों तरफ जगमगाती हुई दुकानें हैं। मैं देखता हूँ कि मेरे पास कुछ बजट और बाक़ी है। बच्चों के लिये कुछ और ख़रीददारी कर लेता हूँ। बच्चों के लिये ख़रीददारी करने का मोह कभी कम नहीं होता। मेरे जैसे और भी हैं जो जाते-जाते भी खरीददारी कर रहे हैं। सब कुछ है यहाँ पर।

विमान रनवे पर दौड़ रहा है। दौड़ रहा है ऊपर उठने के लिये। ऊपर उठने के लिये दौड़ना ही होता है। जब आप अपनी सबसे तेज़ गति से दौड़ते हैं, तब ही ऊपर उठ पाते हैं। छूट रहा है पीछे बहुत कुछ। बहुत कुछ जो अब जीवन भर स्मृतियों में रहेगा। बहुत सी यादें हैं। विमान आकाश में उठ रहा है। उठ रहा है, ऊपर, ऊपर बहुत ऊपर। विदा लंदन, विदा कथा यूके, विदा टेम्स...... जीवन रहा, तो फिर मिलेंगे।

-पंकज सुबीर

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        कभी शायर भी रहे पंकज सुबीर, हमारे समय के प्रतिनिधि और लोकप्रिय कहानीकार हैं। उनके उपन्यास उन्हें गंभीर लेखकों की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। उन्हें हमारे समय के सभी महत्पूर्ण पुरस्कार सम्मान मिल चुके हैं। इसके अलावा पंकज के साहित्यिक और सामाजिक  सरोकार ढींगरा फाउंडेशन और शिवना प्रकाशन के ज़रिये राह पाते हैं। अनेक उपलब्धियों के बावजूद पंकज की सहजता और रचनात्मक निगाह की बानगी आप लंदन डायरी में देख सकते हैं।

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