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मोहे अगले जनम फिर औरत कीजो - 2 खैर बात हो रही थी मरहूम करीम के शौकों की करीम का दूसरा शौक उसके दरअसल सादिया के यहाँ पार्ट टाईम जॉब की देन था। टेढी और गुस्ताख औरतें करीम शेख की आँख की किरकिरी थीं। सदिया के यहां यही काम करते हुए वो रोज रात हुस्न के मुख्तलिफ चनाबों में डुबकियाँ लगाता। बिहार, बंगाल, साउथ, पंजाब कौन-से मुलुक के जिस्मानी उतार-चढाव नहीं देखे थे करीम ने। उसकी दहशत कोठे की तमाम औरतों पे यूँ चढी थी, कि दो साल पहले सदिया उसके भरोसे पे पूरा कोठा छोड अजमेर शरीफ की दरगाह पे चादर चढाने का अपना सालों-साल पुराना अहद पूरा कर आई थी। लौटी तो साथ में 17-18 बरस की उस फितना को भी ले आई थी, जिसे पहली नजर में देख करीम शेख के दिल में किसी औरत को सीधे-सीधे खा लेने से पहले जरा सहलाने की ख्वाहिश जागी थी। बासन्ती नाम था लडक़ी का, सादिया ने बताया था। बिन माँ-बाप की लडक़ी से खूब मेहनत-मशक्कत करवा लेने के बाद उसके दूर-पास के किसी रिश्तेदार ने अपनी दो बेटियों की शादी का दहेज जुटाने के लिये उसे सादिया के हाथों कुछेक हजार में बेच दिया था। रिश्तेदार के घर से विदा होते ना वो रोई ना चिल्लाई बल्कि अपने दो-एक कपडों की पुटलिया साथ लिये सादिया के संग यूँ चल दी गोया उस घर में वो कभी रही ही ना हो। कोठे पे पहुँच के शाम-ढले दस्तूर के मुताबिक जब करीम वो ही शेर की मूंठ वाला चाकू लेकर उसके कमरे में पहुंचा तो वो खोली के भीतर लगा बडा-सा जाला झाडू से झाडने में जुटी थी उसकी तरफ एक नजर देख के उसने आँखे घुमा लीं थी और फिर अपने काम में जुट गई थी। करीम पे गाज गिरी। उसकी दानव की-सी देह, सुर्ख लाल आँखों और आँखों में उतरी वहशीपन की सीधी-सीधी जबान यूँ तो बेअसर नहीं गई थी कभी पहले! उसे देखते ही लडक़ियाँ थर-थर काँपने लगती थीं पर ये? उसने गला खंखारा था, क्या है पलट कर पूछा था उसने। तेरा नाम क्या है? पूछते करीम को लगा यकबयक उसकी मर्दाना आवाज में से किसी मेमने की आवाज मिल गई हो। '' बासन्ती। फिर पता नहीं क्या हुआ करीम को अपने आपको कैसे भी उसपे थोप देने को लगभग माइल हुआ करीम झपट कर उसकी गरदन दबोच बैठा था देख ज्यादा बनना नहीं, करीम नाम है मेरा बस फिर जो हुआ उसके बाद करीम की कई रोज कोठे की तरफ रुख करने की हिम्मत नहीं हुई। पतली-दुबली कलाई से झन्नाटेदार झापड रसीद किया था उस बला ने। फिर उसकी आँखों में सीधी आँखे डाले के गुर्राहट भरी आवाज में बोली थी, देख मुझे अच्छी तरह पता है, मैं यहां क्यूँ आई हूँ। मुझे ये भी पता है कि क्या करना है मुझे, तेरे समझाने की जरूरत नहीं और फिर कभी ये चाकू दिखाया या हाथ-पैर चलाए तो याद रखना अन्तडियाँ बाहर कर दूँगी इसी चाकू से। भौंचक-सा करीम उसका मुँह देखता रह गया था और लुटा पिटा कोठरी से बाहर निकल आया था। सीधे-साधे मासूम से चेहरे वाली बासन्ती के चेहरे पे दो भीतर तक भेद देने वाली आँखों के अलावा और कुछ खास-वास यूँ था नहीं। रंग भी गोरा नहीं, बल्कि कुछ-कुछ ताम्बई था पर देह कमान थी। कुल मिलाके इसे देखते ही उस मंजर की याद आती जिसे शाम का वक्त कहते हैं, शाम जब सूरज जाने को होता है तब उसके ताम्बई रंग में सूरज की चमक घुल-मिल जाती। और रात के वक्त धीरे-धीरे वो चमक उसकी आँखों में यूँ उतर आती जैसे सूरज रफ्ता-रफ्ता समन्दर में डूब जाता है गो कि उसकी आँखे समन्दर से कम थी नहीं। बासन्ती कोठे की और औरतों की तरह खाली जिस्म की जुबान ही नहीं बोलती थी उसके गले में कुदरत ने मिठास और दर्द का ऐसा बूटा बो दिया था जिसकी पत्तियाँ जब उसके बोलों की शक्ल में उसके हलक से फूटतीं तो कितनी दफा उन्हीं पत्तियों पे पछतावे की शबनम रख ग्राहक लौट जाते। इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा उसने दरअसल गाना सीखा ही नहीं था किसी की क्या मजाल जो उसका दुपट्टा ले लेता। जो बढक़र बजरिया में किसी का भी दुपट्टा छीन ले वो मर्दुए इस बाज़ार में बैठी औरत के दुपट्टे और जिस्म दोनों के साथ बडी अदब के साथ पेश आते थे। उसकी कोठरी में अच्छी-खासी रकम देके दाखिल हुआ ग्राहक जब बाहर आता तो जिस्म नहीं रूह भी जैसे एक परिन्दा हो जाती जो शाम-ढले अपने ही घोंसले में लौटती है, यहाँ वहाँ नहीं जाती। वो ही शजर, वो ही घोंसला। साफ-सुथरी चादर पर जब वो दिन के वक्त बैठी कोई किताब पढती या सिलती-बुनती तो कई दफा सादिया भी रो पडने को होती। सैकडों गुनाह बेहिचक कर जाने वाली सादिया अपने इस गुनाह पर उस रात जार-जार रोई थी जब उसकी बुखार से तपती देह के पास बैठी बासन्ती उसके माथे पे गीली पट्टियाँ रखती रही थी और हर दस मिनट में पूछती थी,अब कैसा जी है अम्मा? वक्त गुजरा, गुजरता चला गया। और इस गुजरते वक्त में दिन-रात और मौसमों के अजूबों की तरह करीम शेख का उस बित्ते भर की छोकरी की मुठ्ठी में बन्द हो जाना भी एक अजूबे से क्या कम था। औरत को यूँ ही सीधा-साधा समझने के आदी करीम को इस औरत के पेचो-खम खा गए थे। जिस करीम शेख से पैसा माँगने की हिम्मत कभी सादिया से ना हुई वो ही करीम शेख जब बासन्ती की कोठरी पे मर्दों वाली ख्वाहिश ले के पहुंचा तो, पैसा लाया है? कहके बासन्ती ने उसकी तरफ यूँ देखा कि करीम के बदन पे तमाम कपडों के बावजूद कोई कपडा नहीं रह गया था। वो तिलमिलाया था पर फिर उसके हाथ कुर्ते की जेब की तरफ बढ ग़ए थे और फिर रोज क़ुर्ते में से पैसे निकाल करीम उसकी हथेली पर रखता गया और वो करीम की हथेली में जैसे एक के बाद एक फलसफा-ए-हयात रखती रही। मुठ्ठियां भर गईं तो झोली की बारी आई करीम भन्ना गया था, उफ! ऐसा भी होता है - ऐसा भी हो सकता है तो अच्छा, दरअसल ये होती है औरत! का राज अभी कुछेक रोज ही पहले फाश हुआ था करीम पे कि ये हादसा घट गया और वो दुनिया को अपने ताज्जुबों से भरे दिलसोज लम्हों से शनास कराने से पहले मरहूम कर दुनिया से चल दिया था। आज बसन्ती की पेशी थी। पूरा शहर उमडा पड रहा था क्यूँ मारा का सवाल अब तक जो चुप था। सब आए थे करीम की बीवी भी भाई के साथ मियाँ की लाश पे दनादन दोहत्थड मारके खूब गला फाड क़े रोती वो औरत यूँ दिल में कहीं सुकून से भरी थी कि जिस मर्द की रोज-रोज की मार पे वो हाथ थामने की हिम्मत ना कर सकी उसे मुर्दा हालत में ही सही वो भी धुन तो पाई जो हिसाब जिन्दगी में ना चुका, मौत ने कुछ तो चुकाया। फिर भी रोई थी वो तन्हाई में सच्चे आँसू, एक आह के साथ - थू औरत की जिन्दगी, लानत औरत की जात । खचाखच-भरे
अदालत के कमरे में जब बासन्ती लाई गई तब तवायफों के लिये जडी ग़ई फब्तियाँ
जो
इस दालमण्डी की बेशक सबसे
मंहगी
तवायफ के
उन चाहने वालों के दिल में उस रोज घुमड रही थी जबसे उन्हें ये इल्म हुआ
था कि ये दिल्ली सिर्फ दूर ही नहीं अच्छी खासी दूर है।
आज
जब वो भीड क़े सामने थी तब वो छप्पन छुरी या पटाखा कुछ भी तो
नहीं थी।
पूरे बदन पे जेवर के नाम पे थी वो फबन जो
यूँ
ही हर
नहीं बस गिनी-चुनी औरतों के पास होती है।
चेहरे पे वो पुख्तगी,
वो सुकून जो किसी गुनहगार के चेहरे पे झलक जाए मुमकिन
ही नहीं।
आँखों
में
दूर-दूर तक आज वो जवाब झिलमिला रहा था जो उसने सादिया के कोठे पे हादसे
के रोज से अपने लबों में कैद कर रखा था,
क्यूँ
मारा करीम को?
गीता पर हाथ रखे जब उसने ''
जो भी कहूँगी
सच कहूँगी
और सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगी
का रवायती अदालती जुमला बोला तो
सैकडों-सैकडों
गवाहों और गुनहागारों के लफ्ज़-दर-लफ्ज समझने वाला मुंसिफ उसके कौल की
सच्चाई से हिल गया था अच्छी खासी ऑडर्ड अदालत को भी ख्वामख्वाह
आर्डर्र आर्डर का हुक्म देके उसने सवालिया निगाहों से बासन्ती की
तरफ देखा थाउसके सिले होंठों में जुम्बिश हुई खामोशी के तागे तोड
आजाद
हुए होंठ
फडफ़डाए
'' हुजूर, जबरदस्ती मेरी इज्जत पे हाथ डाल रहा था तो क्या करती। तकाजा-ए-वक्त था किसी तवायफ की इज्जत लुटने के खौफ से लोगों के ठहाके अदालत की छत तोड ज़माने भर में फैल जाते, पर गजब दालमण्डी की दुकान से रोज पान खाके शहर-भर की अच्छी बुरी औरतों, लडक़ियों को छेडने वाला सुजान भी मुँह खोले बैठा रह गया था। मुंसिफ ने सामने पडा पानी का एक गिलास एक साँस में निपटाके हैरतजदा भीड पे नजर फेंकी और लफ्जों को बामशक्कत आवाज देते हुए पूछा, जरा खुलासा करोगी। इज्जत लूटने से तुम्हारी क्या मुराद है? बासन्ती मुस्कुराई थी। भीड पे एक नजर डालके। गाज जैसी ये मुस्कुराहट, पर गिरी ऐन करीम की बीवी के सीने पे जाने क्यूँ! '' हुजूर, मैं करीम को अपनी आमद के रोज से जानती हूँ वो आता था मेरे पास! मैं पैसा लेती और जिस्म देती थी ये एक सीधा-साधा करार था साहब, जिसमें मैं ने कोई बेईमानी नहीं की। धन्धे में खोटापन कहाँ निभता है ? लम्हा भर खामोश रहके वो बोली, वो उस रोज भी आया मैं ने मना कर दिया पैसा नहीं लिया तो धन्धा क्यूँ करूं पेट से हूँ हुजूर कई रोज से जी ठीक नहीं था। डॉक्टर को दिखाया था तो उसने धन्धे पे बैठने को मना कियाबोला बच्चे को नुकसान होगा धन्धा मेरा है हुजूर, मेरे बच्चे का नहीं! अपने पेट की भूख में मैं किसी मासूम को खा जाँऊ, कैसे करती ऐसा? मेरे पेट में मेरा बच्चा साब, मेरा खूनमैं ने उसे समझाया तो हरामी गाली-गलौज पे उतर आया। जबरदस्ती पे उतर आया, मैं रण्डी ही सही पर क्या मेरी कोई इज्जत नहीं, मेरी ख्वाहिश के बिना कोई मुझे कैसे छू सकता है, फिर मैं ने पैसा नहीं लिया हुजूर, मेरा भरोसा कीजिये। हरामी छिनाल बोला मुझे, मेरे बच्चे को 'हरामी बोला मैं कोई घर की औरत नहीं हूँ, साब जिसे कोई जैसे चाहे लात-घूंसों से पीटे और वो पिटती रहे, मैं उसकी जोरू नहीं थी, साब उसने हाथ उठाया, गालियाँ दीं फिर जब जबरदस्ती पे उतरा तो अपने बच्चे की खातिर मैं ने मार डाला उसे, साला नशे में था, ना मारती तो मेरा बच्चा मर जाता साब। आप कहिये मैं और क्या करती, मैं और क्या कर सकती थी? बासन्ती खामोश हो गयी तो फिर जैसे सारी कायनात खामोश हो गयी। मुंह बाये लोग अब हैरतजदा निगाहों से उस मुकम्मल औरत को देख रहे थे जो एक सुलगता सवाल बनी मुंसिफ के चेहरे पे चस्पां थीभीड क़े चेहरे पे चस्पां थी। उधर दूर कोने में बैठी करीम की बीवी को यकबयक महसूस हुआ जैसे उसकी रूह उसके जिस्म से निकल गई हो। कटघरे में खडी बासन्ती के आस-पास मंडराती रूह दरअसल बासन्ती ही हो गयीफिर धीरे-धीरे जाने कैसे उसका जिस्म अजीबोगरीब अन्दाज में हिलने लगा था, जैसे किसी पर साये जैसी कोई चीज पड ज़ाए। भाई ने कांधे पे हाथ रखा तो पथरीली आँखों में मोटे-मोटे आँसू उमड आए थे। जमाने हुए थे उसके पहले के सतमासे बच्चे को करीम की लात खाके कोख ही में मरेपर उसकी मौत पे उस लम्हा पत्थर हो गई वो उसे याद कर आज हिलक-हिलक कर रो पडी थी , चीख-चीख कर ऐसी चीखें जो जब निकलती हैं आँखों के रास्ते, तो आसमान में सुराख हो जाते हैं। फिर अपने सीने-जांघों को वो दनादन अपने हाथों से पीटने लगी पागलों की तरह सदमे में है। कहके जाने किसने पानी पिलाया था भाई फिर कमरे से घसीटता हुआ बाहर ले चला तो दरवाजे के ऐन बीच पलट कर एक औरत ने दूसरी औरत को जिन निगाहों से ताका उसकी जबान भीड ने जाने पढी या नहीं, मुंसिफ ने समझी कि नहींपर बासन्ती! उसने तो लफ्ज-लफ्ज पढा भी और खूब समझा भी। सुना सिर्फ भाई ने। अपनी पूरी ताकत से अपनी बेलौस हिचकियों के बीच एक ही बात वो दोहरा रही थी। क्या? अब ये जाने दीजिये, हर बात कहीं बताई थोडा ना जाती है। - सीमा शफक़ |
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