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'असमंजस' - The Social Dilemma

समंजस - The Social Dilemma पहली फुरसत में, फुरसत न हो तो भी समय निकाल कर देख लीजिए।

ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, गूगल खुद की हकीकत बयान करती डाक्यूमेंट्री। सावधान रहें, यह देख कर आप मामूली असमंजस से निकल कर बड़ी दुविधा-किंकर्तव्यता में पड़ सकते हैं। आशंका-अनुमान से कहीं आगे की सचाई। मोबाइल हाथ में लिये हमने दुनिया मुट्ठी में तो कर ली है, लेकिन खुद किस ‘चंगुल‘ में हैं, इसका ठीक अंदाजा शायद ही हमें हो।

हमारा सामाजिक संसार, विश्व-ग्राम वैसा होता जाने वाला है, जैसा हम शायद चाहते न हों, लेकिन जाने-अनजाने अपनी ढेरों पसंद और थोड़े अरमान प्रकट करते रहने के फलस्वरूप ऐसा होगा। यह हमारी देन गिना जाएगा, जिससे हम तार्किक तौर पर इन्कार नहीं कर सकेंगे। जिन विज्ञापन, फिल्मों, साहित्य, खबरों, सीरियल्स और यहां तक कि जिन जनप्रतिनिधियों से हमारी शिकायत बनी रहती है वे बहुमत, हमारे सरोकार और पसंद का ही नतीजा होते हैं। प्रजातांत्रिक सोच को भी कई बार लगने लगता है कि गनीमत है दुनिया ठीक वैसी नहीं, जैसी बहुमत की पसंद। शायद बहुमत को ठीक पता भी नहीं होता कि उसे क्या पसंद है और उसे जो पसंद आ रहा है, वह रोचक-आकर्षक मात्र है या समाज को उसी तरह बदलने पर भी वह मंजूरी देगा। अपने स्वयं की पसंद और ऐसी पसंदों का परिणाम, उससे बना बहुमत, जरूरी नहीं कि स्वान्तः सुखाय हो और अक्सर बहुजन हिताय भी नहीं हो पाता। सोशल मीडिया पर हम दुविधा में पड़े आजमाते रहते हैं, अनंत विकल्पों के बीच अपनी पसंद को। वह हम सौंप रहे हैं एआई को, जिसमें आदर्श, नैतिकता, मूल्य, भावना, संवेग, आस्था-विश्वास बेमानी है और है तो वहां उतनी ही पवित्रता से अंधविश्वास का भी महत्व है।

हम सबके लिए बहुत परिचित और आसान सी प्रक्रिया है, जहां नेक्स्ट, नेक्स्ट, नेक्स्ट का सिलसिला अंततः जब एग्री पर पहुंचता है तो मंजिल के लिए बेकरार मन-ऊंगली को बिल्कुल समय नहीं लगता, एग्री के बाक्स को चेक करने में। तब हमें यह ध्यान नहीं होता कि शर्तों के किस वैधानिक चौखट में कैद के लिए हम सहमत हो रहे हैं। पहले हम राजी हुए हैं और फिर ‘अबोध‘ हम खुद को टच-टिक में अभिव्यक्त करते गए हैं, यह सब एक दूसरे ‘अविवेकी बुद्धिमान‘ आपके एआई पुतले के पास जमा हो रहा है, जो कुछ समय बाद आपकी पसंद और चाहत तय करने लगता है, और आपके पास उस पर भरोसा कर लेना सहज होने लगता है। फिल्म ‘आराधना‘ का गीत ‘बागों में बहार है की तरह अंततः हां-ना डोलते, प्यार है? का जवाब बेसाख्ता ‘हां‘ के गिरफ्त में आ जाता है।

हमारी सोच, हमारा सामाजिक संसार हम खुद रच-गढ़ रहे हैं। अपनी अलग-बेहतर प्रतिकृति रचने की छूट हो तो गुड़-गोबर संभावना बराबर की रहेगी। इस तरह यह नये किस्म का अस्तित्ववादी दौर है, जहां पूरी सभ्यता में हर एक, आभासी अस्तित्व से रूबरू है, उससे निपटना है और प्रामाणिक बने रहना है, साबित होना है। सोशल मीडिया का अंधाधुंध और अविवेकपूर्ण इस्तेमाल करते हुए अपनी इस जिम्मेदारी से हम नहीं बच सकते कि अपना भविष्य हम खुद तय कर रहे हैं। हमारे मनो-मस्तिष्क को पढ़-जान लेने की इतनी छूट कभी किसी को नहीं थी, जितनी अब सोशल मीडिया के पास है। हम अपने बारे में जानना चाहते हैं कि हम कौन हैं? हमें क्या पसंद है? हमारे गुण-अवगुण क्या हैं? हम पिछले जन्म में क्या थे और अगले जन्म में क्या होंगे? और भी जाने क्या-क्या! हमारी रुचि-पसंद की हमसे ज्यादा खबर अब और किसी को है, पहले तो हमें यह पता नहीं होता, पता होता है तो विश्वास नहीं होता, लेकिन धीरे-धीरे भरोसा करने लगते हैं और अपनी बागडोर किसी और को अनजाने-अनचाहे सौंप देते हैं।

- राहुल सिंह

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