मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की
दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
डायरी
|
साक्षात्कार |
सृजन |
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
|
मुट्ठी भर उजियारा सुबह की सफेदी में अभी भी रात की श्यामलता थी। धुंध की हल्की सी परत वातावरण को बोझिल बना रही थी। बस अभी सुबह होने वाली थी। पूर्व की ओर आसमान में लाल रंग धीरे धीरे फैल रहा था। शन्नो ने जाली का पर्दा हटा कर देखा। सूरज निकलेगा उसने सोचा। तभी उसकी आँख सडक़ पार फैन्स पर बैठी लंबी पूंछ वाली काली टैबी कैट पर जा कर अटक गई। टेबी कैट किसी मुग्धा की भांति उगते सूरज को निहार रही थी, बिलकुल शांत, ध्यान मग्न मानो सूर्य देवता की आराधना कर रही हो। उसकी लम्बी काली पूंछ दीवार की इस तरफ लटक रही थी। सुबह की सफेदी और सूरज की फैलती लालिमा के बीच, सिलुएट बनी बिल्ली उसे रहस्यमयी लगी। तभी ग्रे यूनिफार्म पहने एक स्मार्ट लडक़ा कंधे पर बैग टांगे आया। सुख से बैठी बिल्ली की पूंछ बिलावजह झटके से खींच दी। बिल्ली एक दर्द भरे म्याऊँ के साथ पेवमेन्ट पर गिरी। बिल्ली भयभीत, बदहवास सडक़ पर भागने की कोशिश में तेजी से आती लॉरी के नीचे से जान बचा बेतहाशा भाग रही है। भाग तो शन्नो भी रही है और बेतहाशा भाग रही है। शन्नो के अंग अंग में वेदना की लहरें मरोड लेने लगीं। जख्मों पर पडे ख़ुरंट उखडने लगे। विधवा, बीमार सास और दो बच्चों के साथ उसे छोड सुभाष एक दिन चुपचाप भाग गया। पाँच साल उसने उनकी कोई खोज खबर नहीं ली। तीन महीने बाद बच्चों की सालाना फीस जमा करने जब बैंक से रूपये निकालने गई तो पाया सुभाष खाता झाड पौंछ गया था। इस बीच सास उसे खूब जली कटी सुनाती रही। हमेशा अपने भगोडे बेटे को बेकसूर और उसे कसूरवार ठहराया। हालांकि वह जानती थी कि उसका बेटा हद दर्जे का खुदगर्ज़ रहा है। पहले भी उसने उन्हें कम दुख नहीं दिये। किशोरावस्था में एक बार देशाटन के लिये उनके कंगन ले उडा था। न चिट्ठी न पत्री रोते रोते उनकी आँखों में रोहे उभर आए थे। दो साल बाद आया तो जैसे कुछ हुआ ही नहीं। चाँद से बेटे को सही सलामत देख, सारे दु:ख दर्द भूल गई। फटाफट रामकली की सुन्दरी भतीजी शन्नो से ब्याह दिया। सोचा नकेल पडते ही लडक़ा सुधर जायेगा। सुभाष सुधरने के लिये इस धरती पर नहीं आया था। काम धाम कुछ नहीं दुश्मन अनाज का। जल्दी ही दो जुडवां बच्चों को बीवी की कोख में डाल दिया। मन वही का वही बनजारा। वह कब रुकने लगा। कपडों की आलमारी में एक नोट छोड ग़या विदेश जा रहा हूँ बस। शन्नो को काठ मार गया। अडोस पडोस वालों ने शन्नो के सामने सुभाष की जन्म पत्री बांच दी। शन्नो ने माथा पीट लिया। शन्नो की सास ने बेटे को तो दोष नहीं दिया उलटे बहू को ही कोसने लगी, मरी अगर उसको खुश रखती तो भला वह छोड क़र ही क्यों जाता? दान दहेज का मोह छोड, ख़ूबसूरती देख सिर्फ दो जोडे में ब्याह लाई थी। पास पडौस में घर की बेइज्ज़ती न हो इसलिये शन्नो चुप लगा जाती। बुढिया बेटे के इंतजार में एक दिन सुबह सुबह सूर्य को अर्ध्य देते देते छत से जो गिरी तो फिर उठ ही नहीं पाई। सास के क्रिया कर्म में काफी रुपया पैसा खर्च हो गया। हाथ खाली पा शन्नो बौखला गई। किरायेदार ने किराया बढाने से साफ इनकार कर दिया। बचत के नाम पर बैंक में दस हजार की एफ डी आर बस। इन पैसों में अब काम चलने वाला नहीं, शन्नो ने सोचा। घर से जरा दूर आर्य समाज कन्या पाठशाला थी। उसी में नौकरी पाने के लिये एक दिन वह स्कूल के संस्थापक आनन्द बाबू के घर गई। गोरी चिकनी शन्नो की लम्बी काठी, सुगठित देह और लाचारगी आनन्द बाबू से देखी न गई। उसके अस्तव्यस्त जीवन को संवारने के लिये उन्होंने उसके घर आना जाना शुरु कर दिया। व्यवहार कुशल आनन्द बाबू जब भी घर आते बच्चों के लिये अच्छी अच्छी मिठाई और नये नये उपहार ले आते। जनम के भूखे प्यासे सोनू और मोनू के जीवन में हरियाली आ गई। आनन्द बाबू बिना किसी टेन्ट्रम के टीन एजर बच्चों के चहेते अंकल आनन्द बन गये। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। सोनू मोनू इंग्लिश और मैथ्स की टयूशन लेने आज़ादनगर गये हुए थे। आनन्द बाबू भी अपना काम निबटा घर जा चुके थे। शन्नो बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर बिस्तर की चादर बदल रही थी। तभी दरवाजे क़ी घण्टी बजी। तकिया हाथ में लिये लिये उसने दरवाजा खोला। कोट पैन्ट पहने, कन्धे पर बैग लटकाये, सिर पर बोला हैट लगाये, मुंह में चुरुट दबाये, चमाचम जूता पहने, गोरा चिट्टा सुभाष का रूप धरे कोई अंग्रेज साहब..थोडी देर संज्ञा शून्य खडी, वह सामने खडे फ़िल्मी अदा से मुस्कुराते सुभाष को देखती रही फिर हकलाती हुई, घबराई सी बोली, '' क...कौन सुभाष तुम! '' '' हाँ हाँ मैं ही हूँ....मेरा भूत नहीं, छूकर देख ले।'' सुभाष ने उसके लम्बे बालों को दोनों हाथों में फंसा कर जोर से उसे अपनी ओर खींचा। फिर चेहरे, गले और गले के नीचे गदराये उभार को होंठों से रगडते हुए उसे बांहों में भर कर यहाँ वहाँ इस तरह सहलाया दबाया कि उसकी नस नस में बिजली तडक़ उठी। शन्नो को लगा कि सुभाष पहले से कहीं और गोरा, लम्बा, तंदुरुस्त और रंगीला हो गया है। '' है...है क्या करता है...बच्चे तेरह साल के हो गये हैं। तुझे शर्म नहीं आती।'' उसने उलाहना देने की कोशिश की। पर सुभाष की गर्म सांसे, चुलबुलाते हाथ, उसके बदन के हर हिस्से में घुंघरु बजाने लगे। '' तेरह साल के हो गये तो शर्म काहे की। उन्हें नहीं पता क्या कि मैं उनका बाप हूँ। साले आये कहाँ से हैं, यहीं से न! '' उसने उंगली कोंचते हुए कहा। ''बाप के कौनसे फर्ज निभाए हैं तूने सुभाष'' सुभाष उसको बोलने दे तब न। वह तो उसके बदन में इस तरह बिजलियां भरता चला जा रहा था कि वह अपनी लालची देह और उसकी चुगलियों के आगे लाचार हाती चली गयी। मीठी मीठी बातों और इंग्लैण्ड से लाये ढेर सारे कीमती उपहारों से उसे सोनू मोनू और शन्नो को अपने बस में करने में देर नहीं लगी। सुभाष रात भर बैठा शन्नो और बच्चों से तरह तरह की अच्छी बातें करता रहा। किसी को कोई गिला शिकवा करने का मौका ही नहीं दिया। सुभाष ने मां के मरने का कोई दुख नहीं किया। दो महीने के अन्दर सब कुछ बेच बाच कर सोनू मोनू और शन्नो को लेकर लन्दन चलने की प्लानिंग करने लगा। शन्नो का मन सशोपंज में था। पर उसके पास कोई चारा भी न था। सुभाष की ब्याहता थी। सुभाष के लापता होने के कारण वैसे ही लोगों के मन में उसके प्रति कोई इज्ज़त हमदर्दी नहीं थी। यहाँ वहाँ आनन्द बाबू को लेकर पीठ पीछे होते भद्दे इशारों से वह पहले ही लहूलुहान पडी थी। यहाँ रहने पर सोनू मोनू के पढाई लिखाई और शादी ब्याह में आने वाली समस्याओं और खर्चों के बारे में सोच कर वह जाने के लिये राजी हो गई। औरत और फिर हाई स्कूल में आर्ट टीचर! उसकी इज्ज़त और तनखाह ही कितनी थी? क्या कर लेगी वह अपने बूते पर? उसने अपने बौनेपन को कोसा। जाते समय भी आनन्द बाबू ने बहुत मदद की। इंदिरा गांधी एयरपोर्ट तक उसे छोडने गये। सोनू मोनू बहुत एक्साईटेड थे। शन्नो जरूर दुखी थी। अन्दर अन्दर आनन्द बाबू भी खाली खाली और उदास महसूस कर रहे थे। इतने दिनों का साथ था। जैसे जैसे जाने का दिन करीब आता। शन्नो का संशय गहराता जाता था। सुभाष का क्या भरोसा? इतने सपने दिखा कर ले जा रहा है। एक पल नहीं लगेगा उसे तोडने में। पर उसके हाथ में क्या है? वह कर भी क्या सकती है? आगे पीछे सहारा देने वाला कोई नहीं है। चाची ने शादी के बाद मुडक़र देखा भी नहीं। जाने कौनसे तीरथ गई कि फिर लौटी ही नहीं। आनन्द बाबू ने कई बार गीली आंखों से उसे और सोनू मोनू को देखा। क्या पता कैसा भविष्य उसका इंतजार कर रहा है। न मालूम सुभाष कौन सा गुल खिलाए। परदेस में आनन्द बाबू जैसा दोस्त और रहनुमा कहाँ मिलेगा। वह आनन्द बाबू से अच्छी तरह विदा भी तो नहीं ले पाई। सारे टाईम पासपोर्ट, वीसा टिकट और एन्ट्री क्लियरेन्स के लिये चक्कर लगते रहे। जब भी बातचीत का मौका मिलता सुभाष बस लंदन के गीत गाता। वहाँ की सडक़ें शीशे सी चमकती हैं। रोशनी इतनी तेज होती है। सब कुछ ऐसा साफ सुथरा कि कुछ पूछो मत। सारे दिन घूमते रहो। मन करे तो खाना बनाओ, न मन करे टेक अवे ले लो। न झाडू लगाना, न कपडे धोना। सब काम मशीनों से होता है। वह सोचती सब कुछ मशीन से होता है तो एक दिन हम भी मशीन हो जाएंगे। ''
यहाँ जैसा सूखा वहाँ कहीं
नहीं मिलेगा।''
सडक़ के दोनों ओर लगे मरघिल्ले
पेडों की ओर देखते हुए उसने कहा। शन्नो को आधी बातें समझ में आती आधी नहीं। बच्चे जरूर अंग्रेजी फिल्मों, गानों और कपडों के बारे में पूछते रहते। रह रह कर शन्नो के हाथ पैर ठण्डे हो रहे थे। काश! आस पास कोई ऐसा होता जिससे वह कोई सलाह मशविरा ले सकती। लंदन आने पर उसे बहुत बुरा नहीं लगा। सब चीजे साफ सुथरी। रोज बासमती राइस और चिकन खाओ। सफेद झकाझक आटे की रोटी। दूध दही इफरात। सुभाष डोल पर था। पर उससे क्या? हर हफ्ते मिनीस्ट्री ऑफ सोशल सिक्यूरिटी जाकर पैसे ले आता। बीवी बच्चों के आने से अलाउंस बढ ग़या था। बिजली, पानी, गैस सब सरकारी खाते में। दो तीन महीने में सजा सजाया काऊंसिल फ्लैट भी मिल गया। जिन्दगी आसान हो गई। सोनू मोनू को वांडस्वर्थ के अर्नेस्ट बेवन स्कूल में बिना हील हुज्जत के दाखिला मिल गया। दोनों पढने में होशियार थे। बोलने चालने में थोडी दिक्कत हुई पर चार पांच महीने में सब ठीक ठाक हो गया। जल्दी ही नये परिवेश में घुलमिल गये। शुरु के दिनों में स्कूल के बच्चे उन दोनों को पाकी, डमडम और स्मैली माऊस कह कर चिढाते थे। टीचर मिस एलिस अच्छी और सहृदय थीं। एक बार पंजाब व गुजरात भी हो आईं थीं। उसने दोनों को बाईलिंगुएल हैल्प लगा दी। मेहनती बच्चे थोडे ही दिन में टॉप लिस्ट में आ गये। सोनू और मोनू की रुचियां आपस में मिलती तो थीं पर दोनों की प्रवृत्तियां बिलकुल भिन्न थीं। सोनू को एक्टिंग और लिटरेचर पसन्द था। वह तेज तर्रार थी। तो लैडबैक मोनू सैलानी तबियत का, किताबी कीडा, फिलॉसफर और कम बोलने वाला। सुभाष की चाल वही बेढंगी। हनीमून बस साल दो साल ही चला। उसने रात को मिनी कैब चलाने का धंधा अपना लिया। कभी घर आया, कभी नहीं आया। जब भी वह घर आता शन्नो उससे झगडा करते हुए जवाब तलब किया करती। सुभाष बगैर झगडा किये बिना हील हुज्जत के कहता - ''
डोल के पैसे पूरे नहीं पडते।
बच्चों की जरूरतों में कोई कमी नहीं होनी चाहिये इसलिये रात को मून लाइटिंग
करता हूँ।'' सोनू मोनू पढाई के साथ साथ लन्दन की तेज और उनमुक्त हवा से खूब प्रभावित हो रहे थे। कुछ अजीबोगरीब लडक़े लडक़ियां उनके दोस्त बन गये थे। वीकेण्ड पर टेस्को और मार्क एण्ड स्पेन्सर में काम मिल गया। हाथ में पैसा आया तो हिम्मत भी बढी । बाहर घूमना फिरना, छुट्टियों में बैक पैक लाद कर हिचहाइकिंग करते हुए पर्यटन करना शुरु हो गया। दोनों जब भी कहीं जाते शन्नो के लिये कोई न कोई अच्छा सा गिफ्ट जरूर लाते। पर शन्नो को यह सब बेमानी लगता। वह बच्चों की असाधारण बहुमुखी प्रतिभा से अनजान उनसे, तालमेल नहीं बैठा पा रही थी। सुभाष ज्यादातर बाहर ही रहता। अब जबसे सोनू मोनू यूनी गए हैं तो अकसर दोनों की शामें रैफरेन्स लाईब्रेरी में गुजरती। कई बार वो लोग टेम्पिंग भी कर लेते। अकसर खाना भी वहीं कैन्टीन में खा लेते। शन्नो दिनों दिन अकेली होती जा रही थी। उसे लगता वह एक दम फालतू हो गयी है। किसी को उसकी जरूरत नहीं है। शायद वह एक डोर मैट है जिसे जो चाहे पैरों तले रौंद दे। – आगे पढें
|
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |