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दर्शक पृष्ठ 2

इसके बाद छह साल बीत गये वह मुझे बाजार में मिली उसके साथ एक छोटा बच्चा था वह दुबली हो गयी थी चेहरा निस्तेज हो रहा था उसने बताया कि मां की मृत्यु हो गयी वह अकसर बाहर रहता है

'' यह कब हुआ? '' मैं ने बच्चे की तरफ ईशारा किया।
''
देख सकते हो।'' वह धीरे से हंसी। उसकी हंसी के साथ तीखी गंध फैली।
''
तुमने शराब पी है? '' मैं ने हैरानी से पूछा।
''
थोडी सीडॉक्टर से पूछ कर।'' उसे सांस लेने में भी दिक्कत हो रही थी। वह हांफ रही थी।
''
रोज पीती हो?''
''
हां।''
''
पूरा दिन?''
''
नहीं।''
''
क्यों?''
उसने सर घुमा लिया।
''
चलूंगी।'' उसने बच्चे का हाथ पकड लिया।
''
तुम ठीक तो हो?'' चलने से पहले उसने पूछा। मैं कुछ नहीं बोला। उसने एक बार मुझे देखा फिर बच्चे का हाथ पकड क़र चली गयी। 

तीन साल बाद वह फिर मिली दूसरे शहर की एक शादी में

इन तीन सालों में उसने बस एक बार मुझे फोन किया था अपने बच्चे के जन्मदिन पर बुलाने के लिये मैं नहीं गया था

उस शादी से हम साथ लौटे थे उन दिनों रेल में दो बर्थ वाला फर्स्ट क्लास का कूपे होता था मैं ने घूस देकर एक कूपे रिजर्व करा लिया था स्टेशन पर ही मुझे वह मिल गई थी उसका बच्चा अब बडा हो गया था बोलने लगा था वह मजबूती से उसका हाथ पकडे थी हमारा सफर पूरी रात का था

कूपे में हम बैठ गये कुछ ही देर में गाडी ने स्टेशन छोड दिया मैं ने कूपे अन्दर से बन्द कर लिया

'' तुमने कुछ खाया? '' मैं ने पूछा।
''
हाँ'' उसने बच्चे को कपडे से ढकते हुए कहा।

खिडक़ी से तेज हवा आ रही थी अक्टूबर के ही दिन थे रात हो चुकी थी उसने बर्थ के सबसे किनारे पर बच्चे को लिटा दिया उसके बाद वह बैठी थी फिर मैं थाबच्चा हाथ पैर चला रहा था वह उसे थपक रही थी उससे बात कर रही थी

''यह कब सोता है?'' मैं ने पूछा।
''
अभी सो जायेगा।''

मैं ने खिडक़ी के बाहर देखा खेतों के पार चांद निकलना शुरु हो गया था लाल बिलकुल पूरा एक वृत्त ऐसा चांद शहरों में नहीं दिखता था
''
देखो
'' मैं ने उसका कंधा हिलाया उसने सर घुमा कर चांद को देखा देर तक देखती रही वह, उसकी देह मेरी देह को छू रही थी मैं देख रहा था बहुत तेजी से उसकी देह गल रही थी उसकी काया का आलोक नष्ट हो चुका था
''
तुम ठीक नहीं हो
'' मैं ने कहा
'' क्यों? ''
''
बहुत
कमजोर हो चुकी हो''
'' हां,
बहुत बोझ है मां के बाद कोई नहीं है वह हमेशा बाहर रहता है बच्चा भी बडा हो रहा है
''
''
इन बातों से शरीर ऐसा नहीं होता
तुम बहुत ज्यादा शराब पी रही हो''
''
हां वह भी है
'' वह धीरे से हंसी

एक हाथ से वह लगातार बच्चे को थपक रही थी उसका दूसरा हाथ मैं ने अपनी हथेली में दबा लिया उसकी छोटी मुलायम उंगलियों की हड्डियां उभर आईं थीं मैं उन्हें सहलाता रहा
'' तुम ऐसा क्यों करती हो?''
मैं ने धीरे से पूछा
वह कुछ नहीं बोली
''
हम अपना जीवन बहुत दूसरी तरह से जी सकते थे न
'' कुछ देर बाद वह बोली
''
पर तुम डर गए थे उस रात तभी तुमने वह दर्शन गढा था
'' मैं ने सर घुमा कर देखा उसका चेहरा साफ नहीं था कूपे के अन्दर पूरा अंधेरा था चांद थोडा ऊपर आ गया था उसकी लाली खत्म हो गयी थी उसकी रोशनी कूपे के एक हिस्से में थी उसी में चेहरा दिख रहा था माथे की सिलवटें उसके कानों पर गिरे बाल उदास थकी - थकी आंखें

'' उतना और उस तरह मैं जीवन में कभी नहीं रोई जितना उस रात। मां के मरने पर भी नहीं। तुम्हारे जाने के बाद मैं ने पूरे कपडे पहने, बाहर निकली और खाली सडक़ों पर घूमती रही। बुरी तरह रोती हुई। मेरे आंसू बह रहे थे। मैं सडक़ों पर बदहवास तेज - तेज चल रही थी। हवा में कपडे उड रहे थे बाल बिखर गये थे।चांदनी  ओस की ठंडक और घरों की दीवारों के नीचे फैले अंधेरे के गुच्छे। कोई मुझे उस वक्त देखता तो एक आवारा, बदचलन लडक़ी समझता या फिर शायद पागल। मुझे याद है उस रात मैं दोनों थी। मुझे याद है ठीक उसी क्षण ऊपर से एक जहाज ग़ुजरा, उसी क्षण एक कुत्ता मुंह उठा कर रोया, उसी क्षण मेरा पांव जले हुए राख पर पडा और उसी क्षण मैं ने तय किया कि शादी कर लूंगी। उसी क्षण मैं ने यह तय किया कि आत्मा को इससे अलग रखूंगी जैसा तुमने बताया था। यह संशय का दुविधा का निर्णय था अच्छा है पहले ही इसे अलग कर दो। उस रात मैं जब घर लौटी तो सब कुछ मेरे सामने साफ था। सारे सत्य प्रकाशित थे। गुफा के आत्मा के मां के भविष्य के।'' वह सांस लेकर चुप हो गयी। उसकी उंगलियां मेरी उंगलियों में कांप रही थीं। हल्की सी पसीज गई थीं।

मैं खिडक़ी के बाहर देखने लगा खिडक़ी के बाहर सब सफेदी में डूब चुका था झोंपडे मवेशी खेत कुंए सूखी नहर थरथराते पुल मैं निर्निमेष बाहर देखता रहा

जीवन  मृत्यु  प्रेमस्वप्न जय  पराजय पूरी सृष्टि, पूरा इतिहास इन्हीं का है सबकी अपनी - अपनी सत्ताएं हैं अर्थ है व्याप्ति है किसको जीवन में कितना क्या मिलता है और क्यों ह्न यह गहरा रहस्य है अपरिभाषेयअविविेचित मेरा भय और उसका सुख एक थे उसकी आत्मा मेरी देह के सत्य एक थे मेरे भय और उसके भय का तर्क, उसका सुख और उस सुख का तर्क एक ही परिधि में थे मैं दोषी था या वह? यह हमारे बीच में फैला हुआ सृष्टि का वह निरंतर सनातन रहस्य जो दो आत्माओं को एक दूसरे में समाहित नहीं होने देता? यह क्यों होता है? क्यों इतना छोटा - सा जीवन सरल और परिभायेय नहीं होता? एक क्षण का शतांश भी क्यों हजारों लोग अलग - अलग तरह से जीते हैं? देह और आत्मा के सूत्र क्यों गणित के सूत्रों की तरह सिध्द और ज्ञात नहीं होते?

उसका दूसरा हाथ मेरी हथेली पर आया मैं ने सर घुमा कर देखा उसने बच्चे को थपकना बन्द कर दिया था
''
सो गया
'' वह धीरे से बोली उसकी पसीजती उंगलियां मेरी उंगलियों से फिसल गईं वह बर्थ से उठ गई उसने बच्चे को बर्थ के बिलकुल किनारे लिटा दिया बर्थ पर पूरी जगह बन गई थी

वह वापस नहीं बैठी मेरे सामने आकर खडी हो गयी उसने हाथ बढा कर मेरा चेहरा अपनी हथेलियों में दबाया मेरे कानों को सहलाया मेरे सिर को फिर अपने सीने में दुबका लिया मैं देर तक उसी तरह दुबका रहा मेरे कानों पर दो गर्म बूंद गिरीं उसने मेरा सर अपने से अलग किया उसे ऊपर उठा कर मेरी आंखों में देखा

'' उसी गुफा में चलें? '' उसने पूछा। उसका चेहरा अभी अंधेरे में था। उसकी आंखों का गीलापन दिख रहा था। मैं ने उसे अपनी तरफ खींच लिया।

बर्थ पर वह लेटी तो पूरी चांदनी उसके चेहरे पर थी मैं ने देखा उसकी आत्मा वहीं थी जहां रहती थी मैं ने एक क्षण के लिये खिडक़ी से बाहर देखा

मेरी आत्मा चांद पर बैठी तालियां बजा रही थी 

दो साल बाद

कब्रिस्तान के पीछे पुरातत्व विभाग की छोटी सी पुरानी इमारत थी मैंउन दिनों वहीं बैठ रहा था कुछ पुराने सिक्के किसी खुदाई में मिले थे उनकी लिपि पढनी थी

यह शहर से बाहर का हिस्सा था शांत और खुला हुआ मेरी मेज क़े सामने खिडक़ी थी वहां से कब्रिस्तान का एक साफ हिस्सा दिखता था पुराने टूटे पत्थर भूले हुए समाधि लेख कब्रों पर उगी जंगली घास सूखे पत्ते  जंग लगा लोहे का फाटक उस कब्रिस्तान के साथ - साथ एक सडक़ जाती थी यह सडक़ दोनों तरफ से ढाल से आकर उंचाई पर मिलती थी मेरे सामने वाली सडक़ से जो भी आता था, हिस्सों में दिखना शुरु होता था, पहले बाल फिर माथा फिर चेहरा, फिर पूरा शरीर

सिक्कों पर खरोष्ठी लिपि में कुछ लिखा था बहुत देर तक अक्षर मिलाने के बाद मैं थक गया था कुर्सी की पुश्त से टिका हुआ मैं सामने की खिडक़ी से आते हुए लोगों को देख रहा था शाम का समय था, सडक़ खाली थी मेरी सहयोगी लडक़ी कॉफी बनाने अन्दर गई थी

तभी मैं ने उसे देखा सडक़ की चढाई से वह धीरे - धीरे दिखना शुरु हुई पहले बाल फिर माथा फिर गला, फिर धीरे - धीरे आती हुई थकी देह वह मुझे अब पूरी तरह दिख रही थी वह अब सडक़ पर आ गई थी एक घर की दीवार के साथ हाथ टेक कर खडी हो गई वह गहरी सांसे ले रही थी उसकी देह कांप रही थी उसक हाथ खाली थे वह कब्रिस्तान के पीछे से निकली थी शायद किसी की कब्र पर आई थी इतने दिनों में उसकी देह और पतली हो गई थी

स्तब्ध संज्ञाशून्य मैं उसे देखता रहा कुछ देर इसी तरह खडी रह कर उसने सांसे अंदर भरीं दीवार से हाथ हटाया और फिर धीरे - धीरे ढाल पर उतरती हुई ओझल हो गयी

एक साल बाद मुझे पता चला कि वह दस दिन अस्पताल में रह कर घर लौटी है मैं ने उसे फोन किया उसी ने फोन उठाया

'' क्या हुआ था? '' मैं ने पूछा।
''
कुछ नहीं  बस यूं ही।''
''
यूं ही कोई अस्पताल में भरती नहीं होता है। अब ठीक हो?''
''
हां।''
''
कौन है घर में? ''
''
कोई नहीं है  वह बाहर है।''
''
मैं आ रहा हूँ।''
वह कुछ नहीं बोली। उसने फोन रख दिया।

मैं दूसरी बार उसके घर गया दरवाजा अन्दर से खुला था मैं ने पल्ले धकेले उसे मेरी आहट सुनाई दी या कि शायद मैं दिखा उसे
''
बन्द करके आ जाओ
''
एक कमरे के अन्दर से उसकी आवाज आई
मैं ने दरवाजा बन्द कर दिया अन्दर एक दूसरा कमरा था वह उसमें थी पलंग पर लेटी हुई कमरे की खिडक़ियों की जाली से थोडी धूप आ रही थी उसी की रोशनी से कमरा भरा था

वह पलंग पर थी तकिए पर उसका सर था बाल खुले थे गले तक वह कम्बल से खुद को ढके हुए थी मैं पास की कुर्सी पर बैठ गया उसने पलंग पर हाथ थपथपाया मैं उठ कर सिरहाने पलंग पर बैठ गया

'' क्या हुआ था? '' मैं ने पूछा।
''
खून की खराबी थी दस दिन अस्पताल में रहना पडा।''
''
क्यों हुआ? ''
वह कुछ नहीं बोली।
''
शराब से? ''
सर घुमा लिया उसने।
''
अब? ''
''
अब नहीं छोड दी है।'' उसने सर घुमा कर देखा मुझे। '' दवाएं चलेंगी, मरूंगी नहीं अभी।''
''
इस हालत में अकेली क्यों हो? ''
''
काम वाली अभी गई है। तुम आ रहे थे इसलिये भेज दिया।'' बोलने में वह थक रही थी।

बहुत कमजोर हो गई थी पूरी देह सिकुड ग़ई थी उसने कम्बल के नीचे से अपना एक हाथ बाहर निकाला मेरी हथेली पर रखा मैं ने उसकी हथेली देखी, पूरी झुर्रियों से भरी हुई खाल चटक गई थी उंगलियों की हड्डी से अलग पडी थी

'' कैसे हो? '' उसने धीरे से पूछा। उसकी दृष्टि में स्नेह था।
''
ठीक हूँ।''
''
तुम्हारे कुछ बाल सफेद हो गए।''
''
हाँ उमर हो रही है।''
''
हम बहुत जीवन जी लिये शायद? ''
''
हाँ।''
''
उसे समझते हुए, स्वीकार करते हुए। अपने - अपने सुखों के साथ एक दूसरे को सुख देते हुए।''
मैं कुछ नहीं बोला, उसे देखता रहा।
''
मैं ने तुम्हें सुख दिया न? '' उसने अचानक पूछा।
''
हाँ।''
''
मैं कभी पीछे नहीं हटी। जितनी भी देर जब भी तुमने चाहा। बिना संसय के अपनी आत्मा के साथ। हर बार वह मेरी आंखों में थी वह सुख देने में थी तुमने उसे देखा होगा।''
''
हाँ क्यों किया ऐसा?''
''
पता नहीं शायद पिछले जन्म का कुछ हो शायद प्रेम ऐसा ही होता हो।''

मैं उसे देख रहा था उसकी हथेली मेरी हथेली पर थी
''क्या देख रहे हो?''
उसने धीरे से पूछा

''
तुम्हारा हाल
''
उसने कम्बल गले से हटा दिया

''
देखो ठीक से
''
कम्बल के नीचे एक कपडा था बदन से खिसका हुआ

वह एक डरावनी बुढिया में बदल चुकी थी उसकी छातियां बिलकुल पिचक गईं थीं जांघ और नितम्बों का मांस लटक गया था उसके चेहरे से दुर्गन्ध आ रही थी इस काया का अद्वितीय आलोक मैं ने कई बार देखा था काया का ऐसा क्षरण भी पहली बार देखा था

उसने मेरी हथेली पकड क़र मुझे खींचा मैं उसकी देह पर झुक गया वह मेरी हथेली पर उंगलियां फेरती रही उसकी निर्वसन देह मेरे नीचे दबी थी हम देर तक इसी तरह पडे रहे वह गहरी सांसे ले रही थी उसके नथुनों से आवाज अा रही थी पिचकी छाती ऊपर नीचे हो रही थी उसने अपनी हथेली मेरी देह के दूसरे हिस्से पर फेरी

'' औरत पुरुष की इस लालसा को समझने में कभी गलती नहीं करती।''
मैं हैरान था कि उसकी इस अवस्था में इस घृणा पैदा करती देह के लिये भी मेरे अन्दर सचमुच लालसा जाग रही थी।

'' कंबल ढक लो।'' उसने कहा।
मैं ने कम्बल ऊपर खींच लिया। कंबल पूरा ढकने से पहले मैं ने देखा। उसकी आत्मा फिर उन निस्तेज आंखों में थी। मेरी खिडक़ी पर बैठी थी साक्षी थी ताली बजा रही थी।

कुछ क्षण बाद मैं उससे अलग हुआ उसके अंगों में सूखापन था आयु अवसाद या फिर मेरी हमेशा की अकुशलता के कारण मैं पलंग से उतर गया
''
मुझे सहारा दो
'' कुछ देर बाद वह भी पलंग से थोडा उठी मैं ने उसे हाथ से पकड लिया वह पलंग से नीचे उतर आई
कमरे में गहरी नीरवता थी
उसके हांफने की आवाज साफ सुनाई दे रही थी वह दीवार का सहारा लेकर खडी थी झुकी हुई घृणा पैदा करती हुई कुछ देर वह मुझे देखती रही
''आज फिर तुमने सुनी होगी? ''
वह धीरे से बोली

'' क्या? ''
'' हर बार की तरह नाटक खत्म होने पर अपनी दर्शक आत्मा की तालियों की आवाज? ''
मैं चुपचाप उसे देखता रहा
हांफती हुई वह बोल रही थी -
''
मैं ने उसे हर बार देखा है
उसकी तालियां सुनी हैं मुंडेर पर कालीन पर चांद पर और आज खिडक़ी पर मैं हर बार इंतजार करती रही कि शायद इस बार ऐसा नहीं हो पर आज भी जब सबका अंत हो रहा है मृत्यु है समाप्ति है पूरा जीवन जी चुके हम तब भी वह तुम्हारे अन्दर नहीं थी उसका चेहरा तेजी से पीला पड रहा था

मैं कुछ नहीं बोला सर झुका कर चुपचाप कपडे पहनने लगाअचानक मैं लडख़डाया और चौखट से टकरा गया उसने मुझे लात मारी थी

मैं ने घूम कर देखा वह हंस रही थी उसकी निस्तेज आंखों में वही पुराना आलोक था उसकी आत्मा हर बार की तरह उसकी आंखों में थी उस विलक्षण रोशनी के निर्झर में नहाई हुई

मैं ने एक क्षण उसे देखा, फिर चुपचाप बाहर निकल आया

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प्रियंवद
1 अगस्त 2004

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