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देश, आजादी की 50 वीं वर्षगांठ और
एक मामूली सी प्रेम कहानी -
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सिर उसी का पहले झुका था और वह उन्हें सकते की हालत में अपने ठीये पर छोड क़र बाजू की गली में सरक गया था
वे भी वहां नहीं रुकी थीं और एक तरह से वहां से लपकते हुए आगे निकल गयी थींसडक़ पर इस तरह से सामान बेचने का यह उसका आखिरी दिन थाउनसे और खास तौर पर उससे वह कई दिन तक आंखें नहीं मिला पाया थाअपने आप पर गुस्सा भी आया था कि साली यह भी कोई जिन्दगी है? हर वक्त कोई न कोई लडाई लडते ही रहोइस टुच्ची जिन्दगी से तो बेहतर था अनपढ ही होतेकम से कम इस तरह से अपने परायों के सामने नजरें तो न झुकानी पडतींञलांकि कई दिन बाद जब उनमें सामान्य रूप से बात चीत शुरु हो गयी तो उन्होंने इतना ख्याल जरूर रखा था कि इस बात का जिक़्र ही न चलेलेकिन वह सोच सकता था कि उसे और उसकी सहेलियों को कितना खराब लगा होगा, कि उनका क्लासफैलो, दोस्त जो पढाई में कम से कम उनसे तो अच्छा ही था और वे अक्सर उससे नोट्स वगैरह मांगा करती थीं, सडक़ पर इस तरह से

सुनीता ने बहुत बाद में उससे कहा भी था कि उस दिन वह घर जाकर बहुत देर तक रोती रहीइसलिये नहीं कि वे अचानक उसके सामने उस वक्त पड ग़ईं थीं जब वह फुटपाथ पर इस तरह की कोई चीज बेच रहा था उससे पहले भी वह उसे कुछ न कुछ बेचते हुए देख चुकी थी और इस बात के लिये उसकी तारीफ ही करती थी कि वह किसी भी काम को छोटा नहीं समझता था और सब काम करने के बावजूद अपनी पढाई के प्रति भी उतना ही सीरियस थाउसे रोना तो इस बात पर आया था कि उसे पढाई पूरी करने के लिये कैसे कैसे दिन देखने पड रहे थे

वह सुनीता की स्थिति को अच्छी तरह समझता थाअपने प्रति उसकी भावनाओं से वाकिफ थाउनका कई बरसों का परिचय था उन दोनों ने लगभग पूरा बचपन एक साथ ही बिताया थावह कुछ कहे बिना भी सब कुछ समझती थी और हमेशा एक मैच्योर दोस्त की तरह उसका साथ देती थीएक तरह से उसकी छूटी हुई पढाई फिर से शुरु कराने के पीछे सुनीता की ही जिद थी, वरना तो वह बारहवीं में एक साल फेल हो जाने के बाद पढाई को पूरी तरह अलविदा कह चुका थासुनीता उससे एक साल जूनियर थी उसके एक साल फेल हो जाने के बाद दोनों बारहवीं में आ गये थेउस साल भी वह लगातार सुनीता के कोंचने, समझाने और हर तरह से मनोबल बनाये रखने के कारण ही अच्छे नम्बरों से पास हो पाया थाबी ए के लिये उसका फार्म भी सुनीता ही लाई थीअपनी अनिच्छा के बावजूद सुनीता का मान रखने के लिये ही वह बी ए कर रहा थाबेशक बी ए करने के चक्कर में उसका आर्थिक ग्राफ बिगड ग़या था और उसके हाथ से एक ढंग की नौकरी भी जाती रही थीवह यह भी जानता था कि बी ए क्या एम ए भी कर ले, ढंग की नौकरी उससे सौ तरह के पापड बिलवायेगीलेकिन इसके बावजूड़ वह सुनीता का कहा नहीं टाल पाया थावह उसके लिये इतना कुछ करती थी उसकी सारी तकलीफों को वह बेशक कम न कर सके, लेकिन उसका मनोबल बनाये रखती

उसे यह भी पता था कि वह जो भी, जहां भी कोई धंधा कर रहा होता या जिस सडक़ पर वह समान बेच रहा होता या किसी दुकान पर टुच्ची सेल्समेनी कर रहा होता तो वह उस सडक़ से भी गुजरना टालती थी ताकि उसे यानी कथानायक भारत को बेवजह उसकी नजरों के सामने छोटा न होना पडेयह बात वह समझता था और वे दोनों कभी भी इस बात को अपने आपसी सम्बन्धों के बीच में नहीं लाते थेखास कर मोजों वाले किस्से के बाद तो सुनीता उसकी खुद्दारी का पूरा सम्मान करती थी

उन दिनों उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब चल रही थीइसके बावज़ूद उसकी पूरी कोशिश रहती कि उसके कपडे साफ सुथरे रहेंकई जरूरी चीजें टल रही थीं वह चाह कर भी अपने लिये ढंग के रूमाल और मोजे नहीं खरीद पा रहा थाजो दो एक जोडे थे उनका या तो इलास्टिक ढीला हो गया था या वे पंजों की तरफ बिलकुल फट गये थेसुनीता से यहीं एक बेवकूफी हो गई हालांकि उसकी खुद की कमाई नहीं थी, फिर भी वह अपनी तरफ से उसके लिये  दो जोडी मोजे और रूमाल ले आईवैसे इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि बात का बतंगड बनतावे दोनों पहले भी एक दूसरे को छोटी मोटी चीजें देते रहते थेलेकिन इन चीजों को देख कर वह बुरी तरह हर्ट हो गया एकदम चुप हो गया थाइस घटना के बाद उसने कई दिन तक सुनीता से बात नहीं की थीउसके हिसाब से यह उसके अहम् पर चोट थीउसे बेचारगी की हद तक शर्मिन्दा करने की बातशायद यह उसी घटना का प्रभाव रहा हो उसने उस दिन के बाद से आज तक मोजों वाले जूते ही नहीं पहने हैं वह या तो सैण्डल पहनता है या बिना तस्में वाले जूते जिनमें मोजों की जरूरत नहीं रहती

सुनीता से बेहद आत्मीय सम्बन्धों के बावजूद वह इन सम्बन्धों का हश्र जानता था और हुआ भी वही थाउसे अच्छी सैकेण्ड क्लास के बावजूद पढाई को फिर विराम देना पडा था और सुनीता सिर्फ पास भर होने के बावजूद एम ए करने के लिये अपनी बडी बहन के पास दूसरे शहर चली गई थीउन दोनों के बीच सारे वायदे और उस अनकहे सम्बन्धों के बारीक रेशे अपनी जगह पर थे और जिन्दगी की सच्चाई अपनी जगह परसुनीता की शादी वहीं से उसकी बहन ने अपने किसी रिश्तेदार से तय कर दीलडक़ा डॉक्टर थासडक़ के किनारे फेरी लगा कर सामान बेच कर पढाई करने वाला कथानायक निश्चित रूप से उस डॉक्टर का विकल्प नहीं हो सकतायहां भी उसने इसे अपनी एक बहुत बडी हार मान लिया थावह लडता भी तो किससे और किस आधार पर? लडने लायक आत्मविश्वास बेरोजगारों के पास नहीं होताउसने सुनीता की शादी के बारे में एक लफ्ज तक नहीं कहावह चुप्पी के गहरे कुंए में उतर गया

हालांकि शादी का न्यौता उसे भी मिला था, बल्कि सुनीता के हाथ से लिखा अकेला कार्ड उसी को भेजा गया थायह बात सुनीता भी जानती थी और चाहती थी कि वह न ही आये तो बेहतरजानता वह भी था इसीलिये तो उसकी शादी में जाने के बजाय उसने अपना शहर ही हमेशा के लिये छोड दिया वह बम्बई आ गया थाबम्बई - जहां ढेर सारे लोग सपने लेकर आते थे और धीरे धीरे सपनों को पूरी तरह भूल कर एक मामूली सी, गुमनाम जिन्दगी गुजारने लगते हैं ठीक कथानायक की तरहवह भी खाली हाथ यहां चला आया थाशायद यहीं किस्मत कुछ पलटा खाये

जिन भसीन साहब के बच्चों को वह टयूशन पढाता था, वे जब स्थानान्तरित होकर बम्बई आये तो उन्हीं ने कोंचा था, चले आओ यहांयहां कोई भूखा नहीं मरता एक बार किस्मत आजमाने में कोई हर्ज नहीं मैं अपने ऑफिस में ही तुम्हारे लिये कोई बढिया जॉब देखूंगातब तक तुम हमारे साथ ही रहना

सचमुच भसीन साहब की मेहरबानी से उसे फुटपाथ पर नहीं सोना पडा था, न भूखे रहना पडान ही खाने की एवज में होटलों में बैरागिरी करनी पडीक़र लेता तो बेहतर था भसीन साहब ने उसे छत और रोटी जरूर दी थी, लेकिन उसकी हैसियत टयूटर से गिरते गिरते घरेलू नौकर और बेबी सिटर की हो गयी थीऐसी जिन्दगी से तो बेहतर था फुटपाथ पर ही सो लेतावह सोया भी लेकिन बाद में जहां तक नौकरी का सवाल था तो मिस्टर भसीन कभी भी नहीं चाहते थे कि उसे नौकरी मिलेवे तो यही सोच कर उसे लाये थे कि वह रोटी और छत के एवज में उनके बच्चों को पढाता भी रहेगा, वे दोनों जब नौकरी करने जायेंगे तो दिन भर मुफ्त में बच्चों का ख्याल भी रखेगा

पांच साल पहले जब कथा नायक यहां आया था तब से आज तक उसने जितने भी अनुभव बटोरे हैं, जितने संर्घष किये हैं, उनपर चाहे तो एक पूरी किताब लिख सकता है, चाहे तो घंटो बिना रुके बात कर सकता हैलेकिन तकलीफ यही ही कि यह सोना इतना तप चुका है, इसने इतनी गरमी, ताप और मार झेली हैं कि अब वह बात ही नहीं करताअब एकदम चुप ही रहता है वह कई कइ दिन तक एक शब्द बिना बोले भी रह सकता हैकई बार तो पूरा पूरा दिन यहां तक कि शनिवार की शाम से लेकर सोमवार ऑफिस पहुंचने तक एक शब्द बोले बगैर सारा वक्त काट देता हैकहे भी तो क्या कहे? और किससे? हमारे कितने बच्चे हैं यह बताते समय हम गर्भपातों की संख्या नहीं गिनतेयहां तो कथानायक के पास सफलताओं के नाम पर मिसकैरिज और अबॉर्शन वाले मामले ही हैंसफलता एक भी नहींहां, इस शहर में भी उसकी एक प्रेमिका हैयही इकलौता प्रेम जो पिछले ढाई तीन बरस से किसी तरह घिसट रहा हैदोस्त एक भी नहीं

इस शहर में कथानायक की पहली पगार नौ सो रूपये थीजबकि लॉज में रहने खाने के ही साढे सात सौ देने पडते थेउसे लॉज से निकलने और आजदो हजार की पगार तक पहुंचने में पांच साल लग गये हैंइस बीच मैरीनड्राइव की इस मुंडेर से अरब सागर की इतनी लहरें नहीं टकरायी होंगी जितने धक्के उसने खाये हैं लॉज से झौंपडी, चाल, दफ्तर के चपरासी की बाल्कनी, बिस्तर भर जगह के लिये कभी वसई तो कभी चैम्बूर, कभी भायखला तो कभी उल्हासनगर बम्बई का कोई उपनगर नहीं बचा होगा कभी बिलकुल सडक़ पर आ जाने वाली हालत एकाध रात पार्क में भीनौकरियां भी इसी तरह बदलीं बेगारी की मार भी खाई और पैसे भी गंवायेकई बार पूरी पगार ही जेबकतरों का निशाना बन गयीकितनी ही रातें उसने दाल उबाल कर ब्रेड के साथ खायी है, दाल का पानी पी पी कर रात गुजारी हैपाव और गरम मीठे पानी का कॉम्बीनेशन बनाया हैभला ऐसे दिनों की गिनती रखी जा सकती है क्याबस, हर बार पगार का सबसे बडा हिस्सा उसे कमरे केलिये रखना पडता हैभूखे पेट ही सही सोने के लिये तो जगह चाहियेउसके पास इस बात की भी गिनती नहीं है कि कितनी बार उसने खुदकुशी करने की सोची और कितनी बार वापस जाने की पर दोनों ही काम वह नहीं कर पाया

आजकल उसे कट कटा कर कुल दो हजार मिलते हैंजिस जगह पर वह रहता है, वहां उसे रहने के पन्द्रह सौ देने पडते हैंबाकि पांच सौ रूपये जिन्दगी की बाकी जरूरतों के लिये हैंइनमें कभी कभार घर भेजा जा सकने वाला मनीऑर्डर भी शामिल होता हैउसकी सारी खुशियां, तकलीफें, बीमारी, कपडा लत्ता, ट्रेन का सीजन टिकट, चाय,टूथपेस्ट, ब्रश, कंघी, तेल, किताब, पैन, तौलिया, अकबार, जूता, मोजा वह पहनता नहीं, रुमाल, प्रेस, साबुन, सिगरेट, पान जो वह अफोर्ड ही नहीं कर सकता, दाढी, हेयर कटिंग, सिनेमा, मनोरंजन, उपहार, घर आने जाने के लिये किराया जो वह पांच साल में सिर्फ एक बार ही जुटा पाया है, और वह सब कुछ जो एक शहरी आदमी को सुबह से लेकर रात को सोने तक जुटाना होता है, उसे इन पांच सौ में ही जुटाने होते हैंये पांच सौ रुपये उसके वर्तमान के लिये हैं, उसके भविष्य के लिये हैं, जिनमें सिर्फ सालाना तरक्की पचास रूपये होती हैइसी में उसकी भावी गृहस्थी, मकान, परिवार, बाल बच्चे और उनका भविष्य और खुदके सारे सपने इसी रासि के सहारे पूरे किये जायेंगेकभी कभार बीमारी की वजह से उसकी पगार से कोई कटौती होती है या ओवर टाईम की वजह से या बोनस की कोई अतिरिक्त राशि मिलती है तो वह समझ नहीं पाता कि इसका क्या करे और कैसे करे

यहां पैर ठीक से जमा लेने के बाद शुरु शुरु में वह कुछ टयूशनें पढा लिया करता था हाथ खर्च लायक पैसे मिल जाते थे लेकिन अब सब कुछ छोड छाड दिया है वहां भी वही खिचखिचफलां दिन आये थे, फलां दिन नहीं, फलां दिन आये थे पर बच्चे की तबियत ठीक नहीं थी सो पढाया नहीं थाफलां दिन  फलां दिनअब वह कुछ नहीं करता, छुट्टी होते ही यहीं आ बैठता है और तभी जाता है जब खाना खाने और सोने का वक्त हो जाता हैवह हर तरफ से लापरवाह हो गया हैन कुछ सोचता है न ही सोचना चाहता हैपिछले दो तीन सालों से उसकी सारी शामें आम तौर पर यहीं गुजरी होंगीचुपचाप अकेले दूर क्षितिजों में जहाजों को, नीचे लहरों को या फिर सडक़ पर चल रहे लोगों को चुपचाप देखते हुएसिर्फ शनिवार को ही वह कुछेक वाक्य बोलता है जब कथानायिका आती हैउस एक घण्टे में वह कथानायिका से जितने शब्द बोलता है, उतने वह पूरे हफ्ते में भी नहीं बोलता

कथानायिका जैसा कि मैं ने बताया कि हिन्दी में एम ए है और कविताएं लिखती हैउसकी अब तक की पूरी जिन्दगी लगभग उसी तरह की रही है, जैसी कथानायक ने गुजार दी कभी पढाई के लिये, कभी छत के लिये तो कभी दो वक्त की रोटी के लिये हीद्याह भी अगर गिनने बैठे कि कुल मिला कर उसे कितनी बार अपनी पढाई स्थगित करनी पडी है तो उसकी कोई गिनती नहीं हैनौकरियों की गिनती भी वह अब भूल चुकी हैलेकिन एक बात हमेशा उसके साथ रही एक एक कदम आगे बढती बढती वह यहां तक आ पहुंचीवैसे उसके सामने भी कई बार जिन्दगी के शार्ट कट्स आयेवह चाहती तो उनका फायदा उठा कर कहां से कहां पहुंच सकती थी, लेकिन दिक्कत यही थी कि ये सारे शार्टकट्स उसकी देह से होकर गुजरते थे

इस देश में काम करने के लिये घर से बाहर निकली ज्यादातर लडक़ियों की यही पीडा थीदेश का और देश की लडक़ियों का जिक़्र आया है तो यह देख लेने में कोई हर्ज नहीं कि आमतौर पर बाकी लडक़ियां किस तरह के हालात से गुजर रही हैंआजादी के इस पचासवीं वर्षगांठ के साल में

वैसे तो इस देश में एक तरफ पढी लिखी, दूसरी तरफ अनपढ, घरेलू या नौकरीपेशा, कुंवारी या शादीशुदा किसी भी तरह की लडक़ियों की सामाजिक और आर्थिक हालत कभी भी अच्छी, सम्मानजनक और सुकूनभरी नहीं रही थी, लेकिन हर वक्त पैसों की तंगी, रोजाना की जरूरतों के और साथ ही उन जरूरतों को पूरी करने वाली चीजों के दाम बेतहाशा बढ ज़ाने के और किसी भी तरह से उन्हें पूरा न कर पाने की कचोट ने इधर उनके जीवन को और भी दूभर व तकलीफदेह बना दिया थापढी लिखी लेकिन मजबूरी से या स्वेच्छा से घर बैठी औरत को तो घर की चहारदीवारी के भीतर ही शोषित करने वाले कई हाथ थे लेकिन जो औरत मजबूरी के चलते दो चार अतिरिक्त पैसे कमाने की नीयत से घर से बाहर निकलती थी, उसका गला टीपने के लिये चारों तरफ कई जोडी हाथ उग आते थेएम ए, एम एससी और बी एड या एम एड वगैरह कर लेने के बाद भी उसके नसीब में गली मोहल्लों में हर चौथे घर में खुले पब्लिक स्कूलों की पांच सात सौ रुपल्ली की नौकरी ही बचती थी, जहां उसे सौ सौ बच्चों की क्लास के सात आठ पीरियड रोजाना लेने होतेये पांच सात सौ भी उसे अपनी तरफ से कुछ ढीला किये बगैर नहीं मिलते थेइस आर्थिक मानसिक शोषण के अलावा नौकरी की अनिश्चितता एवं दैहिक शोषण की आशंका अदृश्य तलवार सी हर समय उनके सिर लटकी रहतीकिसी भी अन्य बेहतर विकल्प के अबाव में वह वहीं और यूं ही खतती रहती थीखुशी, कुंठा सपने सब अपनी जगह होते थे और यह छोटी सी नौकरी अपनी जगह होती, जो बेशक एक ढंग की साडी भी नहीं दिला सकती थी, फिर भी कुछ तो देती ही थी कई जगह तो हालत इतनी खराब थी कि कुछ जवान औरतें सिर्फ इसलिये दो चार सौ की नौकरी करने के लिये दिन भर घर से बाहर रहती थी ताकि अकेले घर पर बैठे बूढे ससुर, जेठ या जवान देवरों की मुफ्त की खिदमतगारी न करनी पडे और इज्जत भी बची रह सके

यह हमारे वक्त की एक बहुत कडवी सच्चाई थी कि सडक़ के किनारे दिहाडी पर मजदूरी करने वाले मजदूर के लिये तो सरकार ने साठ सत्तर रुपये मजदूरी तय कर रखी थीस्टेशन पर हमाली करने वाले के लिये भी फी फेरा दस बीस रूपये का इंतजाम था, लेकिन एक एम ए और एम एससी पास किसी मैडम श्यामा के लिये या दिन भर किसी ऑफिस में खतने वाली कॉन्वेन्ट से पढ क़र आई मिस मैरी के लिये सरकार ने किसी न्यूनतम वेतन की भी जरूरत नहीं समझी थीजो भी चाहे शोषण कर सकता था लोग धडल्ले से कर रहे थेपूरे देश का यही आलम था

क्रमश:

बम्बई की आम मध्यमवर्गीय लडक़ियों के जीवन तथा कथानायिका के जीवन की कडवी सच्चाइयां अगले अंक में

 सूरज प्रकाश


 

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