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घर फूंक तमाशा रात्रि के दो बज गये। यों ही टी वी ऑन करके बैठा था टेकलाल। पर्दे पर क्या दृश्य उभर रहे हैं उन्हें देख कर भी कुछ नहीं देख रहा था। जब चित्त अशांत हो तो चेहरे की आंखें एक कठपुतली की आंख भर होकर रह जाती हैं। घर के सभी लोग अब तक सो चुके थे - दोनों बेटे, दोनों बेटियां। पत्नी उसे कई बार सो जाने के लिये आवाज लगा चुकी थी। वह जाकर बिस्तर पर लेट गया। नींद नहीं थी उसकी आंखों में। उसकी मुकम्मल नींदें पिछले डेढ साल से हर महीने थोडा-थोडा करके किस्तों में उससे छिनती जा रही थीं। कल सोफा बिक गया तो उसके साथ नींद की एक और किस्त भी चली गयी। सोफा बनवाना उसका एक सपना था जिसे वह कई सालों में पूरा करवा पाया था। विभिन्न मैन्युअलों और कई फर्नीचर की दुकानों में जा-जा कर उसने एक मनोनुकूल डिजाईन का चयन किया था। मिस्त्री को इसे समझाने और दिखाने में कई हफ्ते लग गये थे। उसने लकडी क़ा विवरण लेकर, आरा मशीन में उसने सागवान की लकडी चिरवाई थी। इसे आकार देने के लिये मिस्त्री को बुलवाने की स्थिति दो साल बाद आयी थी। मिस्त्री ने उसका मजाक उडाते हुए कहा था, '' टेकलाल जी, उस सोफे को क्या आप सरकारी पंचवर्षीय योजना की तरह पूरा करेंगे क्या?'' टेकलाल ने कोई जवाब नहीं दिया था। वह जानता था कि पांच साल लग जाना उसके लिये कोई बडी बात नहीं और सचमुच पांच साल लग ही गये। ढांचा बन गया तब काफी दिनों बाद पॉलिश करवाई गई, फिर काफी दिनों बाद फोम खरीद कर कुशन बनवाया गया। बैकपिलो और कवर आदि से लैस होकर जब सोफे ने घर में अपनी जगह ली तो यह देखने लायक एक आलीशान हाऊस - होल्ड के कलेवर में ढल गया ज़ो भी घर में आता सोफे को मुग्ध भाव से देखता रह जाता - टेकलाल जैसे मामूली आदमी के घर में ऐसा भव्य सोफा ! उसने अपने घरवालों को बता रखा था कि उसके खानदान के लिये यह पहला अवसर है जब किसी ने सोफा बनवाया और कल वही सोफा बिक गया! टेकलाल हर आधे घंटे में उठ उठ कर पानी पीता और पेशाब करता। पत्नी ताड रही थी। सोयी वह भी नहीं थी लेकिन मटिया कर वह यह दिखाना चाहती थी कि सो गयी। अचानक कमरे की बत्ती जल उठी। बडा लडक़ा सामने खडा था। ''
पापा मैं ने देख लिया आप अब
तक जाग रहे हैं। मां भी सिर्फ सोने का दिखावा कर रही हैआखिर कब तक आप लोग
जागते रहेंगे?'' टेकलाल जानता है कि कहना आसान है किन्तु खुद को भी समझाना इतना आसान नहीं होता। वह अपनी ही हालत जरा भी सामान्य नहीं कर पा रहा है। समय काटे नहीं कटता है, जैसे दिन रात की मियाद बरस भर लम्बी हो गयी हो। टेकलाल को लगता है कि इसी गति से वह बूढा भी होने लगा है, अर्थात एक दिन रात में उसकी आयु एक एक बरस कम होती जा रही है। एक आयु की ढलान ही है कि बहुत तेजी से बढ रही है बाकि तो सबकुछ रुक ही गया है बच्चों की पढाई, बीमारी का इलाज, ब्याह शादी, जिन्दगी की हंसी खुशी और शौक लुत्फ। बल्कि यह सबकुछ रुक गया है इसीलिये आयु और भी तेजी से हाथ से फिसल रही है और ये सारा कुछ इसलिये रुक गया है कि उसका कारखाना रुक गया। यह कारखाना स्टील वायर प्रोडक्ट लि जो अब तक अरबों कील कांटी बना चुका होगा और अब उन कील कांटियों पर कितना कुछ अब भी टिका होगा, कितना कुछ टंगा होगालेकिन आज यह कारखाना खुद ही बेकील हो गया। नट बोल्ट और वायर रड भी इसके मुख्य उत्पाद थे। इसके बनाये नट बोल्ट और वायर रडों पर न जाने कितने स्ट्रक्चर खडे होंगे, कितने मोटर सायकल के पहिये घूम रहे होंगे, कितनी छतरियां तनी होंगी, कितने ऊंचे ऊंचे वाटर टावर कायम होंगे, कितनी रेल पटरियां फिक्स होंगी, कितनी छतें टम्गी होंगीकिन्तु आज उन मूलभूत उत्पादों का निर्माता खुद ही न टिका रह सकादूसरों को थामने का जरिया उपलब्ध कराने वाला खुद ही थमे रहने के लिये जरिये का मोहताज हो गया। यह कैसी विडम्बना है? बताया गया कि करोडाें रूपये की बिजली का बिल बकाया हो गया था। लाईन काट दी गई थी। प्रबंधन की ओर से कहा गया कि माल नहीं बिक रहा। विदेशी माल से बाजार अंटा पडा है। इनके सामने माल बिकता भी है तो घाटे के सौदे पर। घाटा बढक़र अब एकदम बेकाबू हो गया है। कारखाना चलाने से ज्यादा फायदेमंद है इसका न चलाना। सभी मजदूर और यूनियन के लोग हैरान हैं। पहले तो यही कारखाना खूब बम बम चल रहा थाखूब प्रॉफिट कर रहा था। मजदूरों को एकदम समय पर वेतन और बोनस दिये जा रहे थे। सबकी गुजर बसर ठीक ठाक हो रही थी। माल का न बिकना तो कोई मुद्दा ही नहीं था। ओवरटाईम करवा कर प्रोडक्शन बढाया जाता था, ग्राहकों की मांगे फिर भी पूरी तब भी नहीं होती थीं। यूनियन किसी जिद को लेकर एक दिन भी हडताल की धमकी देती थी तो प्रबंधन में अफरा तफरी मच जाती थी कि सारा संतुलन बिगड ज़ाएगा। आज कैसा वक्त आ गया है कि मालिक स्वयं कारखाना बंद कर देने में अपना भला समझ रहा है, जबकि यूनियन चाहती है कि यह किसी भी शर्त पर चलता रहे। लेकिन यूनियन का कुछ भी नहीं चल रहा। इस समय सबसे नकारा और अस्त्रहीन संगठन कोई बना है तो वह है यूनियन! न इसे सरकार का समर्थन है, न अदालतों का। बंद को अब मालिक ने अपना अस्त्र बना लिया है और वह इसके लिये उपयोग के लिये एकदम आजाद है। टेकलाल रोज क़िसी न किसी फैक्टरी के बंद होने की खबर अखबार में पढ लेता है।अब तक देश की चलने वाली हजारों फैक्टरियां बंद हो गईं और लाखों कामगार बेरोजगार हो गये। क्या सबकी हालत टेकलाल जैसी ही नहीं हो गयी होगी? यहां तो सबकी हालत कमोबेश एक जैसी ही है। हमेशा हंसने और मजाक करने वाले चेहरे को भी मानो काठ मार गया है। उसके साथ काम करने वाला मिल ऑपरेटर सोनाराम के होंठों पर सुनाने के लिये हमेशा नये नये चुटकुले धरे होते थे और कुछ साथियों से वह हरदम घिरा होता था। आजकल बंद मिल के आगे बोरा और पेपर आदि बिछा कर मायूस और बदहवास लोग बैठे रहते हैं, उनमें सोनाराम भी बैठा होता है लेकिन चुटकुलों की जगह लगता है कि उसके होंठों से एक विलाप रिस रहा हो। लगभग पांच सौ मीटर लम्बी विशाल मिल की शिथिल और निष्प्राण काया को लोग यों निहारते रहते हैं, जैसे अपने सबसे घनिष्ठ और खास शुभचिंतक का शव देख रहे हों। मिल चलती थी तो फर्नेस से गर्म बिलेट (इस्पात पिंड) रोलर से रोल होकर गुजरता था और तार बनकर इतनी तेजी से ऑटोमेटिकली क्वॉयल में बदल जाता था जैसे एक मिसाईल छूटने का दृश्य उपस्थित हो गया हो और इससे ध्वंस का नहीं निर्माण का एक अजस्त्र संगीत फूटने लगा हो। टेकलाल सोचता रहता था कि इस मिल में लगी लगभग 100 करोड क़ी पूंजी क्या यों ही व्यर्थ हो जाएगी? बेचारी यह मिल तो अब भी पूरी तैयार है। जरा सी बिजली दौडा दी जाए तो तुरन्त प्रोडक्शन चालू हो जाएगा और निर्माण का संगीत शुरु हो जाएगा। देश भर में न जाने ऐसी कितनी पूंजी बंद मिलों के रूप में जंग खा जाएगी। क्या राष्ट्रीय धर्म पर प्रवचन करने वालों को इस राष्ट्रीय पाप का एहसास नहीं होना चाहिये? दस माह बंद रहने के बाद आठ माह पहले पता नहीं किस अस्थायी मकसद को लेकर यह कारखाना चालू किया गया था। सभी थके हारे मजदूरों में नई जान आ गई थी। पूरे तन मन से वे अपने अपने काम में भिड ग़ये थे। टेकलाल मिल का चीफ ऑपरेटर था। उसने अपने अथीनस्थ सभी साथियों से कहा कि हमें मात्रा, गुणवत्ता और लागत के मामले में इतना अच्छा प्रदर्शन कर देना है कि कम दाम में भी माल बेच कर मालिक को नुकसान न उठाना पडे और फिर मिल बंद होने की नौबत ही खत्म हो जाये। ऐसा किया भी सबने मिलकर। मजदूरों की यह अभूतपूर्व संलग्नता थी कि वे घर जाना तक भूल जाते थे। टेकलाल तो घर में भी होता तो उसका ध्यान कारखाने की तरफ लगा होता। जी नहीं मानता तो बीच बीच में क्वार्टर से आकर घंटे दो घंटे के लिये फिर काम में भिड ज़ाता। इस दौरान मजदूरों की कॉलोनी में फिर से चहल पहल बहाल हो गयी। बच्चों के जो मैदान और पार्क सन्नाटे में घिर गये थे, उनमें फिर किलकारियां गूंजने लगी। सहम दुबक जाने वाली महिलाओं की बैठकबाजियां फिर से जमने लगीं। युवाओं युवतियों के ठहाके और अनावश्यक भाग दौड फ़िर चालू हो गयी। प्रेम करने वाले जोडाें के ठहरे हुए सम्वाद आगे चलने लगे। क्र्वाटर और फ्लैटों के रसोईघरों से तेल मसाले की तेज खुश्बुएं फिर से हवा में तैरने लगीं। मतलब एक कारखाने के चालू ताल पर सारा कुछ लयात्मक और सुरीला हो गया था। काश कि यह ताल स्थायी हो जाता। तीन महीने बाद कारखाना फिर बंद कर दिया गया। बिजली कट गई और मालिक ने मजदूरों से कहा, '' हम कोशिश में हैं कि नये उपाय करके इसे फिर चालू कर सकें। तब तक आधी पगार हम आपको देते रहेंगे।'' कॉलोनी के मैदानों,पार्कों, सडक़ों, घरों, पुलियों, क्लबों आदि को जैसे फिर किसी शोक ने डंस लिया। पूरी पगार जब मिलती थी तब भी काट - कपट कर ही जीवन चलता था, अब आधी में तो किसी तरह सिर्फ पेट ही भरा जाना संभव था। विशेष भुवनेश्वर में रह कर बी एस सी कर रहा था, क्योंकि बिहार में दो साल की पढाई चार पांच साल से पहले पूरी नहीं होती। जब उसे यह जानकारी मिली कि कारखाना तीन महीने चल कर फिर बंद हो गया, वह पढाई छोड क़र टाटा आ गया। वह जानता था कि पिता वापस नहीं बुलाएंगे और घर में जब तक बेचने के लिये समान होंगे, वे बेचते रहेंगे और जितना संभव हो सकता है उसे भेजते रहेंगे और अपनी दो जून की रोटी की भी परवाह नहीं करेंगे। परिवार के साथ रहकर आधी पगार में कम से कम सबको रूखा सूखा खाना तो मिल जाएगा। – आगे |
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