मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 

 Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

 

आरक्षण, आखिर कहां तक?

 

नई दिल्ली, 11 अप्रैल (आईएएनएस)। पिछले बीस वर्षों से दी जा रही एक-एक छूट तथा ढील और आरक्षण की सूची में शामिल की जा रही एक-एक जाति-सबकुछ एक ही बात को ध्यान में रखकर किया जा रहा है - वोट बैंक, जिसके लिए अच्छा संकेत देने की आवश्यकता है।

 

हमारा राजनीतिक वर्ग किसी समूह या समुदाय विशेष को छूट देता है, किसी समस्या या क्षेत्र के लिए धन उपलब्ध कराता है - और बस, वह गरीबों, दलितों, वंचितों का समर्थक होने का दावा करने लगता है। पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू व कश्मीर जैसे राज्यों के मामले में केंद्र सरकार पैसा बहाकर इस भ्रम में रह जाती है कि उसने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। यह पैसा विद्रोही गुटों के पास पहुंच जाता है। और यदि आप इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करें तो आरोप लगा दिया जाएगा कि आप तो कश्मीर-विरोधी हैं या पूर्वोत्तर-विरोधी हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के मामले में राजनीतिक वर्ग यह मानकर बैठ गया है कि गरीबों के प्रति उसने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है, क्योंकि अनाज राशन की दुकानों तक पहुंच गया है। जबकि योजना आयोग स्वयं अपनी रिपोर्ट में लिखता है कि "30 से 100 प्रतिशत राशन खुले बाजार में पहुंच जाता है।" यह सबकुछ सार्वजनिक वितरण प्रणाली तक ही सीमित नहीं है। योजना आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि गरीबी-निवारण कार्यक्रमों पर खर्च की जानेवाली कुल धनराशि-अन्य क्षेत्रों, जैसे ढांचागत विकास और सामाजिक कल्याण आदि पर की जानेवाली धनराशि को छोडक़र उस समय 40,000 करोड़ प्रति वर्ष थी, देश भर में गरीब परिवारों की संख्या लगभग 5 करोड़ थी। फिर भी एक गरीब परिवार के पीछे प्रतिवर्ष मात्र 8,000 रुपये आ रहे थे। उसने आगे लिखा था - "यदि यह भी मान लिया जाए कि इन 5 करोड़ गरीब परिवारों में प्रत्येक परिवार पूरी तरह से निर्धन था और उसके पास आय का कोई अन्य स्रोत नहीं था, तो भी इस पैसे से वह न रुपये प्रति कि.ग्रा. की दर से 3 कि.ग्रा अनाज प्रतिदिन बाजार से खरीद सकता था और इस प्रकार न वह गरीबी रेखा से ऊपर आ सकता था।"

 लेकिन जैसे ही आप इन योजनाओं पर सवाल उठाएंगे या आधिकारिक रिपोर्टों का उध्दरण देकर यह कहेंगे कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली गरीबी दूर करने में मूल्य सापेक्षता की दृष्टि से बहुत कम सफल है, तुरंत आपके ऊपर यह आरोप मढ़ दिया जाएगा कि आप गरीब-विरोधी हैं।

 

आरक्षण के मामले में भी बिल्कुल यही स्थिति है। ए. परियाकरुप्पन मामले में स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने ही कहा था कि आरक्षण किसी के निहित स्वार्थ के लिए नहीं होना चाहिए। शोषित कर्मचारी संघ मामले में भी न्यायालय ने कहा था कि आरक्षण नीति की सफलता की कसौटी यही होगी कि कितनी जल्दी आरक्षण की आवश्यकता को समाप्त किया जा सकता है। "सेवायोजन, शिक्षा, विधायी संस्थाओं में लागू आरक्षण नीति की हर पांच वर्ष में एक बार समीक्षा की जानी चाहिए।" वसंत कुमार मामले में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड ने सुझाव दिया था। लेकिन आज स्थिति यह है कि यदि आप केवल इतना ही पूछ लें कि आरक्षण कब खत्म होगा, तो तुरंत आपको दलित-विरोधी की उपाधि से लाद दिया जाएगा।

 

क्या केवल कुछ उपजातियां ही अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षित सीटोंपदों पर कब्जा जमा रही हैं? क्या जातियों को पिछडे वर्ग की सूची में इसलिए शामिल किया जा रहा है कि वे सचमुच पिछड़ी और वंचित हैं? या इसलिए कि उनकी शक्ति और प्रभावशीलता को देखते हुए राजनेताओं को ऐसा करना पड़ रहा है? सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यपालिका को निर्देश दिया था कि वह बराबर नजर रखें कि आरक्षण का वास्तविक लाभ किसे मिल रहा है। यह पैंतीस वर्ष पहले की बात है, लेकिन आज भी यदि आप पूछें कि "सामान्य श्रेणी की कितने प्रतिशत सीटें उन जातियों को मिल रही हैं, जिनके लिए पहले ही आरक्षण की व्यवस्था की गई?" तो उत्तर नहीं मिलेगा। बल्कि एक आरोप और मढ़ दिया जाएगा, "यह सबकुछ पूरी आरक्षण नीति को संदेह के घेरे में डालने और इस प्रकार पिछड़े वर्गों द्वारा अंतहीन संघर्ष के बाद प्राप्त किए थोड़े-बहुत लाभों को भी हथिया लेने के एक षडयंत्र का हिस्सा है।"

 

इस प्रकार हम लगातार निम् से निम्तर स्तर पर उतरते जा रहे हैं। सरकारी कार्य-प्रणाली का कुशलता स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है, जिसका अन्य वर्ग के लोगों के साथ-साथ इन पिछड़े एवं वंचित वर्ग के लोगों पर भी पड़ रहा है। सार्वजनिक बहस का स्तर और पैमाना भी गिरता चला जा रहा है और ये स्थितियां जिस प्रकार अपरिहार्य बन गई हैं, उसी प्रकार इनका परिणाम भी परिहार्य है, जो निम्लिखित रूपों में हमारे सामने है -

* विधायिकाओं को सुविधा और आवश्यकता के अनुसार संचालित करनेवाले व्यक्ति की प्रकृति और प्रवृत्ति के रूप में।

 

* शिक्षण संस्थानों और सिविल सेवाओं में गिरते कुशलता-गुणवत्ता स्तर के रूप में।

 

* मतदान प्रणाली और विधायिकाओं के साथ-साथ सेवाओं का भी जाति के आधार पर विभाजन के रूप में।

 

* कुशलता-उत्कृष्टता पर एक संगठित हमले के रूप में।

 

ऑर्टेगा गैसेट की बात सच साबित होती है;

पैमाने हटा दिए गए हैं; औसत दर्जा ही मानक पैमाना बन गया है। अभद्रता ही प्रमाणिकता बन गई है; अभित्रास (धमकी) ही दलील बन गई है; हमला प्रमाण....। इस रास्ते में- जैसा पं. नेहरू ने दशकों पहले ही कह दिया था - बेवकूफी ही नहीं, आपदा भी है।

 

(पूर्व केंद्रीय मंत्री और जाने माने पत्रकार अरुण शौरी की प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक आरक्षण का दंश से साभार।)

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com