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बाजार की मार
से बेजार किताबें
बाजार की मार
और प्रहार इतने गहरे हैं कि किताबें दम तोड़ने को
मजबूर
हैं । इलेक्ट्रानिक मीडिया का गहराता नशा,
उपभोक्तावादी ताकतों के खेल तथा
पाठकों
के संकट से जूझतीं
‘किताबें’
जिएं तो
जिए कैसे ?
इस
दमघोंटू माहौल में क्या
किताबें
सिर्फ पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाएगीं या मीडिया के नए प्रयोग उसकी
उपयोगिता ही समाप्त कर देंगे,
यह सवाल
अब गहरा रहा है।
अरसा
पहले ईश्वर की
मौत की
घोषणा के बाद उपजे विमर्शों में नई दुनिया के विद्वानों ने इतिहास,
विचारधारा,
राजनीति,
संगीत,
किताबें,
रंगमंच
एक-एक
कर सबकी मौत की घोषणा कर दी। यह
सिलसिला
रुकता इसके पूर्व ही सुधीश पचौरी ने
‘कविता
की मौत’
की
घोषणा कर दी। यह
सिलसिला
कहां रुकेगा कहा नहीं जा सकता । और अब बात किताबों के मौत की। हमने देखा कि
मृत्यु
की घोषणाओं के बावजूद ये सारी चीजें अपनी-अपनी
जगह ज्यादा मजबूती से स्थापित
हुईं और
आदमी की जिंदगी में ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी जगह बना ले
गयीं।
किताबों
की मौत का सवाल इस सबसे थोड़ा अलग है,
क्योंकि
उसके सामने
चुनौतियां आज किसी भी समय से ज्यादा हैं। शोर है कि किताबों के दिन लद गए।
किताबों
के ये
आखिरी दिन हैं। किताब तो बीते जमाने की चीज है। शोर में थोड़ा सच भी है,
उनकी
पाठकीयता प्रभावित जरूर हुई,
स्वीकार्यता भी घटी । इसके बावजूद वह मरने को तैयार
नहीं
है। जिन देशों में आज इलेक्ट्रानिक माध्यमों के
350
से
ज्यादा चैनल है,
10 में
से
6
लोगों के पास
इंटरनेट कनेक्शन हैं,
वहां भी
किताबें किसी न किसी रूप में क्यों
आ रही
है ?
वे कौन से
सामाजिक,
आर्थिक
दबाव हैं,
जो
किताब और पाठक की रिश्तेदारी के
अर्थ और
आयाम बदलने पर आमादा हैं। खासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में किताबों की जैसी
दुर्गति
है,
उसके कारण क्या
हैं ?
इलेक्ट्रानिक मीडिया एवं सूचना आधारित वेबसाइटों
के
भयावह प्रसार वाले देशों में किताबें अगर उसकी चुनौती को स्वीकार कर अपनी
जमीन
मजबूत
बना पाई हैं जो भारतीय संदर्भ में यह चित्र इतना विकृत क्यों हैं
?
निश्चय ही
हिंदी
क्षेत्र के लिए यह चुनौती सहज नहीं खासी विकट है। इसे हल्के ढंग से नहीं लिया
जा सकता
। किताब लिखने और छापने वालों सबके लिए यह समय महत्व का है,
जब
उन्हें ऐसी
सामग्री
पाठकों को देनी होगी,
जो
उन्हें अन्य मीडिया नहीं दे पाएगा। इलेक्ट्रानिक
मीडिया
ने वैसे भी जैसी छिछली,
सस्ती
और सतही सूचनाओं का जखीरा अपने दर्शकों पर
उड़ला
है,
उसमें
‘किताब’
के बचे
रहने
की
उम्मीदें ज्यादा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया
में
गंभीरता के अभाव के चलते किताबों को गंभीरता पर ध्यान देना होगा वरना हल्केपन
का
परिणाम वही होगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया पर हिंदी फिल्मों पर आधारित
कार्यक्रमों
की
लोकप्रियाता तो बढ़ी,
किंतु
हिंदी की कई फिल्म पत्रिकाएं लड़खड़ा कर बंद हो गई।
इसके
बावजूद किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में बाहर से हालात इतने बुरे नजर नहीं
आते।
हिंदी में किताबें खूब छप रही हैं। प्रकाशकों की भी संख्या बढ़ी है। फिर
पाठकीयता के संकट तथा किताबों की मौत की चर्चाएं आखिर क्यों चलाई जा रही हैं
?
सवाल
का
उत्तर तलाशें तो पता चलेगा कि हमारे प्रकाशकों को हिंदी साहित्य से खासा
प्रेम
है।
इसके चलते ज्ञान-विज्ञान
के विविध अनुशासनों पर पुस्तकों का खासा अभाव है।
सिर्फ
साहित्य की पुस्तकों के प्रकाशन के चलते हिंदी में मनोरंजन,
पर्यटन,
चिकित्सा,
इंजीनियरिंग,
कला,
संस्कृति जैसे विषयों पर किताबों बहुत कम मिल पाती
हैं।
हां। अध्यात्म की किताबों का प्रकाशन जरूर बड़ी मात्रा में होता है,
हालांकि
उसके
बिक्री एवं प्रकाशन का गणित सर्वथा अलग है। हिंदी प्रकाशकों के साहित्य प्रेम
के
विपरीत अंग्रेजी किताबों के प्रकाशन बमुश्किल
10
प्रतिशत
किताबें ही
‘साहित्य’
पर
छापते हैं। इसके चलते विविध रुचियों से जुड़े पाठक अंग्रेजी पुस्तकों की शरण
में
जाते
हैं। बाजार की इसी समझ ने ज्ञान-विज्ञान
के विविध अनुशासनों पर अंग्रेजी का
रुतबा
कायम रखा है।
हिंदी
प्रकाशन
उद्योग
की सबसे बड़ी समस्या उसका जनता से कटा होना है। सूचनाओं के महासमुद्र में
गोते
लगाने एवं अच्छी कृतियों को समाने लाने से वे बचना चाहते हैं। सरकारी खरीद
एवं
पाठयक्रमों के लिए किताबें छापना प्रकाशकों का प्रमुख ध्येय बन गया है।
सरकारी खरीद
होने
में होने वाली कमीशनबाजी के चलते किताबों के दाम महंगे रखे जाते हैं।
50
रुपए
की लागत
की कोई भी किताब छापकर प्रकाशक उसे
75
रुपए में बेचकर
भी लाभ कम सकता है,
पर यहां
कोई गुना खाने की होड़ में,
कमीशन
की प्रतिस्पर्धा में
50
रुपए की किताब
की
कीमत
200
रुपए तक पहुंच
जाती है। फिर साहित्य के इतर विषयों पर हिंदी पाठकों को
किताबें
कौन पहुंचेगा
?
अनुवाद के
माध्यम से बेहतर किताबें लोगों तक पहुंच सकती
हैं,
लेकिन
इस ओर जोर कम है,
प्रायः
प्रकाशक किसी किताब के एक संस्करण की हजार
प्रतियां छापकर औन-पौने
बेचकर लाभ कमाकर बैठ जाते हैं। उन्हें न तो लेखकर को
रायल्टी
देने की चिंता है,
न ही
किताब के व्यापक प्रसार की। सरकारी खरीद और
पुस्तकालयों में पांच सौ हजार प्रतियां ही उन्हें लागत एवं मुनाफा दोनों दे
जाती
हैं।
इससे ज्यादा कमाने की न तो हमारे प्रकाशकों की इच्छा है,
न ललक।
प्रकाशकों का
यह
‘संतोषवाद’
लेखक
एवं पाठक दोनों के लिए खतरनाक है। प्रकाशक प्रायः यह तर्क देते
हैं कि
हिंदी में पाठक कहां है
?वास्तव
में यहा तर्क भोथरा एवं आधारहीन है। मराठी
में
लिखे गए उपन्यास
‘मृत्युंजय’
(शिवाजी
सावंत)
के
अनुवाद की बिक्री ने रिकार्ड
तोड़े ।
प्रेमचंद,
बंगला
के शरदचंद्र,
देवकीनंदन खत्री,
हाल में
सुरेन्द्र वर्मा की
‘मुझे
चांद चाहिए’
ने
बिक्री के रिकार्ड बनाए। विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रारंभ
किए गए
पेपरबैक सस्करणों को मिली लोकप्रियता यह बताती है कि हंदी क्षेत्र में लोग
पढ़ना
चाहते हैं,
पर
कमीशनबाजी और राज्याश्रय के रोग ने पूरे प्रकाशन उद्योग को जड़
बना
दिया है। पाठकों तक विविध विषयों की पुस्तकें पहुंचाने की चुनौती से भागता
प्रकाशन
उद्योग न तो नए बाजार तलाशना चाहता है,
न ही
बदलती दुनिया के मद्देनजर उसकी
कोई
तैयारी दिखती है। प्रायः लेखकों की रायल्टी खाकर डकार भीन लेने वाला प्रकाशन
उद्योग
यदि इतने बड़े हिंदी क्षेत्र में पाठकों का
‘टोटा’
बताता
है तो यह
आश्चर्यनजक ही है।
पाठक और
किताब का रिश्तों पर
नजर
डाले तो वह काफी कुछ बदल चुका है। प्रिंट मीडिया पर इलेक्ट्रानिक माध्यमों से
लेकर
तमाम सूचना आधारित वेबसाइटों के हमले और सामाजिक-आर्थिक
दबावों ने किताबों और
आदमी के
रिश्ते बहुत बदल दिए हैं। किताबों ने तय तक कर लिया है कि व महानगरों में
ही
रहेंगी,
जबकि
हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती है। किताब पढ़ने का
उनका
संस्कार नहीं है,
यह मान
लेना भी गलत होगा बरना रामचरित मानस,
पंचतंत्र,
चंद्रकांता संतति जैसा साहित्य गांवों तक न पहुंचता। शायद किताबों का इस संकट
में
कोई
कुसूर नहीं है। दुनिया के महानगरीय विकास ने हमारी सोच,
समझ और
चिंतन को भी
‘महानगरीय’
बना
दिया है। वैश्वीकरण की हवा ने हमें
‘विश्व
नागरिक’
बना
दिया। ऐसे
में
बेचारी किताबें क्या करें
?
बड़े शहरों तक
उनकी पहुच है। परिणाम यह है कि वे
(किताबें)
विश्वविद्यालयों
महाविद्यालयों के पुस्तकालयों की शोभ बढ़ा रही हैं।
ज्यादा
सुविधाएं मिलीं तो सरकारी या औद्योगिक प्रतिष्ठानों के राजभाषा विभागों,
पुस्तकालयों में वे सजी पड़ी हैं। पुस्तक मेंलों जैसे आयोजन भी राजधानियों के
नीचे
उतरने
को तैयार नहीं है। जाहिर है आम आदमी इन किताबों तक लपककर भी नहीं पहुच
सकता।
संजय द्विवेदी
सितंबर 16, 2008 |
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