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तूफान - 2 '' क्या क्या मिला ससुराल से?''
मेरी सहेली का खिलखिलाता चेहरा बुझ गया। उसकी आंखों में मचलती चंचलता की कौंध लुप्त हो गयी। श्वेत रंग की कीमती साडी में उसका व्यक्तित्व बेहद निखरा हुआ लग रहा था। कितना तो बदला था उसने स्वयं को। कस्बाई संस्कृति बातचीत तथा जीवन शैली से दूर वह एकदम सुसंस्कृत समाज का हिस्सा लग रही थी। उसकी भरी हुई गरदन में मोटी सी चेन, हीरे का लॉकेट ह्नगोल भूरी कलाइयों में कंगन और कानों में हीरे के टॉप्स पहने वह अब भी ताजातरीन फूल की तरह महकती हुई लग रही थी। तीन बच्चे होने के बाद भी उसने अपने स्वास्थ्य तथा फिगर का ख्याल रखा था। झाँई झुर्रियों से साफ चमकता हुआ उसका चेहरा उसके आनन्दपूर्ण जीवन को प्रदर्शित कर रहा था। उसको यूं हंसती मुस्कुराती मुक्त निर्भय देख कर मुझे अपार प्रसन्नता हुई अन्यथा जहाँ देखो वहाँ लडक़ियां ससुराल से तंग और परेशान रहती हैं। या असमय ही बीमार और बूढी हो जाती हैं। '' और क्या क्या किया?
मकान बनाया? प्लॉट तो खरीदा ही
होगा। '' अब वह व्यक्तिगत बातों से निकल कर परिवार
की व्यवस्था को टटोल रही थी। उसके भीतर अनुभव का समुन्दर जो समाया हुआ था। मैं हताश सी बाहर देखने लगी। जहाँ चिडिया गेहूँ के दाने चुग रही थी। '' और गोल्ड कितने तोला मिला था? जो पहना हुआ है असली है या नकली? मैं एक सवाल का जवाब देती तब तक वह दूसरा सवाल दन्न से दाग देती। उसके पास सवालों का खजाना था और वह खजाना फूलों से नहीं वाणों से भरा था। '' सब असली है।''
मैं ने न चाहते हुए भी सहज होकर कहा। कह तो दिया मगर मेरा सारा उत्साह ठण्डा पडने लगा। चिडिया वहां से उड चुकी थी। कुछ सूखे पत्ते बरामदे में हवा के संग इधर से उधर उड रहे थे। मैं तो दूसरी ही बातें करना चाहती थी। आज की नहीं...इस जिन्दगी की नहीं, इन सम्बन्धों की नहीं...अपितु उनकी जो छुपी पडी थीं काल की कन्दरा में, जिनमें जीवन का निथरा सौंन्दर्य तथा खुश्बू थी। मगर यहाँ तो उन बातों की उन राग रंगों की झलक तक न थी। '' और हस्बैण्ड के साथ तुम्हारी कैसी
बनती है? झगडे होते हैं?
पहल कौन करता है?'' अब वह पति पत्नी सम्बन्धों पर
आकर एक चिन्तक की मुद्रा धारण करके पूछ रही थी। ओह! मैं ने कभी सोचा ही न था न ऐसा गणित बैठाया था उसने जीवन के अंतिम छोर पर खडी मृत्यु से मेरा सामना करवा दिया। जीवन की लहराती नाचती...विराट... आलोकमयी ॠतु में अंधकार...आंधी तथा विपदाएं भी आ सकती हैं, इनका तो हमें अहसास तक न था। अब तक तो जीवन दौड रहा था द्रुत गति से निरापद, निर्द्वन्द्व। पढने पढाने में आनन्द आता था, संगीत से मन की थकान दूर होती थी। समयसमाज तथा सम्पूर्ण संसार से जुडे होने का अहसास करवाती थीं पुस्तकें...बिना कुछ पढे नींद ही नहीं आती थी मगर आज ताम्बई रंग की खूबसूरत दोपहर में मेरी सहेली ने अनिश्चित भविष्य की चिन्ताओं का जाल फैला दिया था। मैं ने देखा वही चिडिया आकर फुदक फुदक कर बारीक तिनके ले जा रही है। '' तुम तो निरी बुध्दू हो,
जैसे पहले थीं। यह अलग बात है कि तुम नौकरी में आ गईं और
मैं हाउसवाइफ बन कर रह गई। अपने अपने भाग्य की बात है। वैसे भी मेरे
हस्बैण्ड को पत्नी का कमाना नहीं अच्छा लगता। उनका ईगो हर्ट होता है।''
चोट तथा कटाक्ष मेरे से हट कर अब पति के अस्तित्व तथा
व्यक्तित्व पर की जा रही थी। फिर भी मैं सीधे सीधे जवाब देकर उसे मर्माहत
नहीं करना चाहती थी सो टाल गई। मुझे काटो तो खून नहीं।पूरी देह सिहर गई शर्म की तपिश से। संकोच की आंच से। यकायक इस हमले से। निजी बातों को यूं जगजाहिर किया जाये, यह मेरे लिये अजीब बात थी। '' क्यों नहीं बताओगी? इस तरह की बातें तुम किसी के साथ तो शेयर करती होगी। मुझे तो तब तक चैन नहीं मिलता, जब तक कि मैं आपस में शेयर न कर लूं। वाकई मैं ने क्या सोचा था तुम्हारे बारे में और तुम क्या निकलीं। हमें तो साफ लग रहा है कि तुम पति की पूंछ और बच्चों के साथ चिपकी रहने वाली आया मात्र हो। जीवन का आनन्द लेना नहीं जानतीं। तुम जीवन को नहीं जीवन तुम्हें निचोड रहा है। कभी स्वयं को देखा है आयने में। देखो गौर से। खुली आंखों से। दिन में दिखाई देने वाले चन्द्रमा की तरह हो गई हो रूखी..शुष्क...दूर...अलग थलग।'' कह कर वह विद्रूप और व्यंग्य से हँस दी। उसकी निर्मम उत्ताल लहर सी हंसी मेरी अन्तरात्मा में उतर गई। मुझे अपने हृदय में गुब्बारा सा फूटता लगा, फस्स फस्स। उसके चमकते हुए दांतों को देखकर भी मैं मुस्कुरा न सकी। मुझे लगा जैसे कोई पेड क़ी छाल को बेरहमी से भोंथरी छुरी से छील कर उसका रस निचोड रहा हो। मैं ने आंखें बन्द कर लीं तेज धूप चुभ रही थी। '' तुमने तो अपने आस पास एक खोल बना रखा है। जिसमें से निकलना ही नहीं चाहती हो। तुम क्या समझती हो तुम्हारा हृदय सीपी है जिसमें से मोती निकलेंगे। मोतियों की चमक तो छोडो, तुम्हारी आंखों का सूनापन और वेदना का भाव बताता है कि तुम अपने भीतर कैद हो। कुण्ठित हो। सहज बनो। आम औरतों की तरह।'' उसने विश्लेषण कर फैसला देते हुए कहा, ''तुम क्या समझती थीं मैं बहुत प्रभावित हो जाऊंगी यह सब देख कर। नहीं, मैं वो नहीं हूँ। मेरे ऊपर ये बनावटी रंग नहीं चढते।'' उसने शरारती बच्चे की तरह चिढाते हुए कहा। मैं निरुत्तर सी उसकी बातें सुनती जा रही थी। क्या बताती उसे कि जीवन के रंग उसकी गंध उसका पराग...आनन्द और सुख कहाँ...किस रूप में बिखरे पडे हैं। यह तो अव्यक्त अनुभूति है। अन्तरतम में डूबा हुआ जीवनानुभव है और वे परागकणों से बनी हुई दीवारें हैं, जिनमें बाहर - भीतर का निषेध था। वह लगातार जगह जगह से मेरे शरीर को छूकर गुदगुदाकर इशारे करके एकमात्र विषय पर आकर अटक गई थी। उसका अंतिम अस्त्र यहीं से छूटना शेष था। उसके हाथों में मेरा हाथ था। उसकी पकड से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह शर्त बांधकर बैठी हो और उसके लिये ये बातें किसी रहस्यमयी वस्तु से कम चमत्कृत व उत्तेजित करने वाली नहीं होंगी। '' बताओ न क्यों नहीं बताना चाहती हो? दिशा तो एक एक बात बता देती है। तुम क्यों नहीं बताना चाहती हो? क्या तुम अलग हो हमसे? अनोखी हो? मैं ने जितनी भी बातें पूछीं सब का गोल मोल जवाब दिया तुमने। सब ठीक तो है? पति पर निगाह रखती हो या किताबें ही पढती रहती हो।'' आह! मैं न चाहते हुए भी सोचने पर विवश हो गई कि भौतिक सुखों की विपुलता में यदि मानसिक तथा बौध्दिक विकास पूरा न हो तो मनुष्य की सोच सिर्फ बाह्य सुख साधनों तक सिमट कर रह जाती है और दैहिक सुख उसकी कसौटी बन जाते हैं। उसने मेरा हाथ झटका तो मैं चौंक पडी - '' मत बताओ।'' वह लगातार बोलकर मुझे कम से कमतर आंक रही थी। मुझे काट रही थी। प्याज क़े छिलकों की तरह एक के बाद एक परत उतारती जा रही थी। मैं उसकी नजरों में नाकामयाब मूर्ख तथा सीधी थी जिसने जीवन को नहीं समझा था, जीवन का सत्य नहीं पहचाना। '' तुमने तो मकान बनाया है,
पर रहती हो क्या उसमें? जहां
तुम्हारे हस्बैण्ड की पोस्टिंग होगी वहीं तो रहोगी।''
मैं ने समझाना चाहा उसे ताकि वह मेरी ओर से पूर्ण निराश
होकर न जाये। वह अपनी सफलता पर गर्व से भर कर बोली। उसके चेहरे पर टमाटर का रंग उतर आया था। मुझे चारों तरफ सघन सन्नाटा तथा उस सन्नाटे में घुले अवसाद की अनुभूति होने लगी। चिडियाँ जा चुकी थीं और वह जगह खाली पडी बेरौनक लग रही थी। मैं चुप हो गई। पराजय का बोध मेरे हृदय को स्पर्श करने लगा। अफसोस तो इस बात का हो रहा था कि वर्षों के उपरान्त मिली सखि को मैं खुश नहीं कर पा रही थी। मेरी उपस्थिति...मेरा व्यक्तित्व...मेरे पद की गरिमा मेरी गृहस्थी मेरे बच्चे मेरा शहर किसी ने भी उसे जरा सा भी सुख नहीं दिया था। हमारा मन भी तो कैसा होता है जो खुशियों की खोज में बाहर घूमता है। उडता है तितली की तरह और बाहर हासिल होता है...दु:ख अभीप्साएं असन्तोष! मैं क्या करुं? स्कूल के दिन सिर्फ दिन नहीं थे जीवन के खूबसूरत हिस्से की पूंजी थे जिन्हें समेटकर वह आई थी, लेकिन अब सब धुंधला और उडता हुआ लग रहा था। वह क्यों नहीं समझती कि जीवन एक बहती धारा है, जिसके किनारों पर फूलों की क्यारियां ही नहीं होतीं, बबूल के वृक्ष भी होते हैं लेकिन दुर्भाग्य कि मेरी सखि को मेरा जीवन ठहरे तालाब के पानी के समान लग रहा था जिसमें न कोई उत्तेजित रौरव करती तरंगें थीं न स्वतन्त्र बहाव के रास्ते। निरर्थक था सब। वह ऊब गई थी - बोर हो गई थी मेरे साथ। मेरी बातें मेरा वर्तमान सबकुछ शुष्क तथा अधखिला लग रहा था। '' बहुत ज्यादा बोर कर दिया तुमने तो।
मैं वापस होटल जाऊंगी।'' लेकिन वह रुकी नहीं। दूसरे दिन मैं उसको स्टेशन पर मिलने गई। ''तुम कब आओगी?
अरे तुम क्यों आने लगीं? तुम्हें मतलब क्या है हमसे?
उसने फिर मुझे कचोटा। मैं ने हंसते हुए अपने मनोभावों को बल्कि वेदना को छुपाते हुए कहा। जबकि मैं जानती हूँ कि आने वाले कई वर्षों तक मेरे लिये इन चीजों के बारे में सोचना व्यर्थ है क्योंकि मेरे लक्ष्य और सपने कीं और हैं - कुछ और हैं - न मेरे पास ये चीजें होंगी न तुम आओगी। जानती हूँ तुम्हारा स्वभाव ऐसा ही था। दूसरों पर हावी होकर अपनी बात मनवाना। मेरा मन गहरे विषाद में डूब गया। बात दिल की नहीं वस्तुओं की है। तब से लेकर अब तक वह इन्हीं बातों की पगडण्डियों पर चल रही है। आत्मा से निकले दोस्ती के भावों को कुहासे ने ढक लिया था। ट्रेन का समय हो गया था। मैं गले लगी तो मुझे उसके हृदय की वही ध्वनि सुनाई दी जो गहरे कुंए में खाली बाल्टी डालने पर गूंजती है। मैं ने उसका हाथ छोड दिया और पर्स में रखी अपनी किताबें टटोलीं, जो मैं उसे भेंट करना चाहती थी। लेकिन याद आया, किताबों के बारे में तो उसने कहा था, इन्हें क्या चाटोगी? इतनी किताबों के बदले कुछ और खरीद लेतीं। ये तो दो तीन रूपये किलो के भाव बिकेंगी या दीमक खा जायेगी। मैं ने जोर से अपना पर्स पकड लिया जैसे कोई हीरे जवाहरात संभालता है। मैं ने देखा उसने सीट पर बैठते ही अनमना सा चेहरा बना लिया। कुछ बोली नहीं। आंखों पर चढाया चश्मा उसकी सुरमई आंखों के भाव छुपा रहा था। पता नहीं क्या देखने या पाने या उडलने या जताने आई थी। ट्रेन के जाते ही मैं भीड से गुजरते हुए लौट पडी अपनी उसी दुनिया में, जहाँ जीवन के सत्य और संघर्ष खडे थे। अनायास ही मैं मुस्कुरा दी, लगा कोई तूफान मेरे ऊपर से गुजर कर गया है। |
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