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नेता - संस्कृति
रात के
साढे
आठ
बजने में कुछ ही मिनट बाकी थे।
लिकर-शॉप के बंद होने का टाइम साढे
आठ
है।घर
में एक बूंद शराब नहीं थी।वह
कार तेज चलाना रहा था मगर गुंजाईश नहीं थी
।
रास्ता
खाली मिलता तो ओल्ड माजदा शो-रूम तक पहुंचने में उसे तीन-चार मिनट ही लगते
लेकिन वीक-एण्ड होने की वजह से सडक़ पर भीड थी और गाडियां बम्पर टू बम्पर चल
रही थीं।वह
बार-बार कलाई पर बंधी घडी देखता स्पीडोमीटर के पास लगे कार स्टीरियों में
भी लगी घडी पर उसकी नजर बार-बार जाती,
लेकिन उससे क्या होने वाला था
...क्या
समय बदल जाता या दूकान खुलने-बंद होने के नियम।
लिकर-शॉप बंद भी हो जाती तो भी वह किसी दोस्त से शराब की बोतल ले सकता था।
हालांकि ,
ऐसा करना ममनू ह्य मना है।
मगर
लोग लेते-देते रहते हैं
..
उसे किसी से शराब मांगना अच्छा नहीं लगता ..
लोग लतिहड शराबी समझ लेते हैं।
उसे यह
भी यकीन था कि जो लिकर शॉप ठीक साढे
आठ
बजे हर रोज बंद हो जाती है वह वीक-एण्ड पर लगभग बीस मिनट और खुली रहेगी।
वीक-एण्ड पर भीड होती है और जितने लोग दूकान में घुस चुके होते हैं उन्हें
तो शराब देनी ही होगी।
व्यापार का यह भी एक एथिक है।
उसका
अपना अनुभव भी कुछ ऐसा ही है कि जब कभी वह साढे
आठ
बजे रात को वीक-एण्ड पर लिकर -शॉप में रहा है तो लोगों के आते-जाते रहने से
दूकान और दिनों की अपेक्षा करीब बीस-पचीस मिनट ज्यादा खुली रही है
..
जब
उसने कार पॉर्क की तो घडी क़ी सुई आठ बजकर तैतीस मिनट पर पहुंच चुकी थी
लेकिन उसने देखा कि दूकान का इग्जिट डोर अभी खुला हुआ था
. .
वह एक
अलग - सी तेज ग़तिविधि में कार से बाहर निकला कि दुकान के इण्ट्रेंस से अंदर
जाए तभी सामने सदाचारी जी आ गए।
एक पल
के लिए नजर मिलते ही वह ठिठका,
ऐसा ही कुछ शायद सदाचारी जी को भी लगा होगा।एक
अरसेसे उनसे कोई संपर्क नहीं रहा था।
सदाचारी जी उसी बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर अपनी कंपनी के दिए तीन बेड-रूम
फ्लैट के एक कमरे की एकोमडेशन में अकेले रहते थे।
अलग
बॉथ-रूम मिला था किन्तु किचेन अन्य कर्मचारियों के साथ साझे में था दो-चार
बार उसने उनका आमंत्रण स्वीकार किया था।
वह
खिलाने के शौकीन थे,
खासतौर पर मछली . .
लेकिन
कुछ ऐसी स्थितियां उपजीं कि उनकी गर्वोक्तीयों से वहां सबका मन ऊब गया और
उनसे संबंध न के बराबर रह गया था।
अपनी
किसी झक में एक दिन वे कुछ ज्यादा ही रूठ गए और बरसों तक हम रामजी की जिस
कारपेण्टरी पर प्रायः रोज मिलते थे वहां सदाचारी जी ने आना बंद कर दिया।
तकलीफ
सबको हुई थी।किसी
जगह कुछ लोग उठते-बैठते हों और अचानक उनमें से कोई आना बंद कर दे तो
अजीब-सा खालीपन तो लगता ही है।
एकाध
बार वे पहले भी रूठ चुके थे और तब उन्हें मनाकर लाया भी गया था।
इस बार
भी कुछ दिनों तक उन्होंने शायद यहसोचा कि उनकी मनौवल होगी और सभी
उठने-बैठने वाले उन्हें उनके कमरे से गलबहियां डालकर कारपेण्टरी पर जबरन ले
आएंगे।
लेकिन
इस बार वैसा हुआ नहीं जैसा सदाचारी जी ने सोचा था
।
और
महीने क्या ,लगभग
एक साल से ऊपर होने को आया उनसे कारपेण्टरी पर उठने बैठने वाले किसी का भी
कोई संबंध नहीं रह गया।
कुछ
लोग जो उनके साथ हरदम लगे रहते थे
,उन्होंने
भी आना बंद कर दिया।लेकिन
सदाचारी जी टोह लेने के लिए कि उनके इसतरह अड्डा छोड देने पर क्या
प्रतिक्रिया है,
अपने 'गण'
यदा-कदा भेजा करते थे
।
पर
,
जब गण भी जान गए कि उन्हें कोई भाव देने वाला नहीं तो
उन्होंने भी आना बंद कर दिया।
इसतरह
एक लम्बा वक्त वक्त निकल गया और उनसे कोई मुलाकात नहीं हो सकी।
हालांकि,
जिस बिल्डिंग में वे रहते थे ,
शराब की दूकान उसी में थी और महीने में आठ -दस बार वह
उस दूकान में जाया भी करता था।
कभी-कभी उनसे मुलाकात भी हो जाती थी लेकिन शायद इस मुलाकात को ही देर से
होना था।
इस
अन्तराल में वह अपने वार्षिक अवकाश में भारत से भी हो आया था
।
एक
अप्रिय अनुभव के साथ उस अनुभव को उसने सदाचारी जी के एक गण को इसलिए
सुनाया था ताकि वह उन्हें जाकर बताए लुतरी लगाएगा
. . . . . .'ग़णों'
का काम भी तो यही है।उस
गण ने अपना काम बखूबी किया भी था
. .
इस बात
को भी छह महीने हो चुके थे
. . .
कार
पार्क करके उतरते ही वे सामने पडे
और
उसके
हाथ मिलाते ही उन्होंनेकहा
, ''
मंत्रीजी . .
आ
रहे
हैं . . .बिजिट
पर बोलाया हूं . .''
''
मंत्रीजी
''
वह चौंका,
''
मंत्रीजी
. .अभी मंत्री हैं क्या . . बहिनजी की सरकार तो कबकी गिर गई . .''
उसके
सवाल से सदाचारी जी का चेहरा अचानकएक दम से बहुत तेज बुझा और बडी क़ोशिश से
उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की
. .
उसने
एक नजर लिकर शॉप की ओर देखते हुए सदाचारी जी से कहा
, ''
मंत्रीजी से मेरी मुलाकात हुई थी . . . . . . .
. .पिछले साल . .अगस्त में
. .बडी रद्द मुलाकात थी वो . .ख़ैर
, . .आ
रहा
हूं . . .बस,
एक मिनट में . दूकान बंद
होने वाली है . . .आप
यहीं रहें .
.'' वह तेज क़दमों से दुकान की ओर बढा . . .
अंदर
पचास से ज्यादा लोग थे।उसे
बाहर निकलने में बीस मिनट का समय लग गया लेकिन जबवह दूकान से बाहर निकला तो
सदाचारी जी उस जगह नहीं दिखे जहां वह मिले थे
।
आस-पास
भी नहीं . .क़भी-कभी
इंसान सामना करने की ताकत खो देता है . .
उसे
यक-ब-यक सबकुछ याद आया
. .यादें
सुख कम और तकलीफ अधिक देती हैं . .सुखद यादें
भी . . .
वह
व्यथित हुआ था
।
उसे
चोट लगी थी।
उसे
ग्लानि भी हुई थी।
मगर
फिर उसने सोचा कि यदि आदमी के साथ ऐसा कुछ न हो तो वह जगत् के क्रूर सत्य
से वंचित रह जाएगा।
विश्वास,
अपनापन आदि शब्दों की वास्तविकता अब अपनों के पास भी
क्यों नहीं बची या कि अधिकार सम्पन्न लोग कितने संस्कार विहीन और सामान्य
शिष्टाचार में कितने दरिद्र हो गए हैं , इसे
जानने के लिए ऐसी घटनाओं का होना जरूरी है . .
गर्मी
अधिक और बारिश बहुत कम होने की वजह से बढी लखनऊ की ह्युमिडिटी उसके जिस्म
से चिपचिपाहट की तरह से चिपकी हुई थी।
और अब
तो उसकी जिस्मानी चिपचिपाहट पर दो-चार मिनटों पूर्व हुई घटना की तलछट एक
कटुता बनकर अलग से चिपक गई थी वह उसे झाडक़र अपने जिस्म और मन दोनों से हटा
देना चाहता थ।मगर
कुछ घटनाएं भुलाने की कोशिश में ऐसी चिपकती जाती हैं जिनमें चुभन के सिवा
कुछ नहीं होता।एक
बौना कमरा और उससे बौना इंसान उसने पीछे छोड दिया था
. . .
वातानुकूलित कार में मित्र के पार्श्व में बैठते हुए उसने कहा,
''चलो यहां से . .''
पांडे
अगर पुश्तैनी धनी थे और बाहुबल से उन्होंने धन कमाया था तो सदाचारी जी के
परिवार में विदेश से पैसा आ रहा था
।यह
पैसा बोल भी रहा था और लोग उसे बोलते हुए देख रहे थे
. .
सुनने की तो बात ही और थी . .
''
. . . . . . . . . .''
उधर से बाबू कुछ बोलता तो कहते
, ''
दू गो त
लाइसेंसी हय न . .एक-दू ठो अइसन-वइसन भी रखो . .अउर कट्टा-फट्टा त हमेसा
पास में होना ही चाहिए . .''
ये
बातें सहराए आईन की बदर स्ट्रीट पर प्रायः रोज ही होती थीं ज़गह रामजी भाई
की कारपेण्टरी थी।
हर शाम
को सात-आठ लोग वहां इकट्ठा होते और दुनिया जहान की बातें होतीं।
रेडियो
से खबरें सुनने के बाद भारत में घटने वाली प्रमुख घटनाओं पर तो छीछालेदर
होती ही
।अमेरिका
कीमां-बहन भी अपने अस्तित्व पर रोतीं।अफगानिस्तान
और
लेकिन
सब लोगों की तरह उसे सदाचारीजी की बातों में बडप्पन नजर नहीं आता थ।
उसे
लगता था कि उनकी बातों में शेखी ज्यादा है या कि वह अपने बाबू जिनका नाम
किशन मुरारी है उसे बिगाड रहे हैं
।
क्षेत्र में मनबढ बना रहे हैं।
उसने
दो-एक बार उनसे कहा भी कि अपने बाबू को राजनीति के दलदल में कदम रखने से
बचाएं मगर सदाचारीजी उसके सुझाव पर अपनी कमीज,
ज़िसके नीचे वे बनियान नहीं पहनते थे ,
उसकी दो बटनें और खोल देते , ''
इलाका में केहू क माई सेर शेर नाहीं बियाइल हय
. .बाबू के नेता बने क हय . .''
बटन खुलने पर सदाचारीजी की जो छाती दिखती उसपर बालों का
नामोनिशान नहीं दिखता था।अपने
इलाके के पांडे से उनकी लाग-डांट थी।
क्यों
थी पांडे ने उनका क्या बिगाडा था यह उन्होंने कभी नहीं बतााया।
पांडे
पूर्वांचल के डॉन थे।
रेलवे
और अन्य विभागों के अलावा नेपाल के बडे-बडे ठेके उनके अलावा कोई दूसरा ले
ही नहीं पाता था
।
सभी
राजनीतिक दलों में उनकी पैठ थी
।
चुनाव
के समय उनका एक गणित होता था कि जिस दल के पक्ष में लहर हो उसमें शामिल हो
जाया जाएऔर अपने गणित की वजह से वे प्रायः उत्तर प्रदेश की हर सरकार में
मंत्री होते।
सदाचारी जी का उनसे कोई पुराना वैर रहा होगा कि वे उनके खिलाफ होने को अपनी
शान समझते थे।
पांडे
ही नहीं,
एक तरह से कहा जाए तो सवर्णों से सदाचारी की आत्मा दुखी
रहती थी . .
सवर्णों के बारे में तीखे जुमले और प्रचलित कहावतें उनकी जबान पर रहतीं
. .
वह फिर
उनके नेता बनने वाले भाई किशन मुरारी के भविष्य के बारे में कुछ न कहता और
बाद में तो उसने कुछ भी कहना बंद कर दिया
. .
उसे
सदाचारीजी के साथ के कई लम्हे याद आए
. .
गांव
में उनके दरवाजे पर बीस-पचीस आदमी बाबू के साथ हरदम रहते हैं
।
मिलने-जुलने वालों की तो कोई गिनती ही नहीं।
दो ताल
हैं जिनमें मछलियां पाली गई हैं।
मछलियां बेंची नहीं जातीं बल्कि दरवाजे पर आए लोगों को खिलाई जाती हैं
. .ज़ाते
समय उन्हें खांची भर भेंट भी की जाती हैं . . . .
रोज पन्द्रह-बीस किलो मछली तो पकती ही है . . .
मछली
के प्रति सदाचारीजी का अतिरिक्त लगाव ही होगा कि हर जुमें को चार-पांच किलो
मछली कई तरह से पकाना और मित्रों को दावत पर बुलाना उनका शगल है।
हुन्ना
और रोहू मछली उनकी खास पसन्द है।
हुन्ना
मछली की तारीफ में वे कहते
, ''
सब मछरियों से दुन्ना,
मछरियों में हुन्ना . . .'' लेकिन सहराए आईन
में सुरमई ( किंग फिश ) और पांफ्रेट के अलावा हामुर ही उन्हें जमती है
. .ख़िलाते और परोसते हुए कहते, ''
मछरी अगर सरसों में नाईं बनल त . .बेकारे
हय . .'' परोसते समय भी उनकी उदारता बरकरार
रहती उनका वश चलता तो सामने वाले का पेट वे केवल मछली से ही भर देते
. .भर ही देते भी थे . .।
एकबार
मुसफफा ( इण्डस्ट्रियल एरिया ) वाले शर्मा जी ने पूछ दिया,
'' मछली पालते हैं तो उसको खिलाते क्या हैं . .साल
भर में तो आधा किलो की होती होगी . . .''
एक तरह
से यह उनका व्यसन था वे यह भी चाहते थे कि उनके इर्द-गिर्द
लोग रहें . . . ख़ाना खिलाते हुए भी सदाचारीजी
बताते और बहुत खुश होकर बताते कि बाबू ने अपने इलाके में एक ठाकुर को भरी
बजार में थप्पड मार दिया है
।
कि
बाबू किसी को भी खडे-ख़डे उठवा सकते हैं बाभन-ठाकुरों की सारी हेकडी उनकी
. . . .में
घुस गई है।
क़ि एक
अहिरभकोल एक दिन जरा टेढिया गए तो बाबू बोला
, ''घरे
फुंकवा देंगे और . . . . . .
ओ
ही में
राखी-पाती कर देंगे पुलिस
. .उखाडते
रहि जाएगी . .
और
,
अब . .सरऊ पांडे क़ी त
. . .अ . . बोलतीए
बन्द हो गई है . .''
कभी जब
जोश के साथ होश होता तो कहते,
'' बाबू इलाके में सबका काम कराता है . . . . .भले
अपना पइसा ही काहें न खरच हो जाए . .अधिकारी-फधिकारी
इनकी . . . . . . .सब बाबू से घबराते हैं
. . .बूझते हैं . .ज़न्ता
उसके साथ है न . . .'' सदाचारीजी के इस बयान को
सुनकर गिरधारी बोल पडते, '' बाबू ,आज
जमाना ओही का है जिसके पास ताकत है . .अबकी
चुनाव त लडवाना ही है . . टिकट नहीं मिला त
. .अ . .निरदले सही
. .लेकिन अबकी बाबू किशन मुरारी लडिहें चुनाव
. .''
और
सचमुच सदाचारी जी और उनके भाइयों ने बाबू किशन मुरारी को विधान सभा का
चुनाव लडवा ही दिया।
यह अलग
बात हुई कि बाबू किशन मुरारी कुल सात हजार वोट ही पा सके,
लेकिन उनके चुनाव लडने से अन्य दलों को उस क्षेत्र में
उनकी उपस्थिति का एहसास जरूर हो गया।
तकदीर
की बात कि जो सरकार बनी वह सालभर भी चल नहीं सकी और मध्यावधि चुनावों की
घोषणा हुई।
राजनीति में नई-नई जन्मी एक बहिनजी ने किशन मुरारी को अपनी पॉर्टी से टिकट
दे दिया।
कहनेवाले कहते हैं कि उन्होंने उसी को टिकट दिया जिसने उन्हें मुंहमांगी
रकम दी
।
कहने
वाले यह भी कहते हैं कि बाबू किशन मुरारी ने भी अपनी औकात से बाहर जाकर
बहिनजी की झोली भाइयों की जेबें खाली करके भर दी।
चुनाव
में भी सहराए आईन और बैंकाक से पैसा आया और हुआ यह कि बाबू किशन मुरारी
चुनाव जीत गए पिछले चुनाव में भी किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था
।
मिली-जुली सरकार बनी थी जो साल भर में ही गिर गई थी
।
इस बार
भी वही नतीजे रहे
।लगभग
दो महीनों तक सरकार का गठन नहीं हो पाया
।
बहिनजी
जिदिया गई थीं कि वही मुख्यमंत्री बनेंगी अन्यथा फिर से चुनाव हो
।
लाखों
रूपया खर्च करके जीतने के बाद इतनी जल्दी कोई चुनाव नहीं चाहता था
।
बहिनजी
का तिरिया हठ पूरा हुआ।
जिद
पूरी हुई और उनसे बडी पॉर्टी ने कलेजे पर पत्थर रखते हुए उन्हें समर्थन दे
दिया।
सरकार
का गठन हुआ और उसमें बाबू किशन मुरारी को राज्य- मंत्री पद पर आसीन होने का
मौका मिल गया सहराए आईन में सदाचारीजी और गिरधारी ने बर्फी बांटी
।
फोन से
उन्होंने पता किया और सबको बताया
, ''
बंकाक में भीं भी बर्फी बंट रही हैं . .''
उसने
भी टी वी पर समाचारों में बाबू किशन मुरारी के जीतने और मंत्री बनने की
खबर सुनी और सदाचारी जी को बधाई दी।
इस बात
को दो वर्ष हो गए लेकिन उसे कभी यह खयाल भी नहीं आया था कि मंत्रीजी से
मिलना चाहिए जबकि वह दोनों वर्ष छुट्टियों में भारत गया था।
वह यह
भी भूल गया था बाबू किशन मुरारी मंत्री हैं और उनके दो बडे भाई सहराए आईन
में उसके मित्र हैं
।
वह तो
हुआ यह कि .
.
वह
अपनी वार्षिक छुट्टियों में हर साल की तरह अपने कुछ दोस्तों से मिलने के
लिए प्रदेश की राजधानी में था कि एक पत्रकार मित्र के पास छोटी सी पुस्तिका
दिखी जिसमें प्रदेश के मंत्रियों के फोन नम्बर और पते-ठिकाने लिखे थे।अचानक
याद आया कि किशन मुरारी भी तो मंत्री हैं।
क्यों
न माननीय मंत्रीजी से भी मिल लिया जाए और छुट्टी के बाद सहराए आईन में वापस
जाने पर सदाचारीजी को बताकर चौंकाया जाए कि उनके बाबू से मिलना कितना
रोमांचक और सुखद
मंत्रीजी का फ्लैट डुपलेक्स था।नीचे
हॉल में बहुत से लोग इधर-उधर फैले थे।
वह एक
कुर्सी पर बैठा ही था कि एक आदमी बर्फी का खुला डिब्बा और एक गिलास पानी
लिए आ खडा हुआ उसने सिर्फ पानी पिया तबतक दूसरा आदमी आ गया
, ''चलिए
मंत्रीजी . .''
सीढियों से वह पहले फ्लोर पर पहुंचा साथ वाले आदमी ने दरवाजा खोला और बाहर
रह गया
।
कमरे
में मंत्रीजी अपने डबल बेड पर पायताने की ओर स्लीवलेस बनियान और घुटनों तक
मुडी धोती को लुंगी की तरह पहने पालथी मारे बैठे थे।अच्छा-खासा
शरीर
।गरदन
और सिर में भेद कर पाना कठिन था।बांहों
की मछलियां और मुडे हुए पैरों की मांसपेशियां बता रही थीं कि सामने बैठा
आदमी देह बनाने का शौकीन है।
उसे
याद आया कि कभी यह नौजवान कुश्ती में जिले का केशरी रह चुका है।
बेड की
चादर मुचडी हुई थी और उसपर जो दो तकिए थे उनके खोल नदारद थे।
मंत्रीजी के दोनों हाथों में रिमोट था जिससे वे पांच फिट दूर कोने में रखे
टी वी क़े चैनल बदल रहे थे।
उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं।
उसने
देखा कि टी वी स्क़्रीन पर भी कुछ नहीं था मगर मंत्रीजी चैनल बदलते जा रहे
थे।
दो-चार
पलों तक उसने सोचा कि मंत्रीजी कोई खास कार्यक्रम देख रहे हैं और इस समय वह
अचानक परदे से गायब हो गया है लेकिन जब शून्य और खामोशी में कई पल गुजर गए
तो नाकाबिलेबरदाश्त चुप्पी को तोडते और एक कुर्सी को उनके पलंग के पास
खिसकाकर बैठते हुए उसने कहा,
'' मंत्रीजी . . . . . . . . . . . . .नमस्कार
. .''
एक
चुप्पी सघन होती जा रही थी मंत्रीजी की आंखें टी वी स्क़्रीन के सूने परदे
पर पथराई-सी जमीं थीं
।
उसे
लगा कि जिन्दगी में इससे ज्यादा अश्लील स्थिति कभी नहीं आई थी
।
वह
कुर्सी से उठा,
'' मंत्रीजी . .आप
टी वी देखिए
. .मैं
चलता हूं . .'' मंत्रीजी 'हूं'
भी कर पाते उससे पहले ही वह उनके बौने कमरे से आदमकद
संसार में था . . . . .उसे अफसोस इस बात का था
कि वह मंत्रीजी की कोठी पर गया ही क्यों . . . . . . .मगर
गए बिना क्या इस संस्कृति को जाना जा सकता था . . . ?
कृष्ण
बिहारी |
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