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सुबह का भूला

बेमन से मुंडेरों को कतार की कतार दीपों से सजाती हुई शैलजा इस बार दीपावली पर बच्चों के उत्साह के आगे उलझ कर रह गई

क्या करती बडे हो रहे बच्चों ने इस बार कह ही तो दिया था -

'' मम्मी बहुत रो लीं हर बार दीपावली पर आप उस आदमी के लिये जो हमारा पापा है। अब हमारी खुशी के लिये दीपावली पर घर सजाओ, इस बार हम तीनों ही मिल कर धूमधाम से दीपावली मनाएंगे।''

यह कहने वाला उसका चौदह साल का बेटा था, पर प्यारी सी बारह साल की बेटी की चमकती आंखें भाई के उत्साह का अनुमोदन करती प्रतीत हो रही थींउसने भी बच्चों की मासूम खुशियों का ख्याल कर वह सब किया जो उन्होंने चाहाअंतिम दीप को घर की देहरी पर रख शैलजा घर के अन्दर आ गई, दोनों बच्चे तैयार हो कर व्यस्त थे, बेटी पूजा की जगह पर रंगोली बनाने में, बेटा पटाखों के ढेर को सहेजने में

मन में कहीं हूक सी उठीपहली दीपावली याद आ गई वो दोनों बडे उत्साह से राजन के घर कानपुर गये थेवहां जाकर उसका सारा उत्साह तभी काफूर हो गया जब देखा राजन पूरे समय अपनी बडी भाभी के कमरे में रहता उनसे बतियाता उनके बच्चों से खेलता और वह सास के साथ रसोई में लगी रहतीयहां तक कि खाना भी वह भाभी जी के कमरे में खा लेताउसका उदार मन कुछ अवांछित बात सोचने को तैयार तो न था पर न जाने क्या था कि वह खुश हो ही ना सकीपटाखे भी उसने बच्चों के साथ ही छुडाये, उसने प्यार से शिकायत की तो यह कह कर चुप कर दिया कि ये मेरे ही बच्चे हैं, तुम्हारे साथ तो पूरा समय रहूंगा ही यह समय उनका है, फिर उनके पिता दुबई से आ ही कितना पाते हैं?

फिर तो हर वर्ष वहीं और वैसे ही दीपावली मनतीजब उसे पहली बार राजन और भाभी के अजीबोगरीब सम्बंधों का पता चला तो वह चौंकी थी, चुपचुप सी साधारण सी दिखने वाली भाभी और राजन के बीच ऐसा कैसे हो सकता था? तब वह भाभी के कमरे के बाहर से बाथरूम जाने के लिये गुजरी तो उसे भाभी के पैरों पर चलते राजन के हाथ दिखेउसका दिल धक्क से रह गया फिर भाभी की अलमारी में उसे अपने जैसे मोती के कर्णफूल दिखे जो राजन ने पिछली दीपावली से पहले मुम्बई से ही खरीद कर दिये थे

जब राजन और भाभी के सम्बंध स्पष्ट हो ही गये तो, उसने सास से बात की, सास ने यह कह कर टाल दिया कि -

'' बडी ज़ाने कि राजन, अब हमें पूजा पाठ के दिनों में इस गन्दगी में न समेटो तो अच्छा। हम तो जाने कब से झेल रहे हैं बडी क़े चरित्तर!

कितनी आसनी से पल्ला झाड लिया था सास जी ने, सगाई के समय कैसे गले लगा के बोलीं थीं यही सास कि,

'' आपकी बेटी जिस नाज से रही है आपके घर में वैसे ही हमारे घर रहेगी। वैसे भी राजन तो बम्बई रहता है ये भी वहीं रहेगी।''

तब तो जज की बेटी का लाखों का दहेज दिखा था उन्हें और सुन्दर सुशील बहूऔर वह चौंकी तो थी जब सास बार बार उन्हें शादी के पहले ही सप्ताह बम्बई चले जाने को कहती रहीं थीं बडे भाई बस चार दिन को आकर चले गये और पूरी शादी में बडी बहू का मुंह फूला हुआ थाराजन बहुत उलझे लगे थे उखडे उखडेविदा होकर जब आई तो वे गजलें चला कर कमरे में बंद होकर सो गये थेकितना अजीब स्वागत था उसका, पर बाद में राजन उसके सौन्दर्य और सौम्य व्यक्तित्व में बंध ही गये थे

कितने कितने विचार और स्मृतियां मन की तहों से निकले आ रहे थेऔर पिछली कुछ दीपावलियों पर जब उसने राजन को जाने से मना कर दिया तो राजन ने अकेले जाना शुरु कर दियापहली बार तो उसने गुस्से में दीपावली ही नहीं मनाई, लक्ष्मी पूजा कर बेमन से बस बच्चों को खाना खिला कर खुद कमरा बंद कर फूट फूट कर रोई थी, बच्चे सहम कर सो गये थेअब जब दोनों में करार हो गया था कि जो भी है उसके साथ बच्चों के लिये जीना है बाकि दोनों मानसिक रुप से स्वतन्त्र हैं, तो वह दीपावली मना लेती है बच्चों की खुशी के लिये पर कहीं न कहीं मन बिखर जाता हैहालांकि साल भर में राजन कभी कानपुर जाने का नाम नहीं लेते, बस दीपावली के पन्द्रह दिन बडी भाभी के और उनके बच्चों के नाम हैं

पहली बार जब आक्रामक होकर उसने राजन से पूछा था तो उसने कितनी आसानी से स्वीकार कर लिया था,

'' शैल, ये सम्बंध बहुत पुराना है। मैं तो शादी ही न करता, भाभी ने ही जिद की''
''
हाँ और आपने उनके कहने पर मेरे ऊपर दया करके मेरा उध्दार कर दिया! नहीं तो मेरी कहीं शादी नहीं होती है ना!''
''
यह ग्लानि है मुझे परविवश हूं।''
''
आने दो बडे भैया को''
''
वे जानते हैं, वही वजह हैं इस सम्बंध की। वे भारत आना नहीं चाहते ।''
''
तो पूरा खानदान ही नपुंसक है।''
''
शैलजा! ''
''
चीखो मत राजन।''
''
शैलजा, मैं अब तो कितना कम जाता हूं बस दीपावली पर वे बच्चे मेरी प्रतीक्षा करते हैं। और हमतो तुम तो चल रही हो न।''
''
नहीं राजन , अब से हम दीपावली अपने घर मनाएंगे।''
''
यह असंभव है, तुम्हारे न जाने की स्थिति में भी मुझे जाना होगा, पहले जो कुछ भी रहा हो अब यह सम्बंध मेरी जिम्मेदारी बन गया है।''

एक ठण्डा मगर बहुत कडा और ठाना हुआ जवाब था राजन कावह जान गयी थी वह उसे नहीं रोक सकेगी तो हंगामा खडा करने से क्या फायदा, अब तक वह दो मासूम बच्चों की मां थी, बच्चों के सामने वह विवश थीमायका मां के न रहने से उजड सा ही गया थामात्र बी ए पास शैल अलग होकर आत्मनिर्भर होने के नाम से घबराती थीऔर प्रकृति से संयत, शांत राजन से उसे इस पन्द्रह दिन की घनघोर पीडा के अलावा और कोई दु:ख नहीं देता थापर्याप्त से ज्यादा पैसा, ओ एन जी सी की ग्रेड वन सर्विस, शानदार घर, प्रतिष्ठाअलग होने का साहस न कर पाने पर एक करार के तहत जीने लगी थी वहपर दाम्पत्य सुख समाप्तप्राय: था, उसके छूने भर से उसे घृणा होतीउसने बच्चों में उलझा लिया था स्वयं कोबच्चे भी अब समझने लगे थे मां की पीडा, पापा को रोकते थे पर राजन बच्चों से कहते तुम चलो तो वे मम्मी को छोड क़र जाने को तैयार नहीं होते थे

इस बार बच्चों ने ठान लिया था कि पापा के बिना भी खूब धूमधाम से दीपावली मनाएंगे और उन दोनों ने राजन को एक बार भी कानपुर न जाने को नहीं कहाधनतेरस से ही उत्साह शुरू हो गया, सबने खूब शॉपिंग की, दोनों ने मिल कर शैल को मैसूर सिल्क की हल्की जामुनी चांदी की जरी वाली साडी ख़रीदवाई ही नहीं दीपावली पर पहनने की जिद भी कीशैल पूजा की तैयारियां करती बेटी सलोनी के पास आकर सात बडे घी के दीपक जलाने ही चली थी कि फोन घनघनाया

'' मम्मी जीआप? कैसी हैं आप? दीपावली की शुभकामनाएं।''
''
बहू! क्या बताएं, यहां तो ऐन दीवाली की सुबह कलेश हो गयी घर में! ''
''
कैसे! ''
''
वो राजन की और यश की जम कर लडाई हुई।''
''
यश याने बब्बू, बडी भाभी का बडा बेटा?''
''
हां।''
''
अठारह साल का बेटा मां के कुलच्छन कैसे बरदाश्त कर सकता है? उसने अपने चाचा से कह दिया, हमें अपने हाल पर छोड दो, पापा नहीं आते न आएं, आपके आने से हमें जो बदनामी झेलनी होती है वह पापा के भारत न आने के पेन से कहीं ज्यादा है। और बहू अपनी मां से तो वह रोज झगडता ही थामैं ने चार दिन पहले ही राजन को ऑफिस में फोन करके कहा था कि इस बार न ही आए तो अच्छा पर वह सुनता कहां है उस जादूगरनी के सम्मोहन में किसी की!''

उसके कान अब कुछ नहीं सुन पा रहे थे मन घृणा से भर गया थाछि! सास पर भी उसे गुस्सा आ रहा था, अब तक रोक न सकींअब यह सब बता रही हैं शायद वे विवश हों कि बडी बहू से बिगाड क़र वे कैसे अपनी वृध्दावस्था में कानपुर छोडने को विवश होतीं या जब तक पूरी बात खुली हो पता नहीं उनका बस ही न चला होपता नहीं क्या परिस्थिति हो पर उसके जीवन में तो कडवाहट भरने का जिम्मेदार पूरा खानदान ही है वह तो मां के रहते कभी उन्हें कह ही ना सकी, हर बार लगता कि उन्हें दु:ख पहुंचा कर क्या होगाउन्हें तो नाज है अपने शांत प्रकृति के दामाद पर

'' बहू, सुन रही है ना? राजन यहां से गुस्से में चला गया है, दिल्ली से फ्लाईट पकड बम्बई पहुंचता होगा। एकदम बिफर कर गया है, बेटी संभाल लेना उसे, सुबह का भूला समझ कर। देर तो बहुत हो गयी पर अब भी कुछ नहीं बिगडा है। ''

सास के ये शब्द भी उसके मन में कोई हलचल नहीं कर सकेमन पर मनों बर्फ जमी थी लौट कर फिर दीये जलाने लगी

'' मम्मी किसका फोन था? ''
''
दादी का।''
''
अरे! क्या कहा दादी ने, आपने हमारी बात नहीं कराई। यश दादा, प्रिया दीदी को दीपावली विश करना था।''
''
पापा वापस आ रहे हैं।''
''
कब?''
''
आज ही।''
''
सच मम्मी।''
''
हां सलोनी।''

दोनों बच्चे खुशी से चीखेकहीं बर्फ की कठोर तह बच्चों की खुशी की गर्मी से पिघलीपर वह खुश नहीं हुई
अनन्त ने पूछ ही लिया,

'' मम्मी, आपको खुशी नहीं हो रही, बहुत सालों बाद पापा हमारे साथ दीपावली मनएंगे।''
''
हां अनन्त मैं खुश हूं।'' भोला बेटा बस इस वाक्य से ही खुश हो गया।

दोनों सोत्साह जल्दी जल्दी तैयारी करने लगेअनन्त ने एयरपोर्ट फोन कर दिल्ली से आने वाली फ्लाईट्स के टाइमिंग्स भी पूछ लिये

पूजा बच्चों ने ही पापा के आने तक रोक लीवह रसोई में आ गई और महाराज को पूरी का ज्यादा आटा गूंथने का निर्देश देने लगीतभी बडा गेट खडक़ा, उसने किचन की खिडक़ी से झांका, वही थे थके, पस्तअटैची उठाएममता और रोष दोनों विपरीत भाव साथ जागे

बच्चों के उत्साह ने राजन को गेट पर ही घेर लिया था''पापा पापाइस बार मजा आएगा दीपावली पर'' राजन के चेहरे का कोहरा छंटा उसने दोनों को कस लियावह खामोश वहीं खडी थी राजन ने जब जाना तो उसे देखा, उसे लगा कहीं पश्चाताप नमी की तरल परत बन उनकी आंखों में उतर आया हैउसने कुछ पूछने की आवश्यकता महसूस नहीं कीमहाराज पानी और चाय साथ ही ले आया

चाय के बाद राजन नहाने चले गये लौटे तो धुले सफेद पजामे कुर्ते में सीधे पूजाघर में चले गये और वहीं से पुकारा,

'' शैलजा, अरे गंगाजल कहां है? अरे भई आओ मुहूर्त निकला जा रहा है। बच्चे कहां हैं?''

उनकी आवाज बहुत अजनबी मगर बहुत गुनगुनी लगीबर्फ की एक तह और पिघली

वह बच्चों को ले पूजा घर में चली आई और राजन के वामांग खाली पडी ज़गह पर बैठते हिचकी तो राजन ने हाथ पकड क़र बिठा लियापहली बार अपने घर में गूंजते राजन की गहरी आवाज में श्लोक उसके मन में गहर उतर रहे थेवहां कानपुर में भाभी के पास बैठे राजन के यही श्लोक उसे अर्थहीन लगते थेपूजा पाठ व्यर्थ लगता था पर अब इन शांत पलों में वह यह सब नहीं सोचेगीश्रध्दा के साथ उसने सर ढक लिया

पूजा के बाद सबने खाना खाया, फिर राजन ने ही कहा पटाखे आकर चलाएंगे, पहले शहर की रोशनी देखने और कुछ खास मित्रों से मिलने चलते हैंहर बार मां के साथ अकेले पड ज़ाने वाले बच्चों की खुशी का पारावार न थाशैलजा कुछ पूछ कर, राजन उन बातों को छेड क़र बच्चों के उत्साह को कम न करना चाहते थेबहुत दिनों बाद पति के साथ खडे होकर खास मित्रों के बीच शैलजा अपनी सारी दुविधाएं छोड चहकने लगी लौटे तो बर्फ की कई कई सतहें गल कर बह गई थींपटाखे चलाने में राजन स्वयं बच्चा बन गये थे

बच्चों को सुलाकर वह देर तक ब्रश करती रही, चेहरा साफ करती रही, बेडरूम में जाने को वह स्वयं को तैयार नहीं कर पा रही थीफिर भी उसे कपडे बदलने जाना ही पडावह नाईटी पहन बच्चों के कमरे की और मुडी ही थी,

'' शैल, मैं लौट आया हूं।''
''
जानती हूं।''
''
मुझे सहेज लो न।''
''
राजन, अब बहुत देर हो गयी है।''
''
हां शैल पर हम अब भी साथ ही हैं।''
''
किसने कहा? राजन हम बच्चों की वजह से ही सिर्फ दिखावे भर को साथ हैं। मैं ने तुम्हें और तुमने मुझे कबका मुक्त कर दिया था। अब इतनी जलालत मुझे दे कर और स्वयं झेल कर लौटे हो तो क्या लौटे हो? ''
''
क्या फिर से नयी शुरूआत नहीं हो सकती।''
''
नहीं! ! '' शैलजा बिफर गयी
''
अब जिन्दगी के उत्साह भरे साल गंवा कर अब नहीं।''
''
जिन्दगी बीत तो नहीं गयी शैल, मैं सम्पूर्ण तुम्हारा होकर लौटा हूं। सुबह का भूला हुआ मैं शाम लौट आया हूं मुझे अपना लो! ''

रो पडे राजनशैल बिफरी बैठी रही, उसका सालों का आक्रोश उसके मन को धधका रहा थाउसने राजन को चुप नहीं करवाया पर वहीं बैठ गयीराजन ने पानी पीकर स्वयं को संयत किया और शैल का हाथ पकड ज़बरन टेरेस पर बने झूले पर ले आए कुछ दिये अब भी जल रहे थे, कुछ बुझ गये थे, राजन ने एक दिया ले सारी कतार फिर जला दी

अब भी एक दो रॉकेट आकाश से टकरा कर फूटते और हरे गुलाबी फूलों में बिखर जाते

दोनों देर तक चुप बैठे रहेराजन ने शैलजा का हाथ हल्के से छुआ तो आक्रोश आंखों की राह बह निकलाथोडी देर बाद दोनों एक दूसरे के कन्धों से लगे रो रहे थेजब सर्द हवाओं का रुख बदला तो दोनों अन्दर चले आएबर्फ की अन्तिम सतह कब की पिघल चुकी थीखिडक़ी पर रखे दीपकों की हल्की मध्दम आंच दोनों के तन मन में ऊष्मा भर रही थी

मनीषा कुलश्रेष्ठ
 

दीपावली
अपनों के साथ मनाने में ही दीपावली की सार्थकता है - अनुपमा
अब के ऐसी दिवाली आये - आस्था
अलि प्रिय अब तक न आए - सुधा रानी
ओ चंचला लक्ष्मी - सुधा रानी
इस बार दीपावली कुछ अलग तरह मनाएं - मनीषा कुलश्रेष्ठ
एक दीपावली पापा के बिना - अंशु
एक नन्हीं बच्ची की दीपावली - अवनि कुलश्रेष्ठ
कर भला होगा भला - सुषमा मुनीन्द्र
गायें गीत बालदिवस के - कनुप्रिया कुलश्रेष्ठ
तुम्हारी बातें दीपक कतार सी - नीलम जैन
दिवाली का दिन - सुमन कुमार घेई
दिवाली का पर्व - राजेन्द्र कृष्ण
दिवाली दिवाली - संगीता गोयल
दिवाली स्तुति - सुमन कुमार घेई
दीपावली - राज जैन
दीपावली 2001 - राजेन्द्र कृष्ण
दीपावली और बालदिवस - अंशुल सिन्हा
पंचमहोत्सव का मुख्य पर्व - दीपावली - अचरज
यही तो है दीपावली - आयूषी श्रीवास्तव
लक्ष्मी पूजा - सुधा रानी
सुबह का भूला - मनीषा कुलश्रेष्ठ

 
 

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