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एक गांव, अभी भी शहर में है दरअसल सारा किस्सा 'छेदी' के आने के बाद शुरू हुआ था। छेदीयानि गांव की 'पक्की-महक का अस्तित्व लिए हुआ एक ऐसा प्राणी, जिसे मेरे ही बीबी-बच्चों ने बेरहमी से नकार दिया था। शायद, सारा कुछ मैं आसानी से संभाल ले जाता। यदि उस दिन- उस दिन वो दुर्घटना नहीं हो गई होती। जैसा कि उसे उम्मीद थी, शालिनी बिगड ग़ई थी- तुम्हें तो अजूबे पालने का शौक हो गया है। अजूबा देखा नहीं कि घर ले आये गांव का है इससे क्या होता है। ''कुछ पैसे-वैसे देकर..'' ''नहीं शालिनी''- उसे बुरा लगता है- वह बाहर ही है। ज़रा धीमे बोलो न, वह सुन लेगा।'' ''तुम चाहते क्या हो?'' ''मास्टर जी ने पत्र भेजा है अब वह यही रहेगा। हर्ज ही क्या है। बाहर कहीं भी लेट पड रहेगा। एक तरह से घर की चौकीदारी भी हो जायेगी। खाना भी बना देगा आखिर तुम भी तो कह रही थी। दिल्ली में सर्वेट नहीं मिलते।'' शालिनी कुछ सोच रही है जैसे वह खुद को तैयार कर रही हो ''मगर इसका पहनावा? विक्रम, नताशा और उर्मी के फ्रेण्ड्स आते हैं उसे समझाना होगा।'' ''समझा दूंगा।'' ''ठीक है।'' शालिनी बे-मन से इजाज़त दे देती है। शाम में स्कूल-कॉलेज से लौटने के बाद बच्चों ने भी शोर मचाया पापा, इस गंवारू को कहां से उठा लाये?'' घर में घुसते ही बाहर प्लंग लगी है। और प्लंग पर इस वक्त गहरी नींद में सोया था, छेदी। सबसे पहले उसे नताशा ने देखा। मुंह बनाकर और बैड-स्मेल ने नाक बन्द करती हुई वह तेज़-तेज़ कदम पटकती अन्दर आ गई थी। फिर विक्की आया। फिर उर्मी। उसे देर तक सबको समझाना पडा था। हर्ज ही क्या है। रहेगा। काम करेगा आखिर इससे जाता ही क्या है रही कपडे लत्ते पहनने की बात, तो ऐसे लोग पानी की तरह होते है। जिस बर्तन में रख लो वही रूप ग्रहण कर लेंगे उसे साफ़ कपडे दो बताओ तो, तौर - तरीके भी जान जायेगा।'' बेमन से छेदी के वजूद को सबने तस्लीम कर लिया था। मास्टर जी ने ठीक ही लिखा था। छेदी सचमुच का का धनी था। हर वक्त काम में लगा रहता घर के बाहर छोटी सी फुलवाडी थी। फुलवाडी के पास ही उसका पंलग बिछता था। थक जाता तो वहीं लेट जाता। यो भी गर्मी का मौसम था। दो-चार दिन हो गये थे। वह तो छेदी से गांव के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता था। बहुत कुछ पूछना। लेकिन छेदी को तो जैसे 'सरकार' के अलावा कुछ बोलना आता ही नहीं था। मेम साहब, विक्की साहब, नताशा मेम साहब। किसको क्या पुकारना है, कैसे पुकारना है। सब उसका समझा दिया गया था। जैसे उसे उमीद से कहीं ज्यादा मिल रहा हो। उसकी चुप्पी पर उसे कुढन सी होती। मगर अपने रूतबे व ओहदे का लिहाज़ करते हुए, व खुद कुछ पूछते हुए अच्छा नहीं महसूस करता था। अब छेदी बहुत कुछ जान गया था। डायनिंग टेबल पर खाना लगाना गेस्ट को वेलकम करना विक्की, नताशा और उर्मी के दोस्तों का ख्याल रखना। शुरू-शुरू में परेशानी ज़रूर हुई लेकिन धीरे-धीरे छेदी ने नये माहौल में खुद को ढाल लिया था। हां कभी - कभी घर से बाहर भेजते हुए डर-सा लगा रहता। नया आदमीं जाहिल गंवार। कभी वह बस का नम्बर भूल जाता। इसलिये वह हमेशा जेब में घर का पता रखा करता। महीने गुज़र गये थे लेकिन छेदी में छिपी गांव की खुश्बू वह अब तक करीब से नहीं देख पाया था। उसकी ख्वाहिश थी छेदी खूब बोलता। गांव के एक से एक मज़ेदार किस्से सुनाता। आखिर उसने एक दिन कह ही दिया छेद अब तुम्हें यहां रहते महीने गुज़र गये। तुम बोलते बिल्कुल नहीं ऐसा करो जब रात में खाना खाने बैठो तो मुझे दिन भर की ख़बरें सुना दिया करना। बिल्कुल रेडियो के बी0बी0सी0 सर्विस की तरह। क्यों ठीक है ना?'' ''ठीक है सरकार'' छेदी की आंखो में चमक थी। वैसी ही चमक-, जैसे अब वह खुलना चाहता हैं। मगर उसे खुलने के लिये, हमारे भीतर बंद पडे, संवादों का उसे इंतेज़ार रहा हो । यहां छेदी से बात करने की फुर्सत किसे थी । नताशा को? विक्की को? उर्मी को? शालिनी को? कौन बात करता उस से? छेदी के पास तो बहुत सारी बातें हैं उसे लग रहा था अब वह खुलेगा। पूरे तौर पर। फिर वह गांव की सौंधी-सौंधी महक के बहुत करीब हो जायेगा। उस वक्त सोचा भी नहीं था कि छेदी को बीबी सी बनाकर कितना बडा अपराध करने जा रहा है वह । हां अपराध । मशीन बनते हुए सच से कितना फासला तय कर लेते हैं हम । झेल नहीं पाते । अनजाने में बोला गया सच, एकदम से सामने आकर मशीन के बेकार कल-पुर्जे की तरह अलग-अलग कर देता है । जैसे भीगे हुए चेहरे परे अचानक पाऊडर की तह उभर आई हो। चुगली खा रही हो । पता नहीं था कि अनजाने में शहरीपन ओढक़र भी भीतर का दब्बू आदमी जिन्दा रहता है। जो थोड-थोडा करके मन को छीलता रहता है। ओम दत्ता को भी छेदी कुछ पसंद नहीं आया था। उसे अजीब सा लगा था। जब एक दिन दत्ता ने पूछा- ''इसे कहीं और काम पर क्यों नहीं लगा देते? उस वक्त उसने कोई जवाब नहीं दिया। अखबार की सुर्खियों को देखने में लगा रहा। आदमी इतना दोगला होता है क्या? अपनी सतह पर। दत्ता ने लिखना बन्द कर दिया था। इसलिये कि लिखने और होने के बीच उसे अपने दोगलेपन का एहसास होता था। मगर छेदी में तो उसे कहानी मिलनी चाहिये थी- जिन्दगी से लबरेज़ कहानी। दत्ता का वाक्य कहीं हरकत करता है 'तुम समझते हो कि उसे आदमी बना पाओगे तो यह तुम्हारी भूल होगी'। वह बोलना चाहता है। आखिर छेदी ने तुम सब का क्या बिगाडा है। कुछ भी तो नहीं। वह कुछ कहता भी नहीं। उल्टा अहसान पर अहसान किये जाता है। आते ही तो खदमत में जुट जाता है। फुलवाडी क़ी सफ़ाई। क्यारियां बराबर करना। घर साफ - सुथरा रखना। खाना बनाना। हां बोलता नहीं है। गांव का बेजान जानवर। कभी-कभी वह छेदी की आंखो में नाराज़गी की रेखायें पढता है। जब-जब नताशा, विक्की या उर्मी के दोस्त आया करते। अन्दर कहीं गांव का आदमी उसमें जाग जाता। उसे लगता, छेदी उससे कुछ कहना चाहता है। मगर नहीं। छेदी वैसा ही सपाट था। शायद छेदी को मोहरा बनाकर ये बातें वह खुद सोच रहा था। माहौल में रची हुई अंग्रेजियत। बच्चों और उनके दोस्तों के हर वक्त के शोर। शालिनी-दत्ता की गुतुगुयें। अनजाने में उसे कितनी कचोटती रहती। मगर अब जैसे हर सतह पर वह ख़ुद से समझौता कर चुका था। ओहदा- रूतबा कभी -कभी किसी मुजरिम से बाते करते हुए, किसी केस पर नज़र दौडाते हुए उसे लगता, दरअसल वह खुद किसी कैद में ही जी रहा है। जहां अनजाने में किये गये गुनाओं के अपराधी उसके आस-पास घूम रहे है। लेकिन उनके अपराध पर सबकी आंखे बन्द है। वह उन्हें कोई सज़ा नहीं सुना सकता। हां, ऐसे में उसकी ख्वाहिश होती, कि वह अपने कान बन्द कर ले। उसकी चीख़ने की ख्वाहिश होती। बच्चों के पहनावे और उनकी आज़ादी पर वह जैसे अन्दर से लहुलुहान हो जाता। यह नस्ल बर्बाद हो रही है कृष्णकान्त। तुम इन पर कोई अंकुश नहीं लगा सकते। तुम्हारे अन्दर का पौरूष सो रहा है। नहीं सो चुका है। कितनी धमक है। वह टुकडे-टुकडे टूट रहा है। नहीं टूट चुका है। कुछ कह नहीं सकता। बस, बिजी रहना चाहते हैं अपने-आप में। अपने काम में। किसी से कोई मतलब नहीं। शायद अब घर की, कोई भीतर-भीतर चुभ जाने वाली कल्पना नही रही। यह शब्द, अपना मायनी खो चुका है। एकदम से खोखला हो गया है। ऐसी परिस्थिति में वह छेदी की ओर ताकता है। ''तो बी0 बी0 सी0 ऑन हो जाओ बताओ क्या-क्या हुआ आज पूरी रिपोर्ट'' रात का वक्त है। नौ बज गये हैं। डायनिंग टेबुल की कुर्सियों पर सब बैठ गये है। गले को साफ करता हुआ छेदी पूरा रेडियो बन गया है। ''यह आकाशवाणी पटना, रांची, दरभंगा, भागलपुर है। अब आप, छेदी लाल से समाचार सुनिये। उसे शर्म आ रही है। इतना कहकर ठहर गया है वह। हा हा वह एक कहकहा लगाता है। थोडी सी हंसी शालिनी के चेहरे पर भी उभरी है। अब वह रिपोर्ट दे रहा है। सुबह से कब उठा। किस वक्त पोछन लगाई। चाय बनायी। मेम साब को उठाया खाना बनाया। और शालिनी के हाथ रूक गये हैं। अपनी धुन में छेदी कहता जा रहा है साढे ग्यारह बजे दत्ता जी आये। मेम साब से मिलने। दो घंटे चालीस मिनट तक वह मेम साब से बातें करते रहे। इस दर्मियान मेम साहब ने एक बार भी चाय तलब नहीं की। खाना भी देर से खाया। वह अपनी धुन में बोले जा रहा है। वह देख रहा है। शालिनी के हाथों में चम्मच कांप गया है। चम्मच को बेदर्दी से शीशे के प्लेट में पटकती हुई उसेन कुर्सी छोड दी है। झटके से कुर्सी खैंच कर वह अपने कमरे की ओर बढ ग़ई है। बच्चों ने भी हाथ रोक दिये है। सबकी आंखो में तेज़ जलन है। चिंगारियां निकलती हुई। सब आधा पेट खाकर कुर्सी छोडक़र उठ गये है। छेदी आश्चर्यचकित सा खडा है। जैसे उसने गलत क्या कह दिया? ऐसा क्या कह दिया? बच्चे बेसिन में हाथ धोकर ऊपर की सीढियां चढते चले गये है। डायनिंग टेबुल पर अकेला खडा है छेदी। ''सरकार कुछ गलत हो गया क्या?'' ''नही'' ''सब बिना खाये उठ गये सरकार-- ''आवाज़ कांप रही है छेदी की। मैंने कुछ गलत... ''नहीं'' ऊपर से लेकर नीचे तक काठ हो गया हूं- बर्तन बाद में ले जाना। जाओ आराम करो तुम!'' अंदर कहीं हलचल सी है। दत्ता उ सकी अनुपस्थिति में भी शालिनी से मिलने आता है। आता भी है तो क्या हुआ? शालिनी को इस तरह उठना नही चाहिये था। वह दबे कमज़ोर कदमों से अपने कमरे में लौट रहा है। ढेर सारी शिकायती आंखे उसकी प्रतीक्षा में हैं। अब समझा तुम इसे क्यों लाये हो। मज़ाक-मज़ाक में तुम इस पर निगरानी रख रहे हो। हमारी रिपोर्ट चाहिये तुम्हें। शालिनी की आंखे आग बरसा रही हैं। बच्चे नाराज़ है। इसे निकाल दो पापा। अभी गेट आऊट कहो। इसने मम्मी की इन्सल्ट की है। दत्ता अंकल की भी। निकाल दो पापा। इसकी इतनी मजाल कैसे हुई। हमारी भी कुछ प्राइवेसी हो सकती है। यह इस तरह हम पर निगाहें रखेगा तो'' बच्चे बहुत बोल गये है। शालिनी भी इसे सब मिली-जुली साजिश मान रहे हैं। उसकी और छेदी की। वह प्रसंग से कटना चाहता है। कल ही उसके पास अश्वनी प्रसाद वल्द शारदा प्रसाद की फाइल पहुंची है। उसने अपनी पत्नी और उसके प्रेमी की हत्या की है। इसलिये कि उसक पत्नी का'' अश्वनी का ख़ींचा चेहरा उसकी आंखो में उतर रहा है। छेदी का सहमा-सहमा चेहरा भी एक तरफ़ हैं। कुछ भूल हुई क्या सरकार? हमारी भी कुछ प्राइवेसी हो सकती है बच्चे जिद पर अडे है। गांव की मदमाती सौंधी-सौंधी खुश्बू से वह एकदम कट गया है। क्या कहे कि तुम सब मिलकर मुझे कैद कर रहे हो। मेरे अंदर के उस गांव को कुचल रहे हो। इस मशीनी शहर से अलग, जिसे फिर से जिन्दा करने का ख्वाब देखा था मैंने। तुम सब मिलकर उस नस्ल को खत्म करना चाहते हो जो सच बोलती है। हकीक़त कहती है। वास्तविक उगलती है। कितने चेहरे दत्ता के, शालिनी के, बच्चों के और सिर झुकाये खडा है छेदी। वही गठरी, जिसे पहली बार लेकर वह घर आया, वहीं गठरी हाथों में पकडे हुए। झुका हुआ सिर। ''शायद हमरी ज़रूरत यहां नहीं रही।'' ''कहां जाओगे तुम?'' ''दिल्ली बहुत बडी है साहब।'' ''तुम कहीं नहीं जाओगे छेदी। तुम यहीं रहोगे। जाओ, अपना सामान रखो और आराम करो।'' कह कर लगा था, घर वालों से एक बहुत लम्बी जंग लडनी पडेग़ी मुझे। बच्चों से। शालिनी से और भीतर बैठे आदमी से भी, जो बार-बार सवाल पूछता रहेगा। छेदी की उपस्थिति में भी शालिनी का किसी गैर मर्द से संबंध है क्या? बच्चे अपनी मर्यादाओं के घेरे से बाहर निकल रहे है। क्या? उन पर उसका कोई बस नहीं रह गया है। निठल्ला और नुंपसक। ठंडी सांस भरता है वह। उसे लगता है वह एक पेंडुलम की तरह झूल रहा है असहाय यों ही झूलता रहेगा। हालात के घेरे तंग होते जायेंगे और एक दिन- ''साहब चाय पियेंगे आप ''छेदी खडा है आवाज़ मारी सबके लिये चाय बनायी साहब। घर के हर फर्द के लिये। खाने के बाद सब ही चाय पीते थे। रोज़ाना ही। लेकिन आज किसी ने चाय नहीं पी साहब। कोई सीधे मुंह बात ही नहीं करता। समझ में नहीं आता। हमसे क्या गलती हो गई साहब। हम सच कहते हैं साहब। हमारा कोई दोष नहीं। विक्की बाबू, नताशा मेम साब, उर्मी बिटिया, सबके सब गुस्सा लगते हैं साहब।'' अच्छा अच्छा चाय रख दो सब ठीक हो जायेगा।'' छेदी चाय रखकर चला गया है। जानता हूं सिर्फ नहीं अशांत नहीं है। मन की सतह पर रखा हुआ पत्थर जितना अशांत मुझे बना रहा है, उतना छेदी नहीं हो सकता। रात में जैसे मीटिंग बैठी थी। खोये-खोये गम्भीर बच्चे, फूली हुई सुर्ख आंखे लिये शालिनी। गुस्से में दिखाई दी थी उर्मी। ''यह क्या तमाशा है डैड।'' बहुत देर बाद उसने होंठ खोले- 'गोया, यह सीरियसनेस ओढक़र तुम सब ये कहना चाहते हो कि छेदी ने अंजाने में जो कुछ कहा है, उसका सच से कुछ सम्बन्ध है। 'माने? शालिनी को झटका लगा था। 'वह तो बुध्दू है बेचारा। फुलिश बेवकूफ उसे काम करने दो, इनकी बातों की नोटिस ही क्या लेनी । विक्की ने तेवर बदले थे- 'डैड ऐसा कह कर तुम मम्मी पर...'' पल में लगा था, हालात कल जैसे नहीं रहे। बदले हुए ज़माने में रिश्तों ने, तहज़ीब, आदर्श ओर नयापन का जो भी लिबास बच्चों की शक्ल में पहना है उसे गांव वाले कृष्ण को समझाने में मदद ही नहीं, शायद कई जन्म लेने पडे। यह 'कोर्ट आफ हाऊस है, जहां किसी कैदी जैसा, उसे बच्चों और बीबवी के कटघडे में ला खडा किया गया है। उसका कसूर है कि उसेन अंजाने में घर के नौकर से यह सुनने का पाप किया है कि उसकी पत्नी, उसकी गैरमौजूदगी में किसी पराये मर्द से मिलती है। उसके बच्चे भी यह बात गवारा नहीं कर सकते। नताशा भी गुस्से में है ' हर आदमी की अपनी एक अलग प्राइवेट लाइफ होती है। आफकोर्स होनी भी चाहिये। मम्मी की है। तो इसका मतलब यह नहीं कि मम्मी का ओम अंकल से...'' वह सन्नाटे में आ गया है। उसके कानों में जैसे ढेर सारे पिघले सीसे उतर रहे हों। बच्चे बोल रहे है। शालिनी अपने पक्ष पर बच्चों के बयान के मज़बूत बाट चढा रही है। और वह बस सन्नाटे में है। गहरे अंधेरे से जन्में, नहीं खत्म होने वाले सन्नाटे के बीच। दो -चार रोज़ गुजरे। कुछ दिन पहले आयी हुई आंधी से इतना फायदा तो जरूर हुआ कि छेदी मुझसे ज़रूर खुल गया था। यों घरवाले अब तक नाराज़गी ओढे थे। लेकिन छेदी की बातों में, गांव की उस मदमाती खुश्बू का स्पर्श मिलने लगा था। अक्सर जब भी तन्हाई में होता, छेदी किसी रेडियो जैसा आरम्भ हो जाता। साहब यह दिल्ली के बबुआ लोग समझ में नहीं आता। यह देश कहां जा रहा है। छोकडियों को तो देखो साहब। आखिर हमरे गांव में भी तो रहती हैं छोकडियां। क्या मजाल कि...' वह बोल रहा है। अंजाने तौर पर, उसके बोल के पीछे उभर रहे अक्स में धुंधली-धुंधली विक्की, नताशा और उर्मी की तस्वीरें देख रहा हूं। ''यह छोटे-छोटे बाल वाली औरतें साहब यह मेहरारू से मर्द बनने का फैशन ठीक नहीं है।'' ''बंगाली आया था?'' आराम चेयर पर उंगली की गिरफ्त मज़बूत करता हुआ सवाल जडता हूं '' ''हां आया था-'' बोलते-बोलते चुप हो गया है छेदी। अब उठ रहा है वह। फिर भीतर जायेगा बिटिया मानता है ना शालिनी को। गांव के रिश्ते से। और बिटिया को यों देखकर। कभी-कभी ख्वाहिश होती है। मर्यादा की थोडी सी सीमा तोडक़र एक दिन छेदी फट पडे साहब, यह ठीक नहीं है शालिनी का इस तरह बंगाली बाबू से मिलना। बच्चें की स्वतंत्रता। उस दिन ओम दत्ता बहस के मूड में थे। शाम के सात बजे होंगे। चेहरे पर गंभीरता ओढे हाथ में अखबार थामे। नमस्कार का उत्तर देने के बाद वह पास वाली कुर्सी पर बैठ गये। ''आज की महत्वपूर्ण खबर पढी तुमने? ''कौन सी?'' ''वह शिखा और अनिल वाली। पत्नी का प्रेमी दोनों बच्चों को बहका कर मंदिर ले गया। वहां रस्सी से बांधकर पेट्रौल छिडक़ कर उन पर आग लगा दी। दोनों बच्चे मर गये। पति का बयान है कि उसकी पत्नी दो बार अपने प्रेमी के साथ भाग भी चुकी है। दोनों ने मिलकर ही यह षडयंत्र रचा था, कि अपने रास्ते के रोडे यानि बच्चों को मार डाल जाये। इसलिये कि बच्चे, इनके सम्बन्धों की जानकारी पिता को दिया करते थे।'' ''हां पढी है यह ख़बर। इस तरह की औरतों को तो भरे बाज़ार में सज़ा दिलानी चाहिये। बच्चों की भी परवाह नहीं। ज़ालिम...'' गौर से देखना है ओमदत्ता उसकी तरफ़-- तुम यह कहना चाहते हो कि पूरा-पूरा दोष उसकी पत्नी का है। गोया शादी के बाद किसी महिला को किसी दूसरे से प्रेम करने का कोई हक नहीं। किस ज़माने में रह रहे हो तुम'' ...दत्ता तेज़-तेज़ बोल रहा है- हम आज जिस समाज में रह रहे है वह बडे बे-जान उसूलों, बंधनों और बेडियो के बीच हमारी आज़ादी से खोल रहा है न अभी हम इतने सभ्य हुए हैं, न कानून। अगर पत्नी अपने बच्चों से आज़ाद होकर अपनी पसंद के किसी दूसरे मर्द के साथ रहना चाहती है तो ऐसा सम्भव क्यों नहीं है। यह गलत-सलत बेडियां हैं, कृष्णकांत, जिसने एक महिला को अपने बच्चों की हत्या करवाने का षडयंत्र रचने पर मज़बूर किया है।'' जाने क्या-क्या दत्ता बोल रहा है। लेकिन कानों के पास कहीं समुद्र की घन-गरज का शोर आरम्भ हो गया है। एक हल्का सा हस्तपेक्ष करता हूं। ''और भी तो बहुत से रास्ते थे उनके पास। आखिर वह दोनों डायवर्स। बच्चे अपने पिता के पास रह जाते। कोई मां इतनी भी ज़ालिम हो सकती है। मैं सपने में भी नहीं सोच सकता।'' ''यह तुम्हारी गलत सोच है'' ...दत्ता बुरा सा मुंह बनाकर कहता है। ''दरअसल एक जी जीवन की कल्पना है हमारे पास एक ही सुन्दर जीवन की जो मिला है हमें। जीने का। अपने मतलब से। अपने अंदाज से गुज़ाने को। और वह भी चन्द बेमानी समाजी रस्मों, बन्धनों और घुटन की नज़र हो जाये तो? मैं इस सोच के ही विरूध्द हूं। इस ख़ोल से हम सब को बाहर निकलना है। ओमदत्ता की तेज़-तेज़ आवाज़ सुनकर शालिनी भी आ गई है। मैं फिर से अख़बार पढने लगा हूं। बेमानी आंखे बेकार सी ख़बरों पर घूम रही है छेदी पूछने आया है चाय बनाऊं साहब? दत्ता को देखकर उसके चेहरे पर एक रंग आकर गुज़र गया है। वापस किचन की ओर लौट गया है छेदी। ओम ने कुर्सी छोड दी है। अभी-अभी बोले गये दत्ता के शब्द समुद्र के कोलाहल की तरह कानों के पास दहाड रहे है। क्या सच है और क्या गलत। इस प्रसंग से बचना चाहता है वह। उसे याद आया कुछ दिन हुए वह अपने बच्चों को लेकर नेशनल म्यूजियम गया था। जहां उसके बच्चे एक बडे ज़ानवर के 'स्कलटन' को गौर से देख रहे थे..। विक्की ने अपने जनरल नॉलेज का तीर छोडा था ''यू नो उर्मी, डायनासोर की जेनेरेशन क्यों समाप्त हो गई मेरे विचार से इतने बडे ज़ानवर को जिस तरह के हवा-पानी की ज़रूरत थी, वह उसे मिल नही सका।'' धीरे-धीरे शून्य में डूबता जाता हूं। कितनी तस्वीरें सामने है। धुधंली - तेज़ फीकी भयानक सब तस्वीरें मिलकर चारों ओर से मुझे घेर रही है। कितनी बदल गई आबो-हवा। एक पीढी से दूसरी पीढी क़ी ओर आते हुए। लेकिन नई पीढी क़ी आबो-हवा एकदम ही और है। उसे लगा विक्की ने ठहाका लगाया है ''यू नो उर्मी, पुरानी पीढी क़े जानवर इसलिये ख़त्म हो गये कि...'' सन्नाटे में पता नहीं कहां से सामने निकल कर खडा हो गया है अश्वनी प्रसाद वल्द शारदा प्रसाद। जेल की तंग कोठरी में हुए, उकताये से कुछ संवाद अब तक उसके कानों में बज रहे थे..। ''अश्वनी प्रसाद'' ''कल तुम्हें सज़ा हो ज़ायेगी अश्वनी प्रसाद।'' उसने सिर झुका लिया है। ''तुम्हें कोई दुख? ''मुझे कोई दुख नहीं सर..'' ''तुम अपनी सज़ा घटाने की अपील कर सकते थे। तुमने अपना कोई वकील भी ठीक नहीं किया।'' ''वकील कैसा सर। मैनें दोनों को मारा है। राघवन को भी। पत्नी को भी। इसलिये कि दोनों विश्वासघाती थे।'' ''तुम्हें अपने पाप पर'' ''मैनें कोई पाप नही किया।'' ''तुम्हें अपनी से प्रेम था?'' ''हां पहले था। जब तक नहीं जानता था कि वह राघवन से फंसी है।'' ''और अब जान गये तो? ''पहले जब सुना तो कानों को विश्वास नहीं आया। फिर एक दिन दोनों को जब रंगे हाथों पकड लिया तो?'' अश्वनी का चेहरा एकदम शांत है। ''तुम्हें कुछ कहना है?'' ''कुछ नहीं--'' ठक-ठक बजते हुए जूते तंग सलाखों से निकलकर कुछ पीछे लौट गये हैं। अपराधों की वादी मे रहता हूं मैं। जहां दिन रात जुर्म और सज़ा के बही ख़ातों का लेखा-जोखा मेरे आगे खुलता और बंद होता रहता हैं। भयानक - संगीन कत्ल के मुजरिम की दास्तानें पढनी अब मेरे पेशे का एक हिस्सा बन गई है। मेरी अपनी केस हिस्ट्री की फाइल खोजने शायद कोई नही आयेगा। जहां मैं भरा हुआ हूं। व्यवस्था का एक कमज़ोर सा हिस्सा। टुकडा। बेजान सा। जिसे घर वालों ने मिलकर और कुछ अंजाने-बंधनों की जिम्मेदारियों ने, और कुछ मज़बूत 'घेरों' ने मिलकर मृत कर दिया है। एक लाश पडी सड रही है। लेकिन उसका पोस्टमार्टम नही होगा। किसी को सज़ा नहीं होगी। रात के सन्नाटे में कहीं से धीमे-धीमे चलता हुआ छेदी बिस्तर से थोडा फ़ासले पर आकर ठहर गया है। ''साब आप मेम साब को समझा नही सकते ''एक-एक शब्द चबा रहा है छेदी। टूटे-फूटे शब्द। बंगाली का यहां रोज़-रोज़ आना साहब यह ठीक नही है।'' वही, कानों के पास गूंजता हुआ बेहंगम समूद्र का कोलाहल। ड्राइंग रूम से विक्की, नताशा, उर्मी के फ्रैंडस की आवरा आवाज़ें यहां तक रेंग रही हैं। पागल कर देने वाला संगीत और संगीत पर बजते कदम। 'यह नस्ल ख़त्म हो रही है कृष्णकांत। तुम उन्हें रोक नहीं सकते। समझा नहीं सकते। यह चलते-चलते बहुत दूर निकल आये है। तुम्हारे हाथों की पहुंच से बहुत दूर। आंखों के आगे बचपन की धुधंली-धुधंली तस्वीरों से गुम एक चेहरा उभरता है। मास्टर केदार नाथ का। बहुत शरारत करता है कृष्णा। मास्टर जी भारत की पुरानी सभ्यता एवं संस्कृति का बखान कर रहे है। बैठे हुए बच्चों मं से कोई मुर्गी कुडक़ुडानो की आवाज़ निकालता है। मास्टर जी उस बच्चे को तलाश कर रहे है। सब गुड-चौपट। ऐसे तो भारत की संस्कृति ही समाप्त हो जायेगी। अनर्थ कर रहे हो तुम बच्चों। घोर अनर्थ। घोर पाप। उसे लगता है। गांव की सौंधी ख़ुश्बू से नाता तोडक़र शहर आने का फैसला करते हुए उसने घोर पाप किया है। जहां आज सब कुछ होते हुए भी वह सुकुन उसके पास नहीं है, गांव की आज़ाद फ़िजा में जो उसे हासिल रहा था। वक्त के बदलते ढांचे ने किसी जख्मी जानवर की तरह, पूरी संस्कृति ही चबा डाली है। कई रोज़ से वह छेदी के तेवर पढ रहा है। शालिनी के लिये वह बिटिया का शब्द भी अब इस्तेमाल नही करता कई बार ऐसा लगा जैसे वह कुछ कहना चाहता है। फिर उसका ख्याल कर के चुप हो जाता है। बहुत टूटने-फूटने की हालात में सिर्फ इतना कह पाता है ''साहब मैं गांव जाना चाहता हूं, बहुत याद आती है गांव की'' ''यहां से घबरा गये।'' ''नहीं साहब।'' ''तो मास्टर जी बेचारे तो एकदम से अकेले हो गये होंगे। जाने याद भी करते होगें या नहीं।'' ''गांव अब भी वैसा है ना?'' छेदी चुप हो गया है। शायद गांव की सौधी ख़ुश्बू उसे याद आ गई है। ज़रा ठहर कर पूछता हूं-- ''तू भी कमाल का है छेदी। दिल्ली आने के लिये क्या कारण खोज निकाला। छेदी को शर्म लगती है। ''अच्छा बोल छेदी। तुझे उस लडक़ी की याद आती है जिसकी शादी हो गयी। मुंडी डुलाता है छेदी। चेहरे पर वीरानी छा गई है ''बहुत याद आती है, होंठ लरज़ रहे है उसके। उसके जैसी कोई लडक़ी'' ''तुझे नहीं मिली यहां ?'' ''नही साहब।'' ''अगर मिल जाये तो '' उसे लेकर गांव चला जाऊं ''आंखो में फिर कितने ही दीपक जल उठे हैं। कितनी आरजुएं और तमन्नाओं के दीपक। छेदी ख्वाबों में गुम है आंखे सोच में डूबी हैं। ज़हन में कुछ धुंधलके से उभर रहे हैं। गांवों की सौंधी-सौंधी ख़ुश्बू से दिल्ली की चौडी-चौडी सडक़ों वाले सफ़र की पूरी कहानी घूम गई है। वह केवल अन्दर घुटे हुए शब्दों को चबाना चाहता है। अपने चीथडे एहसास की जुगाली करना चाहता है। वह गहरे सन्नाटे में है। पागल कर देने वाले सन्नाटे के बीच। शायद अपने ही बनाये गये ऐसे 'घेरे' के बीच, जिससे चाहकर भी वह बाहर नहीं निकल सकता। उसे लगता है छेदी के साथ ही गांव की ख़ुश्बू भी शरीर से किसी आत्मा की तरह पलायन कर गई है। अब वह बेजान है और निर्जीव। पता नहीं कितना बजा आज तो पूरा नियम ही जैसे बदल गया है। खिडक़ी से पर्दे भी नहीं खींचे गये। और कानों में कहीं बुदबदाते स्वरों की झडी लगी है। साहब बहुत सोते है आप। ज्यादा सोने से सेहत खराब हो जाती है। आंखों में, कहीं उस गंवार ने पूरी जगह घेर ली है। एक गहरे सन्नाटे के बीच जैसे वो किसी मज़बूत इरादे की डोर से बंध गया है। अब केवल अंतिम संवाद रह गया है। 'जा रहा हूं साहब। कहा? नही कह सकता पर यहां नहीं रह सकता साहब। यहां सब कुछ गांव की माटी से दूर लगने लगा है। झुकी नज़रें। वही गठरी लिये। जो एक बार पहले भी, उसके लरज़ते हाथों में समा गई थी। पहले भी। तब तो समझा भी लिया था। मना लिया था। लेकिन अब। नज़रें फेरते हुए आंखों में कही मोटे-मोटे 'डोरे' स्वयं ही उतरते जा रहे है। बहते जा रहे है। छुक छुक छुक... कल ही ख़त आया था। गांव से। मास्टर जी नहीं रहे। मरने से पहले मास्टर जी ने टूटे-फूटे शब्दों में उसे ख़त लिखवाया था उस ख़त के साथ एक और ख़त नत्थी था, जो गांव के ही किसी आदमी ने लिखा था। ख़त मे इतना लिखा था मास्टर जी नहीं रहे मास्टर जी मरने से पहले आपको बहुत याद कर रहे थे। यह ख़त दिया है। वही हैंडराइटिंगं टूटी-टूटी बिखरी-बिखरी। उसकी निगाहें धुधंली-धुधंली तस्वीरों के बीच मचल रही हैं। लिखा है- 'छेदी कैसा है, उसका खूब ख्याल रखना। मेरा कोई ठीक नहीं। हो सकता है, ये पत्र मिलने तक। छेदी गरीब को दुखी मत होने देना। तुम पर भरोसा है। बहू को, बच्चों को बहुत-बहुत दुआ-प्यार। छेदी को भी मेरा अन्तिम प्रणाम। बरायेकिट में लिखा था.. हो सकता है, मेरी बीमारी या मृत्यु का समाचार, सुनकर वो वहां से आना चाहे। मगर उसे रोके रखना। वो पागल है। मुझे जो जिन्दगी जीनी थी, मैं जी चुका। उसका पूरा-पूरा ख्याल रखना। तुम्हारे भरोसे ही छोडे ज़ा रहा हूं।''
मुशर्रफ आलम ज़ौकी |
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