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 एक फौजी डॉक्टर की मणिपुर डायरी
– ग्रुप कैप्टन अनिल कुमार दीक्षित
 

एयरफोर्स के सीनियर डॉक्टर दीक्षित हमारे पड़ोसी थे हासीमारा में, उनके पास नॉर्थईस्ट के अनुभवों का खजाना था। उन्होंने फौजी डॉक्टर होते हुए स्थानीय लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाई थी, उनका इलाज करके, फीस में उन्हें कई बार चावल की स्थानीय मधु (मदिरा) कभी तेंदुए का बच्चा, जंगली फल भी मिला करते थे। साहित्य प्रेमी दीक्षित जी से वहाँ रहते हुए यह डायरी मैंने बहुत आग्रह कर कर के लिखवाई थी। उम्मीद है इसके रोमांचक अगले हिस्से पुस्तक रूप में आएं ।
 
 
आज इस अनजान  सफ़र को शुरू करने का दिन आ पहुँचा था ।यही कोई तीन हफ़्ते पहले की बात हैं  ,जब एडजूटेन्ट के एक फ़ोन ने मुझे एक अजीब से असमंजस में डाल दिया था कोई नहीं जानता था कि ये यूनिट हैं  कहाँ?  बस इतना पता हैं  कि ये कोई एयरफोर्स कि यूनिट तो नहीं हैं  । फौज  का एक अजब - सा सिस्टम हैं  सारे  इंडिया का पता दो नंबरों  में समिट गया हैं  99  ए.पी.ओ. और 56 ए.पी.ओ.  एक यूनिट का नम्बर डाल दीजिये बस हो गया पता। ना कोई पोस्ट ना कोई तहसील । अब शुरू हो गयी खोज आर्मी से पता चला कहीं नॉर्थ - ईस्ट की  यूनिट हैं । शायद बॉर्डर रोड की। एक सस्पेंस तो ख़त्म हुआ ।  
मैं ठहरा फ़र्स्ट जैनरेशन का फ़ौजी ,बस थ्रिल की तलाश ने फौज  का रास्ता दिखा दिया, पर एयरफोर्स की डॉक्टरी में थ्रिल कहीं दूर तक नहीं। बस हर केस को रेफर कर दो मिलट्री हॉस्पिटल को या ऎयर फोर्स हॉस्पिटल्स को। युनिट के हॉस्पिटल में कोई मरना नहीं चाहिये इनक्वायरी हो जायेगी। मैं तंग आ चुका था इस बाबूगिरी से । किसी सीनियर ने कहा भी कि वो पोस्टिंग  कैंसिल करा देंगे मैंने कहा सर थैंक्स ,लेट मी एंजॉय फ़ील्ड लाइफ़ ।
पहली पोस्टिंग ढेर सी सलाहें। सामान ऐसे पैक करना । लकड़ी के बॉक्स, काले आयरन के बॉक्स मंगा कर सामान की पैकिंग शुरू की। सब कहानियाँ सुना रहे थे नॉर्थ ईस्ट पोस्टिंग और सामान सामान के महीनों बाद पहुँचने से लेकर ग़ायब होने तक की कहानियाँ। फौज  में हर किसी के पास कहानियों का पूरा भंडार हैं  जो जितना सीनियर उसके पास उतनी ज़्यादा  कहानियाँ
जैसे – तैसे  करके तैयारी पूरी हुयी।
 

अगस्त 1992  

आखिर मेरी फ़ेयरवेल का दिन आ गया मैं स की गहमा - गहमी आज मैं तो गैस्ट था।  मेरा ड्रिंक, मेरी प्लेट हर किसी को मेरा ख़याल था। एक यूनिट के सी. ओ. ने ज़ोर से कहा “ सर ही इंज ए लकी फैलो गोयिंग टू बैचलर्स हैं वन।“ हर कोई ठहाके लगा कर हंस पड़ा मगर मैं शर्मा गया।

औपचारिक स्पीच और जॉली गुड फैलो के साथ हवा में तीन बार उछालने के साथ डिनर लगा और डांस चलता रहा। पार्टी देर से खत्म हुई लेकिन जब मैं कमरे में आया तो इतनी शराब पीने के बावजूद मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। किसी जगह को छोडते हुये मन कच्चा क्यों हो जाता हैं ? स्वभाव से मैं जिप्सी हूँ मुझे कोई एक जगह उसे लंबे समय तक बाँध नहीं पाती पर कुछ तो मेरा हिस्सा पीछे छूट जाताहैं  हर बार ।

 

समय से रेल्वेस्टेशन पर हूँ। नॉर्थ - ईस्ट एक्सप्रेस  भी एक अलग सी ट्रेन हैं   हर ट्रेन की अपनी अलग कल्चर होती हैं  ,कोई मज़दूरों की ट्रेन कोई फ़ौजी ट्रेन । ये टिपीकल फ़ौजी ट्रेन हैं  खचा-खच  भरी टिपीकल फ़ौजी चेहरे काले बक्से  जवानों की बातचीत का एक सा अन्दाज़ अरे मेजर,यंग ऑफिसर्स  का अपना अलग अंदाज। नये  - नये रुतबे के गर्व से दमकते चेहरे अपने आप को भीड़ से अलग दिखाने की चाह। छोटे बाल, हाथ में एक इंग्लिश नावेल ,मंहगी सिगरेट का पैकेट, ब्रांडेड जीन्स।

आधी रात का वक़्त रहा होगा अचानक शोरगुल के साथ चट चट डिब्बे की लाइटें जला दी गयी। मानो कोई हमलावर सेना घुस आई हो। क्या मगध की सेना कलिंग में प्रवेश कर गयी ? यह पटना स्टेशन हैं  यहाँ  के पानी का असर हैं !  इसीलिये तो अशोक में इतनी आक्रामकता थी।  उसने ख़ुद तो बुद्धम शरणम गच्छामी होकर शांति पा ली पर शायद ये इलाक़ा दिया तले अंधेरे का ज्वलन्त उदाहरण बन गया। हर कहीं अशांति ।

“आप ईंहा बैठिये ओ बाबू कंहा गवा परनाम परनाम।“

 किसी ने उकता कर कहा - “अरे भाई शोर कम कीजिये!” तो तुरंत आक्रमक सुर में जवाब आया – “चुपचाप लेटे रहिये का अपना सीटवा नहीं ढूँढेंगे का।“  सारे लोग आतंकित  अपना सामान चेक कर लीजिये बहुत  चोरी होती हैं  इस इलाक़े में। डिब्बे के किसी कोने से आवाज़ आई अरे मेरे जूते कंहा गये ? किसी जवाब की प्रतीक्षा भी नहीं थी। धीरे धीरे आवाज़ें शांत हो गयी एक सामंजस्य स्थापित हो गया था सब अपनी अपनी बर्थ पर सोने लगे।कुछ नये सुर और जुड़ गये खर्राटों के सुरों में ।

सुबह चाय वालों के समेत स्वरों ने जगा दिया मीठी चाय के २ प्याले पी कर लोगों के जागने से पहले रेलवे की सेवायें ले ली जाये वरना तो क़दम रखना भी मुश्किल हो जायेगा। नॉर्थईस्ट की तरह इस रूट पर चलने वाली ट्रेनें भी उपेक्षित हैं  सौतेली संतान सी ना कोई सफ़ाई ना कैटरिंग सर्विस ढंग की।  सुबह का सूरज कोहरा के बीच से झाँकता हुआ अपने होने का अहसास करा रहा था। अपनी बड़ी पत्तियों को फैलाये ताड़ वृक्षों के झुंड रेणू के ‘तड़बन्ना’ की याद दिला रहे थे । इंसान के सुख पाने मदहोश होने की चाहत के निशान हर ताड़ वृक्ष के तने पर अंकित थे, कहीं  कहीं  पर छोटी छोटी मटकियाँ टँगी थी जिनमें बूँद बूँद इक्कठा हो रहा था सुनहरा हल्का मीठा तुर्शी स्वाद वाला रस । असली लोहिया का समाजवादी ड्रिंक जो ग़रीब - अमीर सब को एक सा असर देता हैं , मस्ती चैन की नींद । पूरे देश को समाजवाद  ,पूरी दुनिया में ज्ञान का प्रकाश देने वाली ये धरती अज्ञानता, अराजकता और वर्ग संघर्ष की धरती बन गयी। ये कैसा विरोधाभास हैं ? ऐसी उपजाऊ धरती खनिज और कोयले से लबालब भरी धरती ग़रीबी कुपोषण की पहचान क्यों हो गयी। संथाल और मुसहरो के गाँव काले आबनूसी जिस्म रंगीन साड़ियों में लिपटी महिलायें एक अलग आकर्षण हैं  उनका। एक विशुद्ध आदिवासी मस्ती अपने आप में मगन लोग। धरती और पहाड़ियों की मिट्टी यहाँ लाल हैं  बिलकुल छत्तीसगढ़ से मिलती जुलती शायद लौह अयस्क की अधिकता वजह होगी एक बार फिर मैं दानी इलाक़ा ख़त्म पहाड़ों और जंगलों का सिलसिला शुरू।हो गया।

वे टू सिलचर

अगली सुबह सूरज की तेज़ रोशनी ने मुझे जगा दिया,घड़ी पर नज़र डाली अभी सिर्फ़ सिर्फ साढ़े पाँच ही बजे हैं। ये सब कितना अजीब हैं ,रोशनी देख लगा मानो१० बजे गये हों। ये लामडिंग स्टेशन हैं । लगभग एक शताब्दी पुराना स्टेशन । यहाँ  से दोनो तरफ़ धान के हरे सुनहरे खेत।  यहाँ से निकले तो  हर थोड़ी थोड़ी देर में कोई स्टेशन आता रहा जहाँ  ट्रेन रुकती भीड़ डिब्बों में आजाती कोई अपनी मुर्ग़ी दबाये कोई बकरी - कुत्ते या छोटे सुअर या किसी जंगली जानवर के बच्चे लिये, बांस के ढेर टाँग डिब्बों के अंदर या बीच में चढ़ते जाते थे । ये नार्थ फर्न्टियर रेलवे हैं  यहाँ  का एक अलग ही सिस्टम हैं ।ये क्या इस स्टेशन पर तो पूरा का पूरा बाज़ार  लगा हुआ हैं  ताज़ी सब्ज़ियाँ,  फल,  अण्डे,  मछली,  हिरन का मांस और भी ढेरों जानी – अनजानी चीज़ें , ये मेन्डरडिशा स्टेशन हैं ...  सारे यात्री ख़रीदारी में व्यस्त थे  शायद यहाँ सबसे सस्ती सब्ज़ियाँ वग़ैरा मिलती हैं । हमारी गाड़ी आराम से रूक रूक कर चलती जा रही थी, ३० स्टेशन  और लगभग ३७ टन्लस से निकलती पहाड़ और जंगल दोनो तरफ़ से रेलवे ट्रेक को लगभग छूते हुये। इस इलाक़े में लैण्ड स्लाइस का भी ख़तरा काफ़ी। हैं । आसमान छूते पेड़ सब एक दूसरे से होड़ करते से मानो हाथ ऊपर उठाये हठ योगी हों जो बर्षो से यूँ ही तपस्यारत हों ।उन पर लिपटी लतायें भी सरपट दौड़ी जा रही हैं  । कहीं  कलकल झरने चले आ रहे हैं, पहाड़ की ऊँचाई से लुका छिपी खेलते । बांयी तरफ़ बराक नदी पेड़ों के बीच बीच से चमचम चमक रही हैं ।  

 मेरा सहयात्री बताता हैं  कि अगला स्टेशन जटिंगा हैं  दुनिया भर में प्रसिद्ध अपनी एक ऐसी आश्चर्य जनक घटना के लिये प्रसिद्ध।,जो हर साल सितम्बर के महीने में होती हैं ,जब हज़ारों हज़ार पक्षी मशालों की रोशनी से खिंचे चले आते हैं  रात को और मौत के शिकार बन जाते हैं। वो भी सिर्फ़ एक पहाड़ी पर कोई नहीं जानता क्या खींचता हैं  उन्हे मौत के चक्रव्यूह में ? दुनिया के भर के पक्षी वैज्ञानिकों के लिये अबूझ पहेली। मैं ध्यान से देखता हूँ उस पहाड़ी पर बसे गाँव की ओर। बस घने पेड़ों के बीच पहाड़ पर बसी छोटी सी बस्ती, कहीं  कुछ रहस्यमय नहीं नज़र आता । क्या ऐसी ही कोई रहस्यमयी अदृश्य शक्ति मुझे भी तो नहीं खींच रही हैं  ,सोच कर झुरझुरी- सी आती हैं ।

मेजर जावेद ने आकर कहा कि – “दरवाज़ा बोल्ट कर दो ये इलाक़ा फ़ेमस हैं  अपनी मिलीटेंट एक्टीविटीज के लिये । सारे के सारे नॉर्थईस्ट के मिलीटेंट ग्रुप का सेफ़ कारीडोर हैं । यहाँ  से बड़ी आसानी से ये बांगला देश से आते जाते हैं।  उल्फ़ा, बोडो ,एन एस सी एन,  हर एक के ट्रेनिंग सेंटर्स हैं  उस पार।“  जावेद ने तल्ख़ी से कहा – “ लचर सरकारी पॉलीसीज के चलते बूंद बराबर देश जिसे हमने पैदा किया ऑंखें दिखाता हैं  । सबके सालों के वेस्टेड इन्टरेस्ट हैं ।“

 

सुबह के साथ रेल गौहाटी स्टेशन में दाख़िल हो रही हैं  -- गहमागहमी से भरा स्टेशन जहाँ  मानो दो संस्कृतियों का संगम हो रहा हैं ।  फ़ौजियों की पूरी की पूरी भीड़ सरदार, मराठे, मद्रासी, बिहारी ,मारवाड़ी व्यापारी और उनके परिवार अपनी अपनी संस्कृतियों की झलक अपने अपने पहनावे और बातचीत में झलकाते मगर नॉर्थईस्ट की कलरफुल संस्कृति से समागम करते से।पर सब कुछ सामान्य तो नहीं लग रहा।हवा में तनाव जैसे घुला हुआ हो ।सब एक दूसरे को अविश्वास की नज़रों से देखते हुये ।किसी ने फुसफुसाते हुये कहा पल्टन बाज़ार में कुछ देर पहले बम फटाहैं  ।कई लोग मारे गये । मैं  अपना सामान  उठवा कर सैनिक विश्रामघर में आ गया हूँ।

उफ़! अंतहीन यात्रा करके मैं अपनी युनिट पहुंच गया हूँ। मेरा कमरा  लकड़ी के फ़्रेम पर बॉस की चटाई को जोड़ कर उस पर सीमेंट का प्लास्टर कर के बनाया गया हैं । टीन की उसके नीचे प्लाई के फ़्रेम से फ़ॉल्स रूफिंग बनी थी ,इस प्रकार के घर यहाँ बाशा कहलाते हैं  ,पीछे की खिड़की से अनानास के बग़ीचे का अनंत विस्तार दिखता हैं । पूरा इलाक़ा भूकंप वाली पट्टी का हैं  इसलिये  मकान बनाने में हल्के सामान का इस्तेमाल किया जाता हैं । इस छोटी सी मैं स में  हम कुल ४ ऑफिसर्स  थे ,हरी सब्ज़ियाँ बहुत कम मिलती थी ज़्यादातर सब्ज़ियाँ टिन्ड आती थी ।पाउडर मिल्क ही चाय,  स्वीट ,  खीर बनाने के काम आता था ।

कारीडोर में गमलों में सकुलेन्ट लगे थे सब एक दूसरे से अलग विभिन्न रंगो के अलग अलग शेप के  आधे कटे बाँस के टुकड़ों में अलग अलग प्रकार के आर्किडस लटके हुये थे ।

किसी भी नयी यूनिट में  जाके उसमें अपनी स्वीकार्यता  बनाना आसान नहीं  होता फिर ये तो पूरी तौर से एक अलग आर्गेनाईजेशन था ‘बॉर्डर रोड” और मैं एयर्फोर्स से यहाँ अटैच होकर आया था। क्योंकि मुझसे पहले वाला डॉ कुछ महीने पहले ही जा चुका हैं  और ये सब ठहरे इंजीनयर । सब के अपने - अपने भय । सामान्य बातचीत के बीच पता चला ज़्यादातर लोग बिना परिवारों के रहते हैं , ख़ुद तो रिस्क ली जा सकती हैं  नौकरी के सवाल पर लेकिन परिवार को कैसे रकहा जाए न  अच्छे स्कूल, ना सुरक्षा की कोई गारंटी । मनोरंजन के नाम पर सिर्फ दूरदर्शन  और एक म्यूज़िक सिस्टम  कभी कभी पास के क़स्बे से फ़िल्में लाके देख लो हिन्दी फ़िल्मे बैन हैं  चोरी छुपे मिल जाती हैं  । न्यूज़ पेपर पूरे हफ़्ते बाद एक साथ मिल जाते हैं। बस यही संपर्क सूत्र हैं  उस दुनिया से । यह यूनिट किसी चारदीवारी में घिरी जगह का नाम नहीं  हैं ., बॉर्डर रोड की युनिट हैं  सो  फैली हैं  आसाम के सिलचर से लेकर इम्फ़ाल तक नेशनल हाई वे के साथ साथ बने छोटे छोटे कैम्प लेबर कैम्प के रूप में। सर्प दंश से ले के जानलेवा मलेरिया तक यहाँ की मुख्य समस्या हैं । इन सबसे मुझे अकेले ही निपटना था दूर दूर तक कोई रैफरल हॉस्पिटल भी नहीं था ।

 

सितम्बर 1992

आज मुझे एक बहुत मज़ेदार  जानकारी मिली कि यहाँ के पानी  में तेल होता हैं  और इसे पचाने के लिये रोज़ शराब पीना ज़रूरी हैं  , ज़्यादातर लोग इस पर विश्वास करके अपने हाजमें को दुरुस्त रखने की कोशिश में लगे रहते थे । वैसे पूरे राज्य में नशाबंदी लागू हैं  पर आप यहाँ - वहाँ नशे में लड़खड़ाते पुरूष और स्त्रियों को बड़ी आसानी से पा सकते हैं  ।रम की बोतल यहाँ ब्लैक डॉलर कहलाती हैं  जिसके बदले आप हर कुछ पा सकते हैं वो भी बड़ी आसानी से ।

 आज मेरी ड्यूटी का पहला दिन हैं ,आँख  खुलते ही सूरज आसमान पर चढ़ आया है।  हड़बड़ा के उठ बैठा घड़ी पर नज़र डाली पता चला अभी तो सुबह के 6 ही बजे हैं । बहादुर बैड टी ले आया था। मच्छरदानी हटाते हटाते बोला सर गरम पानी रख दिया है, नहा लीजिये। तैय्यार ही हुआ था कि एक स्मार्ट लम्बा अधेड़ व्यक्ति आ गया उसकी यूनीफार्म  पर लगी रंगबिरंगी रैंक से कुछ समझ नहीं  आया... मेरे असमंजस को भांप कर सैल्यूट करता हुआ बोला – “ सर कश्मीरा सिंह नर्सिंग अस्सिटेंट ।कोई परेशानी तो नहीं  हुयी आपको?” हम बातें करते हुए पैदल ही यूनिट-हॉस्पिटल  की तरफ़ चल दिये । यूनिट के मेनगेट से लगी छोटी सी बिल्डिंग जिसकी पूरी छत नारंगी फूलों से ढकी थी। आगे के हिस्से में विभिन्न रंगो और शेप के क्रोटन्स, चमकीले पीले फूलों की झाड़ी अहा! सब कुछ सम्मोहित करने  वाला। छोटा सा आफिस ,इमर्जेन्सी कम माइनर ओटी  डिस्पेंसरी  और एक वार्ड ,स्टोर । बस ये था हमारा साम्राज्य । स्टाफ के नाम पर कुछ गिने चुने लोग।  बाक़ी सारे लोग अलग अलग कैम्पों में २५० कि मी के स्ट्रेच में फैले । तभी मेरी नज़र एक छोटी लड़की पर पड़ी मंगोल चेहरों में उम्र का अन्दाज़ लगाना मुश्किल होता हैं । मैंने पूछा ये कौन हैं?  उसका नाम कुछ मुश्किल जान पड़ा बस रानी ठीक समझ आया । वो मेरी लेडी अटेंडेट और इंटरप्रेटर थी । नेपाली पिता और मिज़ो मां की संतान जिसे बहुत सी भाषायें आसानी से सीखने का वरदान मिला था । सिर्फ १० क्लास पास । वो चाहती थी अपने पिता की सहायता करना. उसका पिता जो कि बच्चे पैदा करता रहता था, वह मदद करती थी आधा दर्जन बच्चों को पालने मे। दूसरा अटेंडेंट था एक सँथाली लड़का काला आबनूसी रंगत का और हरदम कन्फ़्यूज सा ।

मुझे बताया गया कि लोकल्स भी यहाँ इलाज के लिये आते हैं क्योंकि दूर तक कोई मेडिकल सैटअप नहीं  है। मैं सोच में पड़ गया कि सीमित संसाधनों में कैसे सबकी आशायें पूरी होगी । आज का दिन तो बस नयी यूनिट को समझने और यहाँ के काम करने के तौर तरीके जानने ,संसाधनों की जानकारी ,पता करने में निकल गया । इस २५० किमी में फैली यूनिट की अपनी समस्याएं थी । यहाँ समस्या सिर्फ मानव निर्मित आतंक ही नहीं  प्राकृतिक आपदा ,जानलेवा मलेरिया,  सर्प दंश,  नाना प्रकार के जाने - अनजाने कीट और ख़ून पीने वाली जोंकों की समस्या भी भीषण थी। इस सबसे मुझे अकेले ही निपटना था और इन सब की उम्मीदों पर खरा भी उतरना था। मुझे यहाँ पाकर कितने आशान्वित थे सब के सब ।

आज का दिन ख़त्म हो चला मन में कुछ योजनाएं बनी कैसे क्या करना हैं  ,चुनौतियाँ काम को आकर्षक बनाती हैं । सूरज तेज़ी से अस्ताचलगामी हो चला था । मैं  तैय्यार हो कर घूमने के लिये चल दिया। अपनी यूनिट के आसपास दिखते गांव  मेरे आकर्षण का केन्द्र थे ।गेट पर पहुँचा ही था कि संतरी सैल्यूट कर कुछ संकोच से पूचा – “साहब कंहा जा रहे हैं ?” उसके चेहरे पर आशंका नज़र आ रही थी ।

“बस थोड़ा घूम के आता हूँ ।क्यों?” मैं ने कहा।

“सर शाम के बाद अकेले मत जाइये ।“

“ क्यों क्या हो जायेगा?

“ सर यहाँ लड़के फ़ाइट मार देते हैं ।“

मुझे अंदर से बड़ा अपमानजनक लगा ये सुनना । हँसकर उससे कहा --

”चिंता मत करो ऐसा कुछ नहीं  होगा । अगर किसी ने कोशिश की तो हम भी कुछ तो जवाब दे ही देंगे ।“

लापरवाही से मैं आगे बढ़ गया । भय का बड़ा विचित्र मनोविज्ञान हैं जब तक आप अनजान हैं  कहीं  कोई डर नहीं बस मन में एक फांस गड़ी और बाक़ी काम आपका दिमाग़ कर डालता है।  एक से एक भयानक कल्पनाओं से मन आशंकाओं से भर जाता हैं । कहीं  साला पहले ही दिन कुछ हो गया तो?   तो क्या करूँ क्या वापिस लौट जाऊँ? कैसे बीतेंगे अगले तीन साल ?क्या डरे सहमे रहकर यहाँ वक़्त बिताना होगा । छी: ये मेरा जीने का तरीक़ा तो नहीं । हर इन्सान डर का मुक़ाबला दो ही तरीक़ों से करता हैं या तो डर कर भाग लो और सारी जिन्दगी भागते रहो ।दूसरा तरीक़ा है जो मेरी माँ ने बचपन से सिखाया था कि जहाँ और जिससे डर लगे उसे फ़ेस करो । मैं ने अपने मन को समझाया और याद दिलाया – “ सुनो अनिल ! तुम एक फ़ौजी हो ‘हिट बैक हार्ड! शो दैम योर स्ट्रेंथ।“ स्कूल और कॉलेज के ज़माने की स्ट्रीट फ़ाइटस को याद करके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी ।

“हिश ... ये चिकने लौंडे क्या खाके मेरा मुक़ाबला करेंगे ।“

मैं ने मन में सोचा आज पहला ‘मेंटल वार गेम’ हो ही जाये एक लापरवाह पर अलर्ट अंदाज में मैं ने रोड के बीचों बीच चलना शुरू किया । सड़क के किनारे बने झोपड़ी नुमा घरों के आगे बैठी औरतें और छोटे छोटे नंगे  बच्चे खेल रहे थे पर चेहरों पर कोई दोस्ताना भाव नहीं । थोड़ी ही दूर गया था कि १८ से २० साल के सात-आठ लड़के - लड़कियों की गैंग एक दूसरे के गले में हाथ डाले खिलखिलाते चले आ रहे थे। मुझ फौजी को देख लड़कियों ने लड़कों की तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा लड़कों ने उन्हे आंखों से एश्योर किया और उनकी बाड़ी लैन्गवेज चेंज हो गयी वो शायद उन्हे अपनी मर्दानगी का सबूत पेश करना चाहते थे यह मैं ने एक नज़र में अनुमान कर लिया था। मन ही मन तय भी कर लिया था कि पहला वार बीच वाले के जबड़े पर करूँगा मुँह से निकलता ख़ून बाक़ी को भागने पर मजबूर कर देगा । मैं ने अपने चेहरे के भाव ऐसे रखे जैसे उनका उस सड़क पर होना मेरे लिये कोई डर-वर के मायने नहीं रखता । मैं  सधे क़दमों से सड़क के बीचों बीच उनकी तरफ़ बढ़ता चला जा रहा था। अब चौंकने की बारी उनकी थी क्योंकि अकसर लोग उन्हें देख कर सड़क से उतर जाते थे। वो अभी भी वैसे ही चैन बनाये चले आ रहे थे पर अब उनके चेहरों पर असमंजस का भाव था, क़दम शिथिल। खिलखिलाहटों का स्थान ख़ामोशी ने ले लिया था । अब वो मेरे आमने - सामने थे।  मेरे हाथो की मुट्ठियाँ भिंची थी, मैं ने  बीच वाले की आँखो में आंखें  डाल के देखा तो उनकी चैन एक झटके से टूट गयी मैं  निर्विकार भाव से बिना उनकी तरफ़ देखे आगे बढ़  गया ।

 

अक्तूबर 1992

आज पास के चाय बाग़ान के मैनेजर मि चड्ढा के यहाँ  से आमंत्रण मिला है। पता चला उनका काफ़ी पुराना रिश्ता है हमारी यूनिट से । मन में एक उत्सुकता तो थी चाय बाग़ान को नज़दीक से देखने की और जानने की । अभी तक तो चाय बाग़ान फ़िल्मों में ही देखे थे । हम सूरज डूबने से पहले ही वहाँ पहुँचना चाहते थे ताकि हम नज़दीक से नज़ारा ले सकें । हरे-भरे बागान और उनके बीच कम छायादार पेड़।  

हमारी गाड़ी जब चाय बाग़ान के बड़े से दरवाज़े पर पहुँची सामान्य परिचय के बाद ये जानकर की हम मैं मैनेजर साहब के मेहमान हैं,  बड़े अदब से सलाम कर रास्ता बताया । चाय बाग़ानों के मैनेजर यहाँ  के अघोषित सम्राट होते हैं। मालिक कोलकता ,मुम्बई जैसे शहरों में बैठे होते हैं जो पहले तो कभी छठे- चौमासे आ भी जाते थे छुट्टियाँ मनाने मगर अब आतंकवाद के चलते.... अपहरण के डर से आते ही नहीं  । जब तक मैनेजर फ़ायदा पहुँचा रहे हैं वो बेफ़िक्री से बैठे हे उसके सिर्फ ज़्यादा कम होने पर ही उनकी नज़रें टेढ़ी होती हैं। वरना उनका काम कोलकता में चाय- नीलामी पर नज़र रखने का होता हैं बस जहाँ चाय के एक्सपर्ट टेस्टर चाय की गुणवत्ता के आधार पर तय करते हैं उसके दाम ।

चाय बाग़ान के बीच से बलखाती सड़क से गुज़रते जाने कितनी  फ़िल्मों के दृश्य आंखों  से गुज़र गये । मीलों फैले इस हरित विस्तार का एकअंतहीन सिलसिला, एकसार कटे पौधे नीचे की ज़मीन पर कहीं  खरपतवार का नामोनिशान भी नहीं। कितना मुश्किल होता होगा ऐसा रखरखाव  बीच - बीच में खड़े चिकने सफ़ेद तने के शिरीष के पेड़ मानो इस पूरे इलाक़े के रखवालों हो । जो गर्मी के मौसम में पूरे इलाक़े को अपनी मदहोश करने वाली ख़ुशबू से भर देते हैं । ऊँचे नीचे विस्तार में फैले चाय बाग़ान में नदियाँ पहाड़ जंगल बस्तियाँ सब कुछ होती हैं। एक ऊँची पहाड़ी पर चारदीवारी से घिरे दो ख़ूबसूरत बंगले एक बड़ा दूसरा थोड़ा छोटा । उस हरे विस्तार के बीच सरपट भागते चक्करदार रास्ते ,दूर झिलमिलाती ‘जिरी’ नदी की धारा लुका छिपी खेलती सी लग रही थी ।ऊपर नीले आसमान में एक छोटा सा काला बादल ठिठका खड़ा था किसी छोटे बच्चे सा जो इस ख़ूबसूरत नज़ारे को देख घर जाना भूल गया हो।  बंगले लकड़ी के ऊँचे प्लेटफ़ार्म पर बने हुये चारों तरफ़ फैला हरी कार्पेट ग्रास का लान क्यारियों में सुरूचिपूर्ण ढंग से लगे फूलो के पौधे मानो उस हरे रंग के कैनवास पर अपने रंग बिखेर रहे थे । नीचे की तरफ़ उतरती सीढ़ियाँ ।एक कोने में लगा झूला  और बैडमिण्टन कोर्ट ।

मिस्टर चड्ढा लम्बे - आकर्षक व्यक्तित्व के हैं, सिर पर हैट लगाये हाफ पैन्ट और टी शर्ट में अंग्रेज़ों के ज़माने के किसी फ़िल्मी मैनेजर से लग रहे थे ।गरम जोशी से मिले ,उनके दोनो डोबरमैन अपने बड़े   - - बड़े जबडे खोले लाल जीभ लटकाये अपनी पीली आंखों से हमें लगातार घूरे जा रहे थे।

“ हैलो! डाक्टर साहब वैलकम टू अवर टी स्टेट ।“ हमने भी तपाक से गर्मजोशी से हाथ मिलाये ।

इस बीच में मिसेज़ चढ्ढा बाहर आ गयी ,वो  अधेड़ उम्र की ममतामयी महिला लगी ।वो उन लोगो में से थी जो अपनी सादगी और अपनेपन से पहली नज़र में किसी को अपना बना लेती हैं ।यहाँ पर सिर्फ ये पति - पत्नी रहते हैं इनकी  लड़कियाँ चंडीगढ़  और शिमला में पढ़ती हैं । पिछले डाक्टर के साथ अपने प्रगाढ़ संबंधों के ज़िक्र ,और सीनियर आर्मी ऑफिसर्स  के साथ अपनी नज़दीकियों की कहानियों के बीच हमें चाय सर्व की गयी ।उनके घर के नौकरों के मैनेरिज्म में  कालोनियल  अनुशासन और अंदाज था । ये सारे लोग पीढ़ियों से इन बाग़ानों में काम करते आ रहे हैं । चाय पी कर हम बाग़ान को देखने चल दिये  । मेरी उम्मीद से अलग चाय के पौधे नाज़ुक मिज़ाज नहीं बड़े मज़बूत होते हैं  कुछ तो पचासों  साल पुराने । बड़ा ही अजीब मिज़ाज है चाय के पौधों का।  इन्हें तेज़ धूप भी चाहिये छाया भी नमी भी ढेर सी बारिश पर पानी जमना नहीं चाहिये। ये अजीब -  सा माहौल फ़ंगस और कीटों के प्रकोप को आमंत्रण देता हैं जिसे क़ाबू में रखने के लिये ढेरों रसायनों का छिड़काव समय समय पर करना होता हैं । ऐसे ही खरपतवार को ख़त्म करने के लिये भी बेहद ज़हरीले रसायनों का उपयोग। ये सब सुन सुन कर बदन में झुरझुरी आ गयी -- तो ये है हक़ीक़त हमारे प्रिय पेय की ।

ये चाय में फूल आने का सीज़न था। पत्तियों में छिपे छोटे छोटे मकरंद से भरे सफ़ेद फूल ,जो मधुमक्खियों की तेज़ नज़रों से नहीं छिप पाते, वो इनकी दावत उड़ाने में मग्न थी । बाग़ान के कोने कोने से चाय की डालियों के सिरे पर लगी दो पत्तियों और कली को अनुभवी आंखें और हाथ वाली आदिवासी महिलाएं बड़ी कुशलता से अंगूठे ,तर्जनी और कभी कभी बीच की उँगली का प्रयोग कर के तोडती हैं फिर इन हरी पत्तियों को जाली दार ट्रालियों में भर कर फ़ैक्टरी में लाया जाता हैं  ,जहाँ पत्तियों को जालियों की बड़ी बड़ी ट्रे मैं  फैला दिया जाता हैं। उसमें से  उन पत्तियों को छाँट कर निकाल देती हैं  जो रोग ग्रस्त  होती हैं । क्रशिंग – आक्सीडेशन फिर नमी सूखने पर ये अल्ट्रावायलेट साइट्स के नीचे  से गुज़रती हैं एक लम्बी चलने वाली प्रतिक्रिया से गुज़र कर ये हरी चमकीली पत्तियाँ दानेदार काली चाय के दानों में बदल जाती हैं । चाय का सारा स्वाद और ख़ुशबू इसी प्रक्रिया में छुपे हैं  ।

शाम होने को थी इसलिये बाक़ी भ्रमण अगली विज़िट के लिये मुल्तवी करके हम वापिस बंगले की तरफ़ चल दिये ।उनके बंगले से शाम का ढलता सूरज बेहद ख़ूबसूरत लग रहा था ।पश्चिमी आकाश सुनहरे लाल रंग से भरा था फिर जैसे उसमें किसी ने स्याही घोल दी हो ,धीरे धीरे बढ़ता जा रहा श्यामल अहसास ।अचानक पश्चिमी आकाश में शुक्र अपनी पूरी ख़ूबसूरती से झिलमिला उठा । देर शाम चायबागान के संथाल लड़के लड़कियों की एक टोली अपनी परंपरागत पोशाक और वाद्ध्ययंत्रो के साथ आ पंहुची । मुझे एक तरफ ये सब बड़ा सामंती लग रहा था, दूसरी तरफ मैस्मेराईज़िंग भी। ज़्यादातर आदिवासी नृत्यों की तरह धीमा पर लयबद्ध लहरों की तरह उठता गिरता ।उनके आबनूसी चेहरे ख़ुशी से दमक रहे थे ,ये देख के अच्छा लगा ।नृत्य और संगीत सारे आदिवासियों और मेहनतकश लोगो के समाज का थकान और तनाव को दूर करने मुख्य साधन हैं । देर रात तक का नृत्य और संगीत तन  मन और आत्मा के  सब दर्द को शून्य कर देता है।  उन पर लगे ज़ख़्मों के दर्द महसूस ही नहीं होते, ना कुछ सोचने का वक़्त... बस एक नींद में सवेरा । फिर नया दिन लगभग पिछले जैसा । ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी उनके जैसे लोग जीते आये थे ।

नवंबर 1992

अब समय आ गया था अपनी २५०किमी मैं  फैली यूनिट का जायज़ा लेने का । हमारे सामने थे दो विकल्प थे या आर्मी कॉनवॉय के साथ जायें या अकेले । दूसरे विकल्प में था अपनी जिप्सी में बिना किसी सुरक्षा के यात्रा अपनी मर्ज़ी का सफ़र जहाँ चाहो रूको जब चाहे चलो ।हमारे मनमौजी स्वभाव को दूसरा विकल्प ही रास आया। हमने अपने ज़रूरी सामान को पैक किया और निकल पड़े उस अन्जान सफ़र पर । सर्पीली सड़क  घूमती हुयी धीरे धीरे ऊँचाई पर लिये जा रही थी।  उसका अहसास अग़ल बग़ल की घाटियों की बढ़ती गहरायी से हो रहा था।  वनाच्छादित उन घाटियों की गहरायी का अहसास सिर्फ ध्यान से देखने से ही होता है, वरना इतनी घनी हरियाली की उसके उदर में क्या -क्या हैं  कुछ नज़र ही नहीं आता बस कहीं -  कहीं  नदी की चमकती धारा अपनी झलक दिखा जाती ।वरना उसके होने का अहसास उसके कलकल छलछल स्वर से ही होता जाता था ।

रास्ते में जगह जगह पर खड़े ट्रकों में अन्नानास और सुनहरी समसित यानी फूलझाडू की लदायी जारी थी। एक मानव - चैन पहाड़ के ऊपर से ट्रक तक हँसी ख़ुशी इस काम को अंजाम दे रही थी । व्यापारी के चेहरे पर एक कांईया क़िस्म की मुस्कान फैली थी ,मिट्टी मोल सौदे के सम्भावित फ़ायदे को लेकर २५ से ५० पैसे  में एक बड़ा जूसी पाईनएपल जो कम से कम इतने ही रूपयों में मेनलैंड में बिकेगा । ट्रक ड्राईवर लड़कियों को लार टपकाते घूर रहे थे आपस में अश्लील टिप्पणियाँ करते खी - खी करते जा रहे थे। यहाँ  की वनसम्पदा दुर्लभ जड़ी - बूटिया औने - पौने दामों में ख़रीदकर मारवाड़ी व्यापारी मालामाल होते जा रहे हैं, यह बात ये जानते हैं मगर कुछ कर नहीं सकते।

 

हमारी यात्रा का पहला पड़ाव था ‘२४ मील यानी गुरुद्वारा कैम्प’ । चौंक गये ना? कि ये कैसा नाम हैं  पर बॉर्डर रोड में जगहों के नाम ‘किमी या मील की दूरी’ के नाम से ही जाने पहचाने जाते हैं । एक छोटा - सा लेबर कैम्प सड़क से सटा हुआ ,सड़क के दूसरी ओर एक नीचे को जाती आधी पक्की सड़क पर घने पेड़ों से घिरा एक लकड़ी के तख़्तों से बना एक पुराना गैस्ट हाउस था। जो रामसे ब्रदर्स की किसी पिक्चर का परफ़ेक्ट सेट हो सकता था ।यहाँ  कभी कभार हमारे जैसा दीवाना-पागल ही कोई रूकता है । चैं...एं एं  की आवाज़ के साथ उसका दरवाज़ा खुला ,लकड़ी का फ़र्श हमारे चलने से कराह उठा ,हमारे जूतों की खटरपटर कई गुना बड़ी होकर उस ख़ाली बंगले में गूँज रही थी । हर तरफ़ की खिड़कियाँ खोलते ही चारों तरफ़ से जंगल के पेड़ – पौधे,  लताये सब एकबारगी ही अंदर आने को बेताब हो उठे ।कहीं  गहरायी से नदी की कलकल छलछल एक मोनोलॉग सी चल रही थी । बिना जूते खोले मैं  बिस्तर पर  लेट गया ,एक प्याली गर्मागर्म चाय के बाद आसपास का जायज़ा लिया जाये ।पहाड़ी रास्ते पर गोल गोल चक्कर खाती सड़क अंग अंग ढीला कर देती हैं ।चाय के साथ सेण्डविच खाते हुये मैं यहाँ पर तैनात अपने मेडिकल अस्सिटेंट से यहाँ के हालचाल पूछता रहा । वो एक अधेड़ उम्र का पहाड़ी व्यक्ति था खुशदिल बातूनी,सेवा भावी । उसकी इन्हीं ख़ूबियों के चलते आसपास के गाँवों  में वो काफ़ी लोकप्रिय था । ये इलाक़ा अपनी हिसंक झड़पों के लिये काफ़ी बदनाम था ! एक दिन पहले ही पाँच लोग आतंकवादियों ने हलाक कर दिये थे । ऊपर पहाड़ी पर था नूंगकाओ गांव । इस गांव  में रहती थी एक रानी! नाम था उसका रानी गायडिलू। मेरा अस्सिटेंट जोश में भरके बोल सर चलेंगें मिलने । वो बहुत बड़ी शख्सियत हैं इस इलाके की। उन्हें  कुछ पद्मविभूषण जैसा पुरस्कार भी मिला हैं,बड़ी लीडर हैं  बड़े बड़े लोग आते हैं मिलने उनसे । उसकी बातों ने एक उत्सुकता जगा दी इस विशिष्ट महिला को जानने की पर एक तो पहाड़ की सीधी चढ़ायी और कल्चर की अनभिज्ञता एक हिचक पैदा कर रही थी । मैं ने कहा इस बार नहीं अगली बार चलेंगे तुम मिलो तो रानी साहिबा को बोलना की साहब आपसे मिलने आना चाहते हैं ।मन में विचारो का झंझावात उठ रहा था कौन हैं ये रहस्यमय महिला ,पुरुषप्रधान नागा समाज में एक सामाजिक धार्मिक नेता ,कैसे उसको स्वीकारा होगा ,कैसे कैसे विरोधों का सामना किया होगा । कितना कम जानते हैं हम अपने देश के इस हिस्से के बारे । मिलने से पहले मुझे इस रानी के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी इकट्ठा करनी ही होगी ।तब ही ये मुलाक़ात मुक्कमल होगी वरना किसी हिस्टारिकल मान्यूमेंट की यात्रा जैसी जब हिस्ट्री में आप ज़ीरो हों !तो बस कहने के लिये की हमने भी देखा हैं  । मैंने आस-पास के लोगों से जाना।

आप भी सोच रहे होगे क्या बकवास हैं  मैं  किसका ज़िक्र ले बैठा ये कौन हैं  भला ।रानी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी  के साथ साथ एक धार्मिक नेता भी थी ,जिसे उसके पंथ में विश्वास रखने वाले देवी का अवतार समझते थे ,चर्च के बडते प्रभाव को रोकने और और अपनी मूल धार्मिक मान्यताओं की रक्षा के लिये उसने हेरका आंदोलन १३ साल की उम्र में ज्वाइन किया और १६ साल की कच्ची उम्र में उसके कंधों पर इसकी अगुवाई का भार आ गया ।ब्रिटिश साम्राज्य को मनीपुर से उखाड़ फेंकने के लिये छापामार युद्ध का संचालन किया ।उसके समर्थक खाम्पीस  कहलाते थे ।रानी को एक साथ दो दुश्मनों से लड़ना था एक चर्च का समर्थक नागा विद्रोही ग्रुप दूसरी तरफ़  अंग्रेज़ी फौज  ।लगभग १६बरस की उम्र में १९३२ में उसे उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी गयी ।१९३७में नेहरूजी जब शिलांग की जेल में रानी से मिले तब उन्होंने उसे रानी का टाइटिल दिया ।स्वतंत्र भारत में वो एक इकलौती नागा लीडर थी जो भारत के पक्ष में थी ।इस वजह से फीजो की नागा नेशनल कौंसिल से रानी के समर्थकों का सशस्त्र संघर्ष चलता रहा । उनसे अगली बार मिलना ही होगा।

कैम्प के लोगो से मिला उनके रहने खाने का बंदोबस्त देखा ।कुछ ज़रूरी हिदायतें कैम्प इंचार्ज को दे कर उनकी समस्यायें पूछी । उसको कहा लोगो को शाम को इकट्ठा रखे । फ़ील्ड में लोगो के दिमाग़ में स्वास्थ्य  और बीमारियों से रोकथाम के लिये  ज़रूरी हिदायतें बार बार देना, देते रहना एक बेहद ज़रूरी क़दम हैं  ।

मैं  अपने सहायक को ले कर आसपास के जंगल को देखने के लिये निकल पड़ा ।यही कहीं  घाटी की खड़ी उतरायी में रूद्राक्ष का पेड़ था । मैं  पहली बार इस पेड़ को देखने वाला था । हम घाटी में सँभल सँभल के झाड़ियों और लताओं को पकड़ पकड़ के उतर रहे थे । पैर कहाँ रख रहे हैं  कुछ पता नहीं।   घनी झाड़ियों से ऊपर और नीचे कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था ।इसी बीच कहीं  से लाल जंगली चींटियों का दल हमारी उपस्थित से घबरा कर हम पर बारिश की बूँदों सा बरस पड़ा। शरीर के खुले हिस्सों पर चीटियों के आक्रमण से  जलन की तीव्रता बढ़ ती जा रही थी जल्दी से एक जगह पैर जमा कर उन्हे अपने कपड़ों के अंदर बाहर से झटक कर दूर किया पर तब तक वो मोटे मोटे ददोरो  की शक्ल में अपने निशान छोड़ गयी थीं । ऊपर के पेड़ों पर नज़र डाली तो पता चला पत्तियों को चिपका कर गोल गेंद की शक्ल दे कर ये चींटियाँ अपना वाटरप्रूफ़ मज़बूत घर बनाती हैं  । कोई ख़तरा महसूस करते ही इनके सैनिक छापामार दस्तों की तरह हमला कर देते हैं  । लगभग तीन चार सौ मीटर की गहरायी पर खड़ा था रूद्राक्ष का पेड़ । उस पर लगे थे हरे हरे रूद्राक्ष । नीचे पड़े कुछ सूखे रूद्राक्ष मैं ने अपनी जेब के हवाले किये । इन असली रूद्राक्षो को पा के मेरी मां  कितनी ख़ुश होगी । अब बारी थी ऊपर चढ़ने की ,जो पहले से कहीं  ज़्यादा मुश्किल होने वाला था । पसीने पसीने होते हम किसी तरह ऊपर पहुंच गये ।कु छ काँटों की चुभन छिले हुये हाथ और चींटियों के काटे के मोटे मोटे निशानों के बावजूद मैं  बेहद ख़ुश था । न जाने क्यों?

पहाड़ों से घिरी इस जगह में शाम कुछ जल्दी ही आ गयी ।हवा में ठंड की खुनकी आ गयी थी मज़दूर की टोलियाँ इस से बेख़बर नहा रही थी शायद दिन भर की थकान को रगड़ रगड़ के दूर हटायें दे रहे थे ।शाम के झुटपुटे में उनके आबनूसी बदन चमक रहे थे । शाम ढलते हम अपनी काटेज में आ गये ।लालटेन की पीली रोशनी सकुचायी सी इस अजनबी जगह में अपनी जगह बनाने की भरपूर कोशिश कर रही थी ।जंगल से आती झिंगुरो की आवाज़ें ही बस इस एकांत को भंग कर रही थी ।खिड़की के शीशों के पार जुगनुओं की ढेर सारी रोशनियाँ  टिमटिमा रही थी ।लालटेन को ढकने से वो सारा दृश्य वॉनगाग की पेंटिंग ‘स्टारी नाईट’ सा जीवंत हो उठा । कितनी देर मैं  उसमें खोया रहा जब तक दरवाज़े से आती ठकठक ने मेरा ध्यान भंग नहीं  किया ।

“यस अंदर आ जाओ ।“

“साहब कुछ लेगे?

“नहीं, कुछ नहीं ।“

“तो खाना कब लाऊँ?

“उफ़्फ़! यहाँ तो शाम होते खाना ।अभी नहीं  एक घंटे बाद लाना ।“

खाना खाते खाते वो कहता गया, “ सर कुछ ज़रूरत हो रात में तो आवाज़ दे देना मैं  यही पास में रहूँगा ।वैसे कोई ख़तरे की बात नहीं । रात में लालटेन जलने देना बिस्तर से उतरते समय अच्छे से देख लेना ,जंगल से सॉप वग़ैरा आ जाते हैं कभी ।“

वह शायद मुझे रीएश्योर  कर रहा था । तभी एक कर्कश स्वर ने मुझे चौंका दिया वो एक लय में कई बार एक निश्चित अंतराल में आती रही फिर ख़ामोशी पसर गयी।  मेरे चौंकने से उसके चेहरे पर आयी मुस्कान को छुपाता हुआ बोला – “सर ये कोका हे। कोका एक चमकीले काले रंग का छिपकली की प्रजाति का जीव है जो काफ़ी शर्मीला  होता है मगर काफ़ी ज़हरीला माना जाता हैं । लोगो की मान्यता है कि एक बार में कोका जितनी बार आवाज़ निकालता हैं  उतनी उसकी उम्र होती हैं ।“ कोका के डर को मन से हटाते हुए अब सोने की कोशिश की जाये। रात के साथ  जंगल की आवाज़ें और स्पष्ट  होती जा रही थी । पहाड़ी नदी रात को और मुखर होती जाती है ,ऐसा लग रहा था  मानो खिड़की के पास ही आ गयी हो उसकी हरहर झरझर आवाज़ लोरी सी सुना रही थी ।लालटेन के आसपास मँडराने वाले बीटलस और पतंगों की छायाये दैत्याकार रूप  ले कर दीवारों पर अंधेरे उजाले का एक अजीब सा खेल खेल रही थी।बीच बीच में एक अजीब सी तीखी चटकने की आवाज़ें रात के सन्नाटे को भंग कर रही थी ।पुरानी लकड़ी के मकानों में ये आवाज़ें कॉमन हैं । धीरे धीरे कब आँखे नींद से बोझिल हो बंद हो गयी। एक नींद में सुबह हो गयी चाय पी के ही निकलने का कार्यक्रम था ।जल्दी से तैय्यार हो निकल पड़े ।अभी सूरज भी नहीं  निकला था पहाड़ी के नीचे पूरी घाटी सफ़ेद भूरे बादलों से भरी थी वहाँ से उठ उठ कर वो हमें अपने आग़ोश में ले कर आगे बड़े जाते थे एकदम फ़िल्मी स्वर्ग सा दृश्य  था कभी एक छीना सा आवरण कभी गहरे घने बादल लिपटते बड़े जा रहे थे ।आसपास के छोटे बड़े हर वृक्ष वनस्पति को अपनी नमी से सरोवर करते जैसे कोई मॉ अपने उनीदे बच्चे के मुँह को ज़बरदस्ती धो दे ।

सड़क और ज़्यादा घुमावदार होती जा रही थी एक तरफ़ गहरी हरी भरी घाटी दूसरी तरफ़ हरियाली से भरी पहाड़ियाँ ।यहाँ  की पहाड़ियों में चट्टानें कम ढीली  कंकरीला मिट्टी और पत्थरों की बनी होती हैं  ।जिसे ये पेड़ पौधे मज़बूती से थामें रहते हैं  ,जहाँ  जहां ये पेड़ पौधे इन्सानी। लालच की भेंटचढ़ गये हैं  वहॉ गाहे वगाहे ढेर सारा मलबा सरसराता हुआ सड़क पर आ जाता हैं  और फिर रास्ता बंद ।ऐसी हर जगह इतनी बदसूरत लगती हैं  माने पहाड़ के बदन से किसी ने खाल  उतार दी हो और मलबा जैसे मृत जानवर की आंते भलभला कर बाहर निकल आयी हो । जगह जगह पर बोर्ड लगे थे ‘शूटिंग स्टोन ज़ोन’ पहाड़ इन पत्थरों को बरसा के शायद पहाड़ अपना ग़ुस्सा  दर्शाते होंगे ।

पहाड़ी रास्तों पर एक चीज़ बड़ी मज़ेदार नज़र आयी जहाँ कहीं भी बोर्ड पर नज़र आयेगा दुर्घटना बहुल क्षेत्र ,वही आप को सड़क किनारे एक छोटा सा मंदिर नज़र आयेगा सर्वधर्म समभाव का असली प्रतीक जिसमें शिव – दुर्गा,  गुरुनानक, यीसू सब होगे ।वहाँ कोई झगड़ा नहीं , कोई टकराव नहीं विश्वास  का । डर और मुसीबत में किसी की भी शक्ति का साथ मंज़ूर हैं जो भी बचाने आ जाये । पूरी दुनिया काश हर समय एक डर के साये में जीती । ऐसी हर जगह से जुड़ी ढेरों कहानियाँ रोड बनने की शुरूआत से अब तक सुनी सुनाई जाती हैं कि कैसे गाड़ी पर चट्टान गिरी पर किसी को कुछ नहीं  हुआ या कब क्या हादसा हुआ  ।

जगह जगह पहाड़ों से गिरते झरने मिल रहे थे, कुछ छोटे कुछ बहुत बड़े ।गाँवों  के पास के झरनो में बेफ़िक्री से नहाती स्थानीय बालायें आपकी उपस्थिति से बेख़बर, राजकपूर की कितनी ही फ़िल्मों के दृश्य ताज़ा कर देती हैं। मगर यूनीफार्म और पद की गरिमा नज़रों को ना अटकने-भटकने के लिये मजबूर कर देती है । मेरा ड्राईवर फिर भी कनखियों  से देखता धीरे धीरे मुस्कुराता हैं । हम दोनो एक दूसरे को ये जताने की कोशिश करते हैं कि हमने तो कुछ देखा ही नहीं । गांव  के पास के झरनों से बहुत सी जगहों पर बांस को  बीच से काट के बास के ही डंडों पर बांध कर पानी को गांव  के बिलकुल पास पहुँचाने के लिये एक सप्लाई सिस्टम बनाया गया हैं । बिन पैसे २४घंटे की सप्लाई । ये छोटे छोटे प्रयास जीवन को आसान बनाने की कोशिश ही तो हैं।

दोपहर के खाने के लिये हम बराक नदी के किनारे बने एक कैम्प में रूके। मनभावन लोकेशन ।सामने सड़क के दूसरी ओर ऊंचा पहाड़ सर उठाये खड़ा हैं  दूसरी तरफ़ गहराई में बहती बराक की निर्मल धार यहाँ जैसे धीमे सुरों में गुनगुनाती हैं ,सड़क से लगा पहाड़ सुनहरी समसित (फूलझाडू) के पौधों से भरा  था मानो उसका खेत हो जहा तक नज़र जाती ये सुनहरा विस्तार हवा के हल्के हल्के झोंके से झूम झूम जाता था । नदी के दूसरे किनारे का पहाड़  आसमान से होड़ करता बड़े बड़े साल और सागौन के पेड़ों से ढका सर के ठीक ऊपर नीला आसमान , इस आसमान का विस्तार भी सिर्फ पहाड़ से पहाड़ तक ।एक छोटा सा व्यक्तिगत एकांत जिसमें एक छोटा आसमान का टुकड़ा नदी पहाड़ और ख़ामोशी ।। ये ख़ामोशी ये वीराना मोहक था मैं सम्मोहित सा अकेला खड़ा था सिर्फ गाड़ी के एंजिन के ठंडे होने की आवाज़ आ रही थी सूँ सूँ ।गैस्ट हाउस में एक सादा बिस्तर टेबल और चेयर बांस की दीवारें  और चंद खिड़कियाँ जिन पर नीले फूलो वाले परदे थे नदी की तरफ़ के बारामदे में कैन की 4 आराम कुर्सियाँ पड़ी थी ।पहाड़ों से आती पूजा की घंटी सी आवाज़  एक उत्सुकता से भर रही थी की इस वीराने में जहा दूर दूर तक कोई इन्सानी बस्ती नहीं  वहां ये कौन हैं जो लगातार बिना रूके एक लय में बजा रहा है । हार्नबिल्स का प्रेमी जोड़ा आसमान में पंख पसारे तैरता सा उड़ा जा रहा था एक दूसरे के पीछे। मेरे एकांत को भंग किया अर्दली के जूतों की चरमर ने सर चाय ,अब ये पाउडर मिल्क की चाय पीने की आदत पड़ गयी  थी ।

ये मेरा अपना एकांत है।  मैं इससे प्रसन्न और सम्मोहित हूँ । मैं अर्दली से ने पूछा ये घंटी की आवाज़ कहाँ से आ रही हैं  ,मेरी अज्ञानता पर उसे हँसी आ गयी अपनी हँसी को दबाता हुआ बोला ये कीट का आवाज़ हैं । झिंगुरो की जाति का कोई जीव रहा होगा।   

अब इस सम्मोहन से बाहर निकल आगे के सफ़र पर निकलने का समय हो गया था ।आगे का रास्ता कहीं ज़्यादा घुमावदार होता जा रहा था ।पहाड़ों की ऊँचाई बढ़ ती जा रही थी साथ ही उनका स्वरूप भी बादल रहा था कहीं  

बड़ी बड़ी ग्रेफाईट की चट्टानें कहीं पतली - पतली परतदार। कहीं - कहीं  पर गाड़ी को लगभग लटकी दैत्याकार चट्टान के नीचे से गुज़रना होता था लगता था जुरासिक काल के डायनासोर के पैरों के बीच से गुज़र रहे हैं जाने कब लुढ़क कर गाड़ी के साथ आपकी भी चटनी बना दे । एक मोड़ पर जंगल के बीच काफ़ी ऊँचाई से गिरती  दूधिया धार की एक झलक दिखी ।जब तक मैं ने अपने ड्राईवर को गाड़ी रोकने को कहा हम काफ़ी आगे निकल गये थे मैं ने उसको वापिस पीछे चलने को कहा ,उसके चेहरे पर एक हल्की सी झल्लाहट उभरी पर उसे छुपा कर बोला -- ठीक है  सर तेज़ी से उस घुमावदार सड़क पर गाड़ी रिवर्स ग़ैर में दौड़ने लगी मैं उसके कौशल का मुरीद हो गया । वहाँ पहुँच कर मैं ने उसे गाड़ी में ही छोड़ने का सोचा और अकेला ही उस झरने की ओर चल दिया । वो गाड़ी को सुरक्षित पार्क करके तेज़ी से मेरे पीछे पीछे आते हुआ बोला – “साहब जंगल में कभी अकेले नहीं जाना चाहिये पता नहीं  कब क्या ज़रूरत पड़ जाये ।“

 पेड़ों के पीछे छुपे झरने की पूरी ऊँचाई देखने के लिये आपकी टोपी गिर जाये , तना ख़ूबसूरत झरना इसके पहले नहीं  देखा था।  ऊपर पेड़ों से झांकती सूर्य रश्मियाँ इन्द्रधनुषी रंग बिखेर रही थी ।दो पहाड़ियों के बीच घने पेड़ों के बीच ये दूधिया जलधार ,उसका हरहर झरझर स्वर पेड़ों की पत्तियों के बीच से छनछनकर आती किरने एक स्वप्निल संसार की  सृष्टि कर रही थी । पूरे वातावरण में छोटी छोटी पानी की बूँदे हवा के साथ बिखर कर एक धुँध सा वातावरण बना रही थी सूरज की रश्मियाँ उसे एक सुनहरी धुँध में बदल रही थी, मैं और मेरा सहायक हतप्रभ खडे थे । ऐसे जाने कितने स्थान होगे जिन्हें भारत के टूरिस्ट मैप में कोई स्थान नहीं मिला होगा । इस ख़ूबसूरत दृश्य को अपनी आंखों  में भरके फिर हम आगे निकल पड़े। छोटे बड़े  गांव  सारे रास्ते आते जा रहे थे। मणिपुर में  हर गांव  की सबसे बड़ी और बेहतर बिल्डिंग चर्च की होती है। जिसे उसके ऊपर लगे लकड़ी या बांस के क्रास से पहचाना जा सकता हैं  बड़े गांव  का लकड़ी का और छोटे गांव  का बांस की दीवारों का । ज़्यादातर घरों में छोटी छोटी खिड़कियाँ उन पर झूलते सिंथेटिक इम्पोर्टिड कपड़े के परदे ।बाहर और खिड़कियों पर लटके फूलो के गमले ।बहुत से घर घाटी में लटके हुये बने हैं ,जो टिके होते हैं  बड़ी बड़ी लकड़ी की बल्लियों पर । कितना रोमांचक होता होगा ऐसे घरों में रहना। पर एक बड़ी अजूबा चीज़ यह थी कि ज़्यादातर घरों का मुख्यद्वार रोड की तरफ़ ना हो कर उसके दूसरी तरफ़ था। क्या ये धूल और पाल्यूशन को घर में आने से रोकने का डिज़ाइन है या अपने किसी दुश्मन के प्रवेश को मुश्किल बनाने की ।

सड़क पर सूखते धान और कहीं कहीं बांस के बड़े बड़े टोकरों में सूखती मछलियों की भीषण गंध के बीच से गुज़रते हुये हम अपने आज के पड़ाव की ओर बढ़े जा रहे थे । बेली ब्रिज , केन्टीलीवर ब्रिज तमाम तरह के छोटे - बड़े पुलों से गुज़रते हमारा सफ़र जारी था नीचे से सरपट दौड़ते नदी ,नाले  पूरा की पूरा पुल गाड़ी  के निकलने से कांप-कांप जाता । जगह - जगह चेकिंग के लिये बने आर्मी के चेकपोस्ट । गाड़ियाँ बसें रोकी जाती सारे यात्री नीचे उतरते अपने अपने सामान की पहचान कराते कुछ का सामान खुलवा के चेक किया जाता ,पुरूषों की छाती पेट पैरों को छू छू के तलाशी ली जाती महिलायें को बस घूरती निगाहों से गुज़रना पड़ता ।यात्रियों के चेहरों पर झल्लाहट साफ़ साफ़ नज़र आती वैसी ही झल्लाहट तलाशी लेने वालों के चेहरों पर भी ।भाषा की दीवार दोनो की झल्लाहटों में बढ़ोतरी करती ।

सड़क अब तेज़ी से नीचे की तरफ़ जा रही थी, नदी के उस पर था एक क़स्बा नाम था ‘ नोने ‘  सड़क के दोनो ओर बनी दुकानें और मकानों का विस्तार ऊपर पहाड़ी तक बिखरे। नदी पर नये ब्रिज का निर्माण चल रहा  था । बड़ी बड़ी क्रेने  और भी कई तरह की अजीब मशीनें अपने काम में लगी थी बारिश शुरू होने से पहले जितना ज़्यादा से ज़्यादा काम हो जाये । हमने अपनी गाड़ी को नदी के किनारे ठेकेदार के कैम्प की तरफ़ मोड़ दिया । हमें देखते ही मि. पालचौधरी  अपने पान से लाल ओंठो और दाँतो को खोल मुस्कान बिखरते आ गये । यही ठेकेदार हैं इस काम के और इस सड़क पर चलने वाले ज़्यादातर कामों के । इस इलाक़े में काम करवाना आसान नहीं । इसलिये चंद गिने- चुने ही ठेकेदार हैं   जो यहाँ काम कर पाने में सक्षम हैं आतंकवादी संगठनों ,मौसम ,हड़तालों बंद के बीच काम करवाना आसान नहीं। पेशे से इन्जीनियर मि. पाल जैसे इंसान विरले ही होते अल्हड़ मस्त मौला। आजतक कभी उनके चेहरे पर तनाव की रेखा नहीं  दिखी । चाय बिस्कुट के बाद उन्होंने पुल निर्माण की बारीकियाँ बड़े सरल शब्दों में समझायीं की कैसे पिछले कई दशक के नदी के अधिकतम जलस्तर  और पुल पर से निकलने वाले वाहनों के भार को ध्यान में रखकर पुल की कितनी मज़बूती होनी चाहिये  इसका अंदाज़ा लगाया जाता हैं  ।फिर सिलसिला शुरू होता हैं  कुओं के निर्माण और उनके धीरे धीरे नदी के तल में सिंक होने का सिलसिला ।काफ़ी धैर्य  का काम हैं । साइट इंजीनियर बिहारी लड़का था डिग्री के बाद काम की तलाश ने यहाँ  ला पटका था । यही नदी के किनारे टीन की चद्दरों से बना उसका आफिस कम रेसीडेन्स । क्या इस शुरूआत की कल्पना की होगी इन्जीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लेते समय। मन भारी हो गया । कब इस देश में प्रोफ़ेशनल को उनका सही स्थान मिलेगा ।

ये प्लाटून  हेड क्वार्टर हैं , यहाँ से आगे इस सड़क की ज़िम्मेदारी इन लोगो की ।यहाँ पहाड़ी पर यूनिट स्थित हैं वही घर दफ़्तर सब । छोटी सी मैस हैं । यहाँ के इन्चार्ज हैं एक मध्यवय के तमिल आफीसर ,वो और उनका परिवार यहाँ  रहता हैं वो ख़ुश हैं यहाँ स्कूल है बच्चो के पढ़ने के लिये।  एक तरफ़ हमारे छोटा सा मेडिकल सेन्टर हैं ,आर्मी मेडिकल कोर का एक हवलदार यहाँ इनकी देखभाल करता है । पास में एक प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र है। ज़्यादा बीमार वहां ले जाये जाते हैं या फिर सीधे इम्फ़ाल । मैंने उसकी समस्याएं सुनी की कैसे आतंकवादी आते हैं और डिमांड करते हैं दवाओं की । कुछ मरीज़ों को देखा अपने सहायक को ज़रूरी निर्देश देकर की कैसे उनसे डिप्लोमैटिकली डील करे अगली सुबह आगे के सफ़र पर चल दिये। सीमा सड़क सगंठन में काम करना एक अलग क़िस्म की चुनौतियों से भरा हैं  ,बिना किसी सुरक्षा के ऐसे असुरक्षापूर्ण माहौल में रहना और काम करना ,नाजायज़ माँगो को इस तरह ठुकराना की ना ये नाराज़गी को आमंत्रित करे और ना आपके डर को ज़ाहिर करे।

सड़क एक बार फिर लहराती हुयी ऊपर और ऊपर चली जा रही थी ,यहाँ  तक की शंकुकार चीड़ वन शुरू हो गये ,हवा में ठंडक बढ़ती जा रही थी । आसाम रायफल की यूनिट के जवान अपनी सुबह की ड्यूटी पर चल दिये थे सड़क के दोनो तरफ़ कुछ अंतराल से एक के पीछे एक । हाथों में रायफल सम्हाले चौकन्नी निगाहो से आसपास की झाड़ियों पेड़ों के पीछे छिपे किसी संभावित ख़तरे को भाँपने के लिये सचेत । ये टीम रोड ओपनिंग पार्टी की हे । जिसकी ज़िम्मेदारी हैं अपने इलाक़े की रोड की सुरक्षा निश्चित करना । इनके निरीक्षण के बाद ही इस सड़क पर आज का फ़ौजी और सिविल वाहनों का सिलसिला शुरू होगा । अक्सर यही पार्टी  आतंकवादियों के हमले का शिकार बनती हैं । रोज रोज का ये नीरस काम जवानों को भी उकताहट से भर देता हैं । रोज रोज अनिश्चिताओ का ये सफ़र बुरी तरह थका डालता हैं और चिड़चिडाहट से भर देता हैं । एक तीखे मोड के साथ दृश्य अचानक बदल जाता हैं । बांये हाथ पर पहाड़ों का सिलसिला अचानक ख़त्म हो जाता हैं और नज़र आती है गहराई में पहाड़ों से घिरी इम्फ़ाल घाटी । दूर तक फैला धान के खेतों का सुनहरा विस्तार ।सुदूर पहाड़ियों पर बादलों के झुंण्ड  के झुण्ड इस दृश्य से सम्मोहित ठिठके खडे हैं । तभी निगाहें एक बोर्ड पर अटक गयी जिस पर लिखा था "व्हाट इज द हरी,इन्ज्वाय दी ब्यूटी " हमने तुरंत इसका पालन किया । किसी प्रक्रति प्रेमी ने इस जगह को चुना होगा । घाटी को फ़ेस करती एक बेंच चंद फूलो के पौधे सर छुपाने को एक रंगबिरंगी सीमेंट की छतरी । सड़क के दूसरी तरफ़ की पहाड़ी चीड़ वृक्षों से भरी थी । पेड़ों के नीचे की ज़मीन चीड़ की सूखी पत्तियों से ढकी पड़ी थी । हवा में चीड़ के रेज़िन की गंध तैर रही थी । सूरज के ऊपर चढ़ते ही थाने के खेतों में भरा पानी झिलमिला उठा । सुबह की पवन धान की रूपहली बालियों को हौले हौले हिला रही थी मानो जगा रही हो प्यार से कि उठ जाओ ।खेतों की बीच से जाती बलखाती सड़क किसी एनाकौंडा जैसे पसरी पड़ी  थी ।

 

ग्रुप कैप्टन अनिल कुमार दीक्षित

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