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oये कुछ लोग! कुछ सम्बन्ध! - 2

मेरी हंसी ही नहीं थम रही थी उस दृश्य की कल्पना करकेवीरेन्द्र जिस तरह बताता है, और मैं ने उसके पिता को देखा है, उस तरह वीरेन्द्र उस घर का हिस्सा लगता ही नहींजब से नौकरी लगी है तब से उसके रहने में एक आभिजात्य का ढंग पनपा हैअच्छे स्कूल की पढाई, स्वयं के प्रति सजगता, विकास की चाह उसे उसके घर की निम्नमध्यमवर्गीय भावना से ऊपर उठाती हैकई बार उसे देख कर मैं ही सोचने लगती हूँ, क्या सचमुच वह मिलिन्द सोमन नहीं लगता? उस पर कानों में सोने की मुरकियां उसमें अतिरिक्त आकर्षण नहीं भरतीं?

'' तो छोटे भाई की शादी से पहले तुम पर दबाव नहीं था?''
''
हाँ नहीं तो क्या, एक पूरा बैटल लडा है मैं नेजीता भीपर अब सब नाराज हैंपापा तो बोलते ही नहीं वैसे नारायण ज्यादा छोटा नहीं तीन साल छोटा हैरिश्ते वाले तो अब भी खूब आते हैं''
'' तो कर लो शादी
''
'' शादी से नाराजग़ी थोडे ही है, कोई मिले तो
...मेरे लायक''
'' जैसे?''
'' समझदार, मैच्यौर जो मुझे संभाल सके'' अब हम साईंस म्यूजियम के पीछे की सुनसान सडक़ की बैन्च पर बैठे थे
सूरज के उतरते ढलते प्रकाश की रुमानियत में उसके शब्दों में मैं थी.... या खाली मुझे ही ऐसा लगा
'' और
''
'' और उसमें कुछ आपसा हो
'' एक लम्बी चुप्पी के बाद वह बोला,'' आप पहले क्यों नहीं मिलीं?''
'' क्या होता?''
'' होता क्या? मैं बेहतर व्यक्ति होता
शायद आपके तब कहने से आय ए एस भी बन गया होता'' कह कर उसने मेरी उंगलियों की पोर छू ली
'' अब जिन्दगी बना लो
अपना मनचाहा ही कर लो न सही और कुछ अट्ठाईस साल के लडक़े को अब तो सैटल हो ही जाना चाहिये''
'' ठीक है बॉम्बे चला ही जाता
हूँ। आप मुझसे सम्पर्क रखोगी? ''
''
हाँ।''

उस दिन बातें करते करते शाम की भी बस गलती से छूट गई थी और मेरी चिन्ता का पारावार न था
घर में बच्चे अब तक आया के साथ होंगेपति क्या सोचेंगेबार बार युनीवर्सिटी, लाईब्रेरी फोन लगा रहे होंगेउफ! क्या कहूंगीमेरी जान निकली जा रही थी मुझे अपनी इस गैरजिम्मेदाराना हरकत पर खीज हो रही थीवीरेन्द्र अपने कलीग की मोटरसाइकिल ले आया, सर्दियों की शाम के साढे पांच बजे अंधेरा घिर आया था अगली बस आठ बजे शिफ्ट के कामगारों को लेजाने आती थी जो किसी तरह भी सूटेबल नहीं थीचारा ही नहीं था, वीरेन्द्र के साथ बाईक पर ही जाना पडाअजब मानसिकता थी
जहां मन कहता बेवकूफ! कहां बह रही है? ये सब क्या है?
मन ही उत्तर देता: कुछ भी तो नहीं
महज दोस्त सा है, कितना छोटा है मुझसेकिसी से बात करली तो क्या?
फिर मन कैफियत मांगता: फिर ये उसकी देह से उठती जवान पसीने की गंध क्यों बहकाती है?
मन: नहीं तो! मुझे तो कुछ नहीं हो रहा

मन: लोग क्या कहेंगे
इडियट? पति के सम्मान की तो परवाह करउसके विश्वास का मान कर
मन: ओह! अब आगे से नहीं
...कभी नहीं वैसे गलत तो कुछ भी नहीं किया मैं ने कभी सीमा नहीं लांघी
मन: कितना वक्त लगता है सीमा लांघने में? आज उसकी बातें अच्छी लगती हैं
उसके प्रति सहानुभूति, उसका अलग तरह का व्यक्तित्व उससे जोड रहा है कल कोई नाजुक़ पल
मन: नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा
यकीन मानोमुझे उलझाओ मत यह महज एक जानपहचान है, दोस्ती भी नहीं है
मन: देख लो!
'' वीरेन्द्र यहीं रोक दो उस कोने में
यहां से पैदल चली जाऊंगी''
पौने आठ बज गये थे पहुंचते पहुंचते आखिर पच्चीस किलोमीटर का रास्ता था
ये लॉन में गेट पर ही खडे थे मुख पर कडा और चिन्ता का भाव था
'' अन्दर आओ रमा
'' ठण्डा स्वर किसी तूफान का संकेत दे रहा था
दोनों बच्चे साडी क़े आंचल से लिपट रहे थे

'' कहां गई थी गन्दी मम्मी?'' '' मम्मी आप कहां रह गईं थीं
भैया बहुत रो रहा था पापा ने कितना फोन किया''
'' रमा, तुमने आज मेरी जान निकाल दी होती
थोडी देर और नहीं आती तो मैं खुद पिलानी आतापुलिस में रिर्पोट लिखवातातुम न युनिवर्सिटी में थीं, न लाईब्रेरी मेंमैं ने वहां रहने वाले अपने एक सबोर्डिनेट को फोन कियाउसने ढूंढ डाला पिलानी शहर ज्यादा हंगामा मचाता तो बदनामी सी होती मेरी। कहाँ थीं?'' इनके तमतमाए चेहरे पर जहां आक्रोश था वहां मोह के आंसू भी थे आवाज और शब्द लरज रहे थे

'' मेरी एक क्लासमेट का बर्थडे था
सोचा जल्दी फ्री हो जाऊंगी तो साढे पांच वाली बस से निकल जाऊंगीपर बस छूट गईफिर उसका भाई जब आया अपने ऑफिस से तो उसने छोडा''
'' फोन क्यों नहीं किया?''
'' बाद में किया था, एंगेज आ रहा था
''
'' आ ही रहा होगा
मैं यहां वहां पूछ रहा था बच्चे कितना परेशान हुएआगे से यह बर्थडे वर्थडे मत अटैण्ड करनातुम्हें मैं जिद और तुम्हारे संतोष के लिये एम फिल करवा रहा हूँ। अन्यथा मैं नहीं समझता कि तुम्हें इस सब की जरूरत है इतने कष्ट उठा कर आरामदेह घर छोड क़र कोई समझदार महिला घर के बाहर नहीं जाना चाहती''
यह एक उदार व्यक्ति बोल रहा था जो स्त्री की आजादी में विश्वास रखने का दिखावा तो करता है पर उसे अकेला छोडते मन ही मन कांपता है

'' मैं ने उस वीरेन्द्र के घर भी फोन किया था
पर वह भी घर पर नहीं था''
आवाज जानबूझ कर ठण्डी व आवेग रहित बनाई गई थी
पर मैं जान रही थी कि उसके पीछे कहीं सन्देह जन्म ले चुका था
'' उसके यहां क्यों?''

'' तुम्हीं ने बताया था कि तुम्हारे चैप्टर्स वही टायप करवाता है
तो लगा कि कहीं चैप्टर्स के चक्कर में उसके साथ ''
'' नहीं नहीं, वह तो लाईब्रेरी में आता है तब कलेक्ट कर लेता है
वहीं दे जाता है'' मैं बेजा सफाई दे रही थी

पर गडबड हो चुकी थी
रायता फैल गया था जिसे मुझे समेटना थागृहस्थी मुझे प्यारी थी और वीरेन्द्र से एक निश्चित दूरी रखना तय कर चुकी थी मैंरखी भीवह परेशान था, घर पर कई बार ब्लैंक कॉल्स आये कई दिन तकमेरी लिखित परीक्षाएं थीं सो थीसिस पर ध्यान न देकर मैं घर ही पर रह कर पढ रही थीएक दिन दोपहर वह तीन चार ब्लैंक कॉल्स के बाद बोला
'' बात कर सकता
हूँ।''
''
हाँ। कहो''
'' कोई है घर में?''
'' नहीं
''
'' बच्चे
''
'' वो खेल रहे हैं अपने कमरे में
''
'' आप हो
कहाँ?''
'' यहीं
हूँ। एग्जाम्स की तैयारी कर रही हूँ।''
''
उस दिन कुछ हुआ था क्या, मेरे घर फोन किया था सर ने''
'' नहीं कुछ खास नहीं, उन्हें चिन्ता हो गई थी
''
'' मैं जा रहा
हूँ बॉम्बे''
'' कब? बस इसी मन्थ एण्ड में
''
'' अच्छा
''
'' आपको कुछ कहना नहीं है?''
'' क्या क
हूँ? आल द बेस्ट''
'' इतना फॉर्मल?''
''
अपना ख्याल रखना''
'' जाने से पहले मिलना चाहता
हूँ।''
'' इम्पॉसिबल
''
'' रमा जी! आप ऐसा नहीं कह सकतीं
आप नहीं मिलेंगी तो मैं घर आ जाऊंगा''
'' नहीं यह बेवकूफी तुम मत करना
इन्हें वैसे भी सन्देह है''
'' तो मिलिए न!''
'' देखती
हूँ।''
मैं नहीं मिली
उसका आकर्षण, उसका सम्मोहन उसके साथ रह कर उपजता थायहां अपनी सतृंप्त गृहस्थी में मुझे उसके प्रति सहानुभूति तक न होती थीपति की सुरक्षित बांहों के घेरे में मुझे कोई कमी नहीं महसूस होतीउनके प्रेम की संर्कीण रेशमी गिरहें भली लगतीं, लगता कि स्त्री को तो बंधन में ही सुख मिलता हैवह खुद तो विद्रोही और आज़ाद था ही मुझे भी अपरोक्ष रूप से उकसाता कि मैं इस संर्कीण विचारों वाले परिवेश के छोटे दायरे में अपना कोई विकास नहीं कर रही

मुझे उसके जाने की तारीख याद थी
उस महीने के अंतिम सप्ताह में ये शहर से बाहर गये थेमौका था पर मैं नहीं मिलना चाहती थी उससेजा ही रहा है तो अब क्या फायदा कोई मोह बांधने सेमैं बस उसके फोन की प्रतीक्षा में थीपर रात ग्यारह बजे बॉलकनी की तरफ की खिडक़ी में खटखट हुई, मैं बाहर गई तो वही था, मैं चेतना शून्य
'' इतनी हिम्मत वीरेन्द्र
''
'' सुनिये तो
''
'' मुझे नहीं सुनना तुम जाओ
''
'' ठीक है चला जाऊंगा
''
''
तुम ड्रिन्क करके आ रहे हो?''
''
हाँ, लेकिन पूरे होश में हूँ।''
'' अच्छा अन्दर आकर बात करो
'' उसे बॉलकनी में रुकने को कहकर मैं ने स्टडी को दरवाजा खोल दिया
'' ये कुछ किताबें आपके लिये
मेरे दोस्त का बॉम्बे का पता भी है''
'' इस सबकी जरूरत नहीं है वीरेन्द्र
अब अपनी जिन्दगी को देखो मुझे बख्श दो'' खीज रही थी मैं
'' आप क्या सोचती हो? आज का सम्बन्ध है यह? मैं जब से आप प्रेग्नेन्ट थीं तब से आपको प्यार करता
हूँ। करता रहता, आप मुझसे बात न करती तो भीबदले में क्या चाहा मैं ने? कभी मांगा कुछ बोलो? कभी छुआ तुम्हें बोलो?'' वह लडख़डा रहा था
'' धीरे बोलो वीरेन्द्र
तुम ऐसे मेरा जीवन ही बर्बाद कर दोगेये तो प्यार नहीं है''
'' ऐसा करना होता तो उठा ले जाता तुम्हें तभी, जब तुम्हारा वो लकी बास्टर्ड तुम्हें प्रेग्नेंट छोड क़र साईट पर रह रहा था
तुम्हें क्या पता ये अफसर साईट पर क्या गुल खिलाते हैंघर पर बहाना बना कर''
''
वीरेन्द्रअब लिमिट क्रॉस हो गई, जाओ तुम''
'' जा रहा
हूँ।'' कह कर निकल गया तीर सा मैं प्रत्यंचा सी कांपती खडी थीये कौन से अवचेतन का रूप था उसका? कितना खतरनाक था वह सब जो इसने भीतर दबा रका था

अगले दिन अविनाश के एक मित्र विकास जी दिल्ली से आये थे
अरसे बाद अपने किसी काम से आना हुआ था, अविनाश से फोन पर बात हुई उन्होंने अगले दिन लौटने का वादा कर उन्हें घर पर ही रुकने का आग्रह कियामन ही मन असुविधा व पढाई के हर्ज की बात सोच मैं उकताई थी पर उनके अनौपचारिक व्यवहार के चलते मुझे दिक्कत नहीं हुईवे दिन भर काम से बाहर रहे और लंच भी बाहर किया, रात को लौटे, डिनर करके सीधे अविनाश के स्टडी में लगे बेड पर सोने चले गये
मैं पढ ही रही थी ग्यारह बजे फिर खटखट हुई ओह कल सुबह पांच बजे की तो इसकी ट्रेन है अभी यह
यहाँ क्या कर रहा है? मन कांप कर रह गयामैं उठ कर गई स्टडी में पर्दा हटा कर झांका, विकास जी ने बॉलकनी का दरवाजा खोल रखा था और हतप्रभ खडे थे
'' क्या हुआ?''
'' पता नहीं, एक लडक़ा सा था, ड्रंक सा, हडबडाया सा
''
'' चोर
'' मैं खुद हडबडा कर दिशा बदल रही थी घटना की
'' नहीं चोर तो नहीं था ढंग का ही था, अच्छे
कपडों में, मुझे देखकर डर गया और बॉलकनी से कूद गया'' विकास जी मेरा घबराया हुआ चेहरा गौर से देख रहे थे
'' आजकल चोर भी तो
''
'' हां आजकल के लडक़े अपनी जरूरत के लिये चोरी भी करने लगे हैं
'' उन्होंने न चाह कर भी मुझे सहज करने के लिये मेरा समर्थन किया पर अविश्वास ज्यों का त्यों था उनकी आंखों में, पेशानी परमैं डर रही थी, विकास जी अविनाश को बतायेंगे तो वह विश्वास नहीं करेंगे, हुलिया बताने पर सब समझ आ जायेगाफिर इस अत्यन्त सुरक्षित इलाके में चोर या गुण्डे फटक भी नहीं सकते
'' चलिये, सो जाईए आप
गुडनाईट''

पर विकास जी ने इस बात का जिक़्र तक नहीं किया अविनाश से अगले दिन सुबह के नाश्ते पर
यह उनकी समझदारी थी वहीं इस बात का भी संकेत था कि वे समझ गये थे कि कहीं कुछ संदिग्ध थामैं शर्मसार थी, बेवजह हीमेरी क्या गलती थी? क्या मैं ने बढावा दिया उसे? आज तो विकास जी थे स्टडी में, कहीं अविनाश होते तो क्या सोचते कि यही सब होता होगा उनकी एबसेन्स मेंकहीं विकास जी ने किसी दिन इनसे इशारों में बता दिया तो? यहाँ न सही, दिल्ली जाकर फोन परमैं ने अपना चैन खो दिया था, पढती क्या खाक!

वह बॉम्बे चला गया
महीनों बाद फोन आया कि उसे कुछ मॉडलिंग के असाइनमेन्ट्स मिले हैंपहले भी भूखा नहीं मराएक दोस्त के साथ हॉस्टल में रहा, कम्प्यूटर के कुछ फ्रीलान्स काम करता रहाअब एक एडवर्टाइंजिंग़ एजेन्सी में ग्राफिक डिजाइनर का काम कर रहा है साथ ही मॉडलिंग भी मैं संतुष्ट थी कि चलो अपनी राह तो पकडी

सफलता ने उसे मुखर और जिद्दी बना दिया था
जब भी यहां आता, सीधे घर आ जाताइनसे बात करता

'' रमा जी, ने प्रेरित न किया होता तो मैं
यहाँ थोडे ही होताबस छ: हजार लेकर गया था आज महीने के तीस हजार कमाता हूँ। अपना फ्लैट ले लिया है''
ये बहुत खीजते

'' रमा मुझे चिढ है ऐसे फालतू लोगों से
कमाता होगामैं क्या करुं? कितनी बोस्टिंग करता है''

साल दर साल उसका आना यूं ही होता छ: महीनों में एक बार
मैं ने पी एच डी करके राजस्थान युनिवर्सिटी से एफिलेटेड पिलानी के ही एक अच्छे प्रायवेट कॉलेज में लेक्चररशिप जॉइन कर लीबच्चे बडे हो गय थेएक बार वह कॉलेज आया तब मैं ने कहा, '' अब सैटल्ड हो शादी कर सकते हो
'' बकवास है शादी
''
'' हां आज कह सकते हो
पैंतीस के ही तो होसाठ के होकर मुझसे बात करना''
'' पता है
पर आप ही कहो किससे कर लूं? ''
'' अपनी किसी कोवर्कर से
''
'' उनमें सबस्टान्स ही नहीं होता
सबकी सब अपने फीमेल होने का जमकर फायदा उठाती हैं। वहाँ प्रोफेशनलिज्म इस कदर हावी है कि किसी लडक़ी को न्यूड मॉडलिंग के ज्यादा पैसे मिलें तो वह खुशी खुशी वही कर डालती है''
'' तो मम्मी की पसन्द से
''
'' गांव की लडक़ियों से? कर भी लूं तो अब मेरे लायक कौन बैठी होगी?''
'' कोई तो होगी कहीं न कहीं
''
'' मैं शादी नहीं करने का मन बना चुका
हूँ। इस विषय पर घर में, दोस्तों में आपसे बहुत बार डिसकशन हो गयाअब गुंजाईश ही नहीं''
'' सुना है
वहाँ लिविंग इन''
'' सही सुना है
वह भी कर चुका मैंरहा एक मेरे जैसी ही कस्बे से आई लडक़ी के साथजगह की कमी थी, लडक़ी डीसेन्ट थीसोचा ठीक चला तोशादी कर लेंगेपर एक मॉडलिंग ऑफर और रैम्प पर जाने की महत्वाकांक्षा के कारण वह एक फोटोग्राफर के साथ घूमने लगी''
'' मन टूटा होगा
''
'' मन वन नहीं टूटता वहां
मन बचा ही कहाँ रहता है और शरीर के लिये शरीर की कमी नहींजरूरत जरूरत को खींच लाती है''
'' छि:
''
'' सच कह रहा
हूँ, रमा''
बदल गया था वीरेन्द्र
अब मैं रमा थीवहां जो सब अपने से बडों को नाम से ही बुलाते हैंनाम चलता है, सम्मानजनक सम्बोधनों में क्या रखा है? रिश्ते विश्ते कुछ नहीं सब प्रोफेशनलिज्म का हिस्सा बन गये हैं

सालों बाद एक दिन वह लौट आया
रीता हुआ सा, हारा हुआ साएक पैर खोकरकुछेक लाख की जमा पूंजी लेकर पिता के घर नहीं गयामेरे पास भी नहीं आया पिलानी में एक घर लिया, वहीं अपना कंप्यूटर सेंटर खोलाएक महीने बाद मुझे उसके दोस्त से पता चला तो मैं ने फोन किया
'' मुझे बताने की जरूरत नहीं थी वीरेन्द्र?''
'' आप दु:खी होतीं
''
'' नहीं, लौट कर अच्छा ही किया वीरेन्द्र
मिलना चाहती हूँ।''
'' आ जाओ
''
कॉलेज से मैं सीधे उसके दिये पते पर पहुंची
वहीं कंप्यूटर इंस्टीटयूट के कांच से मुझे वीरेन्द्र की लंगडाती, थकी टूटी सी आकृति दिखीमैं सिहर गई थीदाढी बढा ली थी उसने जिन्दगी से फिर लड रहा थाक्या यह आदमी लडने के लिये ही बना है?
मुझे देखते ही वह बाहर आ गया और अन्दर छोटे से घर की छोटी बैठक में हम जा बैठे
पूरा कमरा शेल्फों से भरा था और शेल्फ किताबों सेएक पेंटिंग थी बीच की खुली दीवार पर, किसी परिपक्व, पुष्ट देह वाली औरत की लेटी हुई मुद्रा में कलात्मक मगर नग्नशायद उसने बनाई थी या खरीदी थी परदे पतले नीले पारदर्शी
'' यह सब क्या हुआ था?''
'' मत पूछो
वह बेमुरव्वत शहर डस गया मुझे''
''
''
'' एक्सीडेन्ट हुआ था, खण्डाला से लौटते में, मेरा पैर फंस गया था भरे ट्रक के पहियों के नीचे, लोग भीड लगा कर खडे हो गये पर पैर नहीं निकाला
न वक्त अस्पताल ले गये गैंग््राीन हो गया और काटना पडा''
''
यहाँ किसी को नहीं बताया? अकेले''
''
हाँ। अकेले जूझायही अकेला रास्ता चुन लिया है मैंने। जहाँ दर्द और पीडा मेरे अपने हैं''
'' वीरेन्द्र!''
'' अरे! परेशान क्यों होती हो? यह है ना नकली मगर असली जैसा पैर पूरे तीन लाख का है

फेदरलाईट!''
''
''
'' बच्चे कैसे हैं? बडे हो गये होंगे
''
''
हाँ। अन्विता अब कॉलेज जायेगीउसे जयपुर भेज रहे हैं हॉस्टल मेंकार्तिकेय टैन्थ बोर्ड दे रहा है''
'' आप जरा नहीं बदलीं
वैसी ही हैंबूटा सा कदमासूम सा पतला लम्बा चेहरा वही ट्विन्कल करती काली आंखेंहां आगे की लटें सफेद हो गयी हैंडाय नहीं करतीं?''
'' ना
मुझे नेचुरली ओल्ड होना अच्छा लगता है''
'' कैसा चल रहा है?''
'' जमा रहा
हूँ। बहुत बदल गया है पिलानीजहां पहले बहुत कम कंप्यूटर अवेयरनेस थीअब घर घर में इन्टरनेट है मैं डिश केबल कनेक्शन का प्रोजेक्ट स्टार्ट कर रहा हूँ, अभी नेगोशियेशन चल रहा है''
'' अच्छा है
''
मैं स्वयं को रोक न सकी

'' वो पेन्टिंग तुमने बनाई है?''
'' नहीं, खरीदी
एक मंहगी एक्जीबिशन से पता है कब? जब फाके चल रहे थे बम्बई में यहां से गया गया था, एकदिन आवारा घूमते घुस गया एक आर्ट गैलेरी मेंयह मुझे अपनी कल्पना की रमा के बहुत करीब लगी थी। वहाँ से खरीद लीदोस्तों से उधार लिये पैसे बैंक में बचे खुचे पैसों का चैक काट दियातब से यह मेरे साथ है जिन्दगी के हर उतार चढाव में''

मेरा मन द्रवित हो रहा था
कितना पागल है यह आदमी इससे कभी मेरा मोह खत्म होगा? कौन है यह मेरा? मेरे गालों पर आंसुओं के रुके रेले बहने लगे थे
'' रमा! मेरे लिये रो रही हो? ऐ! इतनी भी बुरी नहीं जिन्दगी मेरी कि जिस पर रोया जाये
तुम्हीं हो जिसके लिये लौट आया वरना क्या था यहाँ? काम तो वहां भी चल ही रहा थापर बहुत अकेला था''
'' मैं तुम्हें क्या दे सकती
हूँ?''
'' मुझे कुछ चाहिये भी नहीं
बस तुम यहाँ हो, मेरी चिन्ता करती हुई इतना काफी है''

वह सीधा खडा था मेरे बहुत पास मुझे अपने बारे में सांत्वना देता हुआ
वही पसीने की महकपुरुषार्थ की गंधमैं ने सर टिका दिया उसके वक्ष पर वह हतप्रभ था! पर समेट लिया उसने मेरी छोटी कदकाठी के क्षीण कलेवर को, माथे पर चुम्बन लेने को झुका तो उसके कानों की मुरकियां हिलीं आंखों डूबी मुझमें  मैं उन आंखों के बरसों पुराने आकर्षण में बंध गई

अपनी अस्तव्यस्तता को समेट, तेज चलती सांसों के जाल से मुक्त हो हम दोनों उबरे तो उम्र के इस मध्यमावस्था के दौर पर भी दोनों के गाल लाल थे
हम कुछ बिना बोले चल पडे वह मुझे कॉलेज तक अपनी कार से छोडने आया

कॉलेज के गेट पर कार रोक कर बोला, '' इस एक पल का बहुत लम्बा इंतजार करवाया था तुमने रमा
कल्पनाओं का यह सार्थक पल तुमसे लिये बिना मर जाता तो  पर मैं नहीं चाहता कि ये सब हम दोहरायेंऔर जिन्दगी... यानि तुम्हारी जिन्दगी जो हमेशा से मेरी भी थी में खलल डाल लें''
''ठीक है
''
'' कोशिश करेंगे कि न मिलें
मैं फिर किसी मोह में नहीं पडना चाहताबहुत दुखाते हैं मोह''
'' ठीक है
''
'' फिर भी कभी मिलना चाहो तो मेरा सैलफोन नम्बर है ही तुम्हारे पास
''
'' मोह छोडना चाह कर भी नहीं छूटता तुमसे वीरेन्!''
मैं भरी भरी आंखों से हंस पडी थी
वो भी मुस्कुराया था, वक्त के थपेडों ने जहाँ उसकी संगमरमरी गोरी त्वचा पर अपने स्याह निशान छोड दिये थे, बढी हुई दाढी में सफेदी झांकने लगी थी उसकी हल्की हरी सी आंखों और मुरकियों का बांकपन मुस्कुराहट से मुखर हो गया थाउस पल मैं ने सोचा कि जरूर मिलूंगी, मेरा मन किया तोआखिर रूखी जिन्दगी में एक हरा भरा कोना यही तो है''

पर
कहाँ हो पाता हैघर आकर वास्तविकता के पथरीले संसार में उस हरे भरे कोने की याद तक नहीं आतीघर, पति, बच्चे, उनके कैरियर, सोशलाईजिंगअब जी एम हैं यह उस प्रोजेक्ट प्लान्ट केमैं हैड ऑफ द डिपार्टमेन्ट देखो न पूरा साल हो गया उससे मिले आज फोन करूंगी

'' वीरेन्द्र राव के घर से?''
''
हाँ, मैं उनका छोटा भाई बोल रहा हूँ।''
''
उनसे बात करवा दीजिये।''
''
आप कौन?''
''
मैं उनकी दोस्त हूँ।''
''
आपको मालूम नहीं कि वो।''
''
मुम्बई चले गये? ''
''
नहीं मुम्बई नहीं। पिछले साल ही उनको हार्टअटैक हुआ था इन्हीं दिनों और अब वो इस संसार में नहीं हैं।''
''
आप मिसिज रमा माथुर जी बोल रही हैं?''

मैं ने फोन काट दियाऔर निष्प्राण सी बैठी रही नहीं वीरेन्द्र... मैं तुमसे इतनी बेखबर कैसे रही? तुमने बताया तक नहींकुछ तो मानसिक सम्प्रेषण भेजा होताकुछ तो कहा होता जाने से पहले अपने घावों को आप सहलाते हुए बिना किसी की सहानुभूति लिये चले गये! क्या ऐसे ही होते हैं कुछ लोग! कुछ सम्बन्ध!

ये कुछ लोग, कुछ सम्बन्ध चुपचाप आपकी जिन्दगी में आकर दाखिल हो जाते हैं, वैसे ही एक दिन चले जाते हैं अपने लौटते पैरों के निशान मन के ताजा गीले सीमेन्ट पर हमेशा के लिये बना कर
वे पंख टूटी तितली या घायल चिरौटे की तरह आ बैठते हैं मन के आंगन में चुपचाप अपनी पीडा सहतेआपकी पीडा से साधारणीकृत होतेअगर आप सम्वेदनशील हो तो सहेज लेते हो उन्हेंक्या उन्हें सहेजने के लिये समाज की अनुमति जरूरी होती है? उनका निभाव तो मन के धागों का होता है, उससे किसी का क्या लेना देना? पर फिर भी वो सम्बन्ध बदनामी का जहर पीते मन के कोने में उगे रहते हैं अपने झरते पत्तों के साथतिरस्कार सहते हैं कम बोलते हैं आपके साथ रहते हैं, प्रत्यक्ष जीवन के समानान्तर तमाम अप्रत्यक्ष आपत्तियों के बावजूद  वे प्रेम करते हैं आपसेएक सम्वेदना भरी दृष्टि और सहानुभूति भरे स्पर्श की भूख होती है उन्हें

मनीषा कुलश्रेष्ठ

पहला पन्ना
 

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