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इसे ऐसा ही होने दो - 2
मैं जब घर से निकली, लगभग बारह बज रहे थे। क्लासेज दो बजे तक होती हैं।आज हालांकि लग रहा था कि क्लासेज चलेंगी ही नहीं, फिर भी मुझे तो जाना ही है। बारिश फिर तेज हो गईगडग़डाते हुए बादलों का शोर, बरसते पानी में भागता टू-व्हीलर, चेहरे पर पानी की बौछार, कीचड भरे गङ्ढों से गाडी क़ा उछलना और मेरा गिरते-गिरते बचनाजी चाहता है अपनी कायनेटिक होन्डा से उतर कर पानी में छप-छप करती चलूं। मेंरी देह अभी तक गर्म हैतेज हवा में टूट कर गिरते पत्ते और उडता दुपट्टा। किसे संभालूं और क्यूं? बारिश में भगिती हुई जब मैं पूजा के घर पहुँची तो वह मुझे देख आश्चर्य में पड ग़ई '' आज भी चलना है कॉलेज? '' कोई तो आएगा! मैं ने झटके से उसे अपनी तरफ खींचा और चूम लिया। इस गंध से वह गंध कितनी अलग होगीअलग और जानलेवा। '' ए, तेरे मुंह से ये कैसी
गंध आ रही है? उसने मुझे ध्यान से देखा '' सिगरेट?? वह पास आकर फुसफुसाई। मैं ने सहमति में सर हिलाया। उसने खींच कर एक घूंसा मेरी पीठ पर रसीद किया और तैयार होने चली गई। मैं ने तौलिया अपने मुंह से लगाया , एक गहरी सांस फेंकी फिर खींचीकहाँ है वह महक बिलकुल वैसी, वह तो वहीं है, बस। जब हम पहुंचे, सच ही चालीस-पचास स्टूडेन्ट्स से ज्यादा नहीं थे। एक भी क्लास नहीं होनी थी।प्रोफेसर्स प्रिन्सिपल ऑफिस में बैठे गप्पें मार रहे थे। किसी का इरादा नहीं था, कुछ भी काम करने का। हम जब लाईब्रेरी पहुंचे, मि सरकार अपनी खिडक़ी से बाहर हो रही बारिश देख रहे थे। '' देखो पूजा ने मुझे
घुडक़ा। हम अन्दर आकर उसी टेबल पर बैठ गए। '' अच्छा आई हूँ तो कुछ देख ही
लूं। वह उठ कर किताबों की अलमारी के पास चली गई। मैं बैठी रही - चुप, अकेली अन्दर- बाहर का
वह शोर सुनते हुए, जिसमें बहुधा हमें वह आवाज
सुनाई नहीं देती , जिसे सुनने को हम '' लेट्स गो। उसने मुझे हिलाया। मैं उठ खडी हुई और हम बाहर आ गए। बहते पानी में छप-छप करते हुए हम प्रिन्सिपल ऑफिस के सामने से गुजरे। मेंरी रफ्तार कम हो गई। '' वो अन्न्दर होंगे, बुला लाऊं?
'' पूजा ने इतने
आकस्मिक अंदाज में कहा कि मैं हडबडा गई मैं ने उसका चेहरा देखा धीरे से बुदबुदाई '' वाटर वाटर एवरी वेयर '' वो देख तेरा समन्दर '' उसने मेरा चेहरा पकड क़र दूसरी तरफ मोड दिया। मेरी नजर प्रिन्सिपल ऑफिस के दूसरी ओर मुडने वाले बरामदे की ओर गई। वे दूर खडे क़िसी से बातें कर रहे थे, क्षण भर अपने से बाहर आ बारिश देखते - फिर बातों में खो जाते। पता नहीं क्यों उस क्षण मुझे उनका वहाँ खडा होना विलक्षण लगा। '' एंड बट नॉट ए ड्रॉप टू
ड्रिन्क ''
उसने व्यंग्य से कहते हुए एक हल्का सा धक्का दिया मुझे। मैं ने कोई जवाब नहीं दिया- अंजाम तो दो ही होते हैं हमेशा। '' तूने तो बहुत पढा होगा और देखा होगा। ऐसी बहुत सी पागल लडक़ियां होती हैं, जो अपने प्रोफेसर और उनका होता क्या है, कुछ नहीं।'' आज इसने तय ही कर लिया है
कि मुझे समझा कर ही रहेगी। हम स्टैण्ड पर आ गए, अपनी गाडी क़े पास- '' तुझे बैठना है या मैं जाऊं? '' उसने बैठते हुए अपनी बांह मेरी कमर में लपेट ली। उस हल्की-हल्की ठंड में जरा सी गरमी ही बेहद भली लगी। '' शिरीन सुन, तेरे माँ-बाप तेरे लिये कोई पंजाबी लडक़ा ढूंढ देंगे और तू उस सरदार जी के साथ गुरुग्रंथ साहिब के फेरे लगा के चली जाएगी। यही होता है प्रेम का अंजाम।'' गाडी ग़ङ्ढों में उछलती आगे बढ रही है। हमारी सलवारों के पांयचे कीचड में लथपथ हो गए हैं। उसने पीछे से मेरे कंधे पर अपनी ठोढी टिका दी और एक गर्म सांस फेंकी '' प्रेम बंधन है यार। यह सारी
उमर उस दूसरे की दया का मोहताज बना देता है।''
उसने कहा और मैंने अपनी गाडी क़ी रफ्तार एकदम बढा दी। सामने से आ रही कार से
टकराते-टकराते बाल-बाल बचीपूरी ताकत से ब्रेक मारते पैरों को जमीन पर
घसीटते हुए हमने कार को छुआ भर। कार वाले ने ब्रेक न मारे होते तो कुछ भी
हो सकता था। '' तू पीछे बैठ, मैं चलाती हूँ, खुदकुशी ही करनी है तो अकेले कर।'' आसान नहीं था वह निर्णय, अंधेरे के समुद्र में छलांग लगाने जैसा जोखिम भरा, पहली मुलाकात में तुम्हें देखा और समझ गई, तुम वो नहीं हो जो दिख रहे हो। और मुझे तुम तक पहुँचना ही है चाहे जितना लम्बा रास्ता मुझे तय करना पडे, और मैं उसी क्षण निर्णय पर पहुँच गई। मैं अपने बाहर कभी नहीं गई थी, पर जिस क्षण मैं ने अपन लिये दरवाजे ख़ोल लिये, उस पल भी यह नहीं जानती थी कि मैं अब की गई हुई लौटूंगी कब या कभी नहीं, और कभी-कभी दुबारा लौटना असंभव हो जाता है। हम पाते हैं, न द्वार वही है, न जगह, न हम तब? फल पक गया था शाख परमदद की थी उसकी धूप ने, बारिश ने, हवाओं ने , मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक ने, चमकती बिजलियों ने उस पर किरणें फेंकी थी अपनी और वह पक चुका था अपने ही सद्भाव से और पक कर जब वह फटा दाने जमीन पर बिखर गएनर्म नाजुक लाल दानेऔर इस तरह जन्म हुआ कइयों कामेरा भी। इच्छा मात्र एक इच्छा मुझे कहाँ से कहाँ लिये जा रही है। आज पहली बार यह सत्य जाना कि इच्छाएं ही फैल कर आकाश बनती हैं। इच्छाएं ही टुकडा-टुकडा बादलों की तरह उमडती हैं। इच्छाएं ही बारिश बन धरती पर उतरती हैं। इच्छाएं ही झरने-सी टूट कर गिरती हैं, नदी की शक्ल में, फिर सागर से जा मिलती हैं। ज्वार-भाटे सी उमडती हैं, वहाँ भी इच्छाएं ही किनारे तोड बसे-बसाए शहर उजाड देती हैं। इच्छाओं का शहर सचमुच किसी ने देखा है? सुनो संजय ! क्या तुम्हें सच ही कुछ समझ में नहीं आता? जो लडक़ी सारी दुनिया को अपनी ठोकर पर रखती हुई तुम्हारे पास आती है, क्या उसके कदमों की आहट तुमसे कुछ नहीं कहती? तुम्हें देखते ही जिसके लिये सब कुछ सिमट कर एक केन्द्र बिन्दु में आ जाता है, उसका देखना संजय, तुम नहीं समझ रहे तो और क्या समझोगे? कभी-कभी एक जिद सी भरती जाती है अन्दर, जी चाहता है तुम्हारा हाथ पकड लूं और कहूँ सुनो, तुम सुनते क्यों नहीं? समझो! समझो कि दीवानावार
सागर की उत्ताल लहरें अपनी दीवानगी में समूचा शहर डुबो देती हैं। समझो कि हवाएं जब
पागल होती हैं तो समूचा जंगल हिलने लगता है, आंधियां आने लगती हैं। प्रकृति का उद्दण्ड
रूप देखा है तुमने? संजय, मुझे कहना नहीं चाहिये परतुमसे ही कह सकती हूँमैं
एक बार उस तूफान से गुजरना चाहती हूँ। हाँ, दिनअजीब दिनकभी बारिश में भीगते अपने बोझ से थर-थर काँपते दिन कभी बदली की तरह तमाम दिन इधर-उधर बरसे-बिन बरसे भटकते दिन, कभी तेज धूप से तपते दिन, कभी झर-झर बहते झरने से टूट कर गिरते दिनहाथों में न संभलते दिन। कभी हाय-हलो, कभी ज़रा सी बातचीत, उन पेडों, पौधों और पत्तियों की बाबत - जिनकी दुनिया मेरी दुनिया से निहायत अलग और तकरीबन वैसी ही सनसनीखेज खबरों से भरी जितनी मेरीऔर मेरे पास कितनी जानकारियां हैं? पौधों की बाबत ज्यादा, उनकी बाबत कममैं ने कभी किसी से कुछ पूछा नहीं। मैं पूजा से भी कम बात करती हूँ उनकी। जब भी मौका मिला, वह भाषण देने से चूकेगी नहीं। मैं जानती हूँ। दिन भर उन्हीं के खयाल में बाजार जाती हूँ तो किसी की पीठ देख कर चौंक जाती हूँ। फोन की घंटी बजती है तो सबसे पहले मैं दौडती हूँ। हांलाकि आज तक एक भी बार उन्होंने फोन किया नहीं। अंदर कोई अदृश्य टेपरिकॉर्डर फिट है, उनकी आवाज बार बार उस कैसेट पर सुनती हूँ और अपनी शानदार रिकॉर्डिंग पर फख्र महसूस करती हूँ। लो फोन की घंटी बज रही है, लपक कर उठाया और अत्यन्त मीठी आवाज में कहा - '' हलो '' जाने क्यूं दिल धडक़ रहा है? पता नहीं सचमुच कोई बुरी खबर है या मजाक कर रही है कमबख्त? असह्य बेचैनी में मैं दरवाजे पर खडी हो गई। जब वह आई, मैं सीधे उसे खींचती हुई ऊपर कमरे में ले गई। '' बोल क्या है?
'' मेरी सारी देह जैसे सुन्न हो गई। आँखे उस पर टिकी रह गईं, कई पल यूं ही गुजर गए। '' शिरीन, तू ने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की, पर इसके सिवा दूसरा कोई सच हो ही नहीं सकता था।'' '' सच! तुम्हें क्या
पता पूजा। हर इंसान का अलग-अलग सच
होता है और यही जब आपस में टकराते हैं तो तो... '' '' शिरीन, अब भी वक्त है लौट आ।'' वक्त किसका वक्त ? और ये वक्त भी आखिर होता क्या है। क्या सच की तरह वक्त भी सबका अलग-अलग होता है? और लौटना किसे कहते हैं पूजा? लौटता तो कभी कोई नहीं, टूटकर बिखरता जरूर है। '' हमारे यँहा पुरूष हमेशा पत्नी का होता है, प्रेमिकाएं तो दिल-बहलाव की चीज है।'' हम पत्नी को, प्रेमिका को दया...बचा-खुचा प्रेम वो भी डर डर के.... प्रेमिका वो फालतू चीज है, जिससे कोई वादा नहीं करना पडता। कुछ नहीं। जितना उधर से बच जाता है, इधर दे दिया। खुरचन जिसे तुम जैसी उल्लू की पठ्ठियां अहोभाव से ले लेती हैं। उसकी आवाज में गहरी नफरत थी।'' सारी रोशनियां एक-एक करके बुझ गईं। अन्दर भी बाहर भी.. जब मैं उसे छोडने बाहर आई तो मैं ने ऊपर देखा - उजले रंगों से भरे आसमान पर एक गहरा सलेटी रंग छा गया र्है कुछ भी नहीं है वहाँ, एक चिडिया तक नहीं। '' टियर्स आइडल टियर्स, आई नो नॉट व्हाट दे मीन... '' हाय, कोई नहीं आया। शाम के लम्बे होते सायों से मैं घिरती जा रही हूँ। कैसी है ये हवातेजरेत के कण चुभ रहे हैं मखमली बदन परकहाँ आऊँ मैं कि वह आवाज मेरे पीछे न आ सके। वह जो सुबह-शाम दूर क्षितिज से इशारों से मुझसे बातें करती, चुप- खामोश मुझे देख रही - मुझे ढंक लो, शाम के लम्बे होते अंधेरों में कुछ देखना नहीं चाहतीओ मोहब्बत, मैं तुझसे कितनी दूर चली जाऊं कि तू पीछा करना छोड दे। कौन हंस रहा है इस अंधेरे में? कौन रो रहा है? ये कैसी हंसी है जो किरचों सी चुभती है? क्या चाहा था मैं ने यही? यही सब.. हंसो.. हंसो...मुझ पर.सब हंसो मुझ परसब! प्रेम! ये आँसुओं का लम्बा दरिया है, बहती हुई मैं कहाँ जाकर गिरूँगी मुझे नहीं पताहाय ये आसमान इतना काला कैसे हो गया? कौन चुरा कर ले गया वो सारे सितारे? और मेरा चाँद? और ये आसमान इतना बिलख कर क्यूं रो रहा है? क्या इसे नहीं मालूम कि रोने से कुछ नहीं होता। कुछ भी नहीं। रात भर पानी बरसता रहा बरसता रहा। सब कुछ जल निमग्न हो गया। मैं इस पानी पर पीठ के बल लेटी किसी प्रलय का इंतजार करती रही, आज पहली बार मैं ने आह्वान किया है उसका और वह आएगी। समूचे को एक झपाटे से अपने साथ लेकर चली जाएगी। भंवर में किश्ती देखी है डूबते मैंने।हर चीज ग़ोल-गोल घूमती अपने अंत की ओर अग्रसरमैं एकदम नजदीक आ गई उसके अब बस, चन्द लम्हें औरमैं ने अपनी आँखे बंद कर लीं। संजय, तुम कभी नहीं जान पाओगे कि एक पूरा जीवन तुम चूक गए- कि प्रेम की नदी में उतरना और भंवर में खुदको छोड देना। कि अगरचे जीवन ये नहीं तो और क्या है? मैं भंवर के ठीक मध्य में हूँ, कई चक्कर लगाए मैंने और उस अंधेरे में डूब गई। सुबह सब कुछ साफ था। कहाँ गई प्रलय? कैसे बच गई में? मैं ने उठ कर खिडक़ी से बाहर देखा- सब कुछ साफ और स्वच्छ, हवाएं चल रही हैं, पेड झूम रहे हैं। फूल-पत्ती मुस्कुरा रहे हैं। मैं ने एक पौधा देखा - जो जाने कब प्रलय को नकारता धरती की कोख से बाहर आ हंस रहा है, संजय कुछ भी खत्म नहीं होता। कुछ भी नहीं। प्रेम तो कभी नहीं। तुम हो न, चाहे मेरे पास न सही, फिर भी सब कुछ है तुमसे। मैं शायद तुम्हारे जीवन में वह जगह न ले सकूं, न सही। एक बार कह दो बस कि तुम, मुझसे प्रेम करते हो। कि तुम जानते हो। तुम कहीं भी रहो मैं जी लूंगी तुम्हारे बगैर? क्या सचमुच? क्या इतना आसान है यह सब? जो भी हो, मैं एक बार कहूंगी तुमसे,अपने दिल की बात। सिर्फ एक बार संजय, तुम मेरी बात सुन लो ।एक बार कसके गले से लगालो अपने। फिर मैं जी लूंगी। संजय, उम्मीद अभी भी है, अभी भी बाकि है बहुत कुछ। अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ, बचाया जा सकता है कुछ। मैं जानती हूँ, जब कहूंगी तुमसे तो यूं उठोगे और कस कर लगा लोगे गले से मुझे। क्या तुम प्रतीक्षा नहीं कर रहे इस बात की कि मैं कहूँ। तुम्हारे लिये मुश्किल होगा, जानती हूँ, मुझे ही कहना है, मैं ही कहूँगी। अभी भी तुम इतनी दूर नहीं गए हो कि लौटाया न जा सके। अभी भी मैं तुम्हें आवाज देकर बुला सकती हूँ। संजय, ये कैसा यकीन है, जो तुमने कभी दिलाया नहीं और मैं ने कभी छोडा नहीं। |
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