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वह आंगन और लालटैन
15 वर्षीय रूपमती जब भारत के विभाजन से कुछ महीने पहले 25 वर्षीय प्रेमचन्द की दुल्हन बनी तो वह एक ब्याहता स्त्री के अलावा अपने घर की बडी बहू और एक ननद और तीन देवरों की भाभी भी बनी। अपनी विधवा सास के साथ कंधे से कंधा मिलाकर रूपमती नें एक उजडते परिवार को सहेजना शुरू किया। विभाजन होने से पहले ही भविष्य की भयावह अनिश्चितता भांप प्रेमचन्द अपने छोटे भाई मदन के साथ फ्रंटियर के एक छोटे से कस्बे को छोड दिल्ली आ पहुंचे। दिल्ली शहर के अपने संघर्ष, उस बडे शहर में अपने लिये जगह बनाना और आजीविका कमाना आसान न था। शहर की पटडियों पर अपनी छोटी सी किताबों की दुकान - जो कि एक चादर में सिमट जाती थी - को सजाने संवारने में दोनो भाई लग गए। इतने में मदन अपने कस्बे के दो चक्कर लगा आए और अम्मा ने समय की दशा देखते हुए मदन का भी ब्याह कर दिया। मदन अपनी पत्नी को वहीं छोड फ़िर दिल्ली आ गए, भाई के साथ संघर्ष में हाथ बंटाने को। विभाजन का समय नज़दीक आते ही अम्मा ने अपनी पुत्री का भी ब्याह रचा दिया। राष्ट्र का विभाजन हुआ। और विभाजन के साथ शुरू हुआ जिन्दगियों के बिखराव का सिलसिला। यातनाओं और हिन्दु-मुस्लिम संघर्षों की आग में पूरा हिन्दुस्तान जल रहा था। प्रेमचन्द ने जल्दी जल्दी उन्हीं संघर्ष के दिनों में एक कमरे वाला मकान किराये पर ले लिया और मदन को भेज मां, रूपमती, मदन की पत्नी और छोटे भाई को बुलवा भेजा। एक कोठरी में छ: लोग महज सर छिपाने के लिये टिके थे।बाहर छोटे से दालान में दोनों बहुएं मिल कर खाना बना लेती थीं। जल्दी ही मदन की पत्नी को यह व्यवस्था नागवार गुजरने लगी और वो दोनों इस तंगी और परेशानियों के दिनों में ही अलग हो गये। अम्मा अपने सरल से बडे बेटे और उससे भी सीधी रूपमती के साथ ही रह गईं। प्रेमचंद की कडी मेहनत और अम्मा की जमापूंजी से प्रेमचंद ने कुछ ही दिनों में एक बहुत छोटी सी दुकान किराये पर ले ली, जिसमें वह सैकेण्ड हैण्ड किताबों का व्यवसाय करने लगे। दुकान चल पडी तो अखबारों और पत्रिकाओं की ऐजेन्सी भी उन्होंने ले ली, पुरानी दिल्ली के एक पिछडे मुहल्ले में पिछले घर से जरा बडा घर लिया गया जिसमें एक की जगह दो कमरे थे, पर बिजली की व्यवस्था न थी उस पर दुकान से बहुत दूर था वह घर। पर विभाजन के उस जमाने में ऐसा मकान भी मिल पाना दूभर था। रूपमती ने अपनी गृहस्थी इस घर में जोड ली। अम्मा और छोटा देवर साथ ही थे। एक दिन थके हुए प्रेमचन्द के लौटने पर रूपमती ने झिझकते हुए अपने माँ बनने की खबर दी, लजाती हुई रूपमती को प्रेमचन्द ने कस कर अपने आगोश में ले लिया था। इस खबर ने प्रेमचन्द की व्यस्त थका देने वाली दिनचर्या में उत्साह भर दिया और वे और अधिक श्रम लगा कर अपनी किताबों की दुकान को विकसित करने में लग गये। यहीं इसी घर में पति के प्रेम और सास के सहयोग के साथ न जाने कब नौ महीने पूरे कर लिये, शरद ॠतु अपने कुहरे की चादर फैलाए चली आई थी। नवम्बर के अंत में 17 वर्षीय रूपमती को एक रात दर्द उठा तुरन्त ही अम्मा ने छोटे रमेश को भेज रिक्शा और प्रेमचन्द दोनों को बुलावाया। रिक्शा आने पर वे स्वयं रूपमती को सरकारी अस्पताल में ले गईं, सुबह सुबह उसने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया, घने काले बाल और गहरी भूरी आँखों वाले इस बालक को जब नर्स मारिया प्रेमचन्द के पास लेकर आई तो बस बच्चे को देखते ही प्रेमवन्द ने न जाने कितने सपने देख डाले। यह तो उनके घर का पहला जगमगाता चिराग था। जब वे गर्भपीडा से उबरी थकित शमित रूपमती के पास पहूँचे तो वह मातृत्व में डूबी दुनिया की सबसे खूबसूरत स्त्री लगी। ''
रूप तूने मुझे दुनिया की
सबसे बडी नियामत दे दी है।'' अब तक मारिया और अम्मा अन्दर आ गये थे। प्रेमचन्द एक गहरी नजर अपने बच्चे पर डाल कर चले गये। ''
अम्मा जी आपका ये पोता बहुत
प्यारा है,
एक दम पोस्टर के मदर मैरी
के गोद में यीशू के बचपन जैसा।'' राघव का बचपन अम्मा, माँ और बाऊजी के स्नेह और सुरक्षा की छाँव तले बीतने लगा, पहली बार जब वो बाऊजी की उंगली पकड क़र पहला कदम चला था उस दिन शाम बाऊजी उसे और माँ को कनाटप्लेस के एक स्टूडियो में फोटो खिंचाने ले गये थे। आज भी वह फोटो दिल्ली के हमारे पुश्तैनी घर के एक कोने में बाऊजी की अलमारी में रखे एक एलबम में रखा है, उसका पेपर पीला हो गया है। उस फोटो को देख कर अपने जन्म की अम्मा से सुनी सुनाई कहानी अकसर मुझे याद आ जाती है। मुझे अच्छी तरह याद है वह आंगनआज भी। आखिर बचपन के छह साल बिताए थे उस घर में। चूने और सीमेन्ट की जगह जगह उधडी हुई परतों में झांकती लाल ईटों वाली दीवारें, और खम्भों वाला वह पतली ईंटों के फर्श वाला आँगन, जिसमें खट्टे अंगूरों की बेल सीढीयों पर जा चढी थी। जहाँ एक कोने में मां की छपरे वाली रसोई थी और दूसरे कोने में बाथरूम। टिन के ढके हिस्से में दादी याने अम्मा का तख्त पडा रहता था। अन्दर दो कमरे। उसी आंगन में पहली बार स्कूल के लिये जाने से पहले मां ने पूजा करवा कर एक बस्ते में कलम पाटी पकडा कर स्टील के टिफिन में मेरा मनपसंद चीनी का परांठा डाल कर दिया था। जाने से पहले में खूब सुबुक सुबुक कर रोया था। मां को पहली बार छोड क़र जा रहा था। स्कूल पहुंच कर तो बाऊजी का कुर्ता पकड लिया था फिर जब थोडी देर बाऊजी मेरी कक्षा में खडे रहे तब जाकर बैंच पर बैठाफिर न जाने कब पीछे से मुझे अकेला छोड बाबूजी चले गये। थोडा रो कर मैं सहज हो गया था। शाम बाबूजी को स्कूल के बाहर साईकिल के साथ देख कर खुश हो गया था। मुझे अपने पिता के साथ साईकिल की सवारी बहुत प्रिय थी। घर
पहुँच
कर
माँ
ने पूछा,
'' रघु बता न क्या सीखा?
आज क्या किया?'' मां विभोर होकर मुझे चूमती रही। माँ को अपना अनपढ होना और पिता का कम पढा हुआ अकसर सालता था। वह चाहती थी मैं खूब पढूँ। जैसे ही मेरी पढाई शुरू हुई, माँ ने मेरा अतिरिक्त ध्यान रखना शुरु कर दिया। दो बार दूध देतीं, दाल में बडा चम्मच घी डाल कर देतीं। मुझे याद है मेरे पिता तब सुबह छ: बजे ही पाँच किलोमीटर साइकिल चला कर निकल जाते थे और रात ग्यारह बजे घर लौटते जब सारा मुहल्ला सो चुका होता, यहाँ तक कि दादी भी। पूरा मोहल्ला अँधेरे में डूबा होता बस एक दो लोगों की आवाजाही या कुत्तों की भौं भौं के सिवा कुछ नहीं सुनाई देता था, बस हमारे कमरे में एक लालटैन जली होती थी। माँ रात में बाऊजी की प्रतीक्षा करते में कभी पुराना स्वेटर उधेड क़र नया बनाती या, बाऊजी की पुरानी पेंट को मेरे नाप का सिल उस पर तुरपाई करती। माँ जबरन मुझे भी हाथ में किताब देकर लालटैन के आगे बिठा देती, कभी मैं गणित के सवाल करता, कभी कविता याद करता, कभी पहाडे। दादी डाँटती माँ को कि ये छोटे बच्चे के साथ क्यों अत्याचार करती है? पडाैसिनें भी कहती, ऐसी भी क्या पढाई ओ रब्बा! माँ का उत्तर होता, '' जब रघु के बाऊजी थक कर देर रात आते हैं उसे पढता देख खुश हो जाते हैं। वरना जब वो सुबह जाते हैं तो रघु सो रहा होता है आते हैं तो रघु सो चुका होता है। इस बहाने बाप बेटे में दो बातें होती हैं, वो प्यार करते हैं इसे। इसका होमवर्क देखते हैं तब तक मैं खाना लगाती हूँ।'' तब मुझे भी माँ पर गुस्सा आता क्योंकि मैं पढते पढते अकसर लुढक़ जाता था। पर माँ मुझे जगाती प्यार करती फिर पढने बिठा देती। तब मैं नहीं जानता था कि माँ के मन में क्या है? क्यों थके हारे, घर और दुकान की दोहरी जिम्मेदारी से जूझते मेरे पिता मुझे लालटैन में देर तक जाग कर पढते हुए देख कितना खुश हो जाते हैं कि उनके चेहरे से थकान जाती रहती है। नहीं समझता था तब मैं। आज जब अतीत के तंग गलियारों से होकर उस आंगनमें लौटता हूँ, तो बिना बिजली की सुविधा वाले उस घर में वही लालटैन जली दिखाई देती है और प्रतीक्षा में दिप दिप करता माँ का सुन्दर कोमल चेहरा, हाथों में सुई धागा, कान अनवरत दरवाजे पर लगे, आँखे रह रह कर खिडक़ी पर उठती हुई। जब तक मैं पहरी कक्षा में आया माँ ने दूसरी बार माँ बनने की खबर दी थी। पिता ने इस बार माँ से एक नन्हीं सी गुडिया की माँग की थी जब कि मैं जिद पर अडा था मुझे घुटनों के बल चलने वाला छोटा भाई चाहिये। माँ ने पिता की बात रख ली और इस बार घर में ही मिडवाईफ की मदद से एक नन्हीं गुडिया को जन्म दिया जिसे देखते ही मैं अपनी जिद भूल गया और उसे प्यार करने लगा। इसका नामकरण अरुणा हुआ। मेरी बचपन की साथी, मेरी नन्हीं चंचल बहन अरुणा मुझ पर अधिकार जमाती हुई दो साल की हुई तब तक पापा की दुकान बहुत अच्छी चल पडी थी। अब हमने नया घर लिया जिसमें लाईट थी। तीन कमरे और पक्का बाथरूम था। पर वो आंगनवहीं छूट गया, इस घर में आंगननहीं था, मगर खूब चौडी छत थी जिससे शहर दिखता था। जहाँ पतंगें कट कर गिर आया करती थीं। कभी कभी पडाैसियों के पालतू सफेद कबूतर आ जाते थे, अम्मा के डाले दाने चुगने। बाऊजी रिफ्यूजियों को मिलने वाले जमीन के पट्टे के लिये भी एप्लाय कर चुके थे। पैसे भी भर दिये थे। खुशहाल दिन सफेद कबूतरों की तरह एक एक कर हमारी जिन्दगियों पर उतरते हुए प्रतीत हुए। लेकिन इस नये घर की हवा न जाने क्यों माँ को रास नहीं आई। वह बीमार रहने लगी, उसके चेहरे की रौनक बीमारी ने छीन ली। एक दिन बाऊजी उसे अस्पताल भरती करा आए। अब अम्मा ही मुझे तैयार कर स्कूल भेजती, दो साल की अरुणा को देखती। माँ और बाऊजी का खाना बना कर अस्पताल भेजती। चाचा अब दुकान देखने लायक हो गया था और साथ ही मैट्रिक की तैयारी कर रहा था। अस्पताल गई माँ को देखने एक बार जब मैं वार्ड में पहुंचातो माँ ने सीने से लगा कर इतनी सारी बातें समझा दीं जैसे वह अभी कई दिन नहीं लौटेगी। मन लगा कर पढना, दादी को तंग मत करना, अरुणा को देखना। जबकि मैं रो रो कर कहता रहा अब घर चलो मम्मी। बाऊजी माँ को समझाते, '' रूप तुम ठीक हो जाओ और घर आ जाओ। तुम ही हिम्मत छोड दोगी तोएक से एक अच्छे डॉक्टर देख रहे हैं।'' बाऊजी कहते तो पर वो जानते थे कि उनके ही आश्वासनों में उम्मीद कम ही रह गई है। मैं हर रोज माँ के लौटने की प्रतीक्षा करता। पर माँ नहीं लौटी। छोड ग़ई हमें मुझे और अरुणा को बाऊजी और अम्मा को। श्मशान में बाऊजी के साथ खडा मैं उनकी धू धू करती चिता देखते हुए अचानक समझदार हो गया था। मुझे पता चल गया था मुझे अच्छी तरह पढना है, माँ यही तो चाहती थी। उस रात मैं ने सपनों में वही आंगनदेखा, वहाँ खम्भे पर लटकी लालटैन देखी जो अचानक तेज हवा से बुझने को थी मैंने उसे उतारा और कमरे में ले आया और उसकी बत्ती ऊँची कर दी वह बुझते बुझते फिर जल गई। आज भी किसी किसी तूफानी रात में मैं उस लालटैन को मन ही मन हमेशा तेज हवाओं से बचा कर जलाए रखता हूँ। |
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