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वे
अपना प्रत्येक काम नियत समय पर करते हैं।
घर से
ठीक समय पर कचहरी के लिये निकलते हैं।
उन्हें
देख कर ड्राइवर उनकी सैकेण्ड हैण्ड सलेटी फियेट का गेट खोल देता है।
वे
पिछली सीट पर बैठ जाते हैं,
फिर ठीक समय पर कचहरी से घर के लिये चल पदते हैं।
ड्राइवर उन्हें बंगले पहुंचा देता है,
वे बंगले की बुनावट में समा जाते हैं।
ड्राइवर कार की चाबी निकाल कर निर्धारित खूंटी में टांग कर लौटते हुए
नमस्कार करता है।
वे
नमस्कार का जवाब देते हैं,
नहीं भी देते।
वे
अपनी बैचेनी में लोकव्यवहार के प्रति सजग नहीं रह पाते हैं।
यह
जरूर है बावजूद बेचैनी के फैसले पूरी सजगता से करते हैं,
गवाह और साक्ष्य के साथ स्वविवेक का यथेष्ट इस्तेमाल कर
वे जो फैसला देते हैं वह ठीक जान पडता है।
असंतुष्ट पक्ष को नहीं भी जान पडता।
तब वह
पक्ष कहता है,
'' जज साहब की मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती है तो फैसला
ठीक कैसे करेंगे? पत्नी मंद - बुध्दि है,
बेटी भी।
बेटा
स्वस्थ है जो बाहर पढता है।
दो
पागलों के साथ रहते हुए जज साहब की मानसिक स्थिति सही कैसे रह सकती है?''
लोग
आरोप लगाते हैं पर सच यह है कि फैसला लिखते समय उनकी जिन्दगी के तमाम दबाव
और खिंचाव कुछ देर के लिये स्थगित हो जाते हैं और वे निष्पक्ष - त्रुटिरहित
निर्णय कर पाते हैं।
यह
पहली बार है जब किसी प्रकरण ने उनकी बेचैनी बढा दी है।
वादी
कह रहा था,
'' सर मैं तीन साल से इस सिरफिरी औरत के साथ रहने की
कोशिश कर अब थक चुका
हूं।
मैं अब
इसके साथ रहा तो पागल हो जाऊंगा।
पागल
के साथ रह कर आदमी पागल ही तो होगा।''
उन्हें
वादी का भाष्य,
दलील कम उन्हें दी जा रही चुनौती अधिक लगी।
''
आप इन्हें
पागल न कहें। ये पागल नहीं हैं थोडी सुस्त हैं।''
उन्होंने वादी से कहा,
देखा प्रतिवादिनी को।
और ठीक
इसी क्षण प्रतिवादिनी ने न जाने किस भाव से उन्हें ताका।
वे
बेचैन हो गये।
मनोकामना की दृष्टि से कितनी मिलती है यह दृष्टि।
इस तरह
की सरल - मासूम - निस्पृह दृष्टि उन्हें सालती रही।
उन्हें
लगा इस मुकदमे का तार कहीं उनके अतीत से जुड रहा है।
वे कुछ
देर प्रतिवादिनी को देखते रहे शायद कुछ कहेगी पर वह पिछली पेशियों की तरह
चुप थी।
वादी
ही बोला, ''
यह जो भी है, मैं इस के साथ
नहीं रह सकता।
आप ही
कहें जिस मंदबुध्दि लडक़ी को उसके मां - बाप न रखना चाहें,
भाई न रखें, उसे धोखे से,
दुराव - छिपाव करके मेरे साथ क्या इस उम्मीद से बांध
दिया गया है कि मैं इस को अपने साथ रखूंगा ही?
क्या सात फेरों का बंधन जन्म के बंधन से भी अधिक विश्वसनीय होता है?
लडक़ी की शादी इतनी जरूरी क्यों होती है कि छल से,
बल से, धोखे से उसे ब्याहना
ही है? फिर वह छोडी हुई स्त्री के रूप में भले
ही मायके में शरण पा जाये पर एक बार तो उसे ब्याहना ही होगा।
उन्होंने चौक कर वादी को देखा।
भीतर
लम्बित पडे प्रश्न जीवित हो उठे-
तो आपके साथ धोखा हुआ? आपको
इसके माता - पिता ने छला या आपके माता - पिता ने?
ऐसा तो नहीं आपके विवाह को जीवन भर भुनाते रहने के
गुणनफल में माता - पिता ने पूरी सजगता में यह आयोजन किया?
क्या इस पागल के एक समर्थ -
समृध्दिशाली चाचा हैं जिनकी अनुकंपा से आपको और आपके भाइयों को प्रतिष्ठित
पद हासिल हुए? आपके हिस्से में पागल आई और आपके
भाइयों व कुटुम्ब के लिये प्रगति और विकास के रास्ते खुल गये?
पर वादी पूछेगा यह सब आप कैसे जानते हैं तब क्या कहेंगे
वे आज भी कहीं अतीत में अटके हुए हैं?
वे
हैरान होकर वादी को देख रहे थे।
वादी
पत्नी को छोड पाने का फैसला कैसे कर पा रहा है?
यह ऐसा व्यवहारिक बल्कि साहसी बल्कि निष्ठुर कैसे हो
पाया? वे क्यों न हो पाए?
शायद इसलिये कि एक समान स्थितियों का सामना सभी एक समान
भाव से नहीं कर पाते।
शायद
इसलिये कि उनके जीवन का घटित सत्तर के शुरुआती दिनों का है और वादी
इक्कीसवीं सदी का हौसला रखता है।
तीस
वर्ष।
पूरे
तीस वर्ष
।
समय का
पूरा खण्ड गुजर गया है।
आचार -
विचार,
जीवन शैली, चेतना,
सोच ध्येय में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है।
आज के
स्वप्नजीवी -
फास्ट लोग दोयम दर्जे को नहीं सहते।
वादी
कह रहा था,
''
जिन्दगी
एक बार मिलती है और अपनी जिन्दगी के प्रति मेरी एक जवाबदेही है। मेरी
मानसिक स्थिति पर दुष्प्रभाव पडे मैं यह होने नहीं दूंगा।''
उन्होंने पुन: प्रतिवादिनी को देखा
-
बडी दुविधा है।
उनकी
सहमति वादी से है तो सहानुभूति प्रतिवादिनी से,
दण्ड भले ही इसे मिले पर अपराध इसका नहीं है।
यह
अपने लिये कोई फैसला न कर पाई होगी।
दूसरों
के द्वारा किये गये फैसलों को पूरी तीक्ष्णता और आवेग के साथ समझ न पाती
होगी।
तभी तो
जब इसके परित्याग की स्थिति बन रही है तब भी इस चेहरे में विवशता तो दिख
रही है,
वेदना नहीं।
उन्हें
प्रतिवादिनी और मनोकामना के चेहरे गड्ड - मड्ड होते जान पडे।
वे
मनोकामना की त्रुटि पर उसे दुत्कार कर क्षमा करते रहे हैं क्योंकि वह
त्रुटि करने के तुरन्त बाद अपने अपराध बोध से भयभीत हो जाया करती थी।
और
उसके साथ बसर करें न करें के द्वैत - द्वन्द्व में
किसी
स्वचलित प्रक्रिया की तरह वर्ष गुजरते रहे।
उन्हें
जब भी लगा अब मनोकामना को ढोना आसान नहीं ठीक उन्हीं क्षणों में वह उन्हें
पता नहीं कैसी निरपराध दृष्टि से ताकने लगती है।
वे
हडबडा जाते थे।
इससे
मुक्त होना सरल हो सकता है,
इसकी इस दृष्टि से नहीं
।
यह
दृष्टि उन्हें सालती रहेगी।
पीछे
लौटें सत्तर के दशक के प्रारंभ में तो वे घुंघराले बालों वाले,
लापरवाह खूब ठठा कर हंसने वाले रसिक चित्त युवा हुआ
करते थे, जिसका प्रत्येक काम समय चूक जाने के
बाद ही हुआ करता था।
उन
दिनों वे पूरक परीक्षाएं देते - देते,
नये - नये विधि स्नातक हो नौकरी की प्रतीक्षा करते हुए
पिताजी के जाफरी वाले सरकारी क्वार्टर में बैठे थे।
उनका
मुख्य समय जाफरी वाले बरामदे में बीतता था जहां से बाहर की गतिविधियों को
परखते उन्होंने परखा था,
ठीक सामने के क्वार्टर में रहने वाले पंचायत अधिकारी
चौबे जी की बडी पुत्री प्रकृति चौबे, बी ए अंतिम
वर्ष, चुस्त कुर्ता - सलवार पहन कर ठीक दस बजे
कॉलेज जाती है।
वे
अपने घुंघराले बालों को तबिअत से संवार कर प्रकृति का पीछा करते हुए
प्रकृति के उपासक बन बैठे।
तदुपरांत वे दोनों अपनी - अपनी जाफरी से एक दूसरे को देखने - टोहने लगे।
जातिगत
आधार पर दोनों द्विज परिवारों में मेल - मिलाप होने लगा।
वे और
प्रकृति उम्र के लिहाज से एक - दूसरे के घर नियमित रूप से नहीं आते - जाते
थे।
उनके
दोनों छोटे भाई देवव्रत और देशव्रत प्रकृति के घर जाते और प्रकृति की बहनों
के साथ कैरम खेलते थे।
वे जब
भाइयों से पूछते,
'' तुम्हारी प्रकृति दीदी मेरे बारे में कुछ पूछती हैं?
'' तब भाई उन्हें विचित्र भाव से देखते, ''
भैया प्रकृति दीदी तुम्हें क्यों पूछने लगीं?
वे तो हम दोनों को पूछ रहीं थीं कि कल खेलने क्यों नहीं
आये।''
''
तुम नहीं
समझोगे।''
कह
कर वे जाफरी से जा लगते। उनके क्वार्टर की फेन्स में जंगल जलेबी का विशाल
वृक्ष था जो प्रकृति की बहनों को ललचाता था। गर्मी में लम्बी - कुण्डलाकार
लाल फलियां फटतीं और उनके भीतर के सफेद,
मांसल मोटे बीज झांकने लगते। वे बांस में हंसिया बांध स्टूल पर चढ क़र जंगल
जलेबी तोडते। उनके भाई पैंट की जेबें और प्रकृति की बहनें फ्रॉकें भर
लेतीं। बहनें जब फ्रॉकें भरे हुए घर पहुंचतीं तब प्रकृति पूछती,
''
तुम्हारे
सदाव्रत भैया मेरे बारे में कुछ पूछ रहे थे?''
बहनें चकित हो जातीं,
''
वे
तुम्हें क्यों पूछने लगे दीदी,
वे
तो हमें पूछ रहे थे कि कल शाम को तुम सब कहां जा रहे थे?''
''
तुम नहीं
समझोगे।''
कह
कर प्रकृति जाफरी से जा लगती।
प्रेम
का परिपाक तैयार होता ठीक इसके पहले सदाव्रत का विवाह तय हो गया।
प्रकृति की मां हडबडी में सदाव्रत के घर गईं थीं और बढे हुए अचरज के साथ घर
लौटीं थीं -
'' प्रकृति हम तो सोचते थे पूरक परीक्षा दे कर किसी तरह
पास हुए बेरोजग़ार लडक़े के पास अच्छे प्रस्ताव नहीं आयेंगे।
पर
देखते हैं सदाव्रत का ब्याह तो कानून मंत्री की भतीजी से हो रहा है।
पांडेजू पता नहीं कहां से क्या गोटी बैठा लेते हैं।
पडाइन
हैं बडी क़िस्मत वाली।''
प्रकृति की समझ में नहीं आया था मां अचरज व्यक्त कर रही है या संताप।
वह
बरामदे में जाकर जाफरी के पार झांकती रही थी।
उधर
जाफरी खाली थी।
सदाव्रत असहाज थे।
प्रकृति के साथ कोई अलिखित अनुबंध था या बेरोजग़ार के लिये।
वह
भव्य प्रस्ताव उन्हें अस्वाभाविक लग रहा था।पारिवारिक
संस्कार के अनुसार वे पिता से बहुत कम बोलते थे,
पर मां के समने संशय रखा था।
''
मनोकामना
बडे घर की लडक़ी,
मैं बेरोजग़ार मां मैं ऊसका निजी सचिव बन जाऊंगा।और वह तुम्हें अपना खादिम
बना लेगी।''
उसकी
निरक्षर मां अनुभवी चतुरता से हंसी थी,
'' तो बन जाऊंगी।
अरे
सदा,
मैं मनोकामना को देख आई
हूं।
इतनी
सीधी है कि उसकी मां ठीक ही कह रही थी कि लडक़ी के मुंह मैं जुबान ही नहीं
है।
फोटो
तुम देख चुके हो,
लडक़ी सुन्दर है, एम ए है।
सदा
तुम्हारा भाग्य उजागर होने जा रहा है।
मजिस्ट्रेटी मिली समझो।''
अब
उन्हें ठीक ठीक याद नहीम् कि उन्होंने कैसा महसूस किया था।
प्रकृति उपासना के चलते वे शायद अपने अनुमानित भाग्योदय परा पूरी तरह
प्रसन्न और परितुष्ट नहीं हुए थे,
उन में कुछ तो खास है तभी भव्य प्रस्ताव आया है वाला
विशिष्टता बोध भी उस तरह प्रस्फुटित नहीं हुआ था,
जिस तरह हो सकता था।
कुछ
तारीखें महज तारीखें नहीं होतीं बल्कि सम्पूर्ण जिन्दगी का अंतिम फलादेश
होती हैं।
मां -
पिताजी उत्सव मना रहे थे।
इधर वे
प्रथम रात्रि को ही जान गये थे कि मनोकामना का मानसिक विकास मंद है।
वह
स्थितियों को व्यस्कों की भांति नहीं देखती - जानती - समझती है।
मनोकामना ने लाल ब्लाउज क़े भीतर गाढा नीला ब्लाउज पहन रखा था जो गले के पास
बाहर झांक रहा था।
''
दो ब्लाउज
क्यों पहने हैं?''
सदाव्रत चकित थे,
मास्टर डिग्रीधारी को वस्त्रधारण करने का ज्ञान नहीं है!
वह चुप
रहे तो बहुत खूबसूरत है बोलने लगे तो बहुत बेतुकी।
फिर
उनकी इच्छा नहीं हुई कुछ कहने - पूछने की।
सुबह
रसोई में मां चाय बना रहीं थीं और मनोकामना चाय की प्रतीक्षा में पीढे पर
बैठी थी।
वे
इतने खिन्न और निराश थे कि उनकी कहने की इच्छा नहीं हुई कि मां तुम चाय बना
रही हो और यह मां को इस जड बुध्दि में गुणों की खान दिखाई दे रही थी तो अब
मां जानें।
मनोकामना को घर के अन्य सदस्यों की अपेक्षा देवव्रत और देशव्रत की संगत
अनुकूल लगती थी,
और वह उनके साथ सहज अनुभव करती थी -
''
देव,
तुम्हारे भैया कहते हैं मैं उनके गले पड ग़ई हूं। मेरे लिये लडक़ों की कमी
नहीं थी। एक सेकेण्ड लेफ्टिनेन्ट लडक़ा था वह अड ग़या था मुझसे ही शादी करेगा
पर चाचाजी को फौजी पसन्द नहीं हैं। और मेरे जीजी के देवर से तो बात पक्की
हो जाती पर कुण्डली नहीं मिली और कहती हुई वह स्वतन्त्र भाव से हंसती जा
रही थी। उसका हंसना भिन्न होता था जो उसकी अल्प मानसिक विकास को सूचित करता
था। देवव्रत और देशव्रत को अपनी नई - नई भाभी का साथ आनन्द देता था।
देवव्रत बोला,
''
भाभी,
आपके आ जाने से घर में हंसी सुनाई दे जाती है वरना इस घर में हंसना गुनाह
हो जाता है।''
बहू की
हंसी सुनकर मां तमक कर सदाव्रत के कमरे में गई,
'' सदा, तुम सो रहे हो उधर
दुलहिन अट्टहास कर रही है।
पिताजी
का भी लिहाज नहीं।''
आज वे
सोचते हैं तो पाते हैं मनोकामना को स्वीकार करने के पीछे उसके प्रति कोई
जवाबदेही नहीं बल्कि माता - पिता से बदला लेने की भावना अधिक प्रभावी थी।
वे
माता - पिता को उन की करतूत याद दिलाना चाहते थे कि आपने जो इस मंदबुध्दि
लडक़ी को मुज पर थोप कर सताया है तो मानसिक प्रताडना से आप भी बच नहीं
सकेंगे।
और जब
- जब सोचा मनोकामना को अब नहीं सह सकेंगे तब - तब वह अजब आग्रही दृष्टि से
उन्हें ताकने लगती थी।
उसकी
चितवन का सूनापन उन के भीतर उतर जाता।
उन्हें
लगता वे खुद को मजबूत कर लें तो स्थिति को चुनौती मान कर स्वीकार कर सकते
हैं।
उन्हें
मां का आचरण कपट भरा लगता था।
मनोकामना के परिजन तमाम साधनों - सौगातों से उसे पतिगृह में स्थापित करने
हेतु मानो प्रतिबध्द थे।
वे तीज
त्योहारों में उपहार,
मौसम के अनुसार अन्न, अचार,
बडी - पापड भेजते रहते थे।
मां को
इन सौगातों की बडी साध रहती किन्तु बहू की मंद गतिविधि उदास करती थी।
वे
कोहनी तक हाथ जोड क़र प्रणाम की मुद्रा बना कर कहतीं,
'' जय हो पूरी विदुषी है।
न काम
का सहूर है,
न सीखना चाहती है।
सदा
इसे कुछ सभ्यता सिखाओ।''
''
ये जो मां
की बातें सुन रही हो,
तुम्हें बुरी लगती हैं?''
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