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सेज का षडयंत्र :
300 साल बाद
नई दिल्ली, 16 मार्च (आईएएनएस)। विशेष आर्थिक क्षेत्र अर्थात सेज को आजकल विभिन्न सरकारें आर्थिक समृध्दि का एक चमत्कारिक माध्यम बताकर प्रचारित-प्रसारित कर रही हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की या किसी भी विचारधारा की हो, सभी सेज का गुणगान करने में व्यस्त हैं।
गुजरात में मोदी की भाजपा सरकार सेज को लग्जरी बस बता रही है, हरियाणा और महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकारें सेज की ढपली पूरी थाप देकर बजा रही हैं, तो वहीं पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार सेज लाने के लिए कत्लेआम करने को भी तैयार है। किसी जमाने में जो काम जमींदारों के लिए उनके लठैत किया करते थे, वहीं काम अब सरकारें बड़े-बड़े पूंजीपतियों के लिए करने को तत्पर हैं। नंदीग्राम की घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
सेज की जिस अवधारणा को लेकर भारत की तमाम सरकारें पागल हुई जा रही हैं, उसकी नकल चीन से की गई है। सन् 2000 में अपनी चीन-यात्रा के दौरान मुरासोली मारन ने वहां के कुछ सेज का दौरा किया। वे उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भारत में भी इसे लागू करने की कवायद शुरू कर दी।
मई, 2005 में भारतीय संसद ने द स्पेशल एकोनामिक जोन्स एक्ट-2005 पारित किया जिसे 10 फरवरी, 2006 से लागू भी कर दिया गया। जिस चीन की नकल करके भारत में सेज लागू किया गया, वहां अब तक मात्र 5 सेज हैं लेकिन हमारे यहां सैंकड़ों की तादाद में सेज प्रस्तावित हैं। इनमें से कई सेज अब तक अस्तित्व में भी आ चुके हैं।
सेज बनाने की होड़ में पड़ने के पहले हमारी सरकार ने चीन और भारत की राजनैतिक आर्थिक परिस्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन करने की जरूरत महसूस नहीं की। आंख मूंदे यह मान लिया गया कि जो सेज चीन के लिए अच्छा है वह भारत के लिए भी अच्छा होगा। हमारे नेता चीन और चीन के सेज की उपरी चमक-दमक देखकर भावविभोर हो गए। लेकिन, वे भूल गए कि चीन तानाशाही से चलता है।
1959-62 के अकाल में चीन में करोड़ों लोग मारे गए लेकिन वहां के एकमात्र अखबार पीपुल्स डेली में इस विषय में एक लाइन भी नहीं छपी। तिएनमेन चौक पर वहां हजारों छात्रों को गोलियों से भून दिया गया। चीन एक ऐसा देश है जहां वहीं दिखता है जो सरकार दिखाना चाहती है, वहां वही होता है जो सरकार चाहती है। ऐसे देश की नकल करना कहां तक उचित है? चीन में जिस ढंग से सेज संचालित किए जाते हैं, क्या हम भी वैसे ही अपने यहां बने सेज संचालित कर सकेंगे?
वास्तव में भारत में जिस प्रकार सेज लागू किया जा रहा है, उसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बहुत बड़ी भूमिका है। सेज के संदर्भ में हम रिलायंस, टाटा, भारती जैसी जिन कुछ कंपनियों के नाम सुन रहे हैं, वास्तव में वे वालमार्ट, टेस्को, कारफूर और मेट्रो जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मोहरे की तरह काम कर रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीति अंगुली पकड़कर पहुंचा पकड़ने की है। वे भारतीय कंपनियों एवं पूंजीपतियों को उसी तरह आगे कर रही है, जैसे एक समय में ईस्ट इंडिया कंपनी ने जगतसेठ अमीचंद को आगे किया था।
अगर हम ध्यान से देखें तो जिस प्रकार इस समय सेज विकसित किये जा रहे हैं, उसी प्रकार ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शुरुआती दिनों में मद्रास, मुंबई और कोलकाता में अपनी कोठियां स्थापित की थीं। ये कोठियां नाम मात्र का वार्षिक शुल्क देकर बिना रोक-टोक के व्यापार करती थीं। उन्हें देश के अन्य व्यापारियों की तरह विभिन्न प्रकार के कर नहीं देने पड़ते थे। कंपनी की ये कोठियां अपने आप में संप्रभु केंद्र थी।
यहां नवाबों या बादशाहों के कानून नहीं चलते थे। उनकी फौज या पुलिस इन कोठियों में प्रवेश नहीं कर सकती थी। अन्दरूनी सुरक्षा व्यवस्था ईस्ट इंडिया कंपनी स्वयं करती थी। धीरे-धीरे कंपनी की ये कोठियां अच्छे-खासे व्यापारिक केंद्रों में तब्दील हो गईं। बड़ी संख्या में भारतीय पूंजीपति और व्यापारी इन केंद्रों में बसने लगे, क्योंकि यहां उनके लिए व्यापार के बेहतर अवसर मौजूद थे।
अंततोगत्वा कंपनी की कोठियां इतनी मजबूत हो गईं कि उन्होंने स्वतंत्र सेनाएं रखना और उनके लिए स्वतंत्र राजस्व की व्यवस्था करना शुरू किया। 1757 के प्लासी युध्द से लेकर 1833 तक उन्होंने लगभग पूरे देश पर कब्जा कर लिया और इस प्रकार पूरा देश ही उनकी कोठी में तब्दील हो गया।
लगभग तीन सौ साल बाद हम आश्चर्यजनक ढंग से इतिहास को दोहराने की तैयारी कर रहे हैं। हमने इतिहास से कोई सबक नहीं सीखा है। यही कारण है कि हम सेज के नाम से ईस्ट इंडिया कंपनी की नई कोठियां बना रहे हैं। सेज एक्ट के प्रावधान ईस्ट इंडिया कंपनी की कोठियों के लिए बने प्रावधानों से काफी हद तक मेल खाते हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने जो नीतियां दबाव डालकर नवाबों से लागू करवाई थी, वैसी ही नीतियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर सेज के लिए बनाई गई है। कंपनी की कोठियों का स्वरूप, उनका अंदरूनी प्रशासन, बाहर की दुनिया से उनके संबंध, स्थानीय नवाबों और राजाओं से उनके रिश्ते, व्यापार और कारोबार का उनका तरीका और आम हिन्दुस्तानियों से उनके रिश्ते, सब कुछ सेज की नई व्यवस्था से मिलते-जुलते हैं।
वास्तव में सेज की पूरी नीति सिध्दांतहीन, अनैतिक, अपारदर्शी और अलोकतांत्रिक है। घोर भ्रष्टाचार में डूबी यह व्यवस्था बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनके देशी समर्थकों का हित साधने में लगी हुई है। उनका हित ही कानून बनता जा रहा है। सेज के रूप में जो स्थितियां निर्मित हो रही हैं वे बार-बार ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुआती दिनों की याद दिलाती हैं।
इस सबके बीच देश का राजनैतिक नेतृत्व या तो लाचार और अक्षम है या फिर उनके हाथों बिक चुका है। जिस प्रकार विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन के पक्ष में सभी राजनीतिक दल लामबंद खड़े दिखते हैं, उससे तो संदेह होता है कि उनका नेतृत्व अपने विवेक से नहीं बल्कि किसी और चीज से नियंत्रित हो रहा है।
हमारे नेताओं की भूमिका उस एक्टर जैसी है जिसके संवाद, जिसके हाव-भाव और जिसकी क्रिया-प्रतिक्रिया सब कुछ डायरेक्टर के द्वारा निर्धारित की जाती है। ऐसे में राजनीतिक दलों और उनकी सरकारों से यह अपेक्षा करना कि वे देश को सेज के रूप में आ रही नई गुलामी से बचाएंगी, एक दिवास्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है।
आज देश के सामने सेज सहित जो तमाम चुनौतियां हैं, उनका सामना करने के लिए नई रचना, नए लड़ाके और नए औजार चाहिए। और ये सब बड़े स्वाभाविक तरीके से सामने आ भी रहे हैं। आजादी बचाओ आंदोलन, किसान जागरूक मंच (गुड़गांव, झार), भारत किसान यूनियन एकता (पंजाब), विदर्भ जनांदोलन (महाराष्ट्र) कर्नाटक राज्य रैयत संघ, नंदीग्राम के किसान आंदोलन और कई अन्य जनसंगठनों ने सेज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
मीडिया की चकाचौंध से दूर देश में तमाम ऐसे संगठन हैं जो वर्तमान व्यवस्था की शोषक प्रवृत्ति के खिलाफ संघर्षरत हैं। आने वाले समय में इन्हीं के बीच से एक समानान्तर राजनैतिक-सामाजिक आंदोलन की शुरुआत होगी। वे तमाम लोग जो विभिन्न राजनैतिक दलों से वफादारी निभाने को अपना धर्म मान बैठे हैं, कालांतर में इस जनआंदोलन के पीछे चलने को मजबूर होंगे।
(के. एन. गोविंदाचार्य की पुस्तक 'सेज का षडयंत्र' से साभार)
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