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रंगमंच मरने से पहले उसने जो बयान मुझे दिया था, उसकी सच्चाई को झुठलाता हुआ महज एक सफेद झूठ मेरे सामने राक्षस की तरह खडा हंस रहा था। उस बयान के बाद परिवार के सभी लोगों को अपने बचाव का रास्ता मिल गया था। मगर उन्हें नहीं पता था कि मृत्यु की खाई में धकेला गया इन्सान इतनी आसानी से मुक्त नहीं होने देता है। मेरी डाईंग रिर्पोट के कारण सारा मामला एक जगह आकर ठहर गया था। वे सब उस जाल के भीतर फंस चुके थे और जाल से निकलने के लिये मेरा इस्तेमाल चाकू के रूप में करना चाहते थे। बीती वारदात का समूचा सच मेरे सामने खुलने लगा। मैं जानता हूँ कि सच को झूठ में परिणत करते समय उन्हें किन मानसिक यातनाओं से गुजरना पडा था। अपने तथाकथित पति को बचाने के लिये वह समय से पहले मर गई थी। वह स्वयं जली है! '' यह बयान दिला कर वे सब विजेता होने का दंभ पालने लगे थे। ये जगह ही ऐसी है, यहाँ जिन्दगी तिल तिल करके समाप्त होती है और लोग मृत्यु तथा मृतक के साथ झूठा, गन्दा खेल खेलते हैं। आतंक तथा भय के भूत खडे क़र देते हैं। बच्चों की जिन्दगी का सौदा करते हैं। मेरा मन खिन्न हो गया। पेशेन्ट अब भी आते जा रहे थे और उधर वो मेरा इंतजार कर रहा था, लम्बा, दुबला पतला युवक, जिसे उम्र ने असमय प्रौढ, परिपक्व तथा वाचाल बना दिया था। आँखों के आस पास की कालिमा को देखकर लोमडी क़ी याद हो आती है। ''
हमारे वकील का कहना है कि
आप अदालत में बयान बदल लेंगे तो मामला फिट हो जाएगा।''
जैसे ही मैं खाली
हुआ,
वह मेरे पास स्टूल पर आकर
बैठ गया। मेरा सिर भारी हो रहा था। मैं एक लम्बी, गहरी नींद लेना चाहता थामगर अब मुझे नींद नहीं आएगी। इस आदमी का चेहरा देखकर मेरा मन उद्विग्न हो उठता है। वैसे, डॉक्टरी के पेशे में यह सब चलता रहता है। ऐसे मामलों से मेरा साबका पडता रहता था, जली हुई देहों से चमडी क़ो प्याज क़े छिलकों की तरह उतार फेंकना और लम्बे समय तक इलाज करते रहना ईससे भी दुखद बात यह होती थी कि मरने वालों के साथ जो खेल यहाँ खेले जाते हैं वो कहीं न कहीं दिमाग को झकझोर देते थे। कोर्ट में जाने की नौबत संभवत: पहली बार आई थी और इसीलिये मैं भी खेल का अंग बना लिया गया था। सारे रिश्तों के असली रंग, स्वयं को बचाने की धूर्त तिकडमें और अंतिम क्षणों तक मृतक के प्रति अथाह बनावटी प्रेम, झूठे आंसू, ढोंगभरी सहानुभूति और बच्चों को सामने लाकर उनके प्रति प्रेम और विश्वास का प्रदर्शन ऐसे किया जाता है कि सचमुच ऐसे लगने लगता है कि यह दुनिया सिवा रंगमंच के कुछ भी नहीं है, लकडी से बनाया रंगमंच। जो जितनी तेजी से उछलता कूदता भावप्रदर्शन करता है वह उतनी गहराई से अपने आकर्षण में बाँधता है। अफसोस कि ऐसे नाटक देखने को मैं विवश हूँ। हाथ मुंह धोकर लेट गया। खाना नहीं खाया गया। मन के साथ तन भी थका था। आँखे मूंद लीं। शायद नींद आ जाये मगर अजीब सा शोर चारों तरफ घरघरा रहा था उस आदमी की उपस्थिति अब भी मेरे आस पास तैर रही थी। दर्दनाक अहसास वह मेरे हृदय में उतार कर चला गया। मैं ने उठ कर कॉफी बनाई और फिर लेट गया याद आया उसका नाम विमला था। रंग गोरा और बाल लम्बे थे, जो आधे से ज्यादा जल चुके थे। देह पर धब्बे मात्र रह गये थे। वह सुन्दर मांसल औरत थी। मगर कुछ ही पलों में उसकी सारी सुन्दरता, कोमलता तथा मांसलता उसके अपने ही शरीर से उठने वाली लपटों में झुलस कर अथजली लकडियों की तरह हो गयी थी भद्दीछिछली। मैं जानता था वह स्वयं नहीं जली है, जलाया गया था उसे। दो चार दिन से ज्यादा नहीं बचेगी। प्रिवारवालों को स्पष्ट बता दिया था कि चाहें तो अपनी अंतिम इच्छा पूरी करने के लिये उसकी सेवा कर सकते हैं। लपलपाती पीडा तथा इतने भयावह रूप में स्वयं को पाकर उसने सद्य:आक्रोश से भरकर सच्चाई उगल दी थी उस सच्चाई ने सबकी रातों की नींद हराम कर दी थी। सबके चेहरों पर हवाईयां उड रही थीं...फिर धीरे धीरे सबने उसे घेरना, पुचकारना शुरु कर दिया था ताकि बयान बदलवाया जा सके। उसको बचाने का मीठा आश्वासन देने के लिये वे कुछ भी करने को तैयार थे। मैं जब भी वहाँ जाता था, उसके नजदीकी लोगों को गिडग़िडाते या आंसू पौंछते देखता था। ''
डॉक्टर साहब बचा लीजिये
मुझे! ''
विमला मुझसे कहती। दर्द से
तडपती - चीखती - कराहती विमला आश्वस्त थी जिन्दगी को लेकर,
मगर उतने ही बेचैन
थे परिवार के लोग। जैसे जैसे समय खिसकता जा रहा था,
जेल की कोठरी बहुतों
के करीब आती जा रही थी। मौत से पहले एक एक शब्द उनके लिये आकाश कुसुम
बनता जा रहा था। वह याचना करने लगी मुझसे। वह क्यों नहीं समझती कि मैं एक डॉक्टर हूँ, परमात्मा नहीं। उसका शरीर चिकित्सा की सीमा से निकल चुका था। ''
हिम्मत रखो।''
मैं ने सांत्वना
देते हुए कहाएक झूठी और खोखली सांत्वना। रात भर में ही उसने अपने अपने मन को बदल लिया था। एक रात में उसने पूरी एक जिन्दगी अपने बच्चों की देख ली होगी उसकी इच्छा का अनादर नहीं किया जा सकता था। मैं निस्सहाय सा उसे देखता रह गया। उसने निगाहें बचा कर डबडबाई आंखों से दो तीन बार मेरी तरफ देखा...फिर सामने देखने लगी। मैं समझ गया था उसके शरीर को ही नहीं, हृदय तक को इन लोगों ने ममत्व की आग से सेंका होगा। मैं गहरी दया की भावना से भर कर उसके सामने जा खडा हुआ। वह पस्त सी पडी रही। सुकून तथा विश्वास का भाव उसके बुझते हुए चेहरे पर झलक रहा था। सारा द्वन्द्व, सारी पीडा, सारी लडाई जैसे समाप्त हो गयी थी। ''
वे लोग मुझे बाहर ले जाने
को बोल रहे हैं। मैं ठीक हो जाऊंगी। नयी चमडी लगवा देंगे।''
वह खुश होकर मुझे
बता रही थी एक डॉक्टर को, ''
प्राईवेट हस्पताल
में अच्छा इलाज होता है। आप वहाँ मेरा इलाज करेंगे?
'' बाद के दो दिनों तक सन्नाटा छाया रहा। वे रिश्तेदार, वे परिचित, वे बच्चे - कोई नहीं आया...यही आदमी चक्कर लगा जाता थाएक औरत रात में रुकी थी, इस उम्मीद के साथ कि एकाध दिन बाद तो मर ही जाएगी। ''
डॉक्टर साहब! आपने क्यों
मना कर दिया यहाँ से जाने के लिये?
वे कह रहे हैं
प्राईवेट में ले जाना है,
बाद में मुम्बई ले
जाएंगे। आपने रोक दिया! ''
अन्तिम दिन पूछा था
उसने मुझसे। – आगे पढें |
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