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डा शांता

शांता का चेहरा तमतमा गया, महीनों से विषम परिस्थितियों को झेलने के कारण पीले पडे ग़ाल लाल हो गये, असमय में उमड ने वाले आंसू पलकों की कोरों पर झांकने लगे, एवं उसकी टांगें ऐसे कांपीं जैसे पैरों तले भूकम्प आ रहा हो यद्यपि उसने यदा कदा सुना था कि शासन एवं प्रशासन में अन्याय का वर्चस्व है और प्रायः अन्यायी की ही जीत होती है, परंतु उसने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि अत्याचारी को अत्याचार करने से रोकने मात्र पर शासन द्वारा उसे इस प्रकार प्रताडित किया जा सकता है ऐसी चोट जिसके लगने पर आह भरना भी मना हो, की टीस गहरी होती है- शांता अपने अंतस् में लगी इस गहरी चोट से तिलमिला गई थी

''सौरी, यू हैव बीन ट्रांस्फर्ड टु डिस्ट्रिक्ट सोनभद्र (खेद है आप का स्थानांतरण जनपद सोनभद्र को कर दिया गया है)'', डा चावला ने जब यह कहते हुए स्थानांतरण आदेश डा शांता की ओर बढाया था, उनके होठों पर एक अर्थपूर्ण कुटिल मुस्कान फूट रही थी। डा चावला के चेहरे पर झलकता सैडिस्टिक प्लेज़र डा शांता के अंतस्तल में घुसकर उसके स्व को जितनी निर्दयता से मसल रहा था, वह उतना ही प्रयत्न अपने पराजयजनित क्षोभ को डा चावला के समक्ष प्रकट न होने देने का कर रही थी। उसने यथासम्भव अपने पर नियंत्रण कर चुपचाप आदेश प्राप्त कर हस्ताक्षर कर दिये।

''बिहेव योरसेल्फ़ सर (सर, अपने व्यवहार को शालीन रखिये)''शांता ने दो माह पूर्व ही बेली अस्पताल, इलाहाबाद में अपनी प्रथम नियुक्ति पर योगदान दिया था। उसे वहां आने के कुछ दिन पश्चात ही सीनियर सुपरिंटेंडेंट डा चावला के सभी महिला मातहतों को अपनी भोग्या मानने के किस्से सुनने को मिले थे। उसने मन ही मन अभ्यास करके अपने को ऐसी किसी परिस्थिति के उत्पन्न होने पर उचित, संयत एवं प्रभावी उत्तर देने हेतु तैयार कर रखा था। अतः गत सप्ताह वह डा चावला द्वारा ओ टी में अशिष्टता से उसका हाथ पकड लेने पर उन्हें अपने व्यवहार को संयत रखने की चेतावनी बिना विशेष प्रयास के दे सकी थी, और वह अपने पर गर्वान्वित थी कि उसने सरलता से उस अस्पताल में अपना भविष्य निरापद कर लिया है। परंतु शांता शासकीय सेवा में नयी थी और प्रशासन में भ्रष्ट लोगों के दांव-पेंचों से अनभिज्ञ थी। उसे लेशमात्र भी आशंका नहीं थी कि इस घटना के पश्चात शासन उल्टे उसी को दंडित करेगा- जनपद सोनभद्र के दुरूह जीवन एवं असुरक्षित परिस्थितियों में किसी अकेली स्त्री को नियुक्त कर देना तो उससे बलात् त्यागपत्र ले लेने के समान है।

अपने कमरे में आने पर शांता का प्रथम आवेश में मन हुआ कि वह अविलम्ब अपना त्याग-पत्र दे दे, परंतु अपनी विधवा रोगग्रस्त मां और घरके अन्य खर्चों का खयाल कर उसने अपने आसुओं को वापस अपने हृदय में पी लियाफिर उसे अपने पिता के द्वारा कहे शब्दमनुष्य वह चिढाया जाता है, जो चिढता ह याद आ गये और उसका आत्मविश्वास लौट आयाउसने उसी दिन अपना कार्यभार त्याग कर अगले सप्ताह बस से रौबर्ट्गंज को प्रस्थान कर दियाउसके चलते समय मां की आंखों की कोरों पर अश्रु छलक आये थे- अपने रोग की चिंता से अधिक बेटी के सुरक्षित भविष्य की चिंता में उनका हृदय दग्ध हो रहा थाशांता के चले जाने के बाद वह पल्रंग पर लेटीं देर तक रोतीं रहीं थीं

कार्तिक माह की कुनकुनी धूप इलाहाबाद के विस्तृत भूखंडों में फैले बंगलों, चौडी सडक़ों एवं गंगा­यमुना की शांत धाराओं पर पंख पसारने लगी थी, जब मिर्जापुर होकर राबर्ट्सगंज जाने वाली खडख़डिया बस वहां से चली थीबस काफी खाली थी और शांता अपनी एकांतता को भंग होने से बचाने के उद्देश्य से पीछे कोने की सीट पर अकेली बैठ गई थीशांता ने सोनभद्र जनपद में जीवन की समस्त सुख-सुविधाओं के अभाव के विषय मे और नक्सलियों के आतंक के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था और उसका हृदय अपने भविष्य एवं अपनी सुरक्षा के विषय में सोचकर वैसे ही कांप रहा था जैसे उस बूढी बस के अस्थिपंजर कांप रहे थेउसे यह भी ज्ञात हो गया था कि सोनभद्र के सी एम ओ डा चावला के क्लास-फेलो रह चुके हैं और उसे आशंका थी कि डा चावला का भूत वहां भी उसका पीछा नहीं छोडेग़ानैनी पार होते ही शांता को लगने लगा कि सम्भवतः इलाहाबाद उससे सदैव के लिये बिछड रहा है और उसके मन में अपने बीते जीवन के चित्र घूमने लगे

वह जून महीने की उमसभरी प्रात: थी, विगत रात्रि में पावर-कट होने के कारण शांता व उसके मां-बाप ठीक से सो नहीं पाये थेशांता के पिता बडे अनमने ढंग से अखबार खोले बैठे थे कि चौथे पृष्ठ पर उनकी निगाह पडी, ज़िसमें पी एम टी का परिणाम छपा थाशांता ने उसी साल इंटर पास किया था और टेस्ट में बैठ गई थीकिसी प्रकार की कोचिंग दिला पाना उसके पिता की सामर्थ्य के बाहर की बात थीवह एक इंटर कालेज में क्लर्क थेशांता के पितामह उन्हें इंटरमीडियेट तक ही शिक्षा दिला पाये थे, अतः उनका इंजीनियर बनने का सपना सपना ही रह गया थाअपने जीवन की असफलता की टीस पर मलहम लगाने के लिये वह अपनी इकलौती बेटी को डाक्टर बना देखना चाहते थेकिसी तरह पेट काटकर बेटी की पढा कानवेंट स्कूल में कराई थीउन्हे कतई आशा नहीं थी कि उनकी इसी साल इंटर पास करने वाली बेटी पी एम टी में चयनित हो जायेगी, परंतु परिणाम की सूची के तीसरे कालम में शांता का नाम छपा था आश्वस्त होने के लिये उसका नाम तीन बार पढक़र वह उठे और शांता के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ''शांता, तू मेरी बेटी है पर अच्छे अच्छे बेटों से बढक़र है'' यह कहते हुए उनकी आंखों में प्रसन्नता के आंसू छलछला आये थे उन्होने शांता को गर्व से देखते हुए उसका परिणाम बताया थाशांता ने पिता का आशीर्वाद लेकर उनके हाथ का अखबार लगभग छीनते हुए अपना नाम उसमे देखा और दौडक़र पूजा करती मां को बताने उनके कमरे में चली गई थी

''बेटी, अपनी कालेज की समस्याओं का हल अब तुम्हें ही निकालना होगा। मैं अपनी सामर्थ्य भर तुम्हारी पढाई का खर्चा देता रहूंगा परंतु तुममें और अन्य छात्रों में आर्थिक स्थिति की विषमता इतनी अधिक है कि तुम उनकी जीवन शैली तो कदापि नहीं अपना सकती हो।''

मेडिकल कालेज में फ्रेशर्स की रैगिंग के दौरान शांता के वस्त्रों व रहन सहन के स्तर पर सीनियर लडक़ों ने चुटीली फ़ब्तियां कसीं थीं और उसने सिसकते हुए पिता को यह बात बताई थीउसके पिता निर्धन अवश्य थे परंतु बडे स्वाभिमानी व्यक्ति थेशांता को समझाते हुए वह आगे बोले थे, ''मनुष्य वह चिढाया जाता है, जो चिढता है; डाल वह झुकाई जाती है जो झुकती है प्रतिशोध लेने का एक उपाय दूसरों की आलोचना से अनाहत रहकर अपना स्वतंत्र मार्ग अपनाकर प्रतिद्वंद्वी को उसकी औकात बता देना भी होता है सम्मान उनको मिलता है जो अंत में विजयी होते हैं- तुम अपने पर आत्मविश्वास रखकर एवं पढाई में उन्हें पिछाडक़र उनकी निगाहों में सम्मानीय बन सकती हो''

पिता की एक एक बात शांता ने हृदयंगम कर ली थी- वह किसी के व्यंग्यों से अनासक्त और अनाहत रहकर अपना मार्ग स्वयं चुनने लगी थीशनैः शनैः अन्य छात्र उसकी प्रतिभा एवं स्वतंत्र सोच के कायल होकर उसे सम्मान देने लगे थेउसके एम बी बी एस पूरा करते करते उसके पिता सेवा निवृत्त हो गये थे और दिल के रोगी भी हो गये थे उन्होने आगे पढा सकने की अपनी असमर्थता और शीघ्र विवाह कर देने की अपनी चिंता जता दी थी 

एक सुबह शांता के पिता अपने एक मित्र के साथ टहल रहे थेशांता के पिता उनसे शांता के विवाह की चिंता कई बार बता चुके थेतभी वह मित्र हिचकिवाहट के साथ बोले,''मुझे एक लडक़े के बारे में पता चला है यद्यपि ऊंचा खानदान है और विवाह तय होना आसान नहीं है, परंतु प्रयत्न कर लेने में हर्ज ही क्या हैलखनऊ मेडिकल कालेज के प्रोफेसर नरेश चंद्र द्वारा अपने डाक्टरी पास पुत्र श्याम को लखनऊ में नर्सिंग होम खुलवा दिया गया है, जो वही चला रहा है और अभी तक अविवाहित है''

शांता के पिता को लेशमात्र आशा नहीं थी कि इतने घनी घर में रिश्ता तय हो सकता है, परंतु अपने आत्मविश्वासपूर्ण स्वभाव के कारण वह शांता के विवाह का प्रस्ताव लेकर प्रोफेसर साहब के पास चले गये थे प्रोफेसर साहब शांता के पढाई के सर्टीफ़िकेट्स को देखकर और श्याम शांता के अतीव कमनीय रूप पर लट्टू होकर विवाह हेतु सहमत हो गये थे विवाहोपरांत शांता सातवें आसमान पर थी- सुदर्शन पति, प्रतिष्ठित परिवार और बना बनाया नर्सिंग होमउसके तन और मन उफ़नाती नदी के समान प्रमुदित रहते थे

''मे आई कम इन सर?'' फिर एक दिन इन पांच शब्दों ने शांता के जीवन की नौका को गहरे भंवर में डाल दिया था। डा रिया ने इन शब्दों के साथ न केवल साक्षात्कार हेतु डा श्याम के कक्ष में प्रवेश किया था, वरन् उसके सदैव से चुलबुले हृदय के कक्ष में भी सेंध लगा दी। मृगनयनी रिया के चंचल नेंत्रों से प्रस्फुटित रश्मियां सीधे डा श्याम के अंतस्तल में प्रवेश कर गईं थीं। उन्होने शांता की छवि को वहां से ढकेलकर रिया की छवि को स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया था। प्रथम दिन से ही डा श्याम की रिया से प्रगाढता बढती गई थी और शांता अपने से बढती दूरी देखकर सशंकित रहने लगी थी। एक दिन जब आपरेशन थियेटर में कोई काम न होने पर श्याम रिया को लेकर अंदर चला गया था और दरवाजा बंद कर लिया था, तब शांता ने अंदर से निर्द्वंद्व बाहर आतीं प्रणय-घ्वनियां सुनीं थीं। शांता के कानों में पडने वाली प्रत्येक ध्वनि उसे उसके अस्तित्व एवं सम्मान को धूलधूसरित करती हुई लग रही थी। पीडा और क्षोभ जब असह्य हो गये थे, वह भारी पांवों से नर्सिंग होम के अपने कमरे में चली आई थी। शांता सातवें आसमान से सीधे मुंह के बल ज़मीन पर गिर पडी थी- ज्यों ऊंचे आकाश में विहार करने वाले पक्षी को व्याघ्र के तीर ने निर्दयता से घायल कर दिया हो। शांता व्याकुल हो रही थी कि वह क्या करे? क्या वह तुरंत वापस जाकर ओ टी का दरवाजा भडभडाये और श्याम और रिया को बेनकाब कर दोनो का मुंह नोचने लगे? क्या वह अपनी शिकायत लेकर श्याम के पापा के पास जाये? अथवा अपने पापा से सलाह मांगे?वह कुछ क्षण तक किंकर्तव्यविमूढ रही, फिर उसके मस्तिष्क में उसके पापा के ये शब्द पुनः पुनः ऐसे गूंजने लगे, जैसे ग्रामोफोन की सुई रिकार्ड की पंक्ति विशेष पर अटक गई हो,

''डाल वह झुकाई जाती है, जो झुकती है। प्रतिशोध का एक उपाय स्वतंत्र मार्ग अपनाकर प्रतिद्वंद्वी को उसकी औकात बता देना भी होता है।'' और शांता उसी दिन बिना कुछ कहे अपनी अटैची लेकर अपने मायके इलाहाबाद चली आई थी। श्याम को मनमांगी मुराद मिल गई थी और श्याम के पिता भलीभांति जानते थे कि उनका लडक़ा उनके नियंत्रण के बाहर है। अतः किसी ने शांता की खोजखबर नहीं ली थी। शांता के पिता, जो पहले से हृदय-रोग से पीडित थे, इस आघात को सहन नहीं कर पाये थे, और उनकी मृत्यु के आघात से शांता की मां ने भी बिस्तर पकड लिया था। अचानक घर चलाने का समस्त भार शांता पर आ पडा था और उसने प्रांतीय चिकित्सा सेवा की रिक्तियों का विज्ञापन देखकर प्रार्थना-पत्र प्रेषित कर दिया था। उसके अनुरोध पर उसकीनियुक्ति इलाहाबाद मे ही बेली अस्पपताल में हो गई थी, जहां के मुख्य अधीक्षक डा चावला अपने अधीनस्थ लेडी डाक्टरों और नर्सों के यौन-उत्पीडन के लिये कुख्यात थे।

मिर्जापुर आ गया था और शांता अपने दिवास्वप्नों के मायाजाल से बाहर आकर बस स्टेंड पर उतर गई थीफिर उसने वहां पर सवारियों की प्रतीक्षा कर रही राबर्ट्सगंज जाने वाली बस ले ली थी मिर्जापुर नगर पार होते होते पथरीली बंजर भूमि, यहां वहां उगी बौनी सूखतीं झाडियां और बाहर से लाकर रक्खे गए टीले जैसे पहाडों के दृश्य दिखाई देना प्रारम्भ हो गये थेनहर, कुंआं, हैंडपम्प जैसे पानी के स्रोत कहीं दिखाई नहीं पडते थेमीलों चलने के पश्चात कहीं कहीं गांव के नाम पर सात आठ फ़ीट ऊंची पत्थर की दीवालों पर रखे फूस के कुछ झोंपडे दिखाई पड ज़ाते थे अपवादस्वरूप एक दो स्थान पर जहां पानी की पर्याप्त उपलब्धता थी, वहां छोटे छोटे कस्बे बस गये थे, जिनकी दूकानों पर रखी पेप्सी, लिम्का आदि की बोतलें आधुनिक व्यापारवाद के वहां प्रवेश कर जाने की गवाही दे रहीं थींशांता इन दृश्यों में अपना मन लगाने का जैसे ही प्रयत्न करती, उसे मां की याद आ जाती और चिंता सताने लगती कि पता नहीं कितने दिन तक मां को इलाहाबाद में अकेला रहना पडेग़ाउसके नियुक्ति स्थान पर रहने के लिये कोई मकान होगा भी या नहीं?

''यस डा शांता, यू आर पोस्टेड टु दुध्दी पी एच सी।'' डा शांता द्वारा अपना परिचय दिये जाते ही सी एम ओ, सोनभद्र ने उससे कहा था। शांता को जैसी आशंका थी सोनभद्र जनपद के सबसे दूरदराज़ के अत्यंत पिछडे और साधनविहीन इलाके में उसकी नियुक्ति की गई थी। शांता की मनःस्थिति अब तक ''सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है'' वाली हो चुकी थी और उसने हर परिस्थति को निडर रहकर दृढता से झेलने का मन बना लिया था। अतः उसने शांत भाव से स्थानांतरण आदेश प्राप्त कर लिया। सी एम ओ को उसकी ओर से कोई विरोध अथवा याचना न होने से बडी निराशा हुई।

शांता को उस रात्रि होटल के मच्छरों से भरे कमरे में नींद बहुत कम आईबचपन में जिस प्रकार कोई मुसीबत पडने पर वह अपने पिता के पास दौड ज़ाती थी, वैसे ही आज दुरूह एवं असुरक्षित भविष्य की परिस्थति सामने आने पर उसे आंख लगते ही पिता के पास सुरक्षा हेतु दौड पडने के सपने आने लगते थे, और तभी लगता कि पिता उसे अपना रास्ता स्वयं खोजने की सीख देकर अंतर्धान हो जाते हैं

दूसरी प्रातः वह एक टुटही सी बस से दुध्दी को चल दीउसने बस स्टेंड से एक अखबार खरीद लिया था और बस के चलते ही उसे पढने लगी थीप्रथम पृष्ठ पर ही थाना दुध्दी के क्षेत्र में पुलिस की नक्सलियों से मुठभेड क़ा समाचार छपा था- मुठभेड में वनवासी संघर्ष समिति के दो नक्सली मारे जाने और एक पुलिसवाले के गम्भीर रूप से घायल होने की बात लिखी थीमारे गये नक्सलियों के पास से रायफिलें और भारी मात्रा में कारतूस बरामद हुए थे, परंतु वनवासी संघर्ष समिति के संचालक शीतलासिंह के बच निकलने की बात लिखी थीअखबार की परिशिष्ट में वनवासी संघर्ष समिति पर एक लम्बा सा लेख छपा थाइस लेख को शांता ध्यान से पढने लगी और और उसे आश्चर्यमिश्रित रोमांच हो आया जब यह पता लगा कि हिंसा की ये घटनायें किन्हीं अनपढ अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्तियों द्वारा नहीं की जा रहीं हैं, वरन् यह समिति वाराणसी और पटना विश्वविद्यालय से निकले जुझारू युवकों द्वारा चलाई जा रही है

इसका संचालक शीतला सिह पटना विश्वविद्यालय में समाज-शास्त्र का एक मेधावी और संवेदनशील छात्र था और आदिवासियों पर अध्ययन हेतु विश्वविद्यालय द्वारा सोनभद्र जनपद में भेजा गया थाइसी बीच उसके पिता द्वारा बिहार के एक बडे ज़.मीदार परिवार में उसका विवाह तय कर दिया गयाउस ज़मीदार परिवार के निर्धनों पर अत्याचार के किस्से मशहूर थे, और इसी आधार पर शीतलासिंह ने विवाह का विरोध कियाकठोर स्वभाव के पिता के न मानने पर वह एक रात घर से भाग लिया और सोनभद्र के उसी क्षेत्र में चला आया, जहां उसने आदिवासियों के विषय में अध्ययन किया थाअपने प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व एवं मिलनसार स्वभाव के कारण उसने वहां के युवकों में अध्ययन के दौरान अपनी पैठ बना ली थी उन्होने उसे न केवल शरण दी वरन् उसके नेतृत्व में हिंसक कार्यवाहियों द्वारा आदिवासियों की भूमि, पर्वतों और जंगलों को माफ़ियाओं, ठेकेदारों और सरकारी कर्मचारियों के चंगुल से छुडाने और निर्बलों को सबलों के अत्याचार और शोषण से मुक्त कराने हेतु वनवासी संघर्ष समिति की स्थापना कर लीयह पढक़र शांता को लगा कि जैसे उसके ज्ञानचक्षु खुल गये हों और नक्सलियों के प्रति उसका दृष्टिकोण भयपूर्ण एवं प्रतिशोधात्मक होने के बजाय सम्वेदनशील एवं सहानुभूतिपूर्ण हो गया

अभी तक शांता केवल अपने भविष्य के विषय में चिंताग्रस्त थी, परंतु अब अनजाने जंगली आदिवासियों के बीच रहकर उनकी सेवा करने की कल्पना उसे रोमांचित करने लगीअब उसे सोनभद्र की अनोखी प्रकृति भी मनमोहक लगने लगीउसकी बस राबर्ट्सगंज से आधा-पौन घंटा ही चली होगी कि ऊंची पहाडी से दूर नीचे बहती सोन नदी की सुनहली रेत और उसके मध्य नीले रंग के जल में चांदी सी उछलती लहरों को देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गईजंगल, नदी और पहाड क़े बीच ज्यों ज्यों बस आगे बढती गई, शांता के मन पर वहां का जादुई सम्मोहन छाता गया

अपरान्ह में बस दुध्दी पहुंची और शांता अपने हृदय की धुकधुकी पर बरबस नियंत्रण करते हुए अपनी अटैची हाथ में लेकर पी एच सी पहुंच गईवहां पर उसे छोटेलाल नर्सिंग अर्दली मिला, जो एक नवयुवा लेडी डाक्टर के अटैची लेकर उस पी एच सी पर रहने हेतु आने की बात जानकर आश्चर्य एवं आशंका से हतप्रभ हो गयाउस सहृदय व्यक्ति के मन में आया कि वह शांता को उलटे पांव लौट जाने और अन्यत्र स्थानांतरण करा लेने की सलाह दे डाले, परंतु एकदम ऐसा करने का साहस न कर सकाउसने डाक्टर के खाली पडे मकान तक उसे पहुंचा दिया और बाजार से चाय ला दी

मकान देखकर शांता को लगा कि वह उसी प्रकार से परित्यक्त था जैसे शांता परित्यक्ता थी- काई लगा आंगन, धूलधूसरित कमरों के फ़र्श, दीवालों के उखडते प्लास्टर, छिपकलियों की धमाचौकडी सभी कुछ मकान के इंसानों की उपस्थिति से अपरिचित होने की कहानी कह रहे थे छेटेलाल ने शांता के घर को व्यव्स्थित करने में भरपूर सहायता क्ीशांता दूसरे दिन अस्पताल गई, वहां छोटेलाल के अतिरिक्त केवल एक दाई और थी जो दुध्दी की ही रहने वाली थी और नर्स कहलाती थी अस्पताल में अन्य कोई स्टाफ़ नहीं था- यदि किसी की नियुक्ति होती भी थी तो वह या तो बदलवा लेता था अथवा लम्बी छुटटी चला जाता था दवायें यदा कदा राबर्ट्सगंज से आ जातीं थीं परंतु मरीज़ बहुत कम आते थे क्योंकि दुध्दी एवं आसपास के गांवों के वनवासियों को ज्ञात था कि सरकारी अस्पताल में कोई डाक्टर डयूटी पर नहीं मिलता हैशांता ने अस्पताल को यथासम्भव व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया और एक सप्ताह बाद अपनी अपाहिज मॉ को भी इलाहाबाद से ले आईयह खबर फैलते ही लोगों को विश्वास हो गया कि यह डाक्टर वहां रहने आई है और धीरे धीरे मरीज़ आने लगेशांता का मन इन फटेहाल मरीजों की सेवा सुश्रूषा में रमने लगा

अगले साल सोनभद्र जनपद में वर्षा न के बराबर हुई, जिसके कारण खरीफ़ और अगली रबी की फसलें खराब हो गईं सोनभद्र की अधिकांशतः पथरीली भूमि में न तो टयूब-वेल लगे थे और न पानी के हैंड-पम्पइस जनपद में नियुक्त राजस्व विभाग, समाज कल्याण विभाग, वन विभाग और सामुदायिक विकास विभाग के कर्मी चांदी काटते थे- शसन से अथाह धन इस क्षेत्र में विकास कार्य कराने और निर्घनों को भोजन-पानी उपलब्ध कराने हेतु आता था जिसकी ऊपर ऊपर ही बंदरबांट कर ली जाती थीअतः वहां के निवासियों का जीवन इंद्र भगवान की कृपादृष्टि पर ही निर्भर करता थागत वर्ष कुदृष्टि पड ज़ाने के कारण अधिकतर गांव वालों के पास न तो खाने को दाना था और न पीने को पानी। गर्मियों की ?तु में चहुंओर त्राहि त्राहि मची थी परिणामस्वरूप उस क्षेत्र में भयावह भुखमरी, और बीमारियां फैलने लगीं और शांता की व्यस्तता बढने लगीबहुत से मरीज़ अस्पताल तक लाये जाने योग्य ही नही होते थे और उनके उपचार हेतु शांता गांवों में भी जाने लगीवह डाक्टर के साथ समाज सेविका भी बन गईउसकी निस्वार्थ चिकित्सा से घनहीन आदिवासी बिना शोषित हुए ठीक होने लगेयह उनके लिये नवीन अनुभव थाउसने निश्छल आदिवासियों का विश्वास और हृदय जीत लिया

शांता अपने जीवन से संतुष्ट थी और उसे लग रहा था कि पिता की शिक्षानुसार उसने बिना किसी के आगे झुके हुए जो अपना स्वतंत्र मार्गचुना है, वह सही हैपरंतु दुर्दैव से शांता का यह सुख भी नहीं देखा गया और एक दिन गांवों में रोगियों को देखकर जब वह घर लौटी तो अपनी मँ को अंतिम सांसें लेते हुए पाया दुध्दी में बिजली यदा कदा ही आती थी और सूरज चढते ही असहनीय गर्मी पडती थी- कृशकाय मां उसे सहन न कर सकीं और शांता को सर्वथा अकेला छोडक़र चल बसींमां की मृत्यु से उत्पन्न दुख एवं एकाकीपन ने शांता के सर्वस्व को जड से झकझोर दिया- उसका शरीर, उसका मन, उसकी दृढता, उसकी आस्था जैसे सभी कुछ झंझावात में फंस गये होंउसके भरभराकर गिरने में अब मात्र एक तूफान आने की देर थी; और तभी एक के बजाय दो दो तूफान आ गये

''डा साहब जल्दी चलिये। एक जवान आदमी को रात में कुछ लोग चुपचाप अस्पताल के दरवाजे पर छोड ग़ये हैं। वह ज्वर से मूर्छित है और उसकी हालत अच्छी नहीं है।'' सुबह-सुबह छोटेलाल ने डा शांता के घर आकर कहा। शांता अविलम्ब अस्पताल को चल दी और उसने पाया कि चौबीस-पच्चीस साल के उस आकर्षक युवक की दशा चिंतनीय हो चली थी। वह देखने में आदिवासी नहीं लगता था और किसी धनी घर का लगता था। शांता आश्चर्यचकित थी कि ऐसे खाते पीते घर के युवक को कौन ऐसी दशा में वहां छोड ग़या होगा। परंतु उस समय तो समस्या उसे बचाने की थी और इस हेतु शांता ने रात दिन एक कर दिया।

वह युवक सम्भवतः अपनी अर्धचेतन एवं अचेतन अवस्था में भी शांता के मोहक रूप एवं अथक सेवा की अनुभूति करता रहा था, क्योंकि चेतना लौटने के पश्चात शांता जब भी उसके निकट आती उसके कृतज्ञता भरे नेत्र उसे तृषित नेत्रों से देखा करते- पहले तो प्राण­याचक की भांति एवं फिर प्रणय­याचक की भांतिशांता उसकी दोनों याचनाओं को समझ जाती थी- उस युवक की निगाहों से प्रस्फुटित याचना से शांता के वर्षों से शुष्क पडे मन में भी पुरवाई का झोंका आ जाताफिर एक रात्रि वह युवक अचानक अस्पताल से गायब हो गयाहां, जाते समय अपने परिचय की एक पुर्जी अवश्य छोड ग़या, जिसे देखकर शांता ने जाना कि वहवनवासी संघर्ष समिति का संचालक शीतला सिंह हैउस युवक के इस प्रकार अंतर्धान हो जाने के बाद कई दिन तक शांता को अस्पताल सूना सूना सा लगता रहा और वह स्वयं खोई खोई सी रही

तभी एक सायं जब शांता अपने घर पर आ चुकी थी, छोटेलाल दौडा दौडा या और बोला,''जल्दी चलिये, लखनऊ से आये एक डाक्टर की हालत बहुत खराब हे''
शांता ने अस्पताल आकर डा श्याम को मरणासन्न हालत में पाया
उसके सार्थियों ने बताया कि वे सब लखनऊ के रोटरी क्लब की ओर से आदिवासियों की सहायतार्थ आये थे कि डा श्याम को हैजा हो गया और डिहाइड्रेशन हो जाने से उनका जीवन संकट में हैंपहले तो शांता को ऐसा झटकालगा कि वह असंयत होने लगी, परंतु पलमात्र में वह एक डाक्टर मात्र बन गई और श्याम को ग्लूकोज़ चढाने लगीसुबह तक श्याम चेतना में आ गया और शांता को देखकर उसके होठों पर मुस्कान आ गईअगले दिन वहां से जाने से पूर्व श्याम ने शांता को अकेला पाकर कहा,''शांता! गुस्सा थूक दो और मेरे साथ चलोरिया भी चली गई है; अब मेरे साथ नहीं है''

श्याम के मुख से निकले प्रत्येक शब्द में एक ऐसा अहम् छिपा था जैसे वह शांता को साथ जाने को कहकर उस पर अहसान कर रहा होउन शब्दों की प्रत्येक ध्वनि के साथ शांता के चेहरे पर कठोरता बढती गईउसने प्रकटतः इतना कहा और आगे बढ ग़ई, ''मेरे जीवन का प्राप्य अपनापन और विश्वास हैयह मुझे जितना यहां मिल रहा है, उतना देने हेतु आप के पास है ही नहीं''

प्यार के लिये वर्षों से वंचित शांता एक सूखी, कठोर, बंजर भूमि सी हो गई थी, परंतु श्याम के गर्वीले प्रस्ताव ने शांता को उससे प्रतिशोध लेने को उद्वेलित कर दियाउसका मन उच्छृंखल द्वंद्व में घिर गया- एक ओर सामाजिक वर्जनाओं के संस्कार उसके मन को रूढिवादी मान्यताओं की सीमा के अंदर रहने को बाधित करते, तभी दूसरी ओर उसके पिता द्वारा कहे ये शब्द उसके मस्तिष्क में गूंजने लगते, ''प्रतिशोध लेने का एक उपाय दूसरों की आलोचना से अनाहत रहकर स्वतंत्र मार्ग अपनाकर प्रतिद्वंद्वी को उसकी औकात बता देना भी होता है''

उस रात शांता संस्कार एवं भौतिक यथार्थ के झंझा में उडती और वापस धरती पर गिरती रही, परंतु सुबह होने तक उसने अपने स्वतंत्र मार्ग का चुनाव कर लियाउसने अपने यहां इलाज हेतु कई बार आ चुके एक विश्वसनीय आदिवासी रोगी से चुपचाप कह दिया, ''शीतलासिंह अपने इलाज हेतु यहां आये थे ओर बिना बताये चले गयेउनका पता लगे तो खबर कर देना कि मेरे घर पर आकर मिल लें आश्वस्त रहें कि उनका आगमन गोपनीय रहेगा''

दूसरी रात्रि में डा शांता के घर का दरवाजा ख़डक़ने पर जब उसने खोला, तो शीतलासिंह सामने खडा थाबिना कुछ बोले रात्रि के अंधकार में दोनों एक दूसरे के नेत्रों की गहराई में डूबते उतराते रहे और दोनो के नेत्र प्रेम की मूक भाषा में आदान प्रदान करते रहेशांता के तप्त भूमि जैसे बदनपर पुरवाई के झोंके की शीतलता प्रवाहित होने लगीफिर वर्षा की बूंदें टपकीं और फुहार गिरना प्रारम्भ होते होते शांता शीतला सिंह की बांहों में समा गई। शुष्क घरती पर वर्षा की प्रथम फुहार पडने पर जो सोंधी गंध निकलती है वह शांता के बदन से प्रस्फुटित हो रही थी शीतलासिंह उस सोंधी शीतलता में डूब जाने को व्याकुल होने लगा और शांता को बाहों में उठाकर उसके बेडरूम की ओर चल दिया

 

  -महेश चंद्र द्विवेदी
जुलाई 1, 2005

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