मुखपृष्ठ कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |   संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन डायरी | स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

सूक्ष्म एवं स्थूल जगत-2
    

मनुष्य पर सूक्ष्म जगत का प्रभाव
सत रज एवं तम को गुणों के आधार पर सतोगुण रजोगुण एवं तमोगुण कहते हैं, प्रवृत्ति के आधार पर सात्विक राजसिक एवं तामसिक कहते हैं इन तीनों का स्वभाव क्रमशः प्रकाश गति एवं स्थिति है प्रकृति में उपरोक्त तीनों गुण होते हैं इसलिए प्रकृति को त्रिगुणात्मक कहते हैंप्रकृति में ये तीनों गुण साथ-साथ चलते हैं जब एक गुण उभरता है तब अन्य दो गुण दबे हुए रहते हैं कोई वस्तु जो स्थिर है उर्जा प्राप्त होने पर इसके परमाणुओं में गति उत्पन्न हो जाती है एवं गति बढने पर इसमें प्रकाश उत्पन्न हो जाता है जब एक वस्तु स्थिर होती है तब उसमें तमस् प्रधान होता है रजस् एवं सत्व गौण रूप से रहते हैं जब यह वस्तु क्रिया वाली होती है तब इसमें रजस् प्रधान होता है सत्व और तमस् गौण रूप से रहते हैं यही वस्तु जब प्रकाश वाली हो जाती है तब इसमें सत्व प्रधान हो जाता है रजस् और तमस् गौण जड स्थूल वस्तु परिणामी नित्य होती है अर्थात् इसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है यह एक पल भी बिना परिवर्तन के नहीं रहती इसमें यह परिवर्तन चेतन द्वारा प्राप्त प्रेरणा के अनुसार होता है

मनुष्य पर जब सत का प्रभाव होता है तब शरीर में हल्कापन सुख शांति एवं निष्क्रियता उत्पन्न करता है तथा मनुष्य का ईश्वर की ओर झुकाव होता है
जब रजस् प्रधान होता है तब सत् और तम् को दबाकर दुखः वृत्ति को उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य की जड वस्तुओं के प्रति आसक्ति बढती है एवं वह उन्हें प्राप्त कर दुखः निवृत्ति एवं सुख प्राप्ति हेतु प्रयास करता है परंतु जड वस्तु स्वयं दुख का कारण होती है जैसे ही वह एक वस्तु को प्राप्त करता है यह अपने साथ अन्य दुखों को ले आती है एवं मनुष्य उस वस्तु से प्राप्त दुखों की निवृत्ति के लिए प्रयास करने लगता है इसी प्रकार जीवन की दौड बढती जाती है और अंत में वह सुख प्राप्ति के लक्ष्य को पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त होता है मान लो सवारी का सुख प्र्राप्त करने के लिए हमने एक वाहन खरीद लिया जिससे सवारी का सुख तो प्राप्त हो जाता है परंतु इसके साथ अन्य दुख एवं भय भी साथ आ जाते हैं जैसे- इसके चलाने के लिए ईंधन एवं रखरखाव के रूप में प्राप्त दुख तथा चोरी दुर्घटना के रूप में प्राप्त भय आदि इस प्रकार सभी जड वस्तुओं सजीव एवं निर्जीव में आसक्ति जिन पर मनुष्य जीवन भर अपना अािधकार जताता रहता है उसके दुख का मूल कारण होती है

मनुष्य पर जब तम् का प्रभाव होता है तब शरीर में निष्क्रियता भारीपन आलस्य निद्रा एवं घोर मोह वृत्ति को उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य की सुख प्राप्ति की लालसा बढती है परंतु वह उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करता एवं अपनी स्थिति के लिए भाग्य को ईश्वर को अन्य व्यक्ति को या संबंधियों को दोषी मानता है एवं घोर दुखः का अनुभव करता है
इसके लिए परिस्थिति किसी प्रकार जवाबदेह नहीं होती , सुख एवं दुख सिर्फ अनुभव की वस्तु है चाहे परिस्थ्िति कैसी भी हो सत के प्रभाव से भी शरीर में निष्क्रियता उत्पन्न होती है परंतु भारीपन, आलस्य, निंद्रा एवं मोह वृत्ति के स्थान पर हल्कापन, स्फूर्ति, जागृति एवं त्याग भावना होती है सत के प्रभाव से मनुष्य जड वस्तु के अभाव में भी सुख का अनुभव करता है परंतु तम के प्रभाव के कारण जड वस्तुओं के अभाव में घोर दुःख का अनुभव करता है अतः तम के प्रभाव से मनुष्य सिर्फ दुःख का अनुभव करता है, रज के प्रभाव से सुख और दुख दोनों का अनुभव करता है एवं सत के प्रभाव से सिर्फसुख का अनुभव करता है जिस प्रकार स्थूल जगत में तापक्रम कम अधिक होने से द्रव्य ठोस , द्रव एवं वायु रूप में बदलता रहता है ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में ज्ञान के कम अधिक होने से सत रज एवं तम अवस्था बदलती रहती है अज्ञान के कारण मनुष्य तम के प्रभाव में रहता है अर्थात् अज्ञान ही दुःख का कारण होता है

विज्ञान एवं आध्यात्म में अंतर

जैसा ऊपर बताया गया है प्रकृति में उपरोक्त तीनों गुण होते है अतः हमारे शरीर का प्रत्येक परमाणु उपरोक्त तीनों गुणो से युक्त होता है
मनुष्य के लिए दो रास्ते होते है, एक अंत की ओर जाता है दूसरा अनंत की ओर जाता है इसे हम इस प्रकार समझ सकते है हम यदि किसी भी वस्तु को ले लें एवं इसकी परतें निकालना शुरू करें तो कुछ समय बाद अंतिम परत निकालनें के बाद इसमें ईश्वर के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचेगा यह हमारे कार्य का अंत होगा यदि हम इस पर परतें चढाना शुरू करतें है तब यदि हम अनंत काल तक भी इस कार्य को करतें रहे तब भी इसका कोई अंत नहीं आएगा विज्ञान एवं आध्यात्म मे यही अंतर है, विज्ञान अनंत रास्ते पर चलता है तथा आध्यात्म अंत के रास्ते पर चलता है विज्ञान स्थूल पर विश्वास करता है तो आध्यातम सूक्ष्म पर , विज्ञान जिसे ज्ञान कहता है आध्यातम उसे अज्ञान कहता है विज्ञान का कहना है कि हमारे पूर्वज बानर थे अब हम ज्ञानवान होकर उन्नति कर रहे है, आध्यत्म का कहना है कि हमारे पूर्वज ब्रह्मज्ञानी ॠषि मुनि थे एवं अब हम अज्ञानी होकर पतन की ओर बढ रहे है वैसे इस ब्रह्मांड में जिस चीज का जन्म होता है चाहे वह सजीव हो या निर्जीव विनाश मृत्यु की ओर ही बढती है, यह ब्रह्मसत्य है, इस सिध्दांत के अनुसार आध्यात्म का कथन सही प्रतीत होता है विज्ञान का न तो कोई अंतिम लक्ष्य निर्धारित है न तो कोई अंतिम फल निर्धारित है, परंतु आध्यातम का अंतिम लक्ष्य भी निर्धारित है और अंतिम फल भी निर्धारित है इसका लक्ष्य है ईश्वर से साक्षात्कार एवं फल मोक्ष है विज्ञान का अंतिम परिणाम यही हो सकता है कि थककर या किसी गड््रढे में गिरकर विनाश इसी तथ्य को समझकर हमारे ब्रह्यज्ञानी पूर्वजों ने अंत के रास्ते को चुना, क्योंकि अनंत के रास्ते पर चलकर जीव अनंत काल तक विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ दुःख निवृति के लिए ही प्रयास करता रहेगा, तथा अंत के रास्ते पर चलकर मोक्ष प्राप्त कर ईश्वर में लीन होकर जन्म मृत्यु से छुटकारा प्राप्त कर लेगा

सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने का तरीका

मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां दो प्रकार से काम करतीं हैं, एक अंर्तमुखी होकर दूसरा बहिर्मुखी होकर परंतु साधारण अवस्था में मनुष्य को यह ज्ञान नहीं हो पाता कि उसकी ज्ञानेन्द्रियां अंर्तमुखी होकर भी काम करतीं हैं
ज्ञानेन्द्रियां जब अंर्तमुखी हो जातीं हैं तब ये सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं साधारण अवस्था में बहिर्मुखी रहने पर इनकी आसक्ति आजीवन स्थूल जगत में ही बनी रहती है ईश्वर ने इस प्रकार की व्यवस्था सिर्फ मनुष्य के शरीर में ही की है अन्य किसी प्राणी में नहीं अतः मनुष्य योनि में ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है अन्य किसी योनि में नहीं ज्ञानेन्द्रियों को अंतरमुखी बनाने के लिए साधना व अभ्यास की आवश्यकता होती है साधना दो प्रकार की होती है

1 निष्काम साधना 2 सकाम साधना।

निष्काम साधना का उद्देश्य सिर्फ ईश्वर से साक्षात्कार एवं मोक्ष प्राप्ति होता है इसमें किसी प्रकार के भौतिक सुख संपत्ति की चाह या फल की इच्छा नहीं होती, इसमें किसी प्रकार के फल परिणाम की इच्छा रहने पर साधना में सफलता नहीं मिलती निष्काम साधना से ही ज्ञानेन्द्रियों को अंर्तमुखी बना सकते हैं अन्य किसी प्रकार से नहीं, साधना का माध्यम ध्यान होता है चित्त की वृत्तियों को सभी विषयों से हटाकर एक लक्ष्य पर केन्द्रित करने को ध्यान कहते हैं

ध्यान के द्वारा हमारा शरीर सूक्ष्म उर्जा प्राप्त करता है इससे हमारे शरीर में स्थित छः चक्र जाग्रत होने लगते हैं, साधारण अवस्था में ये चक्र्र सुप्तावस्था में रहते हैं परंतु निरंतर ध्यान के अभ्यास से ये जाग्रत होने लगते हैं, इनके जाग्रत होने से ज्ञानेन्द्रियां सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं जिससे मनुष्य की स्थूल जगत में आसक्ति कम होने लगती है एवं सूक्ष्म जगत में बढने लगती है तथा यथार्थ ज्ञान प्राप्त होने लगता है
साधना से सर्वप्रथम आत्मबल, आत्मबल से ज्ञान, ज्ञान से वैराग्य, वैराग्य से समाधि एवं समाधि से केवल्य अवस्था की प्राप्ति होती है केवल्य अवस्था में ही मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। यहां वैराग्य का मतलब घर द्वार छोडक़र निर्जन स्थान में चले जाना नहीं है, स्थूल जगत में आसक्ति समाप्त हो जाना ही वास्तविक वैराग्य है इस स्थिति में मनुष्य जो भी कार्य करता है वे ईश्वर को समर्पित निष्काम भाव से होते हैं अतः इससे किसी प्रकार के कर्मफल नहीं बनते, ध्यान के लम्बे समय तक स्थिर रहने को समाधि कहते हैं, मन में सिर्फ ईश्वर का शेष बचना केवल्य अवस्था कहलाती है यह सब कार्य गृहस्थ जीवन में भी आसानी से किए जा सकते हैं, इसके लिए प्रतिदिन दो घंटे का समय आवश्यक है इस कार्य को सुबह 4 से 8 के बीच किया जा सकता है, इससे दैनिक कार्य किसी प्रकार भी प्रभावित नहीं होते बल्कि और अच्छी तरह सुगमता से होने लगते हैं कभी कभी तो ऐसे कार्य भी आसानी से हो जाते हैं जिनके होने की कोई उम्मीद नहीं होती इसके लिए साधना को दिनचर्या में इतना आवश्यक बनाना होता है जितना कि प्रतिदिन भोजन आवश्यक है एक दो महीने के प्रयास से यह आवश्यक दिनचर्या में शामिल हो जाता है

ध्यान

ध्यान के
सैकडों तरीके होते हैं इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए जो सुगमता से किया जा सके उसे अपना लेना चाहिए गायत्री मंत्र का जप इसका सबसे प्रभावशाली एवं आसान तरीका है, स्वस्थ सुखी एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए इससे अच्छा कोई दूसरा साधन इस धरती पर नहीं है, मंत्र इस प्रकार है -

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेन्यं भर्गौ देवस्य
धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्।।

जिसका अर्थ इस प्रकार है -

''सब प्राणियों के परम माता पिता ही सब जगत को उत्पन्न करने वाले ज्ञान रूप प्रकाश के देने वाले देव के उस उपासना करने योग्य शुध्द स्वरूप का हम ध्यान करते हैं, वे हमारी बुध्दियों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करें।

मंत्र एवं इसके अर्थ को अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए, यह इस तरह याद हो जाना चाहिए कि मंत्र के साथ मातृभाषा में अर्थ का चिंतन होता रहे क्योकि अर्थ के अनुरूप ही ध्यान करना होता है उच्चारण भी शुध्द होना चाहिए गलत उच्चारण से अर्थ बदल सकता है मंत्र जप के समय अर्थ के अनुरूप ऐसा ध्यान करें कि सूर्य या गायत्री माता के प्रभामंडल से निकलने वाला प्रकाश हमारे शरीर के अंग प्रत्यंग में प्रवेश कर रहा है एवं इससे हमारा शरीर स्फूर्तिवान हो रहा है जप के समय महत्व ध्यान का ही होता है , संख्या या समय पूरा करने का नहीं ध्यान की जितनी अच्छी योग्यता होगी परिणाम उतना ही अच्छा प्राप्त होगा कुछ समय बाद जब ध्यान की योग्यता प्राप्त हो जाए तब इसी ध्यान को आज्ञाचक्र पर करना शुरू करें इसके लिए दृढ श्रध्दा विश्वास एवं लगन का होना आवश्यक है साधना से संबंधित संक्षिप्त नियम एवं तरीका जानने के लिए गायत्री प्रार्थना एवं विस्तृत जानकारी के लिए गायत्री महाविज्ञान नाम की पुस्तक देखें ये किताबें किसी भी गायत्री मंदिर से प्राप्त की जा सकती हैंसाधना के लिए रीढ क़ी हड्डी को सीधा रखते हुए बैठना चाहिए साधना के समय शरीर का धरती या दीवार से सीधा संपर्क न रहे यदि सीधा बैठने में किसी प्रकार की परेशानी है तब लकडी क़े तख्ते का सहारा ले सकते है इसके साथ ही दैनिक जीवन में सात्विक आहार, सात्विक व्यवहार, एवं नियमित तथा सात्विक दिनचर्या अपनाने का अभ्यास करते रहना चाहिए निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए

1 स्थान स्वच्छ मन के अनुकूल एवं शोरगुल रहित हो।
2
ध्यान करते समय शारीरिक या मानसिक कष्ट न हो।

स्थान की भौगोलिक स्थिति का भी बहुत महत्व होता है। इसके लिए किसी बडी नदी, बडी झील या किसी पर्वत श्रृंखला के आसपास बसे हुए स्थान अधिक उपयुक्त होते हैं परंतु समुद्री टापू या समुद्र के किनारे बसे स्थान उपयुक्त नहीं होते क्योकि समुद्र के किनारे धरती की सबसे निचली सतह होती है अतः यहां वायुमंडल में भारीपन अधिक होता है जो ध्यान के लिए उपयुक्त नहीं है जैसे जैसे हम उपर की ओर बढते जाते हैं अनुकूलता बढती जाती है इस सिध्दांत के अनुसार हिमालय पर्वत श्रृंखला एवं यहां से निकलने वाली नदियों के किनारे बसे गांव व शहर सर्वोत्तम स्थान माने जाते हैं मध्यम ऊंचाई के स्थान भी उत्तम होते हैं।

निष्काम एवं सकाम साधनाएं

निष्काम साधना के तीन मार्ग होते हैं -- 1 ज्ञान मार्ग 2 कर्म मार्ग 3 भक्ति मार्ग
ज्ञान मार्ग के दो प्रकार होते हैं _ 1 सांख्य 2 योग

सांख्य में 25 तत्व बतलाए गए हैं इनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेने से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है योग के आठ अंग बतलाए गए हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन दोनों में सांख्य कठिन एवं योग सरल तरीका है, इन दोनों के अंतर को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानलो एक बडा जलाशय या समुद्र है हमें इसके तल तक पहुंचना है, इसके दो ही तरीके हो सकते हैं या तो गोता लगाकर तल तक पहुंचा जाय या पहले जल को खाली किया जाय फिर तल तक पहुंचा जाय, इस प्रकार जल को खाली करके तल तक पहुंचना सांख्य है एवं गोता लगाकर तल तक पहुंचाना योग है, इसलिए अधिकांश लोग योग को ही अपनाते हैं क्योंकि इसमें समय कम लगता है एवं सफलता मिलना निश्चित होता है समय संबंधित व्यक्ति के स्वास्थ संसकार एवं बुध्दि के उपर निर्भर करता है योग में बतलाए गए आठ अंग ईश्वर तक पहुंचने के लिए सीढी क़ा काम करते हैं, इसमें बिना पहली सीढी क़ो पार किए अगली सीढी पर पहुंचना असंभव है, परंतु आजकल देखा जाता है कि लोग जगह जगह ध्यान एवं योग की पाठशालाएं चलाने लगते हैं जिनका उद्देश्य या तो व्यवसायिक होता है या अपनी पहचान बनाना होता है, यह उसी प्रकार है जिस प्रकार यदि किसी बच्चे को जिसको अक्षर ज्ञान न हो और हाई स्कूल की कक्षा में बैठा दिया जाय, क्योंकि बिना यम नियम को अपनाए आसन प्राणायाम या ध्यान पर अधिकार पाना संभव नहीं है, योग में एक सीढी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाने पर ही अगली सीढी पर पहुंचा जा सकता है

कर्ममार्ग के अनुसार प्रत्येक वस्तु में ईश्वर की उपस्थिति को मानते हुए श्रृध्दा पूर्वक व्यवहार करना एवं निष्काम भाव से अपना कर्म करना बतलाया गया है
अपने इष्ट को निष्काम भाव से आत्मसर्मपण कर देना भक्तिमार्ग है मनुष्य किसी भी मार्ग को अपनाए परंतु सबका आदि और अंत एक ही होता है चाहे कोई भी मार्ग हो या कोई भी धर्म हो सबको एक ही जगह ईश्वर तक पहुंचना होता है

सकाम साधनाओं का विज्ञान निष्काम साधना से कुछ भिन्न होता है जिसके अनुसार ईश्वर सृष्टि का संचालन तीन शक्तियों द्वारा करता है इन्हें बह्मा, विष्णु एवं शिव कहते हैं इनमें ब्रह्मा का कार्य पैदा करना, विष्णु का पालन करना एवं शिव का कार्य अंत करना है प्रत्येक की लाखों शाखाएं हैं, धर्म ग्रन्थों में सात्विक, राजसिक एवं तामसिक शक्तियों को मिलाकर इन्की संख्या 33 करोड बताई गई है जिसे देवता एवं राक्षस कहते हैं एक देवता एवं राक्षस का एक विषेश गुण होता है, मनुष्य में ये सभी गुण मौजूद होते हैं हम जिस देवता की उपासना करते हैं उससे संवंधित गुणों की वृध्दि हमारे शरीर में होने लगती है परंतु इन साधनाओं में भी ध्यान की स्थिरता आवश्यक होती है बिना ध्यान में सिध्दि प्राप्त किए कोई व्यक्ति इनसे किसी प्रकार का लाभ नहीं ले सकता
ये साधनाएं सात्विक, राजसिक एवं तामसिक होतीं हैं ये मंत्र, यंत्र, तंत्र, एवं योगिक क्रियाओं द्वारा की जातीं हैं प्रत्येक साधना के साथ कर्मकांड हवन पूजन आदि जुडे रहते हैं कर्मकांड का प्रभाव प्रकृति पर होता है ये साधना के लिए अनुकूल वातावरण निर्मित करते हैं यौगिक क्रियाओं का अभ्यास कर कुछ साधुभेषधारी लोग चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रवाहित करते एवं ठगते हैं इन चमत्कारों का ईश्वर से कोई लेना देना नहीं होता न ही इनमें किसी प्रकार की ईश्वरीय शक्ति होती है

धर्म के विज्ञान को समझे बिना धर्म का अनुसरण करना अंधविश्वास कहलाता है, जो कि एक मानसिक बीमारी है जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में धार्मिक पागलपन कहते हैं, जिसका प्रभाव आज सांप्रदायिक
झगडों के रूप में सभी देख रहे हैं अच्छे पढे लिखे एवं उच्च वर्ग के व्यक्त्ति भी इस बीमारी से ग्रस्त होते हैं सभी धार्मिक कर्मों का व्यवहार सूक्ष्म जगत् में होता है अतः इनमें कर्म के साथ मानसिक भावनाओं का ही महत्व होता है इसके लिए ज्ञानेन्द्रियों को अंतर्मुखी बनाना आवश्यक है मनुष्य की स्थूल जगत् में आसक्त्ति मनुष्य को काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह रूपी पांच बंधनों में बांधती है, मनुष्य के मन में हमेशा इन पांच बंधनों से संबंधित विचार ही उत्पन्न होते रहते हैं इनमें मनुष्य की जितनी आसक्त्ति बढती है उतना ही अधिक वह दुःखी होता जाता है इन पांच बंधनों को तोड देने अर्थात् इन पर विजय प्राप्त कर लेने से ही ईश्वर से साक्षात्कार करने का रास्ता प्राप्त होता है इन बंधनों को तोडने के लिए प्रत्येक धर्म में सैकडों तरीके बताए गए हैंहमारे देश में रोज हजारों ज्ञानी धर्म पर प्रवचन करते हैं धार्मिक साहित्य की लाखों किताबें उपलब्ध है, लोग हमेशा प्रवचन सुनते है, धार्मिक पुस्तकें भी पढते हैं एवं समझते भी है तथा दूसरों से इस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा करते है परंतु स्वयं इसका अनुसरण नहीं कर पाते क्योंकि इसके लिए लंबे समय तक कठिन अभ्यास की आवश्यकता होती है आज इस युग में मनुष्य धन को ही सुख का साधन समझता है, क्योंकि आत्मनिर्भरता बिल्कुल समाप्त हो चुकी है, मनुष्य आज छोटी से छोटी चीज के लिए दूसरे पर निर्भर है, मनुष्य की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर पूंजीपति मनुष्य के श्रम का लगभग 80 प्रतिशत् भाग ले लेते है धन से मनुष्य भौतिक सुख प्राप्त कर सकता है परंतु उसे मानसिक आध्यात्मिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता, मानसिक सुख प्राप्त करने के लिए स्थूल जगत् में आसक्ति को समाप्त कर सूक्ष्म जगत् में बढाना होता है जो मनुष्य एक बार आध्यात्मिक सुख का अनुभव कर लेता है उसके लिए भौतिक सुख किसी काम का नहीं होता, परंतु आज स्थूल जगत् में आसक्त्त मनुष्य यदि ईश्वर का नाम भी लेता है तो उसमें भी उसका स्वार्थ छिपा होता है, जबकि स्वार्थ का इस क्षेत्र से कोइ संबंध नहीं है

- इंजी आर एस ठाकुर
जुलाई 17, 2002

Top
 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com