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  फिर-फिर लौटेगा

वह घर से दूर ठिठका खडा रह गया, कदमों में बेपनाह झिझक, आते वक्त सोचा था, कम-अज-कम अपने वस्त्र तो बदल ही लेगा वह, पर फिर लगा, इसकी कोई जरूरत नहीं, जो होने के लिए वह चला गया था, उसके लिए पुराने वस्त्र उसे छोडने ही थे, सो अब क्यूं? और फिर वस्त्र बदलने से ही क्या होगा?

उसने अपना अंतर टटोला - कोई दु:ख, कोई शोक, कोई लहर, कोई निराशा, कुछ नहीं, एक शब्द भी नहीं था अंदर - जिस मौन को साधने में उसने अपने जीवन के इतने बरस खर्च कर दिए, वह सध गया था और अब उसे साध रहा थाउसने आंखो के सामने मां की रोती-कलपती छवि लानी चाही, जो उसने आखिरी बार देखी थी और मन में बसा गली के उस मोड क़ी ओर मुड गया था, जहां कोई उसका इंतजार कर रहा था और फिर वह शहर छोडते वक्त न सिर्फ उसने अपने कपडे छोडे थे, बल्कि वह चोला, वह पहचान भी वहीं छोड दी, जिसके तहत वह जाना जाता था

रोती-कलपती मां उस वक्त एकाएक ही उसके पैरों पर गिर गई थी -

''मुझे छोड क़े न जा तरून, कैसे रहूंगी मैं तेरे बगैर? आज वह तेरे लिए सब कुछ हो गया, जिसे तू दो साल से जानता है, मैं कुछ नहीं।''

उसका मन द्रवित हो आया थाउसने उन्हें उठाकर चारपाई पर बैठाया और खुद उनके पैरों के पास बैठ गयावह उन्हे इस तरह समझाना चाहता था कि वे समझ जाएं और उसके जाने को इस तरह न ले, पर वह जानता था, ऐसा नहीं हो सकता

'' मां, तू जानती है, मेरे लिए कोई रिश्ता, कोई नाता नहीं बचा, व्यर्थ है सब, मुझे मत रोक। अपनी आंखो से मुझे इस तरह देखेगी तो दु:ख पाएगी - मुझे जाने दे।''

'' दु:ख कितना छोटा शब्द है यह, पर कितना जबर्दस्त फैलाव है इसमें कि बडी-से-बडी ज़िंदगी और छोटे-से-छोटे लम्हे भी इसके भीतर समाकर झंझावत बन जाते है, कि जो जिंदगी वो रही होती है समतल नदी की शक्ल में, उसमें अचानक इस तरह बाढ आ जाती है कि फिर छोटी-बडी ख़ुशी, हसरतें, आशाए - सब कागज क़ी नावों-सी गीली होकर बहने लगती है। चाहे यह बाढ वक्ती होती है, पर जिंदगी की कई मीनारें इतनी कच्ची कर जाती है कि बस, फिर वे ढहने-ढहने को हो उठती है। ''

वह आखिरी पल तक बाहर नहीं आई थीहालंकि वो मां के पैरों के पास बैठा उसके अंदर ध्वस्त होती मीनारों की आवाजे महसूस करवा रहा था और इंतजार करता रहा था कि शायद उसे आखिरी बार देखने न सही, अब प्रेम, मोह जैसा कुछ तो होगा ही - कोई कमजोरी, कोई लगाव, पर नहीं, वह आखिर तक नहीं जान पाया था कि उसके अंदर कितने गांव, कितने शहर जलकर राख हो गए, जो जिंदगी की दरिया के किनारें दोनो ने साथ मिलकर बनाए थेकच्चे थे, पर थेपका लेने की यकीन उन पलों में कितना पुख्ता लगता थाउसे उसकी वो आंखे याद हो आई, जिन्हे देखने मात्र से उसके बदन छोटी-छोटी में चिंगारियां फूटने लगती थीं - फिर कोई जरा सा स्पर्श या आलिंगन या होंठों की छुअन उन चिंगारियों को ज्वालामुखी में तब्दील कर देती, जिसकी आंच में उनके जिस्म सूखी लकडियों जैसे चटकने लगते थे, उस दुबली-पतली मामूली-सी दिखती काया में न जाने कितनी आग दबी होती कि देखेते-ही-देखते कितनी कामनाओं के जंगल राख हो जाते थे और वह हैरान-सा उसे देखता रह जाता

उसी ने उसे इस आग से वाकिफ कराया था और वही उसे अपनी देह के समुंदर की उन अतल गहराइयों मे ले गई थी, जहां की अद्भुत विस्मयकारी, स्तब्ध कर देने वाली दुनिया को देखा था उसने और ठगा सा खडा रह गया था

वह दुनिया, जहां शब्द फिर किसी काम के नहीं रहते थे और वे समुद्र की भीषण लहरों में एक-दूसरे से गुंथे अपने-आप को इनके हवाले कर देते, लहरें कब शांत हो, उन्हे किनारों पर पटक जाती, वे नींद के आगोश में जाने से पहले भी जान नहीं पाते थे

पर न लहरें सच है, न समुंदर, न उन पर तैरते-गुंथे जिस्मफिर? सच क्या है? कामनाओं के निरंतर दोहराव के पश्चात् वह सोचा करता - कहां है उस ऊर्जा का स्रोत? हर बार इतना ती्र, इतना मारक, इतना आकर्षक कि देह ही पहला और अंतिम सच लगती -

'' मैं तुम्हारी धरती में बीज बोऊंगा और फिर तुम्हारी कोख से उसे फूटते देखूगां। मैं तुम्हारे जीवन की टहनी फूलों से भर दूंगामैं उन फूलों को पुकारूंगा, जो इस धरती पर खिलेंगेंमैं तुम्हारी रातों को मधुर स्वप्नों से सजाऊंगा। मैं छा जाऊंगा तुम्हारी सांसो पर, स्वप्नों पर, जीवन पर, ताकि मुझसे कभी एक क्षण के लिए भी अलग न हो सको।''

यहीं तो कहां करता था वह - बार-बार, लगातारपर नहीं लगा पाया था वह उसकी कोख में कोई पौधा न वह उन फूलों को पुकार पाया, जो उसके स्वप्नों में महकते थे

'' कहां जाओगे तुम मुझसे परे? मेरी बांहे अंतरिक्ष में घेरा डालेंगी और तुम्हे आबध्द कर लेंगी। मैं आकाशगंगा की तरह अपने में समो लूंगी।''

पर नहीं, वह तब तक कामनाओं के जंगल से भागने की तैयारी में था -

'' कौन है, जो मेरी नींद में स्वप्न बन कर उतरता है? कौन है, जो मेरी आशाओं के बीज बन कर फूटता है? वह अंकुरित होता है, फूलता है और पहचान नहीं पाता?''

प्रश्न? प्रश्न? प्रश्न?

क्या है, जो इस देह व मन से परे है? आत्मा क्या है? किस उद्देश्य के तहत जन्म हुआ है मेरा? किस लिए भेजा गया हूं मै? सुख क्या है? सत्य क्या है? कामना के परे किस तरह जाएं? मौन हो जाना किसे कहते है?

और वह धीरे धीरे उन लालसाओं के जंगल में से बाहर आने की राह ढूंढ़ता -

'' तुम एक नक्षत्र हो, स्वप्न लोक के नक्षत्र? जिसके जितना भी मैं पास आने की मैं कोशिश करती हूं, तुम उतना ही दूर जाते दिखते थे।'' वह हंस कर कहती और अपने से कस कर चिपका लेती।''

तब उसे लगता, आदमी और औरत के बीच एक जबर्दस्त खालीपन होता है, जिसे हम प्यार, मोह, कुछ जरूरी या गैरजरूरी शब्दों से भरने की कामयाब या नाकामयाब कोशिश करते हैं

वह उसके सीने से लगा अपने ही सवालों के जंगल में भटकता रहता

'' पच्चीस वर्षो तक मैने प्रेम किया, घृणा की, भूखों को भुलावे में रखा, आशाओं से संचालित हुआ, पर ज्यों-ज्यों इन्सानी दासता सम्बधी मेरा ज्ञान बढता गया, त्यों-त्यों मेरी आत्मा स्वतंत्रता के लिए अधिक तडपने लगी। कितनी बार मैने आनंद को खोजा, सुख को खोजा - कभी देह में, कभी मौन में, पर मैने सिर्फ उसकी झलक देखी, प्रतिध्वनि सुनी और मैं इसे पाने को लालायित हो उठा। जीवन के पच्चीस वर्ष मेरे तन से उसी तरह झर गए, जिस तरह वृक्षों के पत्ते झरते है, और मैने क्या पाया? मैं आत्माओं का मिलन, इच्छाओं का उद्वेग और उत्कंठाओं को देखता हूं और पाता हूं - यह सब आहों और दुखों की धुंध में से पैदा होते है। मैं अपनी निर्जनता से परे झांक कर देखता हूं, तो मुझे अंतरिक्ष, चांद-तारे, चमकदार नक्षत्र दिखाई पडते र्है कौन इन्हे संचालित करता है? मैं समुद्र की व्याकुल आवाज सुनता हूं - यह किसे पुकार रहा है? किस तरह यह सभी तत्व विश्व के सनातन नियमों से बंधे हैं? ''

तब मुझे अपना जीवन निहायत क्षुद्र और सिसकता हुआ-सा लगता, जो अनंत गहराइयों और ऊंचाइयों के बीच शून्य-सा कांपतातब मैने अपने  मैं , जो हर वक्त उपद्रव करता रहता, को खत्म करने की ठानी और मैने होठों को, तन को, मन को, कडवे घूंट पीने के लिए तैयार किया

घर पास आ गयाअंदर से कुछ औरतों के रोने की आवाज आ रही हैक्या वह मां का रोना पहचान सकता है? क्या वह खुद रो सकता है? पर क्यों? वह तो अंश था एक, जो अंशी में विलीन हो गया-फिर-फिर जन्म लेने को फिर उसके लिए मातम क्यों?

वह तमाम दुनिया को इस तरह देखता, जिस तरह कोई पहाड क़ी सबसे ऊंची चोटी पर खडा होकर उसके नीचे बसे शहरों, घाटियों, जंगलों, नदियों और छोटे-छोटे क्षुद्र जीवों, उनके निरर्थक सुखों-दुखों को देखता और उनके नासमझेपन पर किसी बुजुर्ग की तरह मुस्कराता

उसके पास आते ही घर के बाहर दरियों पर बैठे पुरूषों के जमावडे में खलबली मच गईतकरीबन सारे उठ खडे हुए - कोई पैर छुने झुका, तो वह हडबडा गया और उसने मनाही की मुद्रा में दोनो हाथ उठा दिएउसने नजर भर निहारा उन्हें - सब वहीं थे - चाचा, मौसा, मित्र, संबधीकम नहीं होता बारह वर्ष का समयसमय ने सबके उजले चेहरों पर धूल की परत चढा दी थीये थके-हारे, रोते-बिलखते, दौडते-भागते, घिसटते-रोते लोगकिस सुख की चाह में भागे जा रहे है? कहां है वह सुख? ये नहीं जानते, पर ये जानना भी नहीं चाहते

वह स्वप्रेरणा से ताया के पैर छुने को झुका ही था कि उन्होने रोते हुए उसे बीच में रोक लिया - '' न-न पुत्तर, बडी देर कर दी तूनेआखिरी बार शायद वह तुझे ही देखना चाहता थाहालांकि कभी कहां नहीं मुंह सेमरा, तो आंखे जैसे किसी की तलाश में भटक रही थी वीरान खाली कोहरों सी''

आखिरी वाक्य उनकी हिचकियों में डूब गयावह असमंजस में खडा रह गया कि अब क्या? ताया ने ही उसकी समस्या हल कर दीआंगन के बीचोबीच, जहां उनका शव रखा था बर्फ पर सफेद चादर से ढका, वहां ले जाकर मुंह से चादर हटा दीउसने उन्हे देखा - अपने जनक कोक्षीण, कृश चेहरा और बदनतमाम जीवन के जानलेवा संघर्ष का अंत

'' देख, इस धरती पर लाखों लोग रहते है, जो हमसे भी बुरे हालात में जीते हैं, हंसते है। अदम्य जिंजीविषा है उनमे और एक तूतू क्यूं भाग रहा है, भगोडे? हमारी न सही, उसकी फिक्र कर, जिसे तू ब्याह कर लाया है।''

वह किसी तरह, किसी से भी नहीं माना था

'' जा, भाग जा। एक शापित जिंदगी जिएगा तू - किसी पल तुझे चैन नहीं आएगा - जा बियावनों में घूम और अपने को तलाश - किसलिए लाया गया है तू इस धरती पर, यही कहता है न तेरा लफंगा गुरू।''

वह दनदनाते हुए घर से बाहर चले गए थे वह उनके पैरो पर झुका और उनपर अपना सर रख दिया,

'' माफ कर दो मुझे, अगर मैने कुछ ऐसा किया, जो मुझे नहीं करना था। आज बारह बरस के बाद भी मैं तुम सब का अपराधी हूं।''

ताया ने चादर वापस उनके सर तक ओढा दी आंगन की दूसरी तरफ बैठी औरतों के झुंड की ओर उसने देखा और सफेद कपडो मे लिपटी दुबली-पतली गठरी-सी मां की ओर बढाऔरतों का रुदन तेज हो गया सबने सरक कर उसके लिए जगह बना दी और वह रोती हुई मां के करीब आ कर बैठ गयामां ने हिचकियों के बीच सर उठा कर उसे देखा और तेज स्वर में रोने लगी,

'' क्यों आया तू? मैने जेठ जी से कहां भी, जिसने बारह बरस हमारी सुध नहीं ली, वह तो मर गया हमारे लिए।'' वे रोती जा रही थी और कहती जा रही थी ,'' न माने वे। एक ही बेटा हुआ। संस्कार कौन करेगा?'' और वह पछाडे ख़ाने लगी, '' कोई न हुआ रे हमारा। न बेटा, न पतिकिसके आसरे जिएंगी रे अब हम?''

वे बगल में बैठी युवती के कंधों पर ढह गई, जो स्वयं जार-जार रो रही थीउसने झुकी नजरे उठाई और उसे देखते ही मानों हृदय की धडक़नें थम गइ -

'' तनु'' जिस्म की शिराओं, मन के समस्त भेदों ने एक साथ कहा - '' तनु''

'' मैं तुम्हारी नींद में ख्वाब बनकर उतरना चाहती हूं। तुम्हारे आकाश में बारिश-सी झरना चाहती हूं। तुम मुझे ले लो ओर भर जाओ। तुम मुझे दे दो और खाली हो जाओ।'' तनु ने मां को अपनी बांहो में भर लिया और रोती रही, बगैर सर उठाए या उसे देखे।

वह विचलित होने लगा - उसे लगा, अचानक ही वह उन सबके द्वारा खारिज कर दिया गया है, जो जाने-अनजाने उससे जुडे या जडे थे। उसने तनु के चेहरे की ओर देखा - एक असहाय सा वीरानापन उतर आया था - जैसा अक्सर बंजर जमीनों में देखा जा सकता है हल्की-हल्की दरारों से झांकता एक अजीब उथलापन

उसने दिलासे के लिए एक बार मां के सर पर हाथ रखा और उठ खडा हुआरात हो गई और एक अनावश्यक विस्तार का अंत हो चला - उसने वे सारे काम करवाए गए, जो एक हिंदू लडक़े को अपने बाप की मौत पर करने होते हैउसने बगैर किसी एतराज के सब कियाउस दिन की सब क्रियाएं खत्म हो चुकी, तो लोग धीरे-धीरे अपने घरों की ओर लौट चलेजो बच गए थे, दु:खों से हारे-टूटे अंदर कमरों में जाकर पड रहेवह आंगन में लेट गया चारपाई परउसने अंदर जाने से इंकार कर दिया, तो किसी ने खास जोर नही दिया

ताया ने सिर्फ इतना कहां, '' तू ही एक औलाद है उसकीजाने क्या सोच छोड चला सब? कुछ न सोचा - क्या होगा तेरे पीछे? तनु ने तेरे जाते ही सफेद लिबास पहन चूडियां तोड ड़ाली और कहां,'' मां वह मर गयामैं हूं न तेरी बेटी या बेटा, जो तू समझ पहले तुम दोनो को खिलाऊंगी, फिर खुद खाऊंगीतू उसके लिए न रो, जो रोने के काबिल न हो, फिर बाप लिवाने आया मायके से, इसने साफ जाने से इंकार कर दिया'' वह अवाक्-सा सुनता रहा - '' फिर बेटा, उसने पढाई पूरी की एक स्कूल में नौकरी की, फिर कॉलेज में आ गईटयूशन भी कीबहुत सेवा की उसने तेरे जाने के बाद भाभी छ: महीने को खटिया से लग गईगू-मूत उठाया, पर आंख नही फेरीउसे किस जन्म की सजा दे गया रे तू? यही कहता है तेरा ईश्वर? अब चला जाएगा दो विधवाओं को उनके भाग्य भरोसे छोडक़र?''

वह सर झुकाए बैठा रहा उनके सामने - कहा कुछ भी नहींक्या कहता? बेकार है सब

उनके जाने के बाद वह लेट गया चारपाई पर और आसमान पर टंगे उन्ही सितारों को गिनने लगा, जिन्हे वह जाने कितनी बार गिन चुका थाकितने वर्ष उसने कोहरे में बिताए, जब उसकी आत्मा पर्वतों, जंगलो और गुफाओ में उस अज्ञात का पीछा करती - उस अज्ञात सत्य का पीछा करती, जिसकी झलक से वाकिफ था वहसमुद्र की अनजान परछाइयों में अपने प्रश्नों का पीछा करती

'' जीवन दो आयामों में बंटता है। एक आयाम है संसार, जो है। दूसरा आयाम र्है मोक्ष, जो हो सकता है। वह तुम्हारे लिए अज्ञात है, पर तुम उसे पा सकते हो। असीम आंतरिक सुख मन संपूर्ण को खंडो मे तोड देता है। यहीं उसका काम है। मन एक प्रिज्म की भांति है। ज़ब प्रकाश की किरणें प्रिज्म से गुजरती है, तो वह सात रंगो में बंट जाती है। मन एक प्रिज्म है, जो सत्य को विभाजित कर देता है और हम उसे पूरा नहीं देख पाते।''

और भी कितनी-कितनी बातें कही थीं उन्होने, जब वह अपने प्रश्नों के जवाब पाने उनके पास गया था - एक विशाल मकान के निचले तल्ले की सीढियां उतर वह वहां पहुचां थाएक ऊंचे आसन पर वे जलती आग के सामने बैठे थे और कुछ तांत्रिक क्रियाएं कर रहे थेवह उन्हे प्रणाम कर उनके सामने बैठ गया था -

'' कहां थे इतने दिन? मैं बरसो से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं। तुम नहीं जानते, तुम क्यों हो? मैं जानता हूं''
''
क्या जानते है आप?'' उसने धडक़ते दिल से पूछा।
उन्होने लाल-लाल आंखो से उसकी तरफ देखा था और मुस्कराए थे,'' यहीं कि तू क्यों बार-बार जन्म ले रहा हैभटक रहा हैतेरा अंतिम लक्ष्य क्या है इधर आ''
वह डरते-डरते उनके सम्मुख गया - '' आंखे बंद कर और अपने अंदर देख। चेतना को अपने अंदर ले जा और देख - कितनी नफरत, धुंध, धुंआ, कमीनगी, भय, युध्द, विरक्ति,लालसा, व्यभिचार, क्या-क्या नहीं है वहां? हम उन्ही अंधेरे तलो पर जीते हैं - उठो, ऊपर आओ। जानो, आगे की यात्रा क्या है? तुम ईश्वर हो स्वयं अपने ईश्वरत्व को पहचानो। इसे बाहर मत जानो।यह भीतर है। तुम्ही हो स्वयं - इसे महसूस करो।''

उन्होने उसके सर पर हाथ रख दिया हाथ रखना था कि उसका समूचा जिस्म झनझना उठाजिस्म के अज्ञात हिस्सों से लहरें उठी, अज्ञात हिस्सों में विलीन हो गईआंखे बंद किए हुए ही उसे एक अद्भुत शांति महसूस हुईऔर जब उसने आंखे खोली, वह, वह नहीं था, जो वहां चल कर आया थाबदल गया था अम्दर बहुत कुछ और जब उठा, तो उस शांति को फिर्रफिर पाने के दृढ निश्चय के साथ,पर कैसे?

घर में तनु है, जिसके सम्मुख देह की भूख कर वक्त उसका पीछा करती - मां  अगरबत्तियों-मोमबत्तियों की छोटी सी दुकान चलाता बापछोटे-छोटे सपने, छोटी-छोटी आशाएं - कैसे छोड दे उनकोक्या करे? कौन चलाएगा उनको?

'' तुम नहीं चला रहे किसी को। कोई किसी को नहीं चला रहा। तुम तो निमित्त मात्र हो। हजारों-लाखों जन्मों से यही कर रहे हो, कोल्हू के बैल की तरह ऊब नहीं होती। छोड दो सब और देखो, तुम्हारे बगैर भी सब चलेगा।''

उन्होने उसे समझाया था, पर उसकी उलझन नहीं गई थीमहीनो वह परेशान रहा था क्या कहे वह तनु से? कैसे? कि जिस जिस्म को मैं अब तक अपनी उंगलियों पर बिजली के लट्टूओं सा फिरता देखता था, उसके साथ कोई वास्ता नहीं मेरा? कि यह संसार एक दु:ख है - पराधीनता - अंधी दौड - ज़न्मों-जन्मों कीहर जन्म में वहीं चक्रवहीं दु:खकिसी कामना का अंत नहीं होताहर कामना दु:ख उपजाती है मान लो, तुम्हे वह सब मिल गया, जो तुम चाहती हो, फिर? फिर आगे क्या? यह सुख नहीं हैयह अंतिम उपलब्धि नहीं हैतुम अपनी ऊर्जा गंवा रही हो कोई चाहत कही नहीं ले जाती चाह पागलपन का बीज है

और वह एक लंबे अरसे तक नहीं कह पाया था छिप-छिप कर जाता था स्वामी जी के कम्यून में - ध्यान करता, त्राटक, साधनाएं, विपस्सना ब्रह्मचर्य जो वे कहते, जो सब करते वह भी करता

'' मन को शून्य बना दो, मौन हो जाओ और प्रकृति को सुनो'', वे कहते - पर ये सब इतना आसान नहीं था, पर इसके लिए अब वह अपनी जिंदगी के तमाम बरस खर्च करने को तैयार था। घर पर आधी रात को उठ जाता - ध्यान करता मंत्र जाप साधनाएं-

तनु देखती सोचती महसूस करतीपूछती,'' तुम ये सब क्यों करते हो?''
'' शांति के लिए
''
'' तुम्हे मेरे पास शांति नहीं मिलती?''
'' स्थाई नहीं'' वह कहता

'' पहले तो मिलती थी
''
'' तब मैं नहीं जानता था, शांति क्या होती है
''
'' अब? अब जानने के बाद क्या करोगे?''
'' मैं यहां से जाना चाहता हूं''
'' उससे क्या होगा?''
'' मैं जो पाना चाहता हूं, पा सकता हूं
''
'' तुम ऐसा क्या पाना चाहते हो, जो यहां रह कर नहीं पा सकते?''
''''
'' दरअसल तुम नहीं जानते, तुम क्या चाहते हो? तुम गुमराह हो रहे हो
तुम्हे अपना जीवन दु:ख लग रहा है, पर दरअसल यह एक संघर्ष है, इससे भागो मत, सामना करोंइस तरह सब संसार छोडने लगे, तो क्या होगा? सोचो जरा''

तकरार-बहस-तकरार रोना... तनाव... मां... की हिचकियां बाप की गुस्साभरी चेतावनी, बहुत लंबा चला ये सबबाबू जी दनदनाते गएस्वामी जी से झगडा कर के आ गएतनु का समझाना-प्यार से, गुस्से से, नफरत से पर नहीं रुका था वह और उस कम्यून की मुख्य ब्रांच में आने के लिए उसने वह शहर आखिरकार छोड दि या

और फिर बारह बरस का अनवरत सफरकम्यून की अलग किस्म की जिंदगी, जहां देह और मन दो नहीं,एक है - और देह भी देह नहीं , कुछ और है....अद्भुत-अवर्णनीय

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