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ताईपे
में एक दिन
चीन के प्रशाँत महासागर के तट पर यदि एक सरसरी नज़र डालें तो पूर्वी चीन सागर
में स्थित कदलीफल के आकार वाला ताईवान द्वीप अनायास ही आपका ध्यान खींच ल्गा।
जापान के दक्षिण और फ़िलीपीन्स के उत्तर में स्थित फ़ॉर्मोसा के पुराने नाम
से जाना जाने वाला यह द्वीप अपने इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के लिए पूरी दुनिया
भर में तो मशहूर है ही। साथ ही साथ यह अपने भीतर कितनी मानवरचित सुन्दरता
बटोरे हुए है, इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब दिल्ली से मेलबोर्न की अपनी
विमान-यात्रा के मध्यविश्राम में मुझे कुछ समय के लिए ताईपे घूमने का सुअवसर
प्राप्त हुआ।
हालाँकि दो करोड़ और तीस लाख की आबादी वाले इस ताईवान देश का वैधानिक नाम चीन
गणराज्य (रिपब्लिक ऑफ़ चाइना) है, फ़िर भी चीन के साथ इसके संबन्ध काफ़ी
तनावपूर्ण रहते हैं। सन् १९४९ में चीन में साम्यवाद-तंत्र की स्थापना के बाद
करीब बीस लाख राष्ट्रवादी चीनी नागरिकों ने पलायन कर ताईवान में धीरे-धीरे
लोकताँत्रिक सरकार की स्थापना कर ली। दोनों देशों की राजनैतिक विचारणा में
इतनी भिन्नता होने के कारण ही चीन के साथ ताईवान के संबन्ध आज तक सामान्य
नहीं बन पाए हैं।
चाइना एअरलाइन्स की दिल्ली से ताईपे की पाँच घण्टे की सीधी उड़ान के बाद मैं
तुरन्त ही हवाई-अड्डे पर कस्टम्स् को पार कर आधे दिन के पर्यटन टूर के
काउण्टर पर जा पहुंचा। करीब पाँच घण्टे का यह टूर ताईवान सरकार द्वारा उन
यात्रियों को नि:शुल्क उपल्ब्ध कराया जाता है जिनकी अगली उड़ान के लिए कम से
कम सात घण्टे का अन्तराल हो। टूर-बस में देश-विदेश के करीब दस अन्य यात्री भी
थे। हमारा पहला मुकाम था - मनका नाम के उपनगर में स्थित लुँगशान मंदिर।
लुँगशान मंदिर की संस्थापना सन् १७३८ में हुई थी और यह बौद्ध धर्म में पूजनीय
दया की देवी कुआन-इन (संस्कृत में अवलोकितेश्वरा) को समर्पित किया गया है।
बौद्ध मंदिर होने के बावजूद इसमें ताओ-धर्म के कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं
भी पूजी जाती हैं। यहां तीन कक्ष हैं। आगे वाले कक्ष का उपयोग आगमन-द्वार व
लोगों के लिए पूजा-अर्चना के स्थल के रूप में किया जाता है। मुख्य कक्ष मंदिर
का गर्भ-गृह है और यहाँ देवी कुआन-इन और दो बोधिसत्वों की मूर्तियाँ स्थापित
हंै। साथ ही कई सारे सेवकों की प्रतिमाएं भी यहाँ मौजूद हैं। पिछवाड़े वाले
कक्ष का निर्माण १८वीं शताब्दी में बाद में किया गया था और यहाँ अन्य कक्षों
से अनेक प्रतिमाएं स्थानान्तरित कर के रखी गई हैं - इसलिए यहाँ देवी-देवताओं
की भरमार सी दिखाई पड़ती है।
द्वितीय विश्व-युद्ध में जब जापान ने ताईवान पर कब्ज़ा कर लिया था, तब ८ जून
१९४५ के दिन मित्र-सेनाओं ने इस मंदिर सहित पूरे नगर पर भीषण बमबारी की थी।
इसमें मंदिर का अधिकाँश भाग तो क्षतिग्रस्त हो गया था, पर गर्भ-गृह में स्थित
देवी कुआन-इन की प्रतिमा का बाल भी बाँका नहीं हुआ। इसीलिए इस मंदिर की दैविक
शक्ति में लोगों की श्रद्धा अभी भी बनी हुई है।
टूर का अगला पड़ाव था - चियाँग काई-शेक मेमोरियल हॉल। भूतपूर्व राष्ट्रपति
चियाँग काई-शेक को ताईवान में वही स्थान दिया जाता है जो कि भारत में महात्मा
गाँधी को, हाँलाकि २०वीं शताब्दी के इन दो महानायकों की राष्ट्रनिर्माण की
सोच में काफ़ी अन्तर था। ताईपे के अन्तरराष्ट्रीय हवाई-अड्डे का नाम भी
चियाँग काई-शेक के नाम पर रखा गया है। सन् १९७५ में चियाँग काई-शेक की मृत्यु
के बाद अप्रैल १९८० में यह स्मारक सार्वजनिक रूप से जनता को समर्पित किया गया
था। इसका क्षेत्रफल करीब दो लाख पचास हज़ार वर्ग मीटर है और तीस मीटर ऊँचे
गेट से आप इसमें प्रवेश कर सकते हैं। भवन में दो मंज़िलें हैं - ऊपरी मंज़िल
में स्वर्गीय चियाँग काई-शेक की ताँबे की एक वृहदाकार प्रतिमा है जिसके पीछे
उनके दर्शन-मूल्यों के तीन संकेत-शब्द मन्दारिन भाषा में अंगित हैं - नीति,
जनतंत्र, विज्ञान। स्मारक की ऊँची छत पर ताँबे की कारीगरी तो देखते ही बनती
है। नीचे से इस मंज़िल पर आने के लिए कुल ८९ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। यह
संख्या इसलिए चुनी गई क्योंकि चियाँग काई-शेक की मृत्यु नवासी वर्ष की आयु
में हुई थी।
स्मारक भवन की निचली मंज़िल में प्रदर्शनी कक्ष, व्याख्यान कक्ष, पठन-पाठन
केंद्र, हुआई-एन कला गैलरी, चियाँग काई-शेक कला गैलरी, वाचनालय, श्रवण-दृष्ट
केंद्र व चियाँग काई-शेक स्मारक कार्यालय स्थित हैं। इन कक्षों में उनके जीवन
से संबन्धित सभी दस्तावेज, दैनिक कार्य-कलापों में उपयोग की जाने वाली
वस्तुएं, पारिवारिक चित्र व कई पुस्तकें लोगों के देखने के लिए रखी हुई हैं।
व्याखान कक्ष में शैक्षिक दलों के लिए व्याख्यान, वाद-विवाद समारोहों,
वर्कशॉप व चलचित्रों का आयोजन किया जाता है। इतने कम समय में हमारा टूर दल यह
सब कुछ तो नहीं देख पाया, पर इनमें से कुछेक के दर्शन तो हमने कर ही लिए।
टूर दल का अगला मुकाम था - ताईपे का शहीद स्मारक। विश्व के दस सुन्दरतम्
होटलों में से एक ग्रैंड होटल के बगल में स्थित यह स्मारक चिंगशान पर्वत की
ढलान पर बनाया गया है। इसका निर्माण बीजिंग के इम्पीरियल प्रासाद की
वास्तुशैली के आधार पर सन् १९६९ में पूरा किया गया। स्मारक के चारों ओर काफ़ी
बड़े क्षेत्र में फूलों व घास के बगीचे बड़े ही मनमोहक लगते हैं।
ताईवान(रिपब्लिक ऑफ़ चाइना) की संस्थापना की क्राँति से पूर्व व चीन-जापान
युद्ध और चीनी गृह-युद्ध में तीन लाख से भी अधिक जवानों ने देश के लिए अपना
जीवन समर्पित किया था - यह स्मारक उन्हीं देश-भक्तों की यादगार गौरव-गाथाओं
को भविष्य की पीढ़ियों को सुनाने के लिए एक प्रकाश-स्तम्भ के रूप में खड़ा
हुआ है।
प्रत्येक वर्ष वसन्त व पतझड़ ऋतु में ताईवान के राष्ट्रपति यहाँ अपने देश के
अमर शहीदों को श्रृद्धाँजलि अर्पित करने के लिए आते हैं। ताईवान यात्रा पर आए
किसी और देश के नेतागण भी अक्सर यहाँ अपने श्रृद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।
गेट पर खड़े अनुशासित गार्डों की फेरबदल की प्रक्रिया पर्यटकों को लम्बे समय
तक बाँधे रखती है।
यहाँ से चलने के बाद टूर का अन्तिम पड़ाव थी - ताईपे १०१ इमारत। ५०८ मीटर
ऊँची व १०१ मंज़िलों वाली बाँस के तने के डिज़ाइन में ढली यह इमारत सन् २००४
से ले कर आज तक विश्व की सबसे ऊँची इमारत के रूप में प्रसिद्ध है। आधुनिकतम्
तकनीकि से युक्त इस गगनचुम्बी इमारत के अतिवेग एलिवेटर मात्र उनचालीस सेकंडो
में आपको ८९वीं मंज़िल पर स्थित पर्यवेक्षण कक्ष में पहुंचा सकते हैं जहाँ से
पूरे ताईपे नगर का विहंगम दृष्य दीख पड़ता है। माना जाता है कि इसके सात लाख
टन के भार ने पृथ्वी की सतह के नीचे एक पुरानी भूकम्प-रेखा को खोल दिया है।
पर छ: सौ साठ टन के भार वाला एक अवमन्दक इसे रिक्टर पैमाने पर सात से भी अधिक
तीव्रता वाले भूकम्प से बचाने की क्षमता रखता है। वैसे तो यह इमारत
कार्यालयों के स्थान के लिए बनाई गई थी, पर यहाँ सुपरमार्केट व पार्किंग के
कई स्थल भी हैं। वस्तुत: यह गगनचुम्बी इमारत मानवता की प्रगति व कार्यक्षमता
का एक अद्भुत नमूना है। समय की कमी के कारण हमारा पर्यटक दल अंन्दर तो नहीं
जा पाया, पर दूर से ही इस ऊँची इमारत के कलश से हमने अपनी आँखे सेंक ली।
चार घण्टे के टूर के बाद अब ताईपे हवाई-अड्डे वापस जाने का समय आ गया था।
ताओयुआन नाम के उपनगर में स्थित हवाई-अड्डे पर पहुँचने में पूरे एक घण्टे का
समय लगा। मेलबोर्न तक के आगे के पूरे सफ़र में भी मैं ताईपे के एतिहासिक
मानव-निर्वित सृजनों को याद कर विस्मित हो खोया रहा।
डॉ. सूरज जोशी
मार्च 1, 2006
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