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इच्छामृत्यु, एक वरदान ? सुलभ मृत्यु की इच्छा हर इन्सान को होती है, लेकिन किसकी पूरी हो कहा नहीं जा सकता। समाज में कई तरह के लोग हैं_ गरीब भी और अमीर भी। सारी उम्रतकलीफें सहने वाले, जी जान से मेहनत करके जिन्दगी मुश्किल से जीने वाले भी और जीवन में सुख सुविधाओं के साथ जीते हुए किसी भी दुख की झलक ना पाने वाले भी। हर एक की जिन्दगी आखिर एक जिन्दगी है। सभी लोग आसान मृत्यु की कामना रखते है। अब जिन्दगी है तो उसका अन्त भी निश्चित है।कितने ही लोगों को ऐसी जिन्दगी जीते देखा जा सकता है जिन्हे देख कर ना चाहते हुए भी मुंह से निकल जाता है कि भगवान इसे उठा क्यों नहीं लेता। कई लोग ऐसे है जो इस प्रकार की यातनाओं से भरी जिन्दगी जी रहे है और मौत के करीब पहुंचे हुए भी मौत नही पा सकते हैं। ऐसे लोगों के लिये इच्छा मृत्यु वरदान सिध्द हो सकती है। फादर लुई वेदरहेड ने कहा था, यह दुख की बात है कि असाध्य रोगों से पीडित या जिनकी सारी इंद्रियां काम करने में सक्षम नही है और शरीर भी ठीक नही है ऐसे व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरूध्द कृत्रिम मशीनों पर जीवित रखने का प्रयास करनें वालों को ईश्वर शिक्षा नहीं देता। लेकिन चिकित्सक जान बचाने की शपथ लेते है तो वे जान ले कैसे सकते है ? यह सब देखते हुए दुनिया में इच्छामृत्यु का कानून आना कितना जरूरी है इस पर सोच विचार चल रहा है। हर व्यक्ति को अपने निर्णय स्वयं लेने का हक है तो फिर यदि कोई व्यक्ति लिख कर देता है ''यदि डाक्टरों के कथनानुसार मैं शारीरिक यातनाओं से मुक्ति नहीं पा सकता तो ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था में कृत्रिम उपचारों पर परावलंबी और लाचारी का जीवन जीने की बजाय मुझे इच्छामृत्यु द्वारा इन सबसे मुक्ति दीजिये।'' तो ऐसे इच्छामृत्यु के पत्र को सम्मानित करना चाहिये। इच्छामृत्यु एक वरदान साबित हो सकता है ऐसा कहने से क्या होता है? इसे कहीं भी कानूनी मान्यता नहीं मिल पाई है। इच्छामृत्यु या दयामृत्यु सारी दुनिया में चर्चा या विवाद का विषय बनी हुई है। इसके पक्ष और विपक्ष में बहस जारी है। बीमारी की हालत में रोगी को कम से कम कष्ट मिले इसके लिये हर डाक्टर प्रयत्नशील होता है।ऐसे ही ऑस्ट्रेलिया के एक डॉक्टर फिलिप है। उनका मानना है कि उपलब्ध डॉक्टरी उपायों से यदि रोगी की यातनाएं खत्म नहीं होती और मृत्यु ही अन्तिम उपाय हो तो तकलीफें झेलने से बेहतर है उसे सुखद मृत्यु दे दी जाय। उनकी लडाई जारी है।अनेक लोग इसका विरोध भी करते नजर आते है। लेकिन वह अपने विश्वास पर अटल हैं। दयामृत्यु या इच्छामृत्यु के वे इतने कट्टर प्रवर्तक हैं कि आस्ट्रेलिया में उन्हे डॉ डेथ के नामसे जाना जाने लगा है। जिनके इलाज में मृत्यु ही आखरी इलाज है ऐसे मरीजों को तुरन्त मृत्यु आए इसलिये उन्होने खास डेथ मशीन बनाई है।वे कानून तो नहीं तोड सकते लेकिन उससे बचने का उपाय वे खोज रहे है। आन्तर्राष्ट्रिय समुन्दर में जहाज पर इच्छामृत्यु देने और ऑस्ट्रेलियन कानून को वहां निकम्मा बना सकने का उनका प्रयास जारी है। उन्हे पक्का विश्वास है कि उन्हे यश जरूर मिलेगा। उनका दावा यह भी है की आज तक 200 से अधिक लोगों ने इच्छामृत्यु का वरदान उनसे मांगा है। पीडा सहन करनेवाले जब इच्छामृत्यु का प्रस्ताव सामने रखते है तो सामने वाला भी सोचने पर मजबूर हो जाता है।सब यदि इस विषय पर सोचना शुरू कर दें तो हल कभी न कभी जरूर निकलेगा। प्रजातंत्र में जब सत्ता पक्ष ऐसे सामाजिक क्रांति करनेवाले कानून लाने की बात सोचता है तो विरोधी पक्ष उसका साथ नही देता। भारत जैसे रूढिप्रिय देश में ऐसे कानून लागू करना असम्भव सा लगता है। यदि यह कानून सम्भव नहीं हुआ तो ऐसे समय जब यातनाओं से रोगी मुक्ति पाना चाहता हो कत्रिम उपचारों की तकलीफ नकारने का हक तो उसे है ही। इसमें यदि परिवर का सहयोग मिले तो ही यह मुक्ति उसे मिल सकती है।लेकिन ऐसे संबंधी कहां मिलेंगे जो इच्छामृत्यु के लिये मंजूरी देंगे? इच्छामृत्यु के बारे में दूसरी तरह से भी सोचा जा सकता है। यदि डॉक्टर को कोई उम्मीद की किरण नजर नही आती तो ऐसी मौत का सामना करने के लिये डॉक्टर भी उसका साथ दे सकते है। रोगी इतने असह्य दर्द में होता है कि वह तो आसानी से मौत को गले लगा सकता है। आसान मौत दिलाने में रोगी का साथ देना उसकी जान लेना नहीं माना जा सकता। इससे यह भी नहीं सोचा जाना चाहिये कि डॉक्टर ने अपना सेवाधर्म या ईमान छोड दिया है। ऐसे भी तो कई लोग हैं जो जन्मजात रोगी हैं, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से लाचार है। हांलांकि समाज और परिवार वाले ऐसा सोचते नहीं लेकिन वे एक तरह से परिवार पर भी बोझ बने है। ऐसे लोगों को इस बोझ का अहसास तक नहीं है। उनके लिये डॉक्टर या परिवार के सदस्य उनकी इच्छामृत्यु का निर्णय कर सकते है। नीदरलैंड में ऐसी इच्छामृत्यु की शुरूवात हुई है। इसके साथ ही जब नया पैदा हुआ बच्चा खामियों से भरा हो, और आगे का जीवन उसके लिये भयावह हो तो भी उसे मौत दे दी जाती है। इसमें सबका सहयोग मिलता है जो बडा ही आवश्यक है। डॉ केव्होरकीयन ने खुद अमेरिका में 80 से उपर ऐसे लोगों को मौत दिलाने में सहायता की है जो जीवन से ऊब चुके थे।उन्हे सबका सहयोग प्राप्त हुआ है।तत्काल मृत्यु की तरकीबों को वे ज्यादा सहायक मानते है जिससे इच्छामृत्यु में ज्यादा तकलीफ ना हो। कई मरीज ऐसे भी हैं जो अपनी इच्छाशक्ति और आत्मशक्ति के बलबूते पर दुख झेलने का हौसला जुटा लेते है।लेकिन अधिकतर लोग बीमारी का नाम सुनते ही शुरू से हार मान लेते है। ऐसे उम्मीद खोए हुए लोगों को अन्त में यह प्यार भरी मौत ही पार लगा सकती है। यह बात तो उतनी ही सच है कि ऐसी मौत किसी को बहाल करना आसान बात नहीं है। लेकिन रोगी की बार बार इच्छामृत्यु की मांग , डॉक्टर की सहमति और परिवारजनों का सहयोग काफी हद तक इच्छामृत्यु की बात को सफलता दिला सकता है। देखना यह है कि क्या इसे कभी कानूनी मान्यता प्राप्त हो सकेगी और यह व्यवहार में आ पायेगी?
- दीपिका जोशी |
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