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कस्तूरी
इस बार
मैं आपको एक सुन्दर गाने वाली चिडिया के बारे में बताना चाहता
हूँ। अन्य कूजिनी चिडियों की तरह प्रजननकाल में ही यह गाती है इसके अलावा यह भी चुप रहती है और सिर्फ कभी कभी र्क्रीई जैसी बोली बोलती है जो इस वर्ग की खास बोली है। इसका आहार पानी के कीडे घोंघे और केकडे हैं। घोंघों और केकडों को लेकर यह पत्थर पर पटक पटक कर उनका खोल तोड ड़ालती है। यह बहते हुए सोते के बीच इस पत्थर से उस पत्थर पर फुदक फुदक कर बैठती रहती है और बहने वाले अपने शिकार को पकडती रहती है। इसकी पूंछ हमेशा पंख की तरह खुली रहती है और जब तक बैठने की जगह को छुने न लगे ऊपर नीचे होती रहती है। इसकी कोशिश यह रहती है कि चट्टान के खोखलों और दरारों में अगर कोई शिकार दुबका हो तो उसे दबोच ले। इसके प्रेमी लोग इसे बहुत बढिया गायक चिडिया मानते है और बच्चा होने पर पाल ली जाए तो सचमुच खूब पल भी जाती है। इसका घोंसला जड क़ाई घास वगैरह का बना और ऊपर से गारा लगा एक गद्देनुमा होता है और किसी चश्मे के नीचे या इर्द-गिर्द किसी फटी हुई चट्टान या अलमारीनुमा हिस्से में रखा होता है। एक बार में मादा 3 य 4 अंडे देती है ये रंग में हल्के भूरे या भूरे पत्थर जैसे होते हैं और उन पर लाली लिए कत्थई रंग के धब्बे या चित्तियां पडी होती है। इसी की निकट संबंधी हिमालयी कस्तूरी होती है। यह हिमालय की तलहटी के किनारे पट्टी में असम और बर्मा तक पाई जाती है। इसकी पहचान यह है कि इसकी चोंच काली के बजाय पीली होती है और इसके माथे या कंधों पर कोबाल्ट रंग के चप्पे नहीं होते।
यह
भारत के पश्चिमी घाट,
मध्यप्रदेश के जंगलों,
तमिलनाडु के शिवालिक पहाडों
में
तथा गुजरात के पहाडों
जैसे
माउंट आबू तथा हिम्मत नगर में पाई जाती है।
यह
घरों
के आस-पास
की
चिडिया नहीं जंगल की चिडिया है ना प्यारी चिडिया! अगली बार एक और अद्भुत चिडिया से मिलवाने के वादे के साथ।
तुम्हारा
मनोज अंकल
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