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बहादुर लेखिका है तस्लीमा : मैत्रेयी पुष्पा नई दिल्ली, 7 दिसम्बर (आईएएनएस)। जीवन के जिन संघर्षों से आमतौर पर लोग टूटने लगते हैं, वहीं संघर्ष साहित्य जगत की जानी-मानी उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा के जीवन की सफलता की सीढ़ी बने हैं। महज 17 वर्षों में एक खास मुकाम हासिल कर चुकी यह लेखिका वर्तमान में महिला साहित्यकारों की भूमिका से संतुष्ट नहीं है। आईएएनएस से हुई एक खास बातचीत में मैत्रेयी ने कहा कि वर्तमान में ज्यादातर महिला साहित्यकार ख्याति प्राप्त करने में लगी रहती हैं लेकि न समाज के प्रति अपने दायित्वों को वे ज्यादा तवाो नहीं दे रही हैं। बकौल मैत्रेयी, ''ज्यादा महिला साहित्यकार, राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लिखने से डरती हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से देश के राजनेता उनके खिलाफ बगावत कर देंगे।'' इस लिहाज से मैत्रेयी तस्लीमा नसरीन को एक 'बहादुर' लेखिका मानती है। मैत्रेयी कहती है कि तस्लीमा साहित्य के माध्यम से सच्चाई को समाज के समक्ष प्रस्तुत कर रही हैं, जिसे कट्टरपंथी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। कथा जगत में 'स्त्रीवादी लेखिका' के रूप में पहचान कायम होने से मैत्रेयी कतई दु:खी नहीं है बल्कि मैत्रेयी मानती हैं कि एक स्त्री ही स्त्री के दु:खों को बेहतर ढंग से समझ सकती है। इस लेखिका को काल्पनिक कहानियों से सख्त नफरत है। फिर चाहे उपन्यास 'चाक' की नायिका 'सारंग' हो या फिर 'अल्मा कबूतरी' की नायिका 'अल्मा'...मैत्रेयी कीअधिकांश कहानियां सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। बचपन में ही मैत्रेयी के सिर से बाप का साया उठ गया था। लेकिन मां कस्तूरी के मजबूत इरादों ने मासूम मैत्रेयी को टूटने नहीं दिया था। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव से संबंध रखने वाली इस लेखिका को साहित्यिक जीवन के शुरूआती दौर में भी काफी संघर्ष करना पड़ा था। वर्ष 1990 में उनकी पहली कृति 'नेहबंध' को जब साप्ताहिक हिंदुस्तान ने प्रकाशित नहीं किया था तो मैत्रेयी थोड़ा निराश अवश्य हुई थी लेकिन यह मैत्रेयी की दृढ़ इच्छाशक्ति का परिणाम था कि बाद में 'इदन्नमम' उपन्यास के रूप में इस रचना से उन्हें साहित्य जगत में एक विशेष पहचान मिली थी। 7 दिसम्बर 2007 इंडो-एशियन न्यूज सर्विस |
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