कश्मीरी की लोकप्रिय रामायण : रामावतारचरि

कश्मीरी भाषा-साहित्य में रामकथा-काव्य रचने की सुस्पष्ट परंपरा उन्नीसवीं शताब्दी के आसपास से देखने को मिलती है। कुल मिलाकर सात रामायणें लिखी गइंर् जिनके रचनाकाल के क्रम से नाम हैं-'रामावतारचरित` (१८४७ ई०), 'शंकर-रामायण` (१८७०), विष्णुप्रताप रामायण'(१९०४-१४), ' आनंद रामावतारचरित'(१८८८), `रामायण-इ-शर्मा' (१९१९-२६), `ताराचंद रामायण' (१९२६-२७) तथा ``अमर-रामायण'' (१९५०)। इनमें सर्वाधिक लोकप्रिय कश्मीरी की प्रथम रामायण `रामावतारचरित' है जो प्रकाशित हो चुकी है। शेष रामायणें अप्रकाशित हैं अथवा उनका उल्लेख मात्र मिलता है। `विष्णु प्रताप रामायण' (रचयिता पं० विष्णु कौल, रचनाकाल १९०४-१९१४) की हस्तलिखित पाण्डुलिपि (कलमी-नुस्खा) उपलब्ध है और विष्णुप्रताप रामायण का आलोचनात्मक अध्ययन शीर्षक से इस रामायण पर कश्मीर विश्वविद्यालय में १९७६ में शोधकार्य भी हुआ है।
ऊपर कश्मीरी की जिन उपलब्ध  अनुपलब्ध रामायणों का उल्लेख किया गया, उनमें `रामावतारचरित' को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भक्तिरस से ओतप्रोत रामकथा इसमें गायी गई है। `रामावतारचरित' के रचयिता कुरिगाम (कुर्यग्राम) कश्मीर के निवासी पं० प्रकाशराम हैं। १९ वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में इनका आविर्भाव हुआ बताया जाता है। सन् १८८८ ई० तक वे जीवित थे। सर जार्ज ग्रियर्सन ने इनका कविता-काल कश्मीर के गवर्नर सुखजीवन (१७५४-१७६२ ई०) का समय बताया है जो सही नहीं बैठता। प्रकाशराम ने २८ वर्ष की आयु में संवत् १९०४ तदानुसार १८४७ ई० में अपनी प्रसिद्ध काव्यकृति 'रामावतार चरित` की संरचना की थी-इस कृति की एक हस्तलिखित प्रति पर संवत् १९०४ स्पष्टतया अंकित है। इस आधार पर प्रकाशराम का जन्मकाल सन् १८१९ ई० बैठता है।
प्रकाशराम भगवती त्रिपुरसुन्दरी के अनन्य भक्त थे। उन्हीं की कृपा से उन्हें वाक्-शक्ति का अपूर्व वरदान प्राप्त हुआ था। कहते हैं कि वे नित्य देवी की पूजा करते तथा उनकी आराधना में घंटों बिताते। एक दिन खूब वर्षा हो रही थी। अंधेरा घिर आया था। प्रकाशराम को दूर से एक डोली अपनी ओर आती हुई दिखाई पड़ी। डोली के वाहकों ने प्रकाशराम को आवाज़ दी। प्रकाशराम जब डोली के निकट पहँचे तो डोली का पर्दा ऊपर उठा। डोली में साक्षात् त्रिपुरसुन्दरी विराज रही थीं। प्रकाशराम के नेत्र प्रफुल्लित हो उठे। कुछ ही क्षणों के बाद भगवती डोली सहित अन्तर्धान हो गई। भगवद् भक्ति का अनूठा प्रसाद पाकर प्रकाशराम का तन-मन झूम-झूम कर ईश-स्तुति में रम गया। प्रकाशराम की निम्नलिखित पांच रचनाओं का उल्लेख मिलता है--
(१) रामावतारचरित, (२) लवकुश-चरित, (३) कृष्णावतार, (४) अकनन्दुन और (५) शिवलग्न।
उक्त पांच रचनाओं में से केवल 'रामावतारचरित` तथा 'लवकुश-चरित` प्रकाशित हुए हैं। 'लवकुश-चरित` 'रामावतार-चरित` के अन्त में छाप दिया गया है।

प्रकाशराम के 'रामावतार-चरित` का मूलाधार वाल्मीकि कृत रामायण तथा 'अध्यात्म रामायण है। संपूर्ण कथानक सात काण्डों में विभक्त है। 'लवकुश-चरित` अन्त में जोड़ दिया गया है। कवि ने प्रमुखत: दो प्रकार की काव्य शैलियों का प्रयोग किया है- इतिवृत्तात्मक शैली और गीति-शैली। इतिवृत्तात्मक शैली में मुख्य कथा-प्रसंग वर्णित हुए हैं तथा गीति-शैली में वन्दना-स्तुति सम्बन्धी तथा अन्य भक्ति-गीत कहे गये हैं। इन गीतों में कवि का भक्त-हृदय इतना विह्उल हो उठा है कि कहीं-कहीं पर मूल कथा-प्रसंग इस उत्कृष्ट भक्तिभावना के वेग तले दब-से गये हैं।
इससे पूर्व कि कश्मीरी की लोकप्रिय रामायण रामावतार-चरित` के काव्य-वैभव एवं उसमें वर्णित रामकथा-विषयक उन कथा-प्रसंगों को उजागर किया जाए जो अपने आप में विलक्षण/मौलिक अथवा अद्भुत हैं, उचित यह होगा कि सर्वप्रथम इस प्रश्न पर संक्षेप में विचार किया जाए कि विद्या-बुद्धि, धर्म-दर्शन एवं साहित्य-कला की क्रीड़ा-स्थली कही जाने वाली कश्मीर-भूमि में रामकथा को आधार बनाकर काव्यरचना करने में कश्मीरी कवियों का मन देर से क्यों रमा ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें कश्मीरी सहित्य के इतिहास पर नज़र दौड़ानी होगी। कश्मीरी का आदिकालीन साहित्य (१२५० ई० से १५५० ई० तक) निर्गुण-महिमा-वर्णन अथवा संतवाणी से आप्लावित रहा। संत कवयित्री ललद्यद/ललेश्वरी/ललारिफा (१३३५-१३७३/८९) तथा शेखऩूरुद्दीन वली/ नुंदऋषि (जन्म १३७६) इस दौर के प्रतिनिधि कवि हैं। कबीर की तरह ही इन दोनों कवियों ने मन की शुद्धता, सत्यान्वेषण, गुरुमहिमा, धार्मिक-सहिष्णुता, एकेश्वरवाद, सदाचार आदि को अपनी कविता (वाख एवं श्रुक) में निरूपित किया। आगे चलकर कश्मीर के सर्वप्रसिद्ध विद्याप्रेमी व प्रजावत्सल शासक, शाहमीरी वंश के अंतिम उल्लेखनीय सुलतान ज़ैन उलाबद्दीन `बड़शाह` (१४२०-१४७०) का राजत्वकाल कश्मीरी भाषा-साहित्य, कला, शिल्प आदि के लिए नई आशाओं एवं उपलब्धियों का सन्देश लेकर आया। कश्मीरी भाषा को पहली बार राजकीय प्रश्रय मिला। संगीत, नृत्य, नाट्य तथा सहित्य के क्षेत्रों में इस काल में सर्वांगीण उन्नति हुई। यह काल, वास्तव में, कश्मीरी भाषा, साहित्य और कला के लिए स्वर्णकाल था। प्रसिद्ध काव्य-कृतियां 'वाणासुर वध` (भट्टावतार कृत), 'जैन चरित` (सोम पंडित कृत) आदि इसी काल की रचनाएं हैं। इसके बाद हब्बाखातून व अरणिमाल ने अपने प्रम गीतों द्वारा कश्मीरी कविता को अनुरंजित किया। कश्मीरी कविता ने पहली बार धर्म-दर्शन की विचारभूमि से निकलकर ऐहिक धरातल पर प्रमऱ्यौवन की विभिन्न भाव-स्थितियों से सामंजस्य स्थापित किया। सृजन का यह क्रम १५५० से लेकर १७५० ई० तक चला। १७५० से लेकर १९०० ई० तक रचे गए कश्मीरी साहित्य में प्रमुखत: दो प्रकार की धाराएं देखने को मिलती हैं। प्रथम के अन्तर्गत फारसी मसनवियों के आधार पर कश्मीरी में रचित अथवा अनुवादित प्रेमकाव्य मिलते हैं और दूसरी के अन्तर्गत राम एवं कृष्ण-भक्ति काव्य। इस काल में रचित काव्य कृतियों में 'गुलरेज़`, 'यूसुफ-जुलेखा`, 'रामावतार चरित`, 'राधास्वयंवर`, 'सुदाम चरित` आदि उल्लेखनीय हैं।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि कश्मीरी काव्य में वैष्णव-भक्ति का निरूपण उन्नीसवीं शताब्दी के आसपास से देखने को मिलता है। कश्मीर में रामभक्ति का विकास एक सशक्त संप्रदाय के रूप में नहीं हो पाया, इसका प्रमुख कारण है कि कश्मीर-मण्डल शताब्दियों तक शैवमत का प्रधान केन्द्र रहा। यहां के भक्त कवि एवं धर्म परायण प्रबुद्ध जन इसी मत के सैद्धान्तिक चिंतन-मनन तक सीमित रहे। भौगोलिक सीमाओं के कारण भी यह प्रदेश मध्य भारत के वैष्णव भक्ति आंदोलन से सीधे जुड़ न सका। कालांतर में वैष्णव भक्ति की सशक्त स्रोतस्विनी जब समूचे देश में प्रवाहित होने लगी तब कश्मीर-मण्डल भी इससे अछूता न रह सका। दरअसल, कश्मीर में वैष्णव-भक्ति के प्रचार-प्रसार का श्रेय उन घुमक्कड़ साधुओं, संतों एवं वैष्णव भक्तजनों को जाता है जो उन्नीसवीं शताब्दी में मध्यभारत से इस प्रदेश में आए और राम/कृष्ण भक्ति का सूत्रापात किया। यहां पर यह रेखांकित करना अनुचित न होगा कि शैव-सम्प्रदाय के समांतर कश्मीर में सगुण भक्ति की क्षीण धारा तो प्रवाहित होती रही किन्तु एक वेगवती धारा का रूप ग्रहण करने में वह असमर्थ रही। इधर, जब शैव सम्प्रदाय के अनुयायी विदेशी सांस्कृतिक आक्रमण से आक्रान्त हो उठे तो निराश नि:सहाय होकर वे विष्णु के अवतारी रूप में त्राण सहारा ढूंढने लगे। अन्तर केवल इतना रहा कि जिस सगुण भक्ति, विशेषकर रामभक्ति आंदोलन ने, मध्य भारत के कवि को सोलहवीं शती में प्रभावित और प्रेरित किया, उसी आन्देालन ने, देर से ही सही, कश्मीर में उन्नीसवीं शताब्दी में प्रवेश किया और रामकथा विषयक सुन्दर काव्य रचनाओं की सुष्टि हुई जिनमें प्रकाशराम कृत 'रामावतारचरित कश्मीरी काव्यपरंपरा में अपनी सुन्दर वर्णन-शैली, भक्ति-विह्उलता, कथा-संयोजन तथा काव्य-सोष्ठव की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है।
'रामावतार-चरित` भारतीय काव्य शास्त्रीय परंपरानुसार महाकाव्योचित लक्षणों से युक्त है। काव्यकृति के प्रारम्भ में कवि ने ईशवंदना इस प्रकार की है:--
नमो नमो गजेन्द्राय एकदंतधराय च
नमो ईश्वर पुत्राय श्रीगणेशाय नमो नम:,
गोडन्य सपनुन शरण श्री राज गणीशस
करान युस छुं रख्या यथ मनुष्य लूकस,
दोयिम कर सतगोरस पननिस नमस्कार
दियि सुय गोर पनुन येमि बवसरि तार।(पृ० २७)
(सर्वप्रथम गणेशजी की शरण में जाएं जो इस मनुष्य-लोक की रक्षा करते हैं। तत्पश्चात् सत्गुरू को नमस्कार करें जो इस भवसागर से पार लगाने वाले हैं।)
तुलसी की तरह ही प्रकाश्राम की भक्ति दास्य-भाव की है। इसी से पूरी रामायण में वे कवि कम और भक्त अधिक दिखते है। 'रामावतार चरित` में सम्मिलित स्तुतियों, भक्ति गीतों, प्रार्थनाओं आदि से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ध्यान से देखा जाए तो प्रकाशराम ने संपूर्ण रामकथा को एक आध्यात्मिक-रूपक के रूप में परिकल्पित किया है जिसके अनुसार प्राय: सभी मुख्य पात्रा और कथासूत्रा प्रतीकात्मक आयाम ग्रहण करते हैं। सत् और असत् का शाश्वत द्वन्द्व इस रूपक के केन्द्र में है। 'रामायनुक मतलब (रामायण का मतलब) प्रसंग में कवि की ये पंक्तियां द्रष्टव्य हैं:--
गोरव गंडमच छिवथ, बोज़ कन दार,
छु क्या रोजुऩ, छु बोजुऩ रामावतार।
ति बोज़नअ सत्य बोंदस आनंद आसी,
यि कथ रठ याद, ईशर व्याद कासी।
ति जाऩख पानु दयगत क्या चेह़ हावी,
कत्युक ओसुख चे कोत-कोत वातनावी।(पृ० ३३)

(गुरूओं ने एक सत्पथ तैयार किया है, जरा कान लगाकर इसे सुन। यहां कुछ भी नहीं रहेगा, बस रहेगी रामवतार की कथा। इसे सुनकर हृदय आनंदित हो जाएगा, यह बात तू याद रख। इससे सारी व्याधियां दूर हो जाएंगी और तू स्वयं जान जाएगा कि प्रभु कृपा से तू कहां से कहां पहुंच जाएगा. . . . . . .।)
एक अन्य स्थान पर कवि कहता है--
सोयछ सीता सतुक सोथ रामअ लख्यमन
ह्यमथ हलूमत असत रावुन दोरज़न। (पृ० ३१)
सुइ़च्छा सीता है, सत्य का सेतु राम व लक्ष्मण हैं। हिम्मत हनुमान तथा असत्य रूपी दुर्जन रावण है।
प्रकाशराम के राम लोक-रक्षक, भू-उद्धारक और पाप-निवारक हैं। वे दशरथ-पुत्रा होते हुए भी विष्णु के अवतार हैं। पृथ्वी पर पाप का अन्त करने के लिए ही उन्होंने अवतार धारण किया है:--
रावण के हेतू अवतारी बनकर आए
भूमि का भार हरने को आए(पृ० १२०)

'रामावतर चरित` की कथा 'शिव-पार्वती` संवाद से प्रारंभ होती है। पूरी कथा आठ काण्डों-बालकाण्ड, आयोध्याकाण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड, युद्ध काण्ड उत्तर काण्ड तथा लवकुश काण्ड में विभाजित है। इन काण्डों के अन्तर्गत मुख्य कथा-बिन्दुओं को मसनवी-शैली के अनुरूप विभिन्न उपशीर्षकों में बांॅटा गया है। इन उपशीर्षकों की कुल संख्या ५६ है। कुछ उपशीर्षक देखिए-- विश्वामित्रा के यज्ञ की रक्षा, भरत को खड़ाऊं देना, शूर्पनखा को सज़ा देना, जटायु से युद्ध और सीता का कैद होना, लंका की तरफ फौजकशी, कुंभकर्ण के साथ जंग, मक्केश्वर का किस्सा, सीता को जलावतन करना आदि।
'रामावतार चरित` में वर्णित अधिकांश प्रसंग अतीव मार्मिक एवं हृदय-ग्राही बन पडे हैं जिससे कवि की विलक्षण काव्यप्रतिभा का परिचय मिल जाता है। अयोध्यापति दशरथ की संतान-कामना, कामनापूर्त्ति के लिए व्रतादि रखना, स्वप्न में भगवान विष्णु द्वारा वरदान देना आदि प्रसंग इस कश्मीरी रामायण में यों भावपूर्ण ढंग से वर्णित हुए हैं--
''वोथन सुलि प्रथ प्रबातन नित्य करान श्रान
रछन जोगेन, गोसान्यन सत्य थवान ओस ज़ान,
स्यठा रातस-दोहस लीला करान ओस
शरण सपनुन नारायण पानय टोठ्योस।(पृ० ३७)

(राजा दशरथ नित्य प्रभात-वेला में जागकर स्नानादि करते तथा साधु-सन्तों और जोगियों के पास आशीर्वाद लेने जाते। पुत्रासुख के अभाव में उनका मन सदैव चंचल रहता। एक रात स्वप्न में नारायण/विष्णु ने उन्हें स्वयं दर्शन दिए तथा कहा कि मैं शीघ्र तुम्हारे घर में जन्म ले रहा हूं. . . .।)
बचनबद्धता के प्रश्न को लेकर दशरथ और कैकेयी के बीच जो परिसंवाद होता है, उसमें एक पितहृदय की शोकाकुल/वात्सल्ययुक्त भावाभिव्यक्तियों को मूर्त्तता प्राप्त हुई है--
युथुय बूज़िथ राज़ु बुथकिन्य पथर प्यव
त्युथुय पुथ साहिब ज़ोनुख सपुन शव,
अमा करुम ख्यमा सोज़न नु राम वनवास
मरअ तस रौस वन्य करतम तम्युक पास
यि केंछा छुम ति सोरूय दिम ब तस
मै छुम अख रामजुव, छुम त्युतुय बस। (पृ० ७७)

( कैकेई का अंतिम कथन सुनते ही राजा लड़खड़ाते हुए अचेतावस्था में मुंह के बल ज़मीन पर गिर पड़े। दयार्द्र स्वर में उन्होंने कैकेई से विनती की-मुझपर दया कर, राम को बनवास न दिला। मैं उसके विना ज़िन्दा न रह सकूंगा।बचन देता हूं कि मेरे पास जो कुछ भी है वह भरत को दे दूंगा।. . . मेरा तो बस एक राम ही सब कुछ है, बस एक राम जी!)
वन-गमन प्रसंग के अन्तर्गत माता कौशल्या की विरह-व्यथा को जिस तन्मयता के साथ कवि ने वर्णित किया है,उससे एक मातृहृदय की तल-स्पर्शी संवेदनाओं का परिचय मिल जाता है--
कौशल्यायि हं  दि गोबरो
करयो गूर गूरो।
परयो राम रामो
कर यो गूर गूरा. . .।
कौतू गोहम च त्राविथ
कसू ह्यक हाल ब बोविथ
अनी कुस मननोविथ
करयो गूर गूरा. . . । (पृ० ८६)
(रे कौशल्या के नन्दन!
आ, तुझे पालने में झुलाऊं
राम-राम पुकारूं
आ, तुझे हिण्डोले में झुलाऊं।
छोड़ मुझे अकेला कहां गया रे तू?
अब यह हाल में अपना किसे सुनाऊं?
मनाकर तुझे मैं कैसे वापस बुलाऊं?
आ, तुझे पालने में झुलाऊं. . .।)(भावानुवाद इन पंक्तियों के लेखक द्वारा)
जटायु-रावणऱ्युद्ध वर्णन में कवि की सजीव वर्णन-शैली द्रष्टव्य है--
खब़र बूज़िथ गव जटायन खब़रदार
कफ़स फुटरुन त लारान गव ब यक़बार,
पुनुम चऩ्द्रस येलि बछुन ह्यथ चलान कीत
दौपुन तस ओय मरुत पापुक गोय हीत,
परकि दक सत्य छुस आकाशि त्रावान
ज़मीनस प्यठ अडजि छुस जरअ फुटरावान।(पृ० १४५)

(खबर सुन सीता-हरण की
हुआ जटायु खब़रदार,
पूनम-चन्द्र को केतु द्वारा
ग्रसित जो देखा
तो छेड़ दिया
पापी से युद्ध ज़ोरदार।
'क्यों पाप करके मृत्यु को
बुला रहा है रे मूर्ख?
आज होगा अंत तेरा
मिटेगा तू रे धूर्त!
आकाश में उछाला, भू पर पटका
पंख के धक्को से उसने
कर दिया रावण का बुरा हाल,
हड्डियों का भुरकुस निकाल
कर दिया उसका हाल बेहाल. . .। ) (भावानुवाद इन पंक्तियों के लेखक द्वारा)

यद्यपि 'रामावतार चरित` की मुख्य कथा का आधार वाल्मीकि कृत रामायण है, तथापि कथासूत्र को कवि ने अपनी प्रतिभा और दृष्टि के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है। कई स्थानों पर काव्यकार ने कथा-संयोजन में किन्हीं नूतन (विलक्षण अथवा मौलिक?) मान्यताओं की उद्घोषणा की है। सीता-जन्म के सम्बन्ध में कवि की मान्यता यह है कि सीता, दरअसल, रावण-मंदोदरी की पुत्राी थी। मन्दोदरी एक अप्सरा थी जिसकी शादी रावण से हुई थी। उनके एक पुत्री हुई जिसे ज्योतिषियों ने रावण-कुल के लिए घातक बताया। फलस्वरूप मंदोदरी उसके जन्म लेते ही, अपने पति रावण को बताए विना, उसे एक सन्दूक में बंदकर नदी में फिंकवा देती है। बाद में राजा जनक यज्ञ की तैयारी के दौरान नदी-किनारे उसे पाकर कृतकृत्य हो उठते हैं। तभी लंका में अपहृत सीता को देख मंदोदरी वात्सल्याधिक्य से विभोर हो उठती है। पंक्तियां देखिये--
तुजिन तमि कौछि क्यथ ह्यथ ललनोवन
गेमच कौलि यैलि लेबन लौलि क्यथ सोवुन
बुछिव तस माजि मा माज़ुक मुशुक आव
लबन यैलि छस बबन दौद ठींचि तस द्राव। (पृ० १४५)
(तब उस मंदोदरी ने उसे गोद में उठाकर झुलाया तथा पानी में फेंकी उस सीता को पुन: पाकर अपने अंक में सुलाया। अहा, अपने रक्त-मांस की गंध पाकर उस मां के स्तनों से दूध की धारा द्रुत गति से फूट पड़ी. . . .।)
'रामावतार चरित` में आई दूसरी कथा-विलक्षणता राम द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता को वनवास दिलाने में रजक-घटना को मुख्य कारण न मानकर कवि ने सीता की छोटी ननद (?)को दोषी ठहराया है जो पति-पत्नी के पावन-प्रम में यों फूट डालती है। एक दिन वह भाभी (सीता जी) से पूछती है कि रावण का आकार कैसा था, तनिक उसका हुलिया तो बताना। सीता जी सहज भाव से कागज़ पर रावण का एक रेखाचित्रा बना देती है जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन-प्रेम में यों फूट डालती है:--
''दोपुन तस कुन यि वुछ बायो यि क्या छुय
दोहय सीता यथ कुन वुछिथ तुलान हुय,
मे नीमस चूरि पतअ आसि पान मारान
वदन वाराह तअ नेतरव खून हारान। (पृ० ३९९)

(रावण का चित्रा दिखा कर- देखो भैया, यह क्या है! सीता इसे देख-देख रोज़ विलाप करती है। जब से मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से उसकी आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही है। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह कागज़ चित्र चुरा लिया है तो मुझे ज़िन्दा न छोड़ेगी . . . .।)
'रामावतार चरित` के युद्धकाण्ड प्रकरण में उपलब्ध एक अत्यन्त अद्भुत और विरल प्रसंग 'मक्केश्वर-लिंग` से सम्बंधित है जो प्राय: अन्य रामायणों में नहीं मिलता है। यह प्रसंग जितना दिलचस्प है, उतना ही गुदगुदाने वाला भी। शिव रावण की याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग (मक्केश्वर) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर न रखना। लिंग को अपने हाथों में आदरपूर्वक थामकर रावण आकाशमार्ग द्वारा लंका की ओर प्रयाण करते हैं। रास्ते में उन्हें लघु-शंका की आवश्यकता होती है। वे आकाश से नीचे उतरते हैं तथा इस असमंजस में पड़ते हैं कि लिंग को वे कहां रखें? तभी ब्राह्मण-वेश में नारद मुनि वहां पर प्रगट होते हैं जो रावण की दुविधा भांप जाते हैं। रावण लिंग उनके हाथों में यह कहकर संभला जाते हैं कि वे अभी निवृत्त होकर आ रहे हैं। रावण लघुशंका से निवृत्त हो ही नहीं पाते! धारा रुकने का नाम नहीं लेती। संभवत: यह प्रभु की लीलामाया थी। काफी देर तक प्रतीक्षा करने के उपरान्त नारदजी लिंग को धरती पर रखकर चले जाते हैं। तब रावण के खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं है और इस प्रकार शिव द्वारा प्रदत्त लिंग की शक्ति का उपयोग करने से रावण वंचित हो जाते हैं। (पृ० २९५-२९७)
`रामावतार चरित' में उल्लिखित एक दिलचस्प कथा-प्रसंग लंका-निर्माण के सम्बन्ध में है। पार्वती जी ने एक दिन अपने निवास-हेतु भवन-निर्माण की इच्छा शिवजी के सम्मुख व्यक्त की। विश्वकर्मा द्वारा शिवजी की आज्ञा पर एक सुन्दर भवन बनाया गया। भवन के लिए स्थान के चयन के बारे में 'रामावतार चरित` में एक रोचक प्रसंग मिलता है। गुरुड़ एक दिन क्षुधा-पीड़ित होकर कश्यप के पास गये और कुछ खाने को मांगा। कश्यप ने उसे कहा-जा, उस मदमस्त हाथी और ग्राह को खा डाल जो तीन सौ कोस ऊंचे और उससे भी दुगने लम्बे हैं। वे दोनों इस समय युद्ध कर रहे हैं। गरुड़ वायु के वेग की तरह उड़ा और उनपर टूट पड़ा तथा अपने दोनों पंजों में पकड़कर उन्हें आकाश-मार्ग की ओर ले गया। भूख मिटाने के लिए वह एक विशालकाय वृक्ष पर बैठ गया। भार से इस वृक़्ष की एक डाल टूटकर जब गिरने को हुई तो गरुड़ ने उसे अपनी चोंच में उठाकर बीच समुद्र में फंेक दिया, यह सोचकर कि यदि डाल (शाख) पृथ्वी पर गिर जाएगी तो पृथ्वी धंस कर पाताल में चली जाएगी। इस प्रकार जिस जगह पर यह शाख (कश्मीरी लंग) समुद्र में जा गिरी, वह जगह कालांतर में -'लंका` कहलाई. . . . .। विश्वकर्मा ने अपने अद्भुत कौशल से पूरे त्रिभुवन में इसे अंगूठी में नग के समान बना दिया। गृहप्रवेश के समय कई अतिथि एकत्रा हुए। अपने पितामह पुलस्त्य के साथ रावण भी आए और लंका के वैभव ने उन्हें मोहित किया। गृह-प्रवेश की पूजा के उपरान्त जब शिव ने दक्षिणास्वरूप सबसे कुछ मांगने का अनुरोध किया तो रावण ने अवसर जानकर शिवजी से लंका ही मांग ली :--
दोपुस तअम्य तावणन लंका मे मंजमय
गछ्यम दरमस मे दिन्य, बोड दातअ छुख दय,
दिचन लवअ सारिसुय कअरनस हवालह,
तनय प्यठअ पानअ फेरान बालअ बालह।(पृ० १९६)

(तब रावण ने तुरन्त कहा-मैं लंका को मांगता हूं, यह मुझे धर्म के नाम पर मिल जानी चाहिए क्योंकि आप ईश्वर-रूप में सब से बडे दाता हैं। तब शिव ने चारों ओर पानी छिड़का और लंका को उसके हवाले कर दिया और तभी से वे शिव स्वयं पर्वत-पर्वत घूमने लगे।)
'जटायु-प्रसंग` भी 'रामावतार चरित` में अपनी मौलिक उद्भावना के साथ वर्णित हुआ है। जटायु के पंख-प्रहार जब रावण के लिए असहनीय हो उठते हैं तो वह इससे छुटकारा पाने की युक्ति पर विचार करता है। वह जटायु-वध की युक्ति बताने के लिए सीता को विवश कर देता है। विवश होकर सीता को उसे जटायु-वध का उपाय बताना पड़ता है--
वोनुन सीतायि वुन्य येत्य बअ मारथ
नतअ हावुम अमिस निशि मोकल नअच वथ,
अनिन सखत़ी तमसि, सीतायि वोन हाल
अमिस जानावारस किथ पाठ्य छुस काल,
दोपुस तमि रथ मथिथ दिस पल च दारिथ
यि छनि न्यंगलिथ तअ ज़ानि नअ पत लारिथ। (पृ० १४६-१४७)

(तब रावण ने सीता से कहा-मैं तुझे अभी यहीं पर मार डालूंगा, अन्यथा इससे मुक्त होने का कोई मार्ग बता। सीता पर उस रावण ने बहुत सख्ती की जिससे सीता ने वह सारा हाल (तरीका) बताया जिससे उस पक्षी का काल आ सकता था। वह बोली--रक्त से सने हुए बड़े-बड़े पत्थरों को इसके ऊपर फेंक दो। उन्हें यह निगल जाएगा और इस तरह (भारस्वरूप) तुम्हारे पीछे नहीं उडेग़ा।. . . . .जब तक यह रामचन्द्र जी के दर्शन कर उसे (मेरी) खैर-खबर नहीं सुनाएगा तब तक यह मरेगा नहीं......।)
'रामावतार चरित` में कुछ ऐसे कथा-प्रसंग भी हैं जो तनिक भिन्न रूप में संयोजित किए गये हैं। उदाहरण के तौर पर रावण-दरबार में अंगद के स्थान पर हनुमान के पैर को असुर पूरा ज़ोर लगाने पर भी उठा नहीं पाते (पृ० २१२) एक अन्य स्थान पर रावण युद्धनीति का प्रयोग कर सुग्रीव को अलग से एक खत लिखता है और अपने पक्ष में करना चाहता है। तर्क वह यह देता है कि क्या मालूम किसी दिन उसकी गति भी उसके भाई (बालि) जैसी हो जाए! वह भाई के वध का प्रतिशोध लेने के लिए सुग्रीव को उकसाता है और लंका आने की दावत देता है जिसे सुग्रीव ठुकरा देते हैं। (पृ० २२८) इसी प्रकार महिरावण/अहिरावण का राम और लक्ष्मण को उठाकर पाताल-लोक ले जाना और बाद में हनुमान द्वारा उसे युद्ध में परास्त कर दोनों की रक्षा करना-प्रसंग भी 'रामावतार चरित` का एक रोचक प्रकरण है (पृ २५९, २८४)। 'रामावतार चरित` के लवकुश-काण्ड में भी कुछ ऐसे कथा-प्रसंग हैं जिनमें कवि प्रकाशराम की कतिपय मौलिक उद्भावनाओं का परिचय मिल जाता है। लवकुश द्वारा युद्ध में मारे गये राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के मुकुटों को देखकर सीता का विलाप करना, सीता जी के रुदन से द्रवित होकर वशिष्ठजी द्वारा अमृत-वर्षा कराना और सेना सहित रामादि का पुनर्जीवित हो उठना, वशिष्ठ के आग्रह पर सीता जी का अयोध्या जाना किन्तु वहां राम द्वारा पुन: अग्नि-परीक्षा की मांग करने पर उसका भूमि-प्रवेश करना आदि प्रसंग ऐसे ही हैं।
कश्मीरी विद्वान डॉ० शशिशेखर तोषखानी के अनुसार 'रामावचारचरित` की सब से बड़ी विशेषता है स्थानीय परिवेश की प्रधानता। अपने युग के सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवेश का कृति पर इतना गहन प्रभाव है कि उसका स्थानीय तत्वों के समावेश से पूरा कश्मीरीकरण हो गया है। ये तत्व इतनी प्रचुर मात्रा में कृति में लक्षित होते हैं कि अनेक पात्रों के नाम भी कश्मीरी उच्चारण के अनुरूप ही बना दिए गये हैं। जैसे जटायु यहां पर 'जटायन` है, कैकेयी 'कीकी`, इन्द्रजीत 'इन्द्रजेठ` है और सम्पाति 'सम्पाठ` आदि। रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेषभूषा आदि में स्थानीय परिवेश इतना अधिक बिम्बित है कि १९वीं शती के कश्मीर का जनजीवन साकार हो उठता है। राम के वनगमन पर विलाप करते हुए दशरथ कश्मीर के परिचित सौन्दर्य-स्थलों और तीर्थों में राम को ढूंढते हुए व्याकुल दिखाए गये हैं। (पृ० ९२-९३), लंका के अशोक-वन में कवि ने गिन-गिनकर उन तमाम फूलों को दिखलाया है जो कश्मीर की घाटी में अपनी रंग-छवि बिखेरते हैं। (पृ० २००)....राम का विवाह भी कश्मीरी हिन्दुओं में प्रचलित द्वार-पूजा, पुष्प-पूजा आदि रीतियों और रस्मों के अनुसार ही होता है।
''लवकुश चरित`` में सीता के पृथ्वी-प्रवेश प्रसंग के अन्तर्गत कश्मीरी रामायणकार प्रकाशराम ने भक्ति विह्उल होकर 'शंकरपुर गांव (कवि के मूल विकास-स्थान कुर्यगांव-काज़ीगुण्ड से लगभग ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित) में सीता जी का पृथ्वी-प्रवेश दिखाया है।(पृ० ४७.) किंवदंती है कि यहां के 'रामकुण्ड-चश्मे` के पास आज भी जब यह कहा जाता है-`सीता, देख रामजी आए हैं, तेरे रामजी आए हैं' तो चश्मे के पानी में से बुलबले उठते हैं।.....हो सकता है यह भावातिरेक-जनित एक लोक-विश्वास हो लेकिन कश्मीरी कवि प्रकाशराम ने इस लोक-विश्वास को रामकथा के साथ आत्मीयतापूर्वक जोड़कर अपनी जननी जन्मभूमि को देवभूमि का गौरव प्रदान किया है।
कुल मिलाकर 'रामावतारचरित` कश्मीरी भाषा-साहित्य में उपलब्ध रामकथा-काव्य-परंपरा का एक बहुमूल्य काव्य-ग्रन्थ है जिसमें कवि ने रामकथा को भाव-विभोर होकर गाया है। कवि की वर्णन-शैली एवं कल्पना शक्ति इतनी प्रभावशाली एवं स्थानीय रंगत से सराबोर है कि लगता है कि 'रामावतार चरित` की समस्त घटनाएं ।अयोध्या, जनकपुरी, लंका आदि में न घटकर कश्मीर-मंडल में ही घट रही हैं। 'रामावतारचरित` की सबसे बड़ी विशेषता यही है और यही उसे 'विशिष्ट` बनाती है। 'कश्मीरियत की अनूठी रंगत में सनी यह काव्यकृति संपूर्ण भारतीय रामकाव्य-परंपरा में अपना विशेष स्थान रखती है।
 

डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
अक्टूबर
1, 2006

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