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नूर
मेंहदी वाले और चूडियों वाले हाथ तो आसमां के चांद को भी किस कदर प्यारे हैं। तभी तो इन तमाम मेंहदी रचे हाथों की खुश्बू में बसे एक लोटा पानी की ख्वाहिश में वह सालों साल से उगता आ रहा है बदले में वह इन्हें अखण्ड सौभाग्यवती रहने का आशीष दे जाता है। इस लेवा - देवी में चांद का पलडा यकीनन भारी है क्योंकि ये गांव सुहागनें अल्हड तो कुंए पर खडे पहचानवाले को भी जल्दी से पानी न दें। ऐसे में कितने कितने घूंट पानी वो एक ही रात में इनके मखमली हाथों से घूंट घूंट पी जाता है। यही वजह है शायद कि उसे साल भर पहले से प्यास नहीं लगती। पता नहीं यह करवा का चांद कब से निकल रहा है। गोरी बेजी के वक्तों में भी यही था। करवाचौथ के दिन गोरी बेजी को दम लेने की फुरसत नहीं होती। सच तो यह है कि करवे की एक रात पहले से जब तमाम गांव की औरतें सरगी का सारा सामान सुबह के लिये तैयार कर, मरदों को हुक्का थमा कर और बच्चों की पीठ पर - मर भी जाओ, अब मुझे मेंहदी लगवाने जाना है, कहके दोहत्थड ज़मा देने के बाद अपने अपने मेंहदी के भरे कटोरे लेकर गोरी बेजी के घर की तरफ लपक लेती हैं, उस लम्हा गांव में 30 साल पहले ब्याही रुकमनी भी हाल की ब्याही बहू सी शरमा कर अपने काम से, दिन रात की ढोर - डंगरो की मशक्कत से लगभग घिसी - छिली हथेलियां बेजी के सामने कर देती है और लम्हें ही तो लगते हैं जब वो हथेली मेंहदी की खुश्बू और बेजी की मुहब्बत की नमी से 30 साल पहले जैसी गुदाज हो जाती है, जिसे चूम कर रौनक सिंह ने कहा था पहली रात - तेरे हाथ कितने सुन्दर हैं! 40 - 50 या शायद 60 साल गुजर गये गोरी बेजी को मेंहदियों में डुबोते इन सुहागनों की हथेलियों को। न चांद थका और गोरी बेजी, जिन्हें देख कर सर्दियों की धूप का गुमां होता है। उनके सन से सफेद बालों की चमक चेहरे की धूप से मिलके सफेदी का एक समन्दर बहा देती है। जिस पर सर का सफेद मलमल का दुपट्टा झमक झमक कर जैसे उनके फरिश्ता रूह होने का एलान करता लगता है। दूधिया सफेद गोरी बेजी जो ब्याह के जब इस गांव आयीं थीं तो मुंह दिखाई के वक्त कितनी औरतों के कलेजे हौल गये थे। रूप की ऐसी बाढ। भरे भरे होंठों पर किताबाें, तस्वीरों में भी कभी कभार दिखाई पडने वाला असली काला तिल। रंग तो गोरा था ही, जिस पर गाल ऐसे सिन्दूरी कि जैसे पौ न फटी हो न रात ही डूबी हो। ऐसी गोरी बेजी जिसके मायके नम्बरदार थे, छ: भाइयों की इकलौती बहन, बाप की सिरचढी थीं। मां कब मर गई थीं याद नहीं, विधवा बुआ के साये तले पली गोरी को अलबत्ता मां की कमी महसूस भी नहीं हुई। फिर घर की चारदीवारी में तमाम आजादियां मयस्सर थीं गोरी को। छतों छतों से कूद कर सहेलियों के घर यूं भी गिट्टे बजा आती थी गोरी, अकसर बुआ के तमाम पहरों की ऐसी की तैसी करके। पकडे ज़ाने पर एक ही सजा मिलती थी। सारे डंगरों को पानी पिलाने की जो दरअसल भाइयों की बेपनाह मुहब्बत की वजह से अमल में आई ही नहीं कभी। ''पानी का भरा लोटा तो उठता नहीं इस मरजानी से, बाल्टी क्या उठायेगी '' कहकर कभी पहला तो कभी दूसरा भाई हंसता हुआ डंगरों को पानी पिला देता। किसी ने ऊंची आवाज में कभी डांटा ही नहीं उसे। डांट पडती भी तो ऐसे जैसे किसी ने जरा सी निबौली पर ढेरों गुड चिपका दिया हो। कभी 12 बजे भी बर्फी की हुडक़ उठने पर भाई हलवाई की दुकान पर दौड ज़ाता और फिर बमुश्किल आधा टुकडा खा गोरी वही दोना जब भाई की तरफ बढा देती तो मोहब्बत के बेशुमार समुन्दर लिये वह उसके सर को थपक देते - '' तेरा घर भगवान करे धूप में हो, ससुराल में।जब देखो तंग करती है।''
एक मौका आया था ऐसा जब
गोरी ने रो रो कर आसमां सर पर उठा लिया था।
जाने कहां से काला
साटन का सूट सिलवा बैठी थी लडक़ी।
बुआ ने मना भी किया
पर मानी कहां थी वह,
फिर उसने जब हनीफ दरजी क़े यहां से सुनहली गोटा लगवा कर
सुनहरे काम वाली चुन्नी ओढी
और
बुआ के सामने खडी हो गयी
तो बुआ ने जाने कितने पल दोनों हाथ छाती से बांध पलकें मूंदे रखी थीं।
गोरी हैरान थी कि
बुआ रो क्यों रही हैं।
रोती बुआ को अलग करके जाने
किस तुफैल में गोरी आंगन में बैठे भाइयों और बाप की तरफ भी वही कैसी
लगती हूं का सवाल ले के लपकी थी कि तभी बडक़े की दहाड ग़रजी
- काले सूट में लिपटी साक्षात् दुर्गा अपने रूप से अगर भाइयों - बाप को चौंधिया गयी थी तो उसकी गज भर की परांदे में लिपटी चोटी की लम्बाई ने जैसे उनका कंधा हिला कर कह दिया था - '' बाबुल, मेरे दूसरे घर जाने का वक्त आ गया।'' उस दिन के बाद किसी रात बाप के हुक्के की चिलम ठंडी न हुई। भाइयों की चारपाइयों की अदवायन रोज क़से जाने पर भी ढीली रहती। रात भर की करवटों से और होता भी क्या? बुआ के ठण्डे ठण्डे हौकों से सारा घर भर गया, फिर अचानक एकदिन बुआ ने हाथ से गिट्टे ले लिये और उनमें रेशम के तागे पर पिरी हुई सुई पकडा दी। तागे बदले पर उसी एक सुई से उसने न जाने कितने तकिये, चादरों रुमालों पर खूबसूरत मुजस्समें काढे ग़ोरी ने कि लाड क़े मारे सैकडों दफा बेऔलाद बुआ की छातियों में दूध उमड आने को होता।
गोरी को फिर रफ्ता - रफ्ता
सब समझ में आने लगा था।
बाप - भाइयों की
देर रात तक होने वाली गुफ्तगू ने कुछ समझाया,
तो बुआ की दिन पर दिन बढती नसीहतों ने रही सही कसर पूरी
कर दी।
और फिर एक दिन गोरी ने
मौका मिलने पर भी छत की मुंडेर पर सहेली के घर जाने को रक्खा पैर जो वापस
खींचा तो फिर दुबारा कभी टापी नहीं मुंडेर उसने।
बस रात - बिरात कभी
छत के ऊपर जाकर धीमी आवाज में गोरी गुनगुनाने लगती तारों को सुना कर,
चांद को सुना कर -
फिर कुछ रोज बीते और
नम्बरदारों का घर रिश्तेदारों की गहमागहमी से भर गया।
सहेलियों ने गोरी
से कतई अजीब किस्म का हंसी - ठट्ठा करना शुरु किया।
नामुराद,
बेशर्म हल्दी मलती कैसे - कैसे छू देतीं गोरी को कि
कानों तक लाल भभूका हो जाती वह।
बुआ काम के बोझ से
दबी भी सैंकडों दफा पनियाई आंखों से गोरी की तरफ ताक लेतीं।
कढाइयों,
हलवाइयों से जूझते छहों भाई इधर से उधर गुजरते तो झट
बहन की जफ्फी भर लेते।
बाप तो बोलता ही
नहीं था, बस
बहुत हुआ तो अपना कांपता हाथ बेटी के सर पर रख कर मुंह फेर लेता।
मुश्किल से बस फिर
बाप के हलक से दो बोल फूटे थे गोरी की विदा के वक्त।
छ: भाइयों की इकलौती बहन
नम्बरदार की बेटी गोरी जिस आंगन में उतरी,
वहां सास - ससुर, ननदों -
देवरों का जमघट था, जाने कितने अच्चे - बच्चे थे
घर में।
हां,
वह चांद तो था ही जिसका रास्ता गोरी न जाने कबसे देखती
थी और उस रोज ज़ब देर रात गये गोरी की चूडियों की छनक यकबयक तेज से तेज होते
धीमी और धीमी पड ग़यी तो बिस्तर के पास पडे गोरी के गोटा लगे दुपट्टे में
गोरी का चांद चांदी के सिक्के सा बंध गया था चुपचाप।
चार बजे बुआ की
नसीहत याद करके गोरी उठ गयी थी।
क्या मांग बैठी थी गोरी -
'' देखो मुझे
कभी मरजाही ( मर्यादाहीन) न होने देना।
बापू ने कहा था।'' कर्तारे के घर का आंगन ऐसे तो न चमकता था पहले। पीतल के बर्तनों पर सुनारों को सोने का गुमां हो जाये ऐसी जगमगाहट, पहले कहां थी बर्तनों में। गोरी की छन छन करती चूडियों भरी कलाइयों, मेंहदी वाले हाथों के परस से सारा घर जैसे सोना हो चला था। सास बलायें लेते न थकती थी। ननदों के मुंह से भाभी लफ्ज क़ैसे भी पल को न छूटता था। ब्याह को तीन महीने हुए थे पर ससुर ने एक बार गोरी के हाथ से तुलसी की पत्ती डली चाय जो पी तो फिर गोरी की सास को भूल गया कि वह भी कभी चाय बना के पिलाती थी कर्तारे के बाप को। जिससे कभी पानी का भरा लोटा न उठता था वही गोरी आननफानन में आंगन के कुएं से बाल्टी यूं खेंच लेती जैसे कोई झुक कर जमीन पर गिरी कपास उठा ले। बकौल दोस्तों के कर्तारे की लॉटरी लग गई थी। पता नहीं कितने दिन हो गये ठेके पर गये। फिर भी गबरू के पैर शराबियों के से लडख़डाते थे आंखों के लाल डोरे उसके पक्का शराबी होने की चुगली खाते थे रोज। पर ये जिस बोतल की शराब थी वो तो सैंकडों - सैंकडों घूंट पीने पर भी खाली नहीं होती थी। सास - ससुर का बिस्तर बिछा के पानी से भरी गडवी ले के जब गई रात गोरी कर्तारे के पास आती तो चाह के भी उसे दीवानावार बांहों में भरे कर्तारे इस देरी की शिकायत न कर पाता। कहा तो था उसने और दे भी दिया था कर्तारे ने वचन मुझे मरजादाहीन न होने देना। महीनों गुजरे और एक दिन जाने कैसे कुंए से बाल्टी खींचती गोरी के हाथ से रस्सी छूट गयी। उधर बाल्टी दीवारों से टकराती तल से जा लगी और इधर गोरी सुबह के लीपे ताजे आँगन में मुंह के बल पड ग़यी, सास चिल्लाई। ननदों ने उठा कर खाट पर डाला, पानी की बूंदें मुंह पर पडीं तो गोरी ने आंखें मिचमिचाईं। सास की आंखें गोरी की आंखों में लम्हें भर को गड ग़ईं। बस फिर क्या था पल्लू में बंधे आने को गोरी के सिर से वार ननद के हाथ में देती बोलीं - '' जा ब्राह्मणी को यह दे आ। पहली बार है बहू की।'' फिर लाड से गोरी के सिर पर हाथ फेर कर बुदबुदाई - '' मुझे पोता चाहिये पुत्तर।'' चढे दिनों में गोरी का रूप कहर बरपा रहा था। आस - पडोसवालियां कहती भी थीं, देवी का वास है इसमें तो कैसा तेज है! हां दुर्गा थी वो, देवी थी वो‚पर वो जमीन ही तो थी जिसमें कर्तारे ने जो बीज बोये थे। उसकी फसल जब दूसरी दुर्गा की शकल में गोरी ने इस खानदान को दी तो सास की त्यौरियां चढी रहीं। ननदों ने गुड में डलने वाले पांच सात बादाम कम कर दिये। ससुर ने ठण्डी सांस भरके जो भगवान की मरजी कुछ यों कहा जैसे घर में मौत हो गयी हो। हां,कर्तारे ने जब उस रेशम की पूनी जैसी बेटी को गोद में भरकर चूमा तो गोरी की बेनींद आंखों को उस रात तसल्ली से नींद आई थी। सिलसिला फिर वही था। झाडू बुहारू, वही लिपा आंगन, वही कुंआ, वही बाल्टी, वही काम के बोझ से दबी गोरी, पर नहीं थीं तो बलायें नहीं थीं। मुहब्बत के तमाम लफ्ज एक बेटी पैदा करने के गुनाह ने सुखा डाले थे। पर गोरी शिकायत करना कहां जानती थी। थकान से चूर गोरी एक घडी क़ी फुरसत में जब दुर्गा को अपनी छातियों का दूध पिलाती तो एक एक घूंट में जैसे एक एक लम्हे की थकान से निजात मिल जाती।नन्हें हाथों को अपनी हथेलियों में भींच वह रोज रात को सोने से पहले एक बेहतर सुबह की ख्वाहिश करती जो फिर नहीं हुई तो नहीं हुई।
एक साल बीता,
दो साल बीते, तीन चार फिर
पांच साल।
सास की आखें बाट
जोहती रहीं पर फिर गोरी के हाथ से पानी की बाल्टी खेंचती रस्सी नहीं छूटी।
कल की लाडो
गोरी ऐ
होके रह गयी, समय का चक्र चलता रहा। फिर जिस दिन ये वाकया हुआ उस दिन करवाचौथ थी। लाल सालू में लिपटी गोरी उस वक्त मेंहदी लगा रही थी पास - पडाैस वालियों के। सब जानती थीं गोरी भाभी जैसी मेंहदी और कोई नहीं लगा सकता। जाने कैसा असर था उसके हाथों में कि बेढब पिसी मेंहदी की पत्तियां भी हथेली में सूरज उगा जाती थीं। गाढा गाढा सूरज। अभी थोडी दे पहले ही चूडियोंवाली आकर दर्जन चूडियों कलाई भर गई थी गोरी की। करवाचौथ पर गोरी का उत्साह जैसे बांध छोडता दरिया हो जाता है। घूंट पानी नहीं पीती। वह शाम को कहानी कह के पडोस की औरतों मायके का सीखा गीत - सारी रात तेरा तकन्नी हा राह तारया तो पूछ चन्न वे - जरूर सुनाती। शहद के जिस दरिया से वो आवाज निकल आती थी उसकी मिठास में छिपे दर्द को पहचानती औरतों आंसुओं से नहा उठतीं।बाज दफा रोक देतीं - ना गा भाभी, कलेजा हौलता है। तभी तो सास ने बुलाया था पास उसे। आज फिर से वो, ऐ और नी से अचानक लाडो पुत्तर हो गयी थी। ससुर भी पास ही बैठा था, कर्तारे भी बैठा वहां मंजी का बान छील रहा था। सास ने रुक कर कहना शुरु किया, '' देख पुत्तर तेरे से शिकायत नहीं, पर वंश तो चलाना है।'' गोरी की सवालिया निगाहें सौ उलझनें समेटे घूंघट की ओट से कर्तारे पर टिक गयीं थीं, पर वो चुप था, हां सास चुप नहीं थी - '' आज करवाचौथ है शगुन भेजना है रूल्दु की लडक़ी को। कुछ तू भी बनी रई, वो भी रहेगी बहनों की तरह रहना।'' तभी जैसे बिजली तडक़ गई थी। दुर्गा के कई रूपों में काली का रूप कैसे उतर आया था उस बेजुबान में। कर्तारे के सामने जाकर खडी हो गयी थी वो। पूछा था उसने - '' तुम क्या कहते हो? '' कर्तारे ने महीनों की मां बाप से उधार ली हिम्मत बटोर जैसे - तैसे कहा - '' मां ठीक कहती है बेटा भी तो जरूरी है वंश के वास्ते।'' '' पर मैं ने जिस कोख से बेटी दी क्या वहां से बेटा नहीं दे सकती? '' ये सवाल कोई भी आम औरत होती तो पूछ बैठती पर वह नम्बरदारों की बेटी थी, आन - मान की घुट्टी पीकर बडी हुई गोरी के मुंह से बस दो बोल फूटे थे - '' मैं ने तुम्हें कहा था ना, मुझे मरजादाहीन न होने देना।'' उसके बाद कयामत से पहले ही कयामत हो गई। ऐसा तो कभी देखा न सुना। वो भी सुहागनों के करवाचौथ वाले दिन, घर की उसी दीवार पर, जहां नई ब्याह के आई गोरी बहू ने अपनी दोनों हथेलियों को लाल रंग में डुबो कर छाप लगाई थी, उसी दीवार पर अपनी चूडियों से भरी कलाई दे मारी थी गोरी ने और तब तक मारती रही थी जब तक एक एक चूडी न टूट गई। कर्तारे की आंखें झपकना भूल गयीं थीं, सास के मुंह में जैसे दही जम गया था। चूडियों की किर्च पूरे आंगन में बिखेर कर काली ने अपने मंदिर के कपाट बन्द कर लिये थे। और सास की चीख पुकार सुन कर, पास - पडाैसवालियों के खूब दरवाजा पीटने पर सफेद दुपट्टा ओढे ज़िस गोरी ने दरवाजा खोला था उसकी आंखों में सीधे देखने की ताब किसमें थी? बेटी को छाती से लगाये वो घर की दहलीज यूं लांघ गयी थी जैसे यूं ही कोई पडोस के घर से निकल रहा हो। सास समझाती रह गई लोगों को - '' ए लो, मैं ने ऐसा क्या अजूबा कर दिया था, बेटे को निपूता रखती, फिर पहले भी तो सौ दफा गांव में ऐसा हुआ है। मैं ने तो कहा था कि बहनों की तरह।'' पर किसी ने कुछ नहीं सुना - छंटती भीड ने जिन आंखों से कर्तारे और उसके मां बाप को देखा, उसका एक ही मतलब होता है - '' थू है तुम पर, तुम्हारी जात पर।
जिस आंगन को अपने मेंहदी
लगे हाथों से गोरी लीपती रही वह तो छूटा गोरी से।
पर सारे गांव के
लोगों के दिल इस दुर्गा का मंदिर हो गये थे।
वह हरेक की बेटी थी,
हरेक बेटी की मां।
मान का तेज जो उसके
चेहरे से टपकता था उसे लिये ठेके के सामने जब कभी बेटी का हाथ थाम कर
गुजरती तो शराबी अपनी बोतलें इधर उधर छुपाने लगते,
आंखें नीची कर लेते।
छ: भाइयों की बहन,
नम्बरदार की बेटी ने जीजा का सर कलम करने को उठाया
गंडासा ये कहके झुकवा दिया था, कि एक बंदा दो
बार कैसे मर सकता है? उनके साथ मायके लौट जाने की बात उसने यों ठुकरा दी थी - '' तुझे याद नहीं पिताजी ने मेरी बिदा के बखत कहा था, जिस गांव मेरी डोली आयी वहां से अर्थी जायेगी बीर।'' गांव के ना जाने कितने लोगों को ना जाने कै दिन लगे भाइयों की आंखों के आंसू सुखाने में। फिर बुआ की सिखाई दस्तकारी गोरी की रोटी का सहारा हो गयी। दरी, खेस, चादरें कातती लडक़ियां गोरी के उस घर के आंगन भरी रहतीं, जिसे इस गांव ने अपनी इस दुर्गा बेटी को दे दिया था। महीने बीते, साल बीते, न जाने कितने बेल बूटे उंगलियों ने उकेरे। हां, उसकी अपनी बेटी की शादी का सारा सिलाई कढाई का काम गांव की बहुओं, बेटियों, भाभियों ने काम से जैसे तैसे वक्त बचा कर किया। रूल्दू राम की बेटी भी खैर कर्तारे के घर आयी, पर हुआ यूं कि सोने के जगमगाते बर्तन फिर काले पीतल के हो गये। जमाने हो गये आंगन लीपे। एक दिन सुबह सास के टोकने पर रूल्दू की बेटी चिल्लाई थी - '' चुप कर बुढिया, मैं गोरी नहीं जो चूडियां फोड क़े निकल जाऊं, मैं तो तेरी छाती पर मूंग दलूंगी।'' 16 बरस की ब्याही आज गोरी भाभी 75 या शायद 80 साल की गोरी बेजी हैं। वो कभी स्कूल - मदरसे नहीं गई थीं। किसी सभा सोसायटी में विमन्स लिब की बात नहीं सुनी थी। लेकिन मर्द को सौ उतरनों वाला लिबास होने पर भी झट नायाब किमखाब समझ कर पहनने वाली औरतों के लिये गोरी बेजी औरतों के हक में लिखी गई वो मुकम्मल किताब बन गईं, जिसके पहले पन्ने पर बडे बडे हर्फों में लिखा है - '' उतरन मत पहनो, भले ही रेशमी हो। कैसा नूर से दप - दप करता रंडापा काटा उन्होंने जिसके सामने सौ सुहागनों का तेज भी फीका था!
सीमा शफक़ |
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