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समुद्र के पास समुद्र
(डायरी में सीताकांत महापात्र)
सतीश नूतन
बिटिया कि पढाई के साथ - साथ हमारी घुमाई भी चरम पर है | एक डेढ़ साल कबल
आंध्र प्रदेश के औद्योगिक शहर विशाखापट्नम कि दौड़ा-दौड़ी थी, अब उड़ीसा कि
राजधानी भुवनेश्वर कि परिक्रमा में मस्त हूँ |
17 अगस्त 2017 कि रात घूम-घाम कर गेस्ट हाउस में सो रहा था | अचानक ऐसा लगा
कि कोई पूछ रहा है–क्या देखा ? जगन्नाथ जी का अंटका (जगन्नाथ मंदिर का
रोशशाला), उदयगिरी, खंडगिरी, कोणार्क सूर्य मंदिर में खूब समय बिताया,
समुद्र कि उछाहें गिन सो रहे हो, ओड़िया साहित्य-समुद्र का गर्जन-तर्जन
नहीं सुनोगे क्या ?
सहसा, नींद खुल गई | ‘गूगल चा’ कि मदद से उड़ीसा के आम आदमी खासकर आदिवासी
समाज कि पीड़ा से खुद को पीड़ित महसूस करने वाले मान्य उड़िया कवि सीताकांत
महापात्र जी का पता ठिकाना और दूरभाष नंबर ढूँढ लिया |
सुबह फोन लगाया | एक महिला कि आवाज आई, ‘साहब, घर पर नहीं हैं' लौट आया
हाजीपुर | खाली हाथ, निराश | पर इस निराशा को आशा में तब्दील करने कि जुगत
में लगा रहा, लगातार..... |
असह्य पीड़ा झेलते माँ स्वर्ग सिधार गई | पूरी श्रद्धा से श्राद्धकर्म किया
| गाँव के ‘महपातर’ को प्रसन्न करने के मात्र सात दिन बाद ‘श्रद्धा’
(सीताकांत महापात्र जी के घर का नाम) में प्रवेश का सुयोग बन गया | फोन पर
महापात्र जी की आवाज ‘आसन्तु’ सुनते ही बाँछे खिल गईं |
तय कार्यक्रमानुसार प्रदीप्त कुमार बेहुरा, संपादक, लेखा लेखी (उड़िया
साहित्य कि मासिक पत्रिका) कि मोटर साइकिल पर बैठकर ‘श्रद्धा’ लिये रवाना
हुआ |
आई.ए.एस. वाली ठसक तो होगी ही.... फर्राटेदार अंगरेजी बोलते हैं, हिंदी के
इस अदना कवि को कितनी तरजीह देंगे.... हिंदी में संवाद न हुआ फिर
मिलने-जुलने का माने-मतलब क्या होगा..... ? ये सारी बातें मोटरसाइकिल कि
गति-सी ही उथल-पुथल मचाते साथ-साथ चल रही थी |
एकाएक प्रदीप्त कि फटफटिया एक बंगले के सामने रुक गई | चहारदीवारी के गेट
पर जो पट्टिका लगी हुई थी, उसकी लिपि उड़िया थी, कवि या फिर उनके घर का नाम
होगा | प्रदीप्त अपनी मोटरसाइकिल पार्क करने में लग गये | मैं लौह- फाटक के
फाँफड़ से अन्दर कि हरियाली-गेंदे कि क्यारी निहारने में मस्त-व्यस्त था कि
अचानक पीछे से आकर एक युवक ने टोक दिया | उसकी टोका-टोकी भी उड़िया में ही
थी, सो मेरे मत्थे कुछ न चढ़ा उसके अबूझ प्रश्न का उत्तर देते हुए मैंने
सिर्फ इतना कहा-‘सर से मिलना है यार !’
गेट को ठेलते हुए उसने बरामदे पर बैठे एक बुज़ुर्ग कि ओर इशारा किया,
वो..... !
चोंय....... अरे वाह ! लौह फाटक की जड़ से निकलने वाली इस आवाज का कमाल
देखिये, सीताकांत जी खुद मेरी ओर मुखातिब हो गये | लगभग दौड़ कर मैंने गेट
से बरामदे तक कि दूरी तय कर ली |
महापात्र जी सुग्गापंखी रंग कि कुर्सी पर बैठे हुए थे | सामने लाल रंग कि
जालीदार कुर्सी पर लिखने- पढने-लेपने के औजार ,अंगरेजी में टंकित कुछ
पन्ने, कलम, व्हाइटनर आदि पड़े थे | उनके चेहरे पर जो मुस्कान गेट से ही
दिखी, बनी हुई थी अब तक | वैसी ही | मैंने इस समुद्र के पाँव छुए | राह
चलते जितने भी सवाल शंकाए उथल पुथल मचा रही थी एकाएक फुर्र हो गयीं | हमारे
‘जातीय’ कवि कुँवर नारायण उपस्थित हो कानों में फुसफुसा गये –
‘... हाथों को छोड़ दो गहरे पानी में
वे डूबेंगे नहीं
उनमें समुद्र भर आयेगा |'
वे उठकर आगे बढे किताबों से भरी-पूरी दुनिया कि ओर | पीछे, मैं और प्रदीप्त
बेहुरा | उनके बैठकखाने में बैठते ही एक खास सुखद अनुभूति की प्राप्ति हुई
|
उन्होंने पूछा- “नाश्ता करेंगे ?”
मैंने कहा -“नहीं, सिर्फ चाय |”
“मैं लेमन टी लेता हूँ, आप ?”
“मैं भी लेमन टी ही लूंगा, सर !”
उन्होंने केदार नामक व्यक्ति को आवाज दी, केदारो..... | आवाज रास्ते में ही
अटक गई, कोई नहीं आया | वे उठकर चल दिए भंसा घर कि ओर | जब तक न लौटे, तब
तक मैं उनके बुक सेल्फ में तांक-झाँक करता रहा | उड़िया-अंगरेजी की मोटी –
मोटी किताबों के बीच प्रिय कवि अरुण कमल जी से मुलाकात हो गई | उनका चिर
परिचित स्वर फूटा -कैसे हो भाई ? अरुण जी को छोड़ वहाँ कोई भी ‘अपना’ न दिखा
|
सीताकांत जी बैठकखाने में पुनः आकर बैठ गये | अपनी तीन उंगलियाँ खड़ा कर
उन्होंने पूछा –
“किस भाषा में बात करेंगे, आप ?
(बारी-बारी से एक-एक उँगली मोड़ते हुए)
अंगरेजी, उड़िया, ना-ना उड़िया तो आप नहीं जानते होंगे; या हिंदी ?”
मैंने हिंदी पर अपनी मुंडी हिला दी और उनके कर -कमलों में अपना संग्रह
‘घोंसला चिरई का’ रख दिया |
‘हिंदी मैं पढ़ लेता हूँ | लिखे को अच्छी तरह समझ भी लेता हूँ | आपने जो
अपना संग्रह दिया यह लिखकर - ‘आदरणीय सीताकांत महापात्र जी को आदर सहित
सहर्ष’ | सहर्ष मतलब हर्ष के साथ | पढ़ लिया न ? समझ लिया न ? माननीय
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसी तरह ‘आदरणीय’ लिखकर अपनी
कविताओं की किताब दी थी | पता नहीं, कौन उठा ले गया यहाँ से | ले गया वह दे
भी गया या नहीं | मैं इन हज़ार दो हज़ार किताबों के बीच अक्सर ढूँढ़ता हूँ,
उसे | शायद इन्हीं में दबी मिल जाये कहीं |’
मेरी ज्यादातर कविताएँ उड़िया में हैं | सिर्फ इसलिए कि उड़िया को छोड़ किसी
अन्य भाषा में मुझे कोई भी स्वप्न नहीं आता | मैं पहले भी कह चूका हूँ,
कहीं | कवि को कविताएँ उसी भाषा में कहनी चाहिए जिसमें उसे स्वप्न आये |’
‘मेरा सौभाग्य कि मुझे अच्छे-अच्छे अनुवादक मिल गए | राजेंद्र प्रसाद
मिश्र, और प्रभात त्रिपाठी जैसे सधे अनुवादकों ने मेरी उड़िया अभिव्यक्ति को
हिंदी पट्टी में खूब प्रचारित किया | ‘आपके’ नामवर सिंह ने मेरी किताब का
मुखबंध लिखा | ये सब रूचि न लेते तो हिंदीभाषियों के अपार प्यार से मैं
वंचित रह जाता | अगली बार जब आप भुवनेश्वर आयेंगे तो अपने कुछ अनुवादक
मित्रों से जरुर मिलवाऊँगा |
अब विदा लेने कि बारी आ गई | राम-सलाम कि औपचारिकता के बाद महज एक-डेढ़ घंटे
कि स्मृतियों को सँजोये ‘श्रद्धा’ से निकलने लगा बाहर, पीछे समुद्र का सवाल
बजता रहा –
‘क्या चाहते हो ले जाना, घोंघे ?
क्या बनाओगे ले जाकर ?
कमीज के बटन ?
नाड़ा काटने का औजार ?
टेबुल पर यादगार ?
किन्तु मेरी रेत पर जिस तरह दिखते हैं
उस तरह
कभी नहीं दिखेंगे |
-सतीश नूतन
वैशाली के निवासी सतीश नूतन जी का
प्रथम प्रेम कविताएं हैं। स्वयं सुविज्ञ कवि
हैं।
उर्दू, ओड़िया और नेपाली में दर्जनाधिक कविताएँ अनूदित हो चुकी हैं।
सीताकांत महापात्र जी के संग बीते एक दिवस की डायरी अत्यंत रोचक है।
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