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कयामत का दिन उर्फ कब्र से बाहर - 2
थोडी दूर आगे एक स्टेज सजा था। एक मंत्री जी भाषण दे रहे थे। लोग बडे अनमने भाव से सुन रहे थे। गर्मी व पसीने से तरबतर, मुझे अचानक उस आदमी पर गुस्सा आ गया और मैं दौडती हुई मंच पर चढ ग़ई। पहले तो किसीकी समझ में नहीं आया कि क्या हो गया। जब तक समझ में आया, मैं उस आदमी को परे धकेल चुकी थी और माईक पर कह रही थी, '' भाईयों और बहनों, अगर सुनना है तो सिर्फ अपनी सुनना...यह व्यवस्था यह लोग तुम्हें कभी अपने जैसा नहीं होने देंगे।'' तब तक मुझे घसीट कर मंच पर से उतारने लगे। मैं कहती गई, '' क्योंकि तब ये खत्म हो जाएंगे।'' पब्लिक शोर मचाती हुई उठ खडी हुई। उन्होंने मुझे स्टेज से उठा कर बाहर फेंक दिया। '' पुलिस के हवाले कर दो, पता नहीं कौन पगली है, जाहिल, हिम्मत तो देखो'' एक ने जोर से कहा। मंच पर सजी कुर्सियों में से एक आदमी उठ कर मेरे पास आया और सबको रोकते हुए मुझे उठा कर अपने सामने खडा कर दिया - ''
कौन है तू?'' मेरे कुरते की बाँह फट गई थी और मेरे घुटनों और कुहनियों पर चोटें लगी थीं। जिनसे खून रिस रहा था। मेरे पास मेरा दुपट्टा भी नहीं था, जिसकी मदद ली जा सकती। मैं चलते चलते एक हॉस्पिटल के पास से गुजरी और एकदम से अन्दर घुस गई, देखा, एक लम्बी सी लाईन है और लोग पर्चियाँ बनवा रहे हैं। मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी। जब मेरी बारी आई, अन्दर केबिन में बैठे आदमी ने मुझे सर से पांव तक घूरा और मशीनी अंदाज में पूछा, ''
क्या तकलीफ है? उसने संदिग्ध भाव से मुझे घूरा और इसके पहले मैं कुछ कहूँ, उसने एक वार्ड बॉय को इशारा किया। वह आया और उस आदमी से पर्ची लेकर मेरा हाथ पकड क़र कहीं ले जाने लगा। मैं ने उसके हाथों में थमी पर्ची पर पढा - किसी सायकेट्रिस्ट का नाम था। मैं बडे आराम से उसके साथ चलती रही। वह एक केबिन के सामने रुका और मुझे बाहर बेंच पर बैठने का इशारा करते हुए अंदर चला गया। मैं ने बैन्च पर बैठते हुए देखा - आदमी व औरतों की लम्बी कतार बैठी थी। मैं बडे मस्त अन्दाज में अपने घुटनों पर तबला बजाते हुए गुनगुनाने लगी। ''
ईश्श''
बगल वाली औरत ने
मुझे कुहनी मारी - ''
सब देख रहे हैं।'' मेरे आगे कुछ कहने से पहले ही वह वार्ड बॉय आया और मेरी बांह पकड क़र अन्दर ले गया। अंदर सामने एक बडी सी चेयर पर एक आदमी बैठा था - डॉक्टर नुमा। मैं ने उसकी तरफ हाथ बढाया। '' हाय।'' उसने सर से पैर तक मुझे घूरा और मुझे बैठने का इशारा करते हुए उसे बाहर जाने को कहा। ''
कहाँ से आई हो?
'' अब वह मुझसे
मुखातिब था। मैंने पेपरवेट उठा लिया और उसके सर का निशाना किया। ''
इसे टेबल पर रख दो और
एक्टिंग मत करो।''
उसने रोबीले स्वर में कहा। मैं ने उसे ध्यान से देखा - मोटा जिस्म, बाँहों, भवों व सर पर तकरीबन एक जैसे काले सफेद बाल। मैं ने उसकी आँखों में देखा। शिकार को देख कर अंधेरे में चमकती खूंखार आँखे। हममें ही कोई जानवर जीता, पलता और बढता है, हम मात्र पिंजडे क़ा काम करते हैं। '' जो मन आएगा।'' मैं हंसने लगी,
एक ऐसी हंसी जिसके न होने का मतलब था न न होने का।
जो कहीं भी हो
सकती है -
नहीं भी हो सकती है। '' चलती हूँ, मुझे देर हो रही है।'' यह बाद में पता चलता है कि हम गलत जगह आ गये हैं। तब तक बहुत बार इस गलत बात को सुधारने के सारे रास्ते बन्द हो चुके होते हैं। ''
तुमने अपनी तकलीफ तो बताई
ही नहीं! ''
उसने मुझ उठती हुई का हाथ
पकड लिया- वह भौंचक सा मुझे देख रहा था और मैं उसे उसी हालत में छोड क़र बाहर आ गयी। सडक़ पर बहुत भीड थी। बहुत लोग, बहुत गर्मी। मैं ने एक जगह खडे होकर चारों ओर देखा। हर तरफ लोग, दुकानें, चीजें, आवाजें, चालाकी - होशियारियां। लोग जल्दी जल्दी जीने की कोशिशों में कितनी तीव्रता से मरने लगते हैं।
अब? मैं वहां से हट गई। सडक़ के किनारे
लगे एक प्याऊ से पानी पिया। और शहर के उस हिस्से की तरफ चल पडी ज़हां
अपेक्षाकृत कम शोर हो सकता था। |
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