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विलोम
दूसरा
पन्ना
मां की उम्मीदें खाली नहीं गईं।
बाद में देवव्रत और देशव्रत मजिस्ट्रेट बने और यह परिवार
न्यायधीशों का परिवार कहा जाने लगा।
पहली पोस्टिंग पर सुदूर निमाड ज़ाते हुए वे मनोकामना को साथ
ले गये।
वे परेशान थे,
अल्पशिक्षित मां सामाजिक तर्कों
से किस तरह आशय बदल देती हैं।
मनुष्य सदैव अपना ही बचाव क्यों करना चाहता है?
उन्हें मालूम था मनोकामना के साथ
अकेले रहते हुए अडचनों का सामना करना पडेग़ा पर इसके पहले उन्होंने यह सोचा
नौकरी बडे मौके पर मिली है।अब
भी खाली बैठे रहते तो न जाने क्या होता।
और यह पुख्ता आधार था अडचनों को आजमाते जाने का।
जाने से पहले मनोकामना के माता - पिता मिलने आये थे।
सदाव्रत को दिलाया गया पद मानो मनोकामना को इस घर से जोडे
रखने की प्रतिश्रुति था।
मनोकामना की मां उनके कमरे में आकर उन से कहने लगी थी,
मां को रोते देख मनोकामना भी रोने लगी थी।
दोनों को रोते देख उनकी त्वचा में चुनचुनाहट होने लगी थी।
मन में यही प्रश्न उठे थे जो वादी ने उनके सामने रखे थे
-
जिस मंदबुध्दि लडक़ी का दायित्व आप न उठाएं,
आप के लडक़े न उठाएं उसका दायित्व पाणिग्रहण के मंत्रों
के दबाव में आकर मैं उठाउंगा ही यह विश्वास आपको क्यों है?
और मैं न उठाऊं तब क्या यह आपकी ही जिम्मेदारी नहीं हो
जायेगी? लडक़ी की शादी
इतनी जरूरी क्यों होती है कि फिर वह छोडी हुई स्त्री के रूप में भले ही
मायके में शरण पा जाये पर एक बार तो उसे ब्याहना ही होता है।
क्या इसीलिये कि शायद धुप्पल में काम बन जाये
?
कुछ नहीं कह सके थे।
वे वादी की तरह साहसी कभी नहीं रहे।
उन का अनुशीलन उनकी शिष्टता ही उनकी सबसे बडी दुर्बलता बन
जाती थी। ''
मां मैं बुरी हूँ?
बेवकूफ?''
मनोकामना ने सहसा अपनी मां से पूछा था।
ह्नउस अपेक्षाकृत छोटी और अविकसित तहसील में वे मनोकामना के
साथ रहने का उद्यम करने लगे।
मनोकामना कभी आक्रान्त चुप्पी में जडीभूत - सी पडी रहती,
जैसे कोई बेआवाज ड़र उसे घेर रहा
है।
कभी धीमे स्वर में खुद से बातें करती।
कभी महरी के साथ खुल कर हंसती।
डपटने पर सहम कर अपराधबोध से सर झुकाा लेती।
पैसे का हिसाब वह भूल जाती फलत: वे पैसे अपने पास रखते और
सारे भुगतान स्वयं करते।
किसी भी स्थिति पर पूरी तीक्ष्णता और आवेग से न सोचते हुए
वह दबाव मुक्त रहती थी।
शायद इसीलिये आज जब समय के दबाव,
दुष्प्रभाव से जूजते हुए उनके
माथे पर महीन रेखाएं और आंखों के आस - पास सिकुडन दिखने लगती है।
मनोकामना के चेहरे में आज भी सच्चाई और मासूमियत नजर आती है।
मनोकामना को सख्त आदेश देकर किसी आगन्तुक के लिये द्वार न
खोले वे कचहरी चले जाते थे।
जानते थे उन के आदेश का पालन करते हुए मनोकामना द्वार बन्द
कर खुद से ही बातें करते हुए सो गई होगी या आंगन में कुर्सी डालकर बैठी हुई
शीशम के पेड क़ी ऊंचाई को ताक रही होगी,
या विविध भारती में फिल्मी गीत
सुन रही होगी फिर भी उन्हें लगता था आज शाम जब घर पहुंचेंगे वहां कुछ न कुछ
होगा।
वे मस्तिष्क में दबाव महसूस करते और सोचते,
जल्दी ही वे भी मनोकामना की
श्रेणी में पहुंच जायेंगे।
उस छोटी जगह में अफसरों की खबरें तेजी से फैलती - पसरती थीं।
बातों के अलक्षित आभास और प्रतिध्वनियों को वे भांप लेते।
पर किसी से कुछ न कहते।
किसी से कुछ न कहना पडे ऌसलिये लोगों से मिलना - जुलना
टालते रहे।
और जब कभी न टाल सके तब कहा,
'' हां, मनोकामना कुछ सुस्त
है, पर एक इसी कारण हम उसे समाज से,
परिवार से बेदखल नहीं कर सकते।
सच कहूँ
तो मैं इस दुनिया के किसी एक पीडित को सहयोग कर पा रहा
हूँ
सोच कर
शांति मिलती है।''
यह कह कर वे खुद को साबित नहीं
करना चाहते थे बल्कि किसी के सामने
कमजोर
नहीं पडना चाहते थे।
आज सोचते हैं तो पाते हैं परिस्थितियां जब घेरती हैं और
जहां से छूट भागना आसान नहीं होता मनुष्य उस घेराव में भी कुछ न कुछ अपने
पक्ष का पा लेता है।
उनकी न्याय के प्रति पकड,
ईमानदारी,
निष्ठा इसलिये बनी कि उन्होंने अन्याय सहा है।
अपनी बेचैनी के बावजूद वे सचेष्ट रहते हैं कि उनकी कलम से
त्रुटिपूर्ण फैसला न हो।
स्थितियों की निर्ममता आखिर कितनी हो सकती है जांचते हुए
उन्होंने वह असाधारण ताकत पा ली जब कुछ भी उन्हें थकाता नहीं था।
उनकी चिन्ता तब अवश्य बढ ग़ई जब मनोकामना गर्भवती हुई।
यह कोई गलती न कर बैठे कि गर्भस्थ शिशु को क्षति पहुंचे।
संतान के रूप में उन्हें उनके उनके हिस्से का सुख मिलने जा
रहा है।
वे किसी भी माध्यम से थोडा सा सुख,
आराम,
निश्चिन्तता पाना चाहते हैं।
उत्सवों,
ॠतुओं,
मौसमों को महसूस करना चाहते हैं।
वे सुरक्षा कारणों से मनोकामना को उसकी मां के पास छोड अाये।
मनोकामना ने बच्ची को जन्म दिया था।
वे छुट्टी लेकर आए थे।
चिकित्सक से पूछा था,
'' बच्ची मानसिक रूप से स्वस्थ होगी?''
बहू को खाली हाथ आया देख मां को निराशा हुई।
उनका संदेह सही निकला।
बच्ची का मानसिक विकास मन्द था।
यह उन की अब तक की सबसे बडी हार थी।
उनका किसी भी संभावना से विश्वास उठने लगा था।
उनकी जिद थी परिस्थितियों को पीठ नहीं दिखाएंगे न ही खुद को
कमजोर
साबित होने
देंगे पर अन्तत: वे मनुष्य थे,
'' मनोकामना सब तुम्हारे कारण।''
मनोकामना की चीख पुकार सुनकर आस - पास के बंगलों से लोग
जुहा गये।
बाहर से आता शोर सुन उनकी नृशंस पकड ढ़ीली पड ग़ई।
ओह ओह क्या अपराधियों के चेहरे देखते,
बयान सुनते हुए उनमें भी आपराधिक वृत्ति आ गयी है?
इस क्षण क्या हो जाता? इस
क्षण के बाद क्या - क्या होता?
उनकी पकड से मुक्त हो मनोकामना घिसटती - लडख़डाती हुई गैलरी
में जा कर धसक कर बैठ गई और तेज स्वर में रोती रही।
उन्होंने बरामदे के बन्द द्वार से कहा था,
'' जाइये आप लोग, यहां तमाशा
नहीं हो रहा है ! ''
उफान अपनी हद पर पहुंच कर बैठने लगता है और यह शायद उनके
उफान की हद थी।
तूफान के तीव्रतम होकर फिर मंद पडते हुए थम जाने की यह
स्वाभाविक प्रक्रिया थी।
उस क्षण उन के भीतर का विद्रोह,
विलोम,
विक्षोभ एकबारगी बाहर आ गया।
वे तूफान गुजर जाने के बाद की शांति महसूस करते हुए अपने आप
को हल्का,
भारहीन,
मुक्त पाने लगे।
अनायास सोचने लगे वे मनोकामना के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार न
कर सकें तो विवेकपूर्ण व्यवहार तो कर सकते हैं।
लोगों को किस्से गढने का मौका देना मूर्खता ही होगी।
हाँ,
यह बोधिसत्व उन्हें अपनी उस दिन
की नृशंसता और लज्जा से मिला।
वह अपनी बढ ग़ई जिम्मेदारियों को सम्पादित करने में लग गये।
मनोकामना,
स्तुति की देखभाल करती थी पर सही
अर्थों में उसकी देखभाल उन्होंने की।
रातों को मनोकामना बेसुध सोई रहती तब वे स्तुति को कंधे से
चिपका कर थपकते हुए टहलते,
दूध गरम करके पिलाते,
वे प्रत्येक काम के अभ्यासी होते गये और
उन्हें काम में आनन्द आने लगा।
वे पूरी ईमानदारी बरतते रहे
-
परिवार के प्रति,
न्यायालय के प्रति।
ईमानदारी का फलादेश उन्हें याचित पुत्र सत्यव्रत के रूप में
मिला,
उन्हें लगा था सत्यव्रत ठीक समय पर उनके जीवन में आया
है वरना वे धैर्य खो देते,
मनोकामना उन्हें पहली बार पूरे रूप में अच्छी लगी थी।
यह जैसी भी है,
पर पूर्णत: स्वस्थ, सुन्दर,
तंदुरुस्त बच्चा इसी ने दिया है।
स्तुति स्कूल जाती थी,
कक्षा भी पास करती रही।
शिक्षकों पर उनके पद का प्रभाव पडता था।
वे उसका उपचार भी कराते रहे पर यह दबाव निरंतर बना रहता कि
स्तुति का क्या होगा।
वे अवसाद से घिर जाते।
स्तुति को जिस चिकित्सक को दिखाते थे उससे पूछा था,
'' मेरी अकारण मौन बैठे रहने की इच्छा क्यों होने लगी
है?''
आज जब वे लम्बी पारी खेल चुके हैं तब सोचते हैं उन्होंने
परिस्थितियों को जितना कठिन समझा वह उससे कहीं अधिक कठिन थीं।
उन्हें अचरज होता है वे मां और बाप दोनों की साझा भूमिका को
कैसे पूर्ण कर पाए।
अब उन्हें एक ही चिन्ता है
-
स्तुति का क्या होगा? इसका विवाह कैसे होगा?
कोई विकल्प कोई सद्गति बच गई है इसके लिए?
होगा कोई उसके माता - पिता जैसा लोभी?
होगा कहीं कोई लडक़ा जो परिस्थिति को उनकी तरह मिशनरी
भाव से ले ले?
पर तब से अब लम्बा समय गुजर गया है।
तीस वर्ष का लम्बा समय।
आज की युवा पीढी क़ो तो सब कुछ अच्छा और मोहक चाहिये
-
परिकथाओं की तरह ऌनके जीवन में कमतर -
कमजोर
के लिये
जगह नहीं है।
वे सत्यव्रत को आज के समय के युवाओं का प्रतिनिधि मान पूछने
लगे -
तो आज के युवाओं की परिकल्पना यह है।
तब स्तुति को कौन अपनाएगा? ''
पापा फ्रेंकली कहूं तो कोई लायक लडक़ा स्तुति को नहीं
अपनाएगा और हम उसे किसी ऐरे - गैरे के साथ बांध नहीं देंगे। पापा आप ही
कहें अब आप जैसा इन्सान कहां मिलेगा जो आय मीनआप और मैं कोशिश करेंगे
स्तुति के लिये कुछ अच्छा कर सकें । कोई प्रस्ताव जमेगा तो ठीक वरना क्या
लडक़ी की शादी इतनी जरूरी होती है?
बार बार आता रहा यह प्रश्न उनके सामने। ''
पापा मैं हूँ न। मुझ पर भरोसा कीजिये। मैं स्तुति का ध्यान
रखूंगा,
ठीक वैसे ही जैसे आप रखते हैं।''
वे जानते हैं कि सत्यव््रात ईमानदार है।
वह अपनी मां और बहन को लेकर हीनता या तनाव से ग्रस्त नहीं
है।
उन्हें उस पर भरोसा है पर वे पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाते।
एक दिन सत्यव्रत का विवाह होगा।
आने वाली का घर में साम्राज्य हो जायेगा।
जरूरी नहीं वह स्तुति को वैलिड माने।
तब तब क्या आजमाने के लिये स्तुति का विवाह करना चाहिये?
शायद धुप्पल में काम बन जाये और न बने तो?
तो?
वे बेचैन हो जाते हैं।
अदालत में इन दिनों चल रहे प्रकरण ने उनकी बेचैनी बढा दी है।
उन्होंने मेल - मिलाप की बहुत कोशिश की पर वादी उनकी तरह
सहिष्णु नहीं है।
वे वादी - प्रतिवादिनी दोनों के साथ न्याय करना चाहते हैं।
एक असंभव स्थिति।
एक के प्रति किया गया न्याय स्वत: दूसरे के प्रति अन्याय हो
जायेगा।
और इस कुर्सी पर पीठासीन होने की बाध्यता यह फैसला देना ही
होगा।
और यह पहली बार होगा जब वे अपनी कलम के विलोम होंगे।
कलम वादी के प्रति न्याय करते हुए फैसला देगी और उनकी इच्छा
है प्रतिवादिनी की जीत हो।
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सुषमा मुनीन्द |
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