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घर फूंक तमाशा - 2 शाम में सोनाराम टेकलाल के घर आ जाता या फिर टेकलाल सोनाराम के पास चला जाता। मुसीबतों के दो सहयात्री नये उपजे अपने दुखों की गुत्थियों को सुलझाने की नाकाम कोशिश करते और अपनी उदासी पहले से कुछ और बढा लेते। एक दिन सोनाराम ने बताया,
'' मेरी बिनब्याही बडी बेटी गर्भ से रह गई और कल वह
यह कह कर चली गई कि मैं जा रही
हूँ
बाऊजी! यहां आपकी कई
मुसीबतों के ऊपर एक बडी मुसीबत बन कर मैं नहीं रहना चाहती।
मेरा ब्याह करना
आपके वश में नहीं रहा यह जानती
हूँ।
इसलिये जोखिम उठा कर जा
रही हूँजो
होगा अच्छा ही होगा।
अच्छा नहीं भी
होगा तो इससे बुरा भी क्या होगा कि मैं कुंवारी मां बन जाऊं और लोग आपकी
हंसी उडाएं।'' टेकलाल का ध्यान अपनी बेटियों पर चला गया। बडी वाली अब वयस्क होती जा रही है, दसवीं में पढती हैलेकिन अब शायद ही आगे पढ सके। कहती है मन नहीं करता। नवीं कक्षा तक तो पांच अव्वलों में शामिल रहा करती थी। दसवीं में आकर फेल हो गयी। पटरी पर जब कुछ नहीं रह गया तो यह कैसे रहती! इस लडक़ी का कसूर नहीं है। और छोटी लडक़ी को बडे शौक से अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवाया था, सात साल पढी वह वहां। इस साल हटाकर सरकारी स्कूल में डालना पडा। बहुत कुंठित और हीन भावना से ग्रस्त रहती है वह वहां। छोटा लडक़ा अशेष उच्च प्रथम श्रेणी से इंटर पास करके इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की कोचिंग लेने लगा था। कहा था, '' आप मुझे चांस दीजिये पापा, मैं आपको इंजीनियर बन कर दिखा दूंगा।'' बेटे के आत्मविश्वास को देख कर टेकलाल अपने खयालों में पुलाव पकाने लगा था कि उसका यह होनहार और मेधावी बेटा लगता है उसकी मजदूर क्लास हैसियत को ऊपर उठा कर रहेगा। वह जानता है कि यों ऐसा कम ही होता है कि मजदूर का लगा ठप्पा मिट जाएफिर भी इस कम की पंक्ति में उसे शामिल होना है। टेकलाल अब समझ गया कि आसान नहीं है वर्गान्तरण। अशेष को कोचिंग छोडनी पडी। अगर प्रवेश परीक्षा पास भी कर जाता तो इंजीनियरिंग की ऊंची फीस कहां से आती? इंजीनियरिंग की ऊंची फीस अपने आप में एक तल्ख सच्चाई है कि गरीब के बेटे के लिये नहीं बनी यह पढाई। यह पढाई उनके लिये है जो सिर्फ मेधावी ही नहीं सुखी सम्पन्न भी हो। अशेष ने कहा, '' अब मैं कोई नौकरी नहीं करुंगा पापा। अब इस समाज के झाड झंखाड क़ो साफ करने के मुहिम में मैं शामिल हो रहा हूँ। मैं एक पार्टी ज्वाईन कर रहा हूँ, अब मैं उसका होलटाईमर सदस्य हूंगा। आप लोग मुझे भूल जाईए।'' टेकलाल उसका मुंह देखता रह गया। मुंह देखने के सिवा उसके पास मुंह भी कहां था कि उसे रोक पाता। अशेष उसके सामने ही घर की चौखट लांघ कर बाहर हो गया। उसकी मां उमा देवी अपने रुंधे गले से उसे पुकारती रह गई जिसे वह बुध्द की तरह अनसुना कर चलता बना। बंदी के लगभग डेढ साल तक हर महीने एक से दस तारीख के बीच आधी पगार मिल जाया करती थी। उसके बाद ऐसा होने लगा कि मिलने की तारीख अनिश्चित हो गई। लोग व्यग्र होकर प्रतीक्षा करते और तारीखें टलती रहतींकभी पच्चीस, कभी उनतीस, तो कभी इकत्तीस। एक दिन प्रबंधन की ओर से कहा गया कि पगार जब भी देनी होगी हम आपको खबर कर देंगे। अब कारखाने में आकर आठ घंटे बैठने की जरूरत नहीं है। आप अपने घरों में रहें या अन्यत्र कोई काम करना चाहें तो करें। मजदूरों की तरफ लोग संशय में घिर गयेकहीं यह प्रबंधन की चाल तो नहीं? कुछ लोगों ने अपनी आवाज
मुखर की,''
घर में आखिर बैठकर हम करेंगे भी क्या? यह
कारखाना हमारे लिये कर्मस्थल ही नहीं पूजास्थल भी है।
हमें यहां आने से
न रोका जाए।
बाहर हम काम भी क्या
करेंगे आने से न रोका जाए।
बाहर हम काम भी
क्या करेंगेकहां करेंगे।
अब इस उद्योगनगरी
में जीवित उद्योग रह ही कितने गये हैं कि हमें काम मिलेगा।'' टेकलाल ने इस निर्णय पर बहुत राहत महसूस की। घर में तीसों दिन, चौबीस घंटे रहना एक बहुत बडी यातना तो ही, दुनिया से बुरी तरह कट जाने की एक मर्मांतक वेदना भी है। पहले कारखाने से शिफ्ट शुरु होने वाले घंटे में अर्थात ए शिफ्ट के लिये सुबह छ: बजे, जनरल शिफट के लिये सुबह सात बजे, बी शिफ्ट के लिये दोपहर दो बजे और सी शिफ्ट के लिये रात दस बजे सायरन बजा करता था। अब सायरन नहीं बजता, इससे अब लगता ही नहीं कि यह कोई औद्योगिक नगरी है। सायरन डयूटी की मानसिकता बनाता था और भीतर एक नई तरंग पैदा करता था। टेकलाल सायरन के बिना भी ठीक सात बजे कारखाने में दाखिल हो जाया करता था। रास्ते में सोनाराम को भी साथ कर लेता था। सोनाराम की आदत थी - गेट पर पान की गुमटी से एक बंडल बीडी रोज खरीदता था। अब उसने बीडी पीनी छोड दी और न भी छोडी होती तो वह यहां से बीडी क़हां खरीद पाता। बीडी क़ा ही क्या, चाय पकौडी, भुंजा सत्तू, खैनी चूना आदि की कई गुमटियां जो यहां अवस्थित थीं, वे अब सब बंद हो गई हैं। पान के कई घनघोर शौकीनों ने अब पान खाना छोड दिया। कुछ तो ऐसे मजदूर थे जिन्हें पहले कोई लत नहीं थी, अब वे शराब की लत में फंस गये हैं। कर्जा ले लेकर शाम होते ही दारू की बोतलें लेकर बैठ जाते हैं। आबाद होने के लिये शायद कुछ बचा नहीं बाकि तो बरबाद होने की राह पर ही वे बढ ग़ये हैं। ऐसे आत्महंता मजदूरों की आधी पगार को भी हडप जाने के लिये कारखाने के गेट पर पठान मंडराते नजर आ जाते या फिर उधार वसूलने वाले महाजन - दुकानदार चक्कर काटते दिख जाते। सभी जानते थे कि किसी भी समय यह आधी पगार भी रुक सकती है और यह सच हुआ और एक दिन पगार रुक गई। मजदूर आंखें फाडे, मुंह बाये खडे रह गये। टेकलाल, सोनाराम आदि बैठे होते कभी वायर मिल के सामने, कभी रड मिल के सामने, कभी नट बोल्ट के मशीन सेक्शन के सामने, कभी बार्बेड वायर (कंटीले या फैन्सिग तार) मिल के सामने। ऑफिस की ओर से कोई चपरासी, क्लर्क या ऑफिसर आता दिखता तो उनकी उत्कंठा तीव्र हो जातीकहीं वे खबर करने तो नहीं आ रहे कि पगार आ गयी है। इस पगार को नहीं आना था और कई महीने हो गये वह नहीं आई। जाहिर है यहीं से पेट चलाने के घर के सामान औने पौने दामों में बिकना शुरु हो गये। सोफा के बाद टेकलाल ने टी वी बेच दिया। उसने बैंक से छत्तीस किस्त में चुकता होनेवाला कर्ज लेकर यह कलर टी वी खरीदा था। बैठे ठाले वक्त को गुजारने का यह सबसे बडा मुफ्तखोर साधन था। इसे लगातार दो तीन घंटे देखने पर दो तीन घंटे की अधमरी सी नींद आ ही जाती थी। अब फालतू बैठना भी मुहाल हो गया, सोना भी। जिस दिन टी वी बिका उसी दिन
बडा बेटा विशेष रेल किराये के नाम पर कुछ पैसे लेकर किसी दूसरे शहर चला
गया था, यह
कहकर कि, '' अब इस मरते हुए शहर में आप पर बोझ
बन कर रहना अन्याय है।
मैं जा रहा
हूँ
पापाकहां जाना है यह
नहीं मालूम तीन चार शहरों में
जोर
आजमाईश करुंगा,
जहां काम मिल जाएगा वहीं टिक जाऊंगा फिर वहां से आपको
खत लिखूंगा।'' कई महीने गुजर गयेआधी तनखाह मिलने की उम्मीद पर पानी फिरा का फिरा ही रह गया। इस बीच पता नहीं कौन सा वह स्त्रोत था जहां से खबर फैला दी जाती कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से मालिक की बात चल रही है, कारखाना जल्दी चालू कर दिया जाएगा। स्थानीय अकबारों में भी इस आशय की खबरें बीच बीच में एकाध बार छप जाया करतीं। टेकलाल को इस तरह की खबर पढना अच्छा लगता। एक दिन ऐसी ही खबर पढ क़र भाषा की भूमिका ने उसे बांध लिया और उसे लगा कि इसमें सच्चाई है। बहुत उत्साहित होकर वह घर लौटा। उमा देवी चौंक गयी,
'' क्या बात है, कोई नौकरी
तो आपको नहीं मिल गई? अर्सा बाद आप इतने खुश
दिख रहे हैं।'' पता नहीं उमा देवी को इस बात पर जरा सा भी यकीन नहीं हुआ और किसी खास मकसद से छपवायी गयी यह खबर अखबार का एक सफेद झूठ प्रतीत हुई। फिर भी पति के चेहरे पर अरसे बाद उभरे हर्ष के प्रतिबिम्ब को तिरोहित नहीं करना चाहती थी वह। अत: उसने भी कह दिया, ''
हां मैं ने सुना हैपडाैस की
औरतें चर्चा कर रही थीं।'' उसने पत्नी से खाना मांगा और बंधी खुराक से दो रोटी ज्यादा खाई। रोज उमा देवी के कहने पर भी अनमने भाव से खाना खाने बैठा करता था। उसने खाते हुए कहा, ''
तुम्हारे सारे कपडों पर कई
कई पैबन्द चढ ग़ये हैं। पहली पगार मिलते ही तुम्हारे और बच्चियों के नये
कपडे बनवा दूंगा।'' उस अखबार में कारखाना शुरु होने की जो खबर छपी थी वह दूसरे अखबार ने पूरी तरह निरस्त कर दी। उसने छापा कि मिल के मालिक को मिल चलाने से कोई मतलब नहीं। वह किसी से बात नहीं कर रहा। इस समय वह यहां की गर्मी से बचने के लिये पैरिस व लन्दन की सैर का मजा ले रहा है। अगर वह यह बेचेगा भी तो यहां दूसरा उद्योग लगेगा, दूसरे मजदूर बहाल होंगे। इस खबर को पढ टेकलाल पस्त हो गया और उसकी उम्र दो साल और फिसल गयी। अब तो बेटे पर ही आस बंधी थी। चिट्ठी का उसे इंतजार था। ऐसी चिट्ठी जिसे पढक़र उसकी उम्र चार साल पहले वाली हो जाती। लेकिन ऐसी चिट्ठी नहीं आई। आयी भी तो एकदम ठण्डी और दयनीय सी। '' आप लोग मेरी चिंता न करें। मैं मुम्बई में हूं और ठीक ठाक हूं।'' टेकलाल को लगा कि शायद उसे कोई काम मिल गया है । अगली बार जरा गर्मजोशी से लिखेगा। मगर अगली बार भी उसने ऐसा ही लिखा। ''
मैं ठीक हूं। आप लोग मेरी
चिंता न करें।'' कहने को तो कह दिया टेकलाल ने लेकिन अंदर से एकदम विचलित हो गया। रात में नींद तो नहीं ही आती थी। एकाध घंटे झपकी ले लेता था। इसी झपकी के दौरान उस दिन उसने एक भयानक सपना देखा - ''
विशेष को एक विदेशी गुप्तचर
संस्था के लोग समझा रहे हैं - तुम्हें हम पचास लाख रूपये देंगे। तुम मानव
बम बनकर फलां नेता को उडा दो। तुम्हारे पूरे परिवार का भाग्य खुल जाएगा।
एक आदमी की कुर्बानी से अगर परिवार के लोग रातों रात सुखी हो जाते हैं तो
सौदा क्या बुरा है?
ऐसे भी आदमी परिवार को सुख
देने के लिये जिन्दगी भर किस्तों में मरता ही तो रहता है। फिर क्यों नहीं
एक बार मरा जाए।'' अगले दिन उसने तय कर लिया कि वह मुंबई चला जाएगा। अब यहां रह कर होगा भी क्या। बेचने को तो कुछ नहीं बचा। वहां वह विशेष का पता लगायेगा, मुसीबत में उसे उनकी जरूरत होगी। कई लोग इस कॉलोनी से जा चुके थे, अब टेकलाल जा रहा था। शेष लोग उसे कारुणिक मुद्रा में निहार रहे थे। जड से उखडने की टीस सभी परिवार जनों के चेहरे से झांक रही थी। घर का सामान तीन चार बक्से पेटी में अंट गया। जब वह यहां आया था तो यही सामान ट्रक में लाना पडा था। सोनाराम उसे स्टेशन पर छोडने गया। भीतर से वह एकदम विव्हल था....कैसे कटेगी अब उसकी दिनचर्या.....किसे दिखायेगा अब वह मन के घाव? टेकलाल ने सोनाराम की हथेलियों को अपनी अंजुरी में भर लिया, '' जा रहा हूं सोनाराम, बेटे को ढूंढूंगा, मुझे भी अब लगने लगा है कि मेरा बेटा जरूर किसी संकट में फंस गया है। वह अच्छी स्थिति में होता तो सब कुछ साफ साफ बताते हुए मुझे लंबा खत लिखता। मैं वहां जाकर तुम्हें अपना पता भेजूंगा, अगर कारखाना चालू हो जाए तो मुझे खबर करना भाई।'' सोनाराम को लगा टेकलाल अपने बेटे को ढूंढने नहीं बल्कि खुद भी सपरिवार मुंबई में खो जाने के लिये जा रहा है। - जयनन्दन – पीछे |
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