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चिडिया और चील दूसरा पन्ना और चिडिया अपने घरौंदे से उडक़र आ गई। एक छोटी सी नौकरी कर ली। डॉक्टर वकील बनने के सपने तो यूं भी उसने नहीं उसके मॉम डैड ने देखे थे। खुद वह ऐसा कुछ करना चाहती थी जिससे एकदम मशहूर हो जाएपर अभी उसके दिमाग में साफ नहीं था कि क्या करने से वह फटाफट नाम और शोहरत पा सकती है। कभी कभी वह फिल्म बनाने की सोचती..पर अभी न पैसा था न ट्रेनिंग, न ही स्पष्ट विचार या विषय...लेकिन महत्वाकांक्षा थी, और दम था....भीतर एक अकुलाहट सी बनी रहती...उसका सहपाठी सादा जिंदगी जीने में विश्वास रखता था...एकदम मिनीमलिस्ट...कम से कम चीजों के साथ गुजारा करना...मिट्टी से जुडी ज़िंदगी की ओर लौटना...लेकिन इस नयी आत्मनिर्भर जिंदगी का अपना ही सुख था। चिडिया पूरी तरह से अपनी नयी दुनिया में मस्त हो गयी। हर दिन आर्ट, हिस्ट्री के नये नये कोर्स की किताबें पढते हुए, नये नये लोगों से मिलते, नये घर का दायित्व निभाते हुए वह मॉम डेड को भूल सी गयी। कम से कम नये जीवन में उसे कहीं भी उनका संदर्भ नहीं दीखा। एक बार ममी बहुत बीमार हो गयीं थीं...उनका ऑपरेशन होना था। डैड का फोन आया था, पर चिडिया को बहुत पढाई करनी थी। तब ममी ने हिन्दुस्तान से मौसी को बुलवाया था अपनी देखभाल के लिये। मौसी ने दिन रात ममी की तीमारदारी में लगा दिया था पर चिडिया के रुख से वे बहुत खफा थीं। वे ममी से कहतीं - ''
तुम तो अपनी बेटी से डरती
हो,
कुछ कहती ही नहीं। मेरी
बेटी इस तरह करे तो उसकी टांगे तोड क़र न धर दूं...इतनी
आजादी आखिर क्यों?
कुछ मकसद भी तो होना चाहिये
न। ''
ममी सुनती रहतीं और मौसी कहती जातीं। उधर कई सालों तक चलने वाले अस्थायी रैनबसेरे में अब चिडिया की सहपाठी से नोकझौंक होने लगी। तंगी की उस जिन्दगी से चिडिया तंग आने लगी थी। दोनों एक दूसरे से कुछ ऊबने लगे । शादी की बात उठी तो सहपाठी बोला - '' आई बिलीव इन कमिटमेन्ट ऑफ हार्ट्स...शादी तो आदमी तब करे जबकि सामाजिक स्वीकृति कुछ मायने रखती हो।'' ''जल्द ही उसके दिल की कमिट्मेन्ट किसी और से हो गयी।'' मौसी के बहुत समझाने पर ममी डैडी चिडिया को छुट्टी मनाने के बहाने हिन्दुस्तान ले गये, वहाँ उसे शादी लायक कई लडक़े दिखाए गये। चिडिया ने ममी से कहा - '' ये कैसा खिलवाड क़र रहे हो तुम लोग...जिसे न जानती न बूझती, उसके साथ जिन्दगी बिताउंगी! क्या बेवकूफ समझ रखा है तुमने मुझे..यह नहीं होगा।'' अमरीका लौट कर चिडिया को नये सिरे से घोंसला खोजना था। अपनी छोटी सी तनख्वाह में कोठरी का किराया, खाना पीना और दूसरे खर्च नहीं चला सकती थी। पहले सहपाठी के साथ सबकुछ शेयर करती थी...अकेले बूते मुश्किल था। दूसरे सहसा सहपाठी से अलग होकर उसने यह भी महसूस किया कि वह खामखाह अपने आप को मॉम डैड के घर के वैभवपूर्ण माहौल से वंचित कर रही थी...अकेले रहने से उसका स्तर बहुत ज्यादा गिर जाता था...ऐसी हालत में तो उसकी महत्वाकांक्षा, उसका फिल्म बनाने का सपना कभी भी पूरा न होगा। और चिडिया अपना तिनका भर सामान लेकर ममी डैडी के घर आ गयी...हमेशा की तरह ममी ने अपना सब कुछ उसके लिये बिछा दिया था। चिडिया को दिनों बाद बहुत चैन और राहत मिली। लेकिन घर में बहुत जल्द ही तनाव शुरु हो गये। दरअसल चिडिया वहाँ रहते हुए भी रह नहीं रही थी। बस रैन भर के बसेरे की ही बात थी। और अगर दिन में घर पर होती भी तो कमरा बंद किये पडी रहती। ममी के मिलने वाले आते तो लाख मिन्नत करने पर बडी मुश्किल से वह उन्हें हैलो करने बाहर आती, फिर मिनट भर में वापस लौट किवाड बंद कर लेती। ज्यादातर उसे खाने की भूख नहीं होती थी, शायद डायटिंग के चक्कर में, या फिर घर वालों से बचने का बहाना होता। ममी अब उसे घर में रखने की बजाय घर से निकालने के चक्कर में थीं। दिन रात एक ही सवाल - '' तू शादी क्यों नहीं करती? '' चिडिया सोचती है वह ममी डैडी की अकेली सन्तान है...इस घर पर उसी का हक है...अगर वह यहीं रहती रहे तो गलत क्या है! मौसी का दूसरा चक्कर लगा तो
फिर ममी से कहने लगीं, लेकिन उस रौनक के बीच अन्दर ही अन्दर ममी को कुछ सालता रहता है..बत्तीस बरस की लडक़ी के घर लौटने पर वह खुश होये या रोये...वह यह भी जानती है कि चिडिया किसी भी पल उडने की फिराक में है...यह घर उसके लिये ऐसी सराय है जिसने उसे मुफ्त पनाह दी हुई है...क्या सच में ममी का इस्तेमाल किया जा रहा है? चिडिया को तो इस घर में किसी से कोई सरोकार नहीं...सुबह सुबह काम पर निकल जाती है और देर रात गए घर लौटती है...पता नहीं मौसी के कहे का बुरा मान गई या क्या...अब तो कि किसी दोस्त या रिश्तेदार के आने पर हैलो कहने अपने कमरे से नीचे तक नहीं उतरती। घर सच में सराय था। फिर ममी सोचती है...सारी उम्र तो उसने चिडिया को कोई जिम्मेदारी नहीं दी..सिर्फ लाड प्यार दिया अब भला वह जिम्मेदारी निभाने के काबिल कैसे हो ? कभी दूसरों के लिये कुछ करने को कहा सिखाया नहीं..तब चिडिया कैसे जाने और उदास मन से ममी ने मान लिया कुसूर उन्हीं का है। अब चिडिया को दाने पानी की या आशियाने की फिक्र करने की जरूरत नहीं थी सारी सुख सुविधाएं मुहैय्या थीं..अगर इनकी एवज में कभी ममी का उपदेश सुनना पड ज़ाता तो वह कानों में वाकमैन के इयर प्लग खोंसकर पॉप संगीत सुनने लग जाती। अब वह फिर फिल्म बनाने के सपने देखने लगी...नौकरी से अब कुछ पैसा बच रहा था, पर वह काफी नहीं था....और फिर ममी डैडी का पैसा भी तो आखिर उनकी चिडिया का ही है। उसने ममी से कहा, ''मैं फिल्म बनाना चाहती हूँ...पैसा लगाओगी? '' तो चिडिया को अभी भी ममी पापा के सहारे की जरूरत थी! क्या ममी की परवरिश ने ही इतना कमजोर बना दिया था कि चिडिया की अधूरी सी फुदकन भर फिर से मां के घोंसले में आ गिरी है? क्या अभी उडना नहीं सीखा उसने? कभी सीख पाएगी? जब पर निकलने को हुए थे, तभी क्या ठीक से उडने देना चाहिये था...कहां, क्या गलत हो गया उनसे....चिडिया की बांहो से जैसे नये पंख निकालना चाहते हुए ममी ने कहा, '' तू जो चाहती है कर...बस अपने पैरों पर खडी हो जा...तेरे होने से घर में सब कुछ चहक उठा है...पर दूर पहाडों से, हवाओं से और फिर बादलों से फिसलकर आती चहचहाहट शायद कहीं ज्यादा मीठी सुनाई पडती है...चिडिया तो स्वच्छंद आकाश में उडती हुई ही सबसे प्यारी और मोहक लगती है।'' चिडिया अभी ममी की पूरी बात समझ भी नहीं पाई थी कि अचानक ममी को कुछ ध्यान हो आया और वह बोलीं, ''
तेरे डैडी नाराज तो नहीं
होंगे...कहते हैं उसे मन मांगा देकर बिगाड रही हो।'' सहसा ममी ने देखा..चिडिया
वहाँ
नहीं थी।
शायद रसोई की
खिडक़ी से बाहर चली गयी थी।
ममी घबरा कर बाहर
की ओर दौडीं...बाहर
सिर्फ एक बडी चील आसमान को गिरफ्तार किये हुए थी....ममी
बदहवास चिडिया को खोजने लगीं।
चिडिया कहीं नहीं
थी...अचानक
ममी को लगा उन्हें कुछ भ्रम सा हो रहा है...शायद
कोई चील वहां नहीं थी, –
सुषम बेदी
इन्द्रनेट पर हलचल
- सुब्रा नारायण |
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