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पत्थर की लकीर ''
किसकी चिट्ठी है?
'' '' प्रिय बुआ की चिट्ठी जो है!'' व्यंग्यात्मक लहजे में बोला उन्होंने। जैसे बुआ की बात तो बात चिट्ठी तक एक व्यंग्य भरा तनाव घर में पैदा कर देता। उनके चेहरे पर पडे बल गिलहरी की तरह फुदकने लगे! आंखें तरेर कर पति की तरफ देखा और आवाज में घुली कडवाहट कुनैन - सी लग रही थी। बुआ शब्द, बुआ सम्बोधन महिनों क्या वर्षों तक नहीं लिया गया था, इस घर में। बुआ शब्द उच्चारते ही सब चुप्पी साध लेते थे या उठ कर चल देते थे। इसी घर में जन्मी अपनी कामनाओं और सपनों के साथ बडी हुई, बुआ, जिनका बचपन और सुन्दर युवावस्था इन्हीं अमरूदों के पेडों के नीचे खेलते - खाते, घूमते - झूलते और अंगडाई लेते बीता था। यहां की मिट्टी में, फूलों, पेडों, बर्तनों और दीवारों में, बुआ के रंग - पसन्द - स्पर्श घुले थे। बडी बुआ एकाएक इस घर से ही नहीं - सबकी जुबान से ऐसे छिटका दी गईं थीं जैसे दूध में से मरी, पिचकी मक्खी को निकाल कर फेंक दिया जाता है। दुनिया की तमाम बुआएं इसी रिश्ते के नाते, निष्कासित कर दी गई थीं। लेकिन शैला ही एकमात्र ऐसी सदस्या थी जो बेशब्द चुप रह कर बुआ की उपस्थिति को जिन्दा बनाये रखती थी । कई बार तो उन्हें लगता शैला नहीं, उनकी अपनी बेटी नहीं, बुआ देख रही हैं, बुआ बोल रही है। एक दिन वे झुंझला कर, निराश होकर बोलीं, '' बिलकुल अपनी बुआ पर गई है, जिससे हमें नफरत थी, जिसका चेहरा मैं नहीं देखना चाहती थी, वही मेरी बेटी में आकर बैठ गयी है।'' ''
बिलकुल यही शब्द बोलती थी,
वही जिद,
तुम बच्ची हो!''
ऐसी ही बातों पर मां - बेटी बुआ पुराण को लेकर एक दूसरे पर
ताने कसतीं।
आक्षेप - बहस और समापन होता इस एक वाक्य से कि
''
तुम्हारे पापा तो उसके गुलाम रहे हैं।
तुम भी गुलामी करो।''
जब बहस की तपिश कम हो जाती तो वे जातीं और रूठी बेटी को
मनाने लगतीं।
दीवार की तरफ चेहरा किये बेटी किसी उपन्यास में डूबी होती
या गुमसुम रहती।
जैसे शरीर में स्पन्दन ही न हो या कभी देखती डायरी में कुछ
लिख रही है।
वे कविताएं होती थीं जो रेखांकनों के साथ मौजूद होतीं।
उनका मूल भाव सम्बन्ध होते।
सम्बन्धों की वेदना या कभी देखती कमरे में कोई पोस्टर लगा
है या चित्र जो हू - ब - हू बुआ की स्टाइल में लगे होते। '' बद्दुआएं क्यों देती हो मम्मी? बुआ का क्या दोष था?'' अपशब्द निकलने की ग्लानि से वे चुप हो जातीं। बुआ के नाम पर ताना मारकर वे दिल तो अपनी बेटी का ही दुखा रही हैं। वे चुप्पी साध कर बाहर निकल आतीं लेकिन उनका ध्यान वहीं लगा होता। उसके सोते ही फिर जा पहुंचती। चुपके से डायरी उठाती। पृष्ठ उलटती। बादल, आसमां, चांद, पेड, चिडिया। इसी कमरे में इसी जमीन पर गद्दा बिछा कर, औंधी पेट के बल लेटकर - पांव आसमान की तरफ पंखे की आकृति में मोड क़र और छातियों के नीचे तकिया लगा कर बुआ पढती - लिखती या छोटे से शीशे में अपना चेहरा देखती रहती थी। उन्हें याद है शादी के बाद वे किसी के यहां आमन्त्रित की गयीं थीं तब बुआ ने उनकी मुखमुद्राओं पर कविताएं लिख कर दी थीं। उनके जन्मदिन पर, मैरिज एनीवर्सरी पर, कार्ड पर उनकी कविताएं लिखी होतीं। उनके जाने के बाद उन्होंने सारे पोस्टर्स, गमले, पत्थर, खिलौने और किताबें उठा कर बाहर पटकवा दी थीं जैसे इतने वर्षों का गुस्सा तथा घृणा बाहर फेंक कर मुक्त हो जायेंगी। उनका घर में एकछत्र राज्य था। अब वे थीं और उनका घर। बच्चे थे और उनका निर्द्वन्द्व हुक्म चलाने का अधिकार। मगर उसी कमरे में जाकर वे चौंक गयीं। ''
कितना बदसूरत हो गया यह कमरा! कितना अंधेरा रहता है!'' '' यह सब क्या ठीक लगता है। तुम स्टूडेन्ट हो। कॉम्पटीशन की तैयारी करनी है या नहीं। हटाओ ये सब। इतने गमले, मच्छर आएंगे नमी के कारण।''
शैला उस समय नहीं जानती थी कि मम्मी उसकी रुचि को नहीं बुआ
की पसन्द को बल्कि उनकी छायाकृतियों को हटा देना चाहती थीं।
वे जब कभी दोपहर में आतीं तो सुनतीं कानों में रस घोलते
मधुर गाने रेडियो पर बज रहे हैं। जितना ही वे बुआ से दूर स्वयं को तथा अपनी बेटी को ले जाना चाहतीं उतनी वह पल - पल बडी होती बेटी के रूप में जवान होती जाती। जैसे वटवृक्ष अपनी जडाें के साथ फैलता जा रहा हो। बस इतना फर्क था कि बुआ चुप रहती थी और बेटी बोल रही थी जैसे अतीत ने वर्तमान में पहुंचकर अपनी कमी को पूरा कर लिया हो। वे उदास होकर किताबों में खो जाती थीं - बेटी बहस करने लगती है। तर्क करने लगती है। जवाब मांगती है। वे अपना विरोध बेवजह जताती थीं। मगर पिछले कुछ दिनों से वे देख रही थीं कि शैला भी बुआ की तरह खामोश हो गयी है। घण्टों एकान्त में बैठकर सोचती रहती है। पता नहीं वह क्या देखती है। इस खाली से दिखने वाले आकाश में और किन ख्यालों में डूबी रहती है। उसके पतले पतले पांवों की छाप उनकी छाती में पत्थर की तरह प्रहार करती है। हे भगवान यह लडक़ी मेरे हाथ में नहीं है। मेरी होकर भी मेरी नहीं है। उनका मन क्षोभ और वेदना से भर उठा। सामने रखा पत्र, जो ब्राउन कलर लिफाफे में बन्द है, उन्हें चिढा रहा है। उस पर चिेपके टिकटों में किसी कवि की तसवीर छपी है। सुन्दर अक्षरों में जमा कर लिखा है : सिर्फ शैला के लिये।' क्या होगा इसमें? क्या कोई लम्बा खत है। लम्बे खत में क्या बातें होंगी। डायरी । पेपर्स ! उन्होंने लिफाफे को उठा कर इस तरह हिलाया जैसे जौहरी किसी रत्न के वजन और गुणवत्ता का अन्दाज लगाता है। खोल कर देखूं क्या? उनके मन में तेजी से ख्याल आया। वे खोल सकती हैं। शैला नाराज हो जायेगी। मुझे इतना भी हक नहीं है कि मैं उसकी चीजें खोल कर देख सकूं। उसकी मां हूं मैं । वे उठीं और लिफाफे का किनारा पकड क़र फाडने को हुईं लेकिन उंगलियां कांप उठीं। मुझे क्या। लेकिन थोडी देर बाद घूम फिर कर उसी लिफाफे के सामने आ खडी हुईं। लिफाफे के अन्दर बन्द रहस्य अदृश्य रूप में निकल कर उनकी आत्मा में जा घुसा था। वे बेचैन हो उठीं। इतने सालों में एक कार्ड तक नहीं डाला। भाईदूज, रक्षाबन्धन, बर्थडे। सब निकल जाते थे पर कुछ नहीं आया कभी। शुरु - शुरु में सबको बुरा लगता था। फिर जैसे सबने उनका नाम लेना बन्द कर दिया था और इन्तजार करना भी ... वो मरे या जिन्दा रहे ... हमें मतलब नहीं। घर में घोषणा कर दी गयी थी। हमने ठेका नहीं ले रखा। जो किया सो भुगते। कहा जाता था और सचमुच औपचारिक रूप से यही सब हो गया। उन्हें अपनी जीत पर सुकून मिला था, वरना पूरे समय भाई अपनी बहन की चिन्ता में लगे रहते थे। शैला चार बजे आती है। आकर देखेगी तो चौंक जायेगी। खुश होगी ... इस लिफाफे को खोलकर तब बतायेगी और क्या पता वह बताती भी है या नहीं! वे घडी क़ी तरफ देखने लगीं। घडी क़ी सुइयां ठहरी हुई लग रही थीं। जब वे इस घर में शादी होकर आई थीं तब शैला की बुआ पढ रहीं थीं। दो चोटियां, मध्यम कद, हल्की लचीली कोमल - सी देह। हर पल उनके आस पास मंडराती हुई। भइया - भाभी की आदर्श सेविका। मान - अपमान से परे। उनके मुंह से एक शब्द निकला नहीं कि हाजिर हो जाती और उनको यह नागवार गुजरता था कि लडक़ी इस तरह उनके आस पास मंडराती रहे या हर बात में हर समय उसको शामिल किया जाये। ''
यह कैसी लडक़ी है,
ननद होने का इसे गुमान तक नहीं।'' ''
कब तक परेशान होते रहोगे। राजकुमार भी तो राजकुमारी चाहेगा
न। र्स्माट लडक़े को र्स्माट लडक़ी नहीं चाहिये?'' अम्मा कहते - कहते रह गईं थीं। पता नहीं क्या हुआ कि उनका मन वृक्षों की शाखाओं की तरह आकाश में टंगा रहने लगा था ... इस बीच फूल भी खिले थे। होलियां भी जली थीं। दीवाली के दीपों ने अंधकार में भी अपनी सत्ता कायम रखी थी। मगर बुआ के चेहरे की लौ गयाब हो गयी थी। हल्की - सी गुलाबी आभा जो पंखुडियों पर ही दिखती है। वो अचानक अदृश्य हो गयी थी। शनै: शनै: उतरती संध्या में गाढे होते अंधेरे में टिमटिमाते नक्षत्रों - सी वे दूर - दूर होती गयीं थी। शैला तब छोटी थी, उनके साथ खेलती थी। सोती थी। यही वह समय रहा होगा जब उनके स्पर्शों, उनकी सांसों, उनकी निगाहों से बरसती गन्ध, रसधार उसके भीतर समाती गयी। उनका रक्त उसके भीतर दौडने लगा होगा। वे समझ नहीं पाती सिवा इसके कि पति को अपने सम्मोहन में करने, चक्कर लगवाने और सम्पत्ति की सुरक्षा करते - कराते कब उनकी बेटी उनसे दूर होकर बुआ के करीब जा पहुंची थी। उनकी शादी के बाद शैला एकदम अकेली हो गयी थी। उनका कमरा कब शैला का कमरा हो गया था। उनके दहेज का बचा सामान - जेवर अब शैला के दहेज में रख दिया गया था। वे उस पीढी क़ी बडी लडक़ी थीं, शैला इस पीढी क़ी। शैला को मालूम था कि ससुराल में बुआ की स्थिति ठीक नहीं है। उनके जैसा स्वभाव वाला इन्सान कोई नहीं था। न वैसा आचरण, न वैसे संस्कार। यह भाग्य ही था। एक बार वे पता नहीं किस मजबूरी में हताश होकर स्वयं की रक्षा करने की गरज से आ गयी थीं। उनका सामना बरामदे में पडा था और इधर मम्मी का चेहरा और भी सख्त हो गया था। उनके होंठ इतनी जोर से चिपक जाते थे कि लगता था खुलैंगे भी या नहीं। इसी समय निर्णायक भूमिका निभानी थी। जरा - सी सहानुभूति दिखायी या समझाया तो वे अपने बच्चों सहित यहीं आकर रहने लगेंगी। इसलिये उपेक्षा जरूरी है। पराये होने का बोध करवाना जरूरी है। और वही किया था उन्होंने। न ज्यादा बात, न साथ में बैठना, न पूछना। एक अनकहा कसता शिकंजा। तनाव कि जाओ यहां जगह नहीं है। अपने हिस्से का, अपने प्रारब्ध का दु:ख अकेले झेलो। ''
भाभी,
बच्चों के कुछ कपडे रखे हैं?
लाने का समय ही नहीं मिला।''
वह देखती बुआ के लम्बे सांवले चेहरे और पपडाए होंठों पर
सूखी धरती सी दरारें खिंच आयी हैं।
बाल सफेद होने लगे हैं।
बुआ के पतले हाथों को छूते हुए वह सहम जाती थी।
उनके बालों का घनापन और कालापन सब जगह सराहा जाता था।
वही बाल अब दो उंगलियों के बीच आत जाते थे। उसने एक ही शब्द बोला था जबकि बुआ की आंखों में कितना कुछ झिलमिलाते, टूटते, गुम होते हुए देखा था। बुआ की अधसूखी काया को देखकर शैला रोने लगती। सचमुच एक सप्ताह बाद बुआ चली गयी थी। एक अवसाद भरा सन्नाटा छोडक़र। भांय - भांय करता कमरा और हरवक्त मंडराती बुआ की परछांई। कैसे जिन्दा है बुआ! वे मार खाती हैं, गाली खाती हैं और ये सब कुछ नहीं करते। क्यों! उनके पास पैसा नहीं है और ये देते नहीं, क्योंकि बुआ अब इस घर की नहीं हैं, बुआ उस घर की भी नहीं हैं। वहां पिता के घर की हैं, यहां पति के घर की। पति और पिता के बीच झूलती बुआ। वह चुपचाप रोती रहती थी। रात में उसे भयानक सपने आते। हर समय बुआ का चेहरा सामने रहता। वह सोते - सोते उठ कर बैठ जाती - '' बुआ!''
फिर घर में लगातार कई घटनाएं घटती गयीं,
जिनमें बुआ शामिल नहीं हुईं थीं।
पिता की सम्पत्ति का हिस्सा मांगा था उन्होंने! '' पापा, आपकी बहन ने नोटिस भेजा है। मेरी बहन भी वही करेगी देख लेना। शैला दी, तुम तो कह देना, मैं यूं ही दे दूंगा। दान कर दूंगा।'' घर में हंसी मजाक के बहाने उन्हें उछालने का कोई मौका नहीं छोडा जाता। शैला उठकर चल देती थी। और आज इतने वर्षों बाद! अब शैला शादीशुदा है। दो बच्चों की मां। मायके में आयी है, एक महीने के लिये। पति तीन महीने के लिये विदेश गये हैं।
उन्होंने लिफाफा उठाया और आर - पार देखने लगीं।
लेकिन कागज मोटा था।
बाहर से चमकीला।
तह किये गये पेपर्स का आकार बाहर से दीख रहा था।
ठीक चार बजे शैला आ गयी। शैला ने लिफाफे को फूलों की तरह पकड क़र देखा कि दिल भर आया। कई लहरें उठने लगीं भीतर। आंखों में उमडते आंसूं झर - झर बह उठे। महीनों - सालों का रुका प्रवाह पिघलने लगा। बहते आंसुओं के बीच पढने लगी - '' प्रिय शैला, मैं अपनी वसीयत भेज रही हूं, तुम्हारे नाम। जो मांगा था वो मेरा हक था। अपने अस्तित्व के लिये, अपने प्राणों के लिये उस समय उसी की जरूरत थी - एक ही मां - बाप की सन्तान में इतना अन्तर। वही नाम, कुल, गोत्र, वही पहचान। खून एक होता तो उसकी चीजें क्यों अलग हो जाती हैं? वही द्वन्द्व था जो सामने आया था। मेरी प्यारी बच्ची, मेरी तो उम्र निकल गयी, बेवा जीवन जीते हुएजो कोई भी एक क्षण जीना नहीं चाहेगा। काश मेरे पिता और भाई खडे हो जाते। वो तो नहीं हुए। मगर तुम खडी हुईं थीं। तुम्हारा वह आत्मिक लगाव, वो चिन्ता मेरी प्यारी रानी , तुम्हीं को क्यों! क्योंकि तुम भी उस घर की बेटी हो। उस घर की बेटियां हर बात में शामिल रही हैं, दु:ख में, बीमारी में सिर्फ शामिल नहीं हो पातीं तो जमीन के टुकडों और घर के आंगनों में। वे जमीन के टुकडे और आंगन किसी के जीवन को संभाल सकते हैं, सहारा बन सकते हैं जो वहां बेकार पडे होते हैं। काश कोई समझ पाता।''
उसके बहते आंसुओं और बढती सिसकियों को सुनकर वे तमतमा उठीं। ''
मम्मी,
यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा।''
कहकर शैला ने पत्र उनके हाथ से छीन लिया।
शाम को जब पापा लौटकर आये तो देखा बैग बाहर रखे हैं।
उन्होंने हैरानी से पूछा,
'' क्या बात है? क्यों जा
रही हो?'' और शैला अपना सामान गाडी में रख रही थी। वसीयत के पेपर टेबल पर पडे फ़डफ़डा रहे थे।
उर्मिला शिरीष |
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