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आज की महिला उपभोक्ता औद्योगिक क्रान्ति के इस युग में आप किसी भी बाजार से गुजर जाइए, लोगों की अपार भीड आपको नजर आएगी। दुकानों पर लोग महंगे से महंगे कपडे, सजावट की चीजें या फिर लेन-देन के लिये उपहार खरीदते नजर आएंगे। सवाल ये है कि इतनी सारी चीजों को क्या लोग एक साथ इस्तेमाल कर पाते हैं? खासतौर पर महिलाएं जो हमेशा से हर घर का बचत बैंक रही हैं, लेकिन आजकल यही महिलाएं हर सीजन में बाजार में ताबडतोड ख़रीददारी करती नजर आ रही हैं। चौंकिये नहीं और न ही चिंतित होइए क्योंकि यह आश्चर्यजनक बदलाव सिर्फ महिलाओं में अपनी कमाई के बूते पर ही नहीं आ रहा है, बल्कि वैज्ञानिकों की बात मानें तो इसके लिय उनके शरीर में बाजार, दुकान और सामान को देख कर होने वाली रासायनिक प्रतिक्रियाएं और इम्पल्सेज भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। वैज्ञानिकों का यह दल अमेरिका के हावर्ड बिजनेस स्कूल में उपभोक्ताओं की आदतों और बाजार में इनके शारीरिक और मानसिक स्थिति का अध्ययन कर रहा है। और इस दल को चूंकि कोकाकोला, प्रोक्टर एंड गैम्बल और जनरल मोटर्स जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने स्पॉन्सर किया है इसलिये इनके निष्कर्षों को लोगों का ब्रेनवाश करने की मुहिम भी करार दिया जा रहा है। मगर इस टीम के अध्ययन ने यह स्पष्ट निष्कर्ष निकाला है कि बाज़ार में महिलाओं और एक हद तक पुरूषों के मस्तिष्क में तेज रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिससे उनके मन में खरीददारी करने की तरंगे यानि इम्पल्स उत्पन्न होती हैं। वह बात अलग है कि महिलाओं को अलग चीजें आकर्षित करती हैं, पुरूषों को अलग। इतना ही नहीं इस अध्ययन ने हर चीज देख-परख कर किफायत के साथ खरीदने की पारंपरिक मान्यता को भी चुनौती दे दी है। क्योंकि इन वैज्ञानिकों के मुताबिक महिलाएं किसी भी सामान को खरीदने का फैसला एक रौ में बह कर यानि अवचेतन मन से करती हैं। इस अध्ययन के मुताबिक खरीददार को जब बाजार में कोई चीज लुभा लेती है तो वो तमाम सिध्दांत भूल कर उसकी उपयोगिता आंके बिना उसे खरीद बैठता है। इसकी वजह दिमाग में बेसाख्ता उठने वाली वो ही तरंगे जिनके थमने पर उपभोक्ता खुद भी अपनी हरकत पर ताज्जुब या पश्चाताप करते हैं। और इसे ही इम्पल्सिव शॉपिंग कहते हैं। हावर्ड में मनोविज्ञान के प्रोफेसर स्टीफन कोसलिन के एक सहायक के मुतााबिक उन्हें इन तरंगों का अहसास खरीददारी के दौरान महिलाओं के दिमाग में खून के दौरे और ऊर्जात्मक हलचल के अध्ययन से हुआ है। अध्ययन के दौरान एक महिला को कार के ऐसे शोरूम में भेजा गया जहां काउंटरों के पीछे खडे लोग बदतमीज थे। पता लगा कि शोरूम में पहुंचते ही महिला के खून का दौरा दिमाग के दाहिने प्रीफंटल कॉर्टेक्स में तेज हो गया, जिससे उसका दिमाग भन्ना गया क्योंकि दिमाग का यह हिस्सा मन में अरूचि पैदा करता है। नतीजतन वो महिला जब उलटे पाँव कार शोरूम से बाहर निकल आई तो वैज्ञानिकों ने जांच में पाया कि उसके दिमाग के इंसुल और हिपोकैम्पस में वैसा ही खून का दौरा हो रहा था। इसी तरह साफ-सुथरे सजे-धजे एक शोरूम में जब वह महिला घुसी तो सेल्स परसन्स ने उसका मुस्कुरा कर स्वागत किया तो महिला के दिमाग में खून का दौरा बाईं प्रीफंटल कॉर्टेक्स से आँखों की तरफ होता पाया गया, जो मानव के मूड को अच्छा बनाता है और खरीददारी की ओर आकर्षित करता है। और इन कम्पनियों का दावा है कि उसने जब अध्ययन के नतीजों के मुताबिक अपने शोरूम के माहौल सुधारे तो उसकी कारों की बिक्री पहले से एक चौथाई ज्यादा हो गई। शायद इसी सिध्दांत के कारण भारत के बाजारों, दुकानों और उनके सेल्स स्टाफ का रूख भी लगातार बदल रहा है। वस्तु की गुणवत्ता से अधिक तवज्जो दुकानों की साज-सज्जा और आकर्षक सेल्स गर्ल्स और सेल्समेन के मीठे व्यवहार को दी जा रही है, जो कि फर्राटे से अंग्रेजी बोल सकें। भारत के बाजार भी अब अंर्तराष्ट्रीय बाजारों की तर्ज पर बनने लगे हैं। जहां भारत में पहले अपने इम्पल्सेज पर संयम रखना बचपन से घुट्टी में पिलाया जाता था, चाहे वे अमीर परिवार के बच्चे हों या गरीब। जो पसंद आया अच्छा लगा खरीद लो चाहे वह उपयोगी हो या नहीं, यह प्रवृत्ति हम भारतीयों में अपनी आर्थिक सीमीतता की वजह से कहें या परंपरागत रूप से थी ही नहीं। न बाजार अनुपयोगी मगर आकर्षक वस्तुओं से अंटे होते थे। आज वह संयम घटता जा रहा है, महिला उपभोक्ताओं में ही नहीं पुरूषों में भी। -
नीरज दुबे |
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