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मानपत्र

हे भारतीयता के महान प्रतीक! पत्नी न सही, भ्राता न सही, गुरु के लिये हमारी संस्कृति में बहुत ही ऊंचा स्थान है , शिष्यत्व स्वीकार करते हुए तुम्हें अपनी गुरूवन्दना याद है -
 गुरूर्बह्मा, गुरूर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वर:
गुरूत्साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नम:

उसी गुरू ने कई बार कांपते हाथों से कलम उठाई होगी तुम्हें, वीणा या निसार को खत लिखने को, फिर रख दी होगी कई बार उडी- उडी ख़बर मिली कि उनकी हालत नाजुक़ है, लेकिन तुमने उसे नजर अन्दाज क़िया
यह तो निसार थे जो तुम सबों को जबरन वापस ले आये बागेश्वरी

तुम्हें वीणा, एवं निसार के बीवी - बच्चों को देखकर बूढे ग़ुरिल्ला की तरह, अबूझ की तरह ताकने लगे थे बाबा फिर बताये जाने पर एक - एक की कुशलक्षेम पूछने लगे आखिर में टिक गई वीणा पर नजर, '' क्या बात है वीणा अखबारों में दीपकंर और निसार का नाम तो कभी - कभी झलक जाता है लेकिन तुम्हारा नहीं!''
'' अब कला के चलते फुरसत कहां मिलती है अब्बू! ''
'' बजाना तो नहीं छोडा न?''
'' नहीं बाबा वो कैसे छोड सकती
हूँ।''
'' मेरा पूरा कुनबा मेरे सामने है
क्या पता, कल क्या हो मेरी ख्वाहिश है कि आज रात एक महफिल हो जाए देवी के मन्दिर में

पालकी पर ले जाया गया उस्ताद को सबने कुछ न कुछ पेश किया मगर वीणा ने गायकी में अमीर खुसरो की वो ठुमरी उठायीकाहे को ब्याही बिदेस अरे लखिया बाबुल मोरे तो स्वर टूट रहा था उस्ताद ने थोडी देर तक आंखों पर पलकों के परदे डाल लिए, बूंदों की धार बिंधती रही दाढी में गीत बन्द हुआ तो धीरे - धीरे पलकें खोली उन्होंने कोई कुछ नहीं बोल रहा था देखते - देखते आंखों की रंगत बदली, शिशु - सा चकित हो उठे, '' निसार, शमा, दीपंकर, आयशा - जरा देखो तो हवा से हिलते पत्तों की झुरमुट में से झांकता चांद दुनिया के तमाम फरेबों, तमाम गलाज़तों के ऊपर पाकीजग़ी के नूर - सी बरसती चांदनी, चकमक करते पत्ते, क्या खुदा की इस नेमत को मौसिकी में नहीं ढाल सकते? तुम, तुम? नहीं तू'' निसार और दीपंकर के बाद वीणा से इसरार और उस रात वीणा ने अपनी सारी कला लगा दी प्रकृति के उस छन्द को स्वर देने में

वीणा रखकर वीणा ने जब सर उठाया तो फिर वही अब्बू की चकित शिशु सी चितवन!
'' अब्बू?''
'' अब्बूऽऽ?''
अब्बू जा चुके थे

' गोरी सोवै सेज पर मुख पर डारे केस,  चल खुसरो घर आपने रैन हुई चहुं देस।  चार कहार मिल डोलिया उठाए बागेश्वरी बैंड की करुण धुन पर महाप्रयाण!
''
उस्ताद तो महायात्रा पर निकल गये।'' तुमने कहा था। वीणा ने खोई - खोई पलकें ऊपर उठाईं थीं।
''
चलो पैक कर लो, परसों वापस चलना है।''
वीणा ने आहत नजरों से तुम्हें देखा। वह गई तो जरूर, मगर कहीं जी न लगता था उसका। ये वे दिन थे जब तुम पॉप सिंगर्स से मिलकर अपने प्रायोजक ढूंढते फिर रहे थे। तुम्हारा एक पांव अमरिका के लॉस एंजिल्स में, दसरा भारत में बीच में पूरी दुनिया थी और वीणा थी कि उसे अमरीका भी सूना लग रहा था, भारत भी और बाकी दुनिया भी।बहुत तेजी से बदल रहे थे तुम। अब तुम्हारी दुनिया बाख, बीथोवन, मोत्जार्ट और मैनहन तक फैल रही थी। अब तुम्हें बीथोवन के  मूनलाइट सोना में रात में समुद्री लहरों के टूटने जैसा नाद ज्यादा सम्मोहित करने लगा था और उसमें तुम्हें रवीन्द्र संगीत की सी दिव्यता दिखाई देने लगी थी, साथ ही बाबा की पत्तों के झुरमुट से झांकती चांदनी और चकमक करते पत्ते भी किस चीज क़ो कब, कहाँ इस्तेमाल कर ज्यादा से ज्यादा लाभ बटोरा जा सकता है, इस पर तुम सदा सतर्क रहते। शास्त्रीय संगीत की समझ से रहित पश्चिम के दर्शकों, श्रोताओं में अपने संगीत को लोकप्रिय बनाने के लिये तुमने आलाप की बोरियत से पल्ला झाडा, जोड क़ो समृध्द किया और सीधा उतर शए झाले पर । इसी तरह पश्चिमी और पूरबी श्रोताओं को लुभाने के लिये तुमने कई पगडण्डियां तलाशीं और  सवाल - जवाब  जो यहां फूहड और छिछला माना जाता रहा, को ज्यादा से ज्यादा महत्व देने लगे।

वीणा ने एक दिन टोका भी, '' हमारे यहां राग, ताल, लय या सुर एक दूसरे को समृध्द करते हैं मिलित हंसध्वनि हो या जुगलबन्दियां, यहां एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के बावजूद मुख्य उद्देश्य परस्पर सहायक का ही होता है, प्रतिस्पर्धा का नहीं इसी तरह भारतीय संगीत की बाकी महान परंपराओं की भी तुम अनदेखी करने लगे हो क्या तुम्हें नहीं लगता कि कहीं कुछ गलत हो रहा है''

हंस कर टाल गये तुमबाद में प्रदर्शन के पूर्व वक्तव्यों में तुमने इसका खुलासा किया, '' कुछ शुध्दतावादियों को लगता है, भारतीय संगीत इतना महान है कि उसे साधारण जनता के बीच उतारा गया तो अपवित्र हो जायेगा पर मैं पूछता हूँ कि संगीत या कला या साहित्य सिर्फ मुट्ठी भर पण्डितों के लिये है? जब तक कोई कला जनता के बीच नहीं उतरती वह सार्थक तो नहीं ही होती वह दीर्घजीवी भी नहीं हो सकती''

बहुत तालियां बजी थीं तुम्हारे इस वक्तव्य पर तुमने आगे कहा था - अब बात आती है प्रस्तुति पर - क्या पश करें, कैसे पेश करें प्रकृति को देखिए कि उसे एक फूल पेश करना है तो कैसे करती है मान लीजिये बोगवेलिया है मात्र लवंग जितने लम्बे यानि नन्हे - नन्हे सफेद फूल गिनती में तीन - तीन उन्हें पेश करने के लिये वह अपनी तमाम जाड - ड़ालें, पत्ते - कांटे सबसे पिण्ड छुडा लेती है यहां तक कि पुष्प को समोने वाली पत्तियां भी लाल, गुलाबी या श्वेत यानि इतनी रंगारंग रहती हैं कि उन्हीं को लोग फूल की पंखुरी मान बैठें - भव्य से भव्यतम प्रदर्शन''

और इतनी शानदार व्याख्याओं पर भला हथियार न डाल दे वीणा?

फिर कुछ दिन पति के साथ साए की तरह डोलते रहने का सिलसिला तुम्हें महफिलों में सजा - सवांर कर भेज देती और खुद अब्बू के रिकॉर्डस लगा कर बैठ जाती
तुम कभी रातों को देर से लौटते, कभी सुबह
तुम्हारे अन्दाज में कहें तो शाम -ए - अवध को जुदा होते तो सुबह - ए - बनारस को ही लौटते
'' आज किस घाट पर जल रहे थे? '' तल्ख पडती मानिनी वीणा
मगर उसके मान का तुम्हारी नजर में कोई मूल्य न होता मन होता तो तटस्थ, निरपराध, बेगानी आवाज में सुना देते, '' आज डी एम पकड ले गये थे, आज मंत्री, आज फलां तो आज अलां! दम मारने की फुरसत नहीं''

युनिवर्सिटी या राजकीय कार्यक्रमों, युध्दराहत या कल्याणकोशों के लिये तुम सदा तत्पर रहते, आयकर देने में प्रत्यक्षत: कोताही नहीं बरतते लोगों की नजर में तुम्हारी छवि उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होती रही चीजों को अनुकूलित करने में तुम निरन्तर सफल रहे अब उनकी नजर तुम्हारे व्यक्तिगत चरित्र और परिवार, सर्वोपरि फन के प्रति तुम्हारे एटीच्यूड पर न जाती, उलटे तुम महान से महानतम् घोषित किये जाते रहे, ठीक उन सेठों की तरह जा चींटियों को शक्कर के दाने देते हैं, और भिखारियों, बाह्मणों, विधवाओं, गरीब छात्रों, सामाजिक कल्याण की संस्थाओं को दान देते हैं, और अपनी मिल में अपने मजदूरों, घर में अपनी बीवी अपने नौकरों का शोषण करते हैं व्यक्तिगत चरित्र में लम्पट और जातीय चरित्र के स्तर पर प्रथम श्रेणी के अपराधी! एक ही आदमी का बर्ताव एक स्थान पर एक जैसा, दूसरे स्थान पर दूसरे जैसा! क्या कोई लेखा - जोखा लेने आएगा कभी? कभी नहीं नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेज, नथिंग फेल्स लाइक फेल्योर!

वीणा ने अपने ढीले पडे तारों को फिर कसा, मगर वह सुर कहाँ, वह साज क़हाँ! नवीनाओं की तुलनाओं में कहाँ टिकती है प्रवीणा!

दूसरी विदेश यात्राओं में तो तुम साथ भी नहीं ले गये उसे पूरे चार महीने बागेश्वरी में अकेले गुजारे उसने - कभी अब्बू की कब्र पर, कभी बागेश्वरी देवी के मंदिर में अकसर पहाड से देखा करती वह पश्चिम की ओर - कितनी दूर चले गये थे तुम! पनवाडियों को देख - देख कर पन्त की वह कविता याद आतीपत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल वन का मर्मट, ज्यों वीणा के तारों में स्वर जिसे प्रेम के प्रारंभिक दिनों में दिलनुमा पान के पत्तों को देख - देख कर उस स्निग्ध आलोक छाया में तुम आवृति किया करते! वह कविता मारू विहाग के करुण रस में शिराओं में घुला करती अहरह!

लॉसएन्जिल्स, वियाना, लन्दन, पेरिस, म्युनिख, कहां - कहां नहीं जगमगाने लगा था तुम्हारा सितारा नए - नए कितने ही रागों का सृजन किया तुमने प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के मेल से कितने ही रागों का सृजन किया तुमने प्राच्य और पाश्चात्य संगीत के मेल से कितनी ही प्यारी धुनें दी हैं तुमने अनायास ही तुम लोगों के दिलों में छाते जा रहे थे मगर तुम्हें इतने - भर से संतोष नहीं मिला, तुम अनन्य, अद्वितीय होना चाहते थे हिन्दी के लोकप्रिय कवि ने अपनी कृति को स्थापित करने के लिये जनभाषा, मंचन, अंधविश्वास, ढोंग और चमत्कार का सहारा लिया था दीपकराग से दीप का जल जाना, मेघमल्हार से वर्षा की झडी लग जाना - संगीत में कुछ अंधविश्वास पहले से चले आ रहे थे तुम्हारे चेलों ने भी प्रचारित करवाया कि एक पेड ज़ो तेज पश्चिमी धुन पर जड से उखड ग़या था, तुम्हारा संगीत सुन कर फिर से खडा हो गया
चमत्कार!

वैसे हे चमत्कारी बाबा! तुम्हारा असली चमत्कार तो वीणा खुद है तुम्हारे मारन मन्त्र से जड - मूल से उखडी हुई वीणा, जहां अहर्निश अन्दर एक जलती हुई आग है और बाहर आंसुओं की झडी पता नहीं कैसे लोग कहते हैं कि प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे एक नारी होती है, जबकि हिन्दी के उस सफल कवि ने भी अपनी उस पत्नी को वापस मुडक़र भी नहीं देखा, जिससे उसने कविताई का ककहरा सीखा( कुछ महापुरुषों को लें लें तो हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर या सिध्दार्थ ने भी नहीं) तुमने भी नहीं पत्नियां शायद इसीलिये होती हैं कि सफलता के लिये उनकी बलि दी जा सके! दोनों ही उत्कट प्रेमी थे उत्कट प्रेम की यह कैसी परिणति? शायद पति - पत्नी के बीच कोई तीसरा आ जाता है - सफलताजनित अहम्मन्यता का प्रेत!

याद है विवाह - वार्षिकी की रात? तुम बम्बई में थे, किसी फिल्म संगीत के सिलसिले में जब देर रात भी न आए तो स्टूडियो जाकर पता किया था वीणा ने तुम वहां से कब के जा चुके थे पता करते - करते वीणा जा पहुंची थी उस होटल में अन्दर बेड पर कोई नंगी लडक़ी थी और बाहर दुल्हन सी सजी पत्नी! दरवाजे पर रास्ता रोककर खडे तुम हडबडा कर कमरे को फिर बोल्ट करने लगे थे
'' प्लीज ड़ोन्ट क्रिएट एनी सीन
अपने कमरे में चलो, मैं तुम्हारे कठघरे में खडा हो जाऊंगा'' तुम गिडग़िडाए थे
वीणा उसी दम लौट आई बागेश्वरी
उसे मनाने के लिये निसार को साथ लेकर आये थे तुम बहुत कुछ समझाते रहे थे निसार अपनी बहन को - '' जो हुआ उसे एक बुरे सपने की तरह भूल जाओ इसी में तुम दोनों की भर्लाई है और तुम्हारी बेटी की भी''
'' कैसे भूल जाऊं? '' बिफर पडी थी वीणा

'' बताऊं ! फिर से वीणा उठा कर
''


निसार भाई के साथ आई एक महिला पत्रकार ने वीणा से अकेले में कहा, '' मैं भी एक औरत हूँ, इसलिये तुम्हारी पीडा को आसानी से समझ सकती हूँ। मगर सच कहूँ यह कला की दुनिया ही अजीब है, वीणा। पता नहीं कौन सी चीज क़िसका प्रेरणास्त्रोत या उद्दीपक बन जाये! पिकासो को जानती हो न! एक बार एक मॉडल उनसे मिलने आई। उसे देखता रह गया वह। कहते हैं दो घण्टे तक भोगता रहा उसे। बाद में जो पेन्टिंग की वह नायाब थी। तो वह था उसका उत्प्रेरक तत्व! लेखकों से लेकर कलाकारों, इवन ॠषियों तक में ऐसे उदाहरण भरे पडे हैं ऌसे एक आवश्यक बुराई के रूप में लगभग मान लिया गया हे। पश्चिम में तो कोई परवाह भी नहीं करता ऐसी बातों की।''
''
तो क्या एक कलाकार को एक हद के बाद स्वैराचार करने की छूट मिल जानी चाहिये सिर्फ इसलिये कि वह कलाकार
है? ''
''
करीब - करीब ऐसा ही। दीपंकर को भी तुम अगर एक महान कलाकार के रूप में देखना चाहती हो तो इतना कुछ बरदाश्त करना ही पडेग़ा। वो कहावत सुनी है न, लैला को प्यार करो तो उसके कुत्ते को भी प्यार करो।''

कोई तर्क नहीं उतर पा रहा था मानिनी वीणा के गले से न तुम बाज आए, न वह पता नहीं वह खुदी थी या बेखुदी, तुमने उसी कमरे में जहां कभी तुमने उस्ताद के पांव पकड क़र आयशा की भीख मांगी थी, कहा, '' आयशा मैं तुम्हें तलाक देता हूँ - तलाक! तलाक!! तलाक!!!''
'' थू ! थू !! थू !!!'' वीणा ने हंस कर  थू थू  किया, जैसे नजर उतार रही हो, किस नशे में तुम पण्डित से मुल्ला बन बैठे यकायक? आयशा मर चुकी म्यां दीपंकर
यह जो औरत तुम्हारे सामने खडी है, वीणा है वीणा! अमां, उत्ती कवायद करने की क्या जरूरत है, प्रेमी या पति की निगाह से गिर जाना ही काफी होता है एक हिन्दुस्तानी औरत के लिये मैं ने तुम्हें मां की तरह पाला है, बहन की तरह नेह से नवाजा है, पत्नी बन कर तुम्हारे प्यार पर परवान चढी - अाज से नहीं, वर्षों से यूं ही तुम्हें उजाले में लाने के लिये अंधेरों में गुम नहीं हुई मैं मुझसे प्यार का ढोंग रचाकर मुसलमान से हिन्दु बनाकर पतिव्रता का लबादा ओढा दिया तुमने, मैं ने जब लबादा हटा कर तुम्हारे आचरण पर टीका - टिप्पणी करनी शुरु की तो चिढक़र मुसलमान की तरह तलाक दे डाला तुम्हारी हवस किसी एक धर्म की खाल में समा ही नहीं सकती, तुम्हें चार नहीं, चार सौ नहीं, चार सहस्त्र औरतें भी कम पडेंग़ी वही प्रेरणास्त्रोत है तो बन जाओ सहस्त्रयोनि मैं इन्तजार कर लूंगी उम्र और देह की कोई तो हद होगी सहस्त्रयोनि से कभी तो सहस्त्राक्षु बन कर लौटोगे!''

खैर तुम अपने उजालों में लौट गये, वीणा अपने अंधेरों में तुम दोनों के अलावा घर में एक तीसरा भी था - काठ की मूरत सी खडी मासूम कला उफ! ये पहाडियां थी या अभिशप्त अहिल्याएं! ये पनवाडियां थीं या बन्द ताबूत! यह दुनिया थी या बेजान पेन्टिंग! खैर धीरे - धीरे वक्त बीता

उस दिन जैसे मन का सारा जहर उगल कर शान्त पड ग़यी थी वीणा और शिथिल भाव से तुम्हारे दूसरे पैंतरे की प्रतीक्षा करने लगी, मगर दिन पर दिन बीतते गए और तुम्हारी ओर से कोई वार न हुआ उलटे इधर तुम्हारे साक्षात्कारों में बाबा की उच्छवसित प्रशंसाएं आने लगीं तो खुद पर पश्चाताप का झीना - झीना आवरण छाने लगा एक दिन तुम्हारे नाम से कोई पैकेट डाक से मिला शायद कहीं भूल गये थ और तुम्हारे स्थायी पते के बहाने वीणा के पास आ गया था तो इसका मतलब अभी भी स्थायी पता यही है और जो बीच में घटित हुआ, वह मात्र दु:स्वप्न! मान को हल्के से सहलाया हो जैसे तुमने खोलकर लगी देखने तुम्हारी अखबारी रपटों, चित्रों, वी दी ओ कैसेट्स का पुलिन्दा था, तुम्हारी आत्मकथा की पुस्तक थी और एक सूची थी तुम्हें मिले पुरस्कारों और सम्मानों की बहुत दिनों या कहें वर्षों से तुम्हें देखा न था, सो सबसे पहले वी सी आर पर कैसेट्स लगा दिये

तुम्हारी वही मोहिनी मुद्रा, मानो तुम एक पहुंचे हुए महात्मा थे और वह एक समस्याग्रस्त नारी, '' बताइये महात्मन, ऐसे में मैं क्या करुं? ''
तुमने कहा, '' खूंटियों को इतना मत कसो कि तार ही टूट जायें
''
तुमने कहा, '' वीणा को देह मत बनाओ
उसकी आत्मा को खोल दो साधना से कहो कि तू अपना सीना खोल दे, फजां में दूध घोल दे - दूध! दूध!! दूध!!!


तुमने कहा, '' शब्द की ज्योति से ही विश्व उद्भासित है। एक जीवित शब्द आत्मा को आह्लाद से भर देता है''
तुमने कहा, बह्मनाद और संभोग का चरम - दोनों की आनन्दानुभूति एक है और यह अनुभूति अद्वितीय है। म्यूजिक़ इज ए सोल टू सोल रिफ्लेक्शन!
तुमने कहा, '' प्रकृति स्वायत्त रूप से रिद्मिक नृत्य कर रही है - तुम नृत्यरता, तुम ऊत्सवव्रता तरंगिणी! उसमें एक निश्चित लय या व्यवस्था है । उससे सामंजस्य करो। संगति बिठाओ। आप पाओगे कि आप उस अनहद् नाद को और सृष्टि किछन्द को अनुभूत कर पा रहे हो। आप देखोगे कि सुरों से सुरभि फूट रही है, प्रकाश फूट रहा है।''
बन्द कर दिया वी सी आर, लेकर बैठ गई तुम्हारी आत्मकथा। पूरी पढ ग़ई। उसमें वीणा का जिक़्र सिर्फ एक जगह किया गया था, बाकि कहीं नहीं, जैसे न उसके साथ कोई तुम्हारा वर्तामान था, न अतीत और न भविष्य- एक उल्का पिण्ड की तरह जल कर बुझ गया था नाम! खारिज!
''
चलो अच्छा ही हुआ,'' वीणा खुद पर हंसी, '' मन के किसी कोने में कोई लोभ था कि तुम्हारा कोई श्रेय स्वीकार मिल गया तो मैं अपने रीतने - बीतने को कुछ तो जस्टीफाइ कर सकूंगी, खुद को खुद के प्रति गुनहगार होने से थोडा तो बचा लूंगी, मगर नहीं! ''

तो हे परमहंस! तुम्हारo आप्त वचनों को ही आदर्श मान कर खुद को फिर से पा लेने की कितनी ही कोशिशें की वीणा ने मगर समय बीत चुका था और सब कुछ गलत होता चला गया बाप का नाम भी बेच खाया शराब तक पीने लगी, पीकर टुर्रऽऽ! बेटी कला तक के साथ न्याय न कर पायी बुत बनती जा रही है बेचारी! वक्त का तकाजा था कि वीणा  अग्निवीणा में तब्दील हो जाती मगर बन कर रह गई क्या - महज असाध्य वीणा!
तमाम
उम्र का हिसाब मांगती है जिन्दगी! तुम्हारे हिसाब में क्या जायेगा - सीढी और सीढी! और उसके हिसाब में सांप और सांप! वह तुम्हारी सीढी तुम उसके सांप!

जमाने के लिये ये सारे अभियोग व्यर्थ हैं इतिहास बडी विचित्र वस्तु है, जो कल, बल, छल, संयोग या सहयोग से फॉर फ्रंट पर आ जाता है, वही इतिहास बनता है बाकी सब कूडा तुम्हारे जैसे लोग ही आज पद, पीठ, पुरस्कार बटोर रहे हैं तुम इण्डिया टुडे ( आज के भारत) हो

हे आज के इण्डिया! हमें मालूम है, मानपत्र की यह भाषा नहीं है, कम से कम तुम तो इस भाषा ( कहें, नाद) के अभ्यस्त नहीं वह तो पुष्प, अगरु की गन्ध बोझिल हवा में शंख, घण्टे, घडियाल, तुरही और मंत्रों के गहगहाते घमासान में कंचन थाल में नाचती लौ की नीराजना होती है, मगर इन तमाम उल्लासमयी ध्वनियों के आतंक के बीच उस रक्तपंकिल बलि की वेदी के दोनों ओर कटकर तडपते बलि - पशु की डूबती धडक़नों का भी एक मौन नाद होता है, वह भी एक मानपत्र ही होता है, कोई सुने न सुने, बांचे न बांचे

नहीं, अब न कोई रार - तकरार न कोई आरोप, न उलाहना! सार्त्र ने कहा थापति - पत्नी दो नहीं बल्कि एक ही सत्ता हैं, एक को दूसरे में विसर्जित हो जाना पडता है चलो ठीक है, विसर्जित हो गई वीणा दीपंकर में घुल गई रंजक साबुन की तरह अपना सारा रंग तुम पर चढा कर उसे जलाओगे या दफनाओगे? जला ही देना, नामो - निशान ही मिट जाये और चिता के लिये लडकियां? याद है, कामिनी कुंज जहां तुम दोनों का प्यार अंकुरित हुआ था काफी होगा वह कामिनी - कुंज चिता के लिये

- तुम्हारी वीणा

 

पुन:श्च - सोचा था यह मानपत्र तुम्हें भेज दूंगी इस बीच तुम आ गये भेज न सकी फिर सोचा, जाते समय तुम्हें हाथों - हाथ दे दूंगी दे न सकी कारण? इस बीच वह विस्फोट हो गया

यह तो मालूम था कि तुमने फिर कोई शादी रचा ली है, मगर यह भी कोई बात नहीं दिक्कत तो तब हुई जब तुम अचानक आ धमके और मुझसे कसम तोडक़र बोले, '' शादी का यह कतई मतलब नहीं है कि मैं तुम्हारी और कला के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहता हूँ। चाहता हूँ, उसकी शादी हो जाये तुम उसके ज्यादा करीब रही हो, पहल तुम्हीं करो तो अच्छा हो''

मैं ने बहुत सोचा, फिर तुम्हारी बात बाजिब लगी कला कहीं बाहर जाने को तैयार हो रही थी कि पिछले दरवाजे से उसे पुकारा, '' बेटी, तुमसे एक बात कहनी थी''

कला हमेशा की तरह मौन रही धीरे - धीरे मैं अपने मकसद पर आयी, '' बेटी! मेरी जिन्दगी का कुछ भरोसा नहीं तुम जवान हो चुकी हो हम बूढे मैं जीते - जी तुम्हारे हाथ पीले कर देना चाहती हूँ। तुम्हें कोई लडक़ा पसन्द हो तो बता दो, वरना हम खुद ढूंढ लेंगे''
कला ने जैसे सुना ही नहीं वह चुपचाप जूती पहनती रही, बैग सजाती रही फ़िर चल पडी, मगर उसे रुकना पडा, दूसरे दरवाजे पर तुम खडे थे रास्ता रोककर एक दरवाजे पर मां थी, दूसरे पर पिता, दोनों तरफ से घेर रहे थे दोनों, जैसे वह कोई सिकार हो ठिठक गई मां की ओर मुडी, '' इस खानदान की एक गौरवशाली परम्परा सुनी है, मां( पता नहीं क्यों सिखलाने पर भी उसने मम्मी, पापा नहीं कहा कभी!) कि बुजुर्ग जाते जाते अपनी सन्तानों को मूरत गढने की कला सिखाना नहीं भूलते यह भी कुछ वैसा ही आयोजन है क्या?''
''
यही समझ लो''
''
कौन सी मूरत छिन्नमस्ता की?''
''
क्या कह रही हो?'' मैं जो पहली बार उसके खुलकर बोलने पर खुश हुई थी, सहसा चौंक पडी
''
तो सुन लो मां, मैं वह मूरत गढने नहीं जा रही तुम्हारी तरह''

लगा कला ने बाबा की पखावज उठा ली हो और किले की पहली ईंट गिरी हो हमारे सीने पर, ढम्म!
''
वह विवाह प्रथा, जो किसी को बीहड - बंजर बना दे उसे मैं जूती की नोक पर रखती हूँ, थूकती हूँ महानता के चोंचलों पर, कला के नाम पर चलाए जा रहे तमाम ढकोसलों पर आय हेट! आय हेट!! आय हेट सच ऑल हीनियस हिप्पोक्रेसीज, दीज मेल एण्ड फीमेले शोवेनिज्म्स!''
''
पागल मत बनो बेटी! जरा सोचो, तुम्हारी सामाजिक सुरक्षा का क्या होगा? कहीं ऊंचे - नीचे पांव पड ग़या तो क्या होगा? '' प्राणपण से मैं ने रोकना चाहा उस विध्वंस को
''
सुरक्षा? यह तुम बोल रही हो मां? ऊंचे - नीचे पांव ? च्च! च्च्च!! इतनी फिक्र! नाहक दुबली हुई जा रही हो मां जब जिसके साथ जी आयेगा रह लूंगी, जिसके साथ मन करेगा सो लूंगी मुझे अहसास हो गया है कि देह ही ठोस सत्य है बाकी कला, प्रतिभा, सृजन देह की ऊर्जा का विस्तार! मुझे तुम दोनों की तरह न महान बनने का लोभ है, न अमर बनने का! सुनो मां, मैं अपनी एंटिटी से किसी भी खुदगर्ज को खिलवाड नहीं करने दूंगी - चाहे वह मां हो या बाप हो, पति हो या सन्तान हो या एक्स, वाई, जेड़, गैर कोई''

बुर्जियां, मेहराबें, अटारियां, कंगूरे ही नहीं किले की एक - एक ईंट, एक - एक पत्थर ध्वस्त हो चुका था और उसकी जगह उभर कर आया था, वह क्या था! कितना हौलनाक!
मैं सन्न रह गई थी

तुम कांपे और लडख़डा कर गिर पडे

ख़ट - खट जूतियां खटकाती हुई दरवाजे से बाहर निकल गई कला
पीछे मुडक़र ताका भी नहीं

जानते हो, पता नहीं क्यों, इन बर्बादियों के बावजूद मुझे अपनी कला पर नाज रहा था

याद आया सैंकडों वर्ष पहले सेंट अगस्टाइन ने कहा था, '' मैं ने फूलों से निकलती हुई ध्वनियां सुनी हैं और वे ध्वनियां देखी हैं जो जल रही थीं''

                                                        इति

                                                                     कला की माँ

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-संजीव
अगस्त 1, 2004
 

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