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हिंदी साहित्य में चाटुकारिता, चोरी और सीनाजोरी

नई दिल्ली, 3 जनवरी (आईएएनएस)। मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर से निकलने वाली लघु पत्रिका 'पहल' का 86 वां अंक पाठकों के सामने वर्ष 2007 के अगस्त महीने में आ गया था। इस प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन ने अंक 85 में किये गये वादे को ईमानदारी से निभाया और अंक सही समय पर पाठकों के बीच आ गया। लघु पत्रिकाओं का समय पर पाठकों के बीच ला पाना संपादक के लिए पहाड़ चीरने जैसी चुनौती होती है।  

ज्ञानरंजन जैसे संपादकों ने ऐसी चुनौतियों को हमेशा स्वीकार किया है। बकौल, ज्ञानरंजन पहल के अंक 7 में शाकिर अली का लेख प्रकाशित करने पर तत्कालीन स्थानीय सांसद और धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती, कादम्बिनी के संपादक राजेन्द्र अवस्थी ने सक्रिय भूमिका निभाई। पहल को बंद करने, संपादक को हिरासत में लेने और आजीविका समाप्त करने के लिए बार-बार प्रयास भी  किए गए।  

इन सबके बावजूद ज्ञानरंजन की दृष्टिसंपन्नता के कारण ही पहल ने गंभीर पाठकों के बीच अपनी एक पहचान और पैठ बनायी है। परंतु यह अंक जब हाथ लगा तो उनके ढीले पड़ते तेवर के आभास मात्र से पाठकों को मर्मान्तक पीड़ा महसूस हुई। इस अंक में दो दिक्कतों पर गौर फरमाना जरुरी होगा। एक तो कवि विष्णु खरे की इसी अंक में अलग-अलग दो जगहों पर छपी कविता तथा दूसरा कोलंबिया विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक डगलस केलनर का लेख एक लेखक द्वारा अपने नाम से छपवा लेने को लेकर।  

विष्णु खरे ने 'सिला' शीर्षक से एक कविता लिखी है जो इस अंक के पृष्ठ संख्या 301 पर प्रकाशित की गयी है। यह कविता कांग्रेस नेता और वर्तमान में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह को अब तक प्रधानमंत्री न बनाए जाने को लेकर अफसोस से भरकर लिखी गई है। विष्णु खरे लिखते हैं-''गांधी-नेहरू के मूल्यों में आस्था  सबसे बड़ी बात इंदिरा संजय राजीव सहित अब सोनिया राहुल और प्रियंका परिवार तक का अकुंठ समर्थन राजीव गांधी की हत्या और बाबरी मस्जिद ध्वंस को लेकर एकमात्र इस्तीफा लेकिन सोनिया गांधी ने बनाया मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री तुम्हें नहीं अर्जुन सिंह।''  

पृष्ठ संख्या 40-51 पर विष्णु खरे की आठ कविताएं एक जगह छापी गयीं हैं। विष्णु खरे की ही तीन और कविताएं पृष्ठ संख्या 301-307 पर छापी गयी हैं। संपादक के इस विशेष आग्रह पर कुछ सवाल खड़े होते हैं और इसका जवाब उन्हें जरूर देना चाहिए। पहला, क्या ये कविताएं इस अंक के लिए इतनी प्रासंगिक थीं? क्या इन कविताओं के प्रकाशन के लिए अगले अंक तक इंतजार नहीं किया जा सकता था? त्तीसगढ़ के बस्तर जिले में आदिवासियों की पीड़ा पर शाकिर अली द्वारा लिखी गयी अनूठी कविताओं के प्रकाशन के साथ अर्जुन सिंह के महिमामंडन में लिखी गयी कविताओं को छापने के पीछे उनकी क्या मजबूरी रही? ज्ञानरंजन सहित तमाम प्रगतिशील लेखक यह जानते हैं कि बस्तर की हालत के लिए लंबे समय तक शासन में रहने वाली कांग्रेस पार्टी ज्यादा जिम्मेवार है। 

विष्णु खरे की तीन कविताओं के साथ संपादकीय टिप्पणी कुछ इस तरह से जड़ी गयी हैं-''विष्णु खरे की ये और तीन कविताएं हमें छपते-छपते मिली हैं। इनमें पहली दो राजनैतिक कविताएं हैं। हमें बिल्कुल अंत में छापने का खेद है पर कविताएं कहीं भी हों, वे महत्वपूर्ण हैं।'' इस संपादकीय टिप्पणी को 'सिला' शीर्षक कविता के साथ पढ़ने पर घनघोर निराशा हाथ लगती है। अगर राजनीतिक कविता का मतलब राजनीतिज्ञों का महिमामंडन है, फिर पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पर चालीसा लिखा जाना, गैर-राजनीतिक किस तर्क के आधार पर करार दिया जाता है?  

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के महिमामंडन पर रामधारी सिंह दिनकर द्वारा कविता लिखे जाने पर उनकी अगर घोर आलोचना होती है तो विष्णु खरे की इस कविता पर साहित्यिक संसार चुप्पी क्यों लगाए बैठा है? हालांकि, विष्णु खरे ने प्रकाश मनु को दिए एक साक्षात्कार में अपने को वामपंथी विचारधारा का बताते हुए भारत में वामपंथी पार्टियों की खराब स्थितियों के बरअक्स कांग्रेस के नेता अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी के प्रति उन्होंने अपनी सहानुभूति जताई है। यह साक्षात्कार वर्ष 2004 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'एक दुर्जेय मेधा विष्णु खरे' में छपी थी। यह संदर्भ पुस्तक के पृष्ठ संख्या 210-211 पर आया है। साहित्य के सुधिजनों को इस सवाल का जवाब ढूंढना चाहिए अन्यथा किताबें कोई खरीदता नहीं और पाठक नहीं रह गये हैं, का रोना छोड़ना होगा। 

दूसरा महत्वपूर्ण सवाल पहल में प्रकाशित लेख 'बुध्दिजीवी, लोक वृत्त और टेक्नो पॉलिटिक्स' को लेकर है। डगलस केलनर द्वारा दिसंबर 1997 में अंग्रेजी में लिखे गए और सुधी पाठकों के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध लेख तथा पहल में प्रकाशित लेख में समानताओं की कोई कमी नहीं।  

दिलचस्प बात यह है कि पहल के संपादक ज्ञानरंजन खुद इस ट्रेंड को नयी पीढ़ी में प्रवेश को लेकर गहरी चिंता जताते हैं। उन्होंने इस अंक के प्रकाशन के बाद इस लेखक से कुछ माह पहले ही बातचीत में कहा था, ''इंटरनेट के कारण कई लोग लेखक बन गए हैं। अंग्रेजी से अनुवाद करके अपने नाम से छपवा लेने का काम खूब हो रहा है। पुराने समय से साहित्य और पत्रकारिता में चोरी की जाती रही है, परंतु नयी पीढ़ी के लेखकों को इससे बचना चाहिए।''  

हिंदी आलोचना में इस प्रवृत्ति को लेकर अक्सर चिंता जाहिर की जाती रही है। साहित्य व पत्रकारिता की दुनिया में ईमानदारी और कठोर मेहनत के बल पर मुकाम हासिल किये जाते रहने की परंपरा है। साहित्य व पत्रकारिता की दुनिया में इन परंपराओं का निवर्हन होता रहे, इसके लिए बौध्दिक समाज को अपनी चुप्पी तोड़नी होगी।

स्वतंत्र मिश्र

(लेखक आईएएनएस हिंदी सेवा में संवाददाता हैं। यह लेख उनके निजी विचारों पर आधारित है।)

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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