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षडयंत्
अनिल एक प्रादेशिक अखबार का स्थानीय संवाददाता था। शाम की शाम ख़बरें भेजता। एक कमरे के दफ़्तर का मालिक। जिसमें एक अदद कम्प्यूटर और गेट पर लटकी पत्र पेटिका प्रमुख थी।
रोज़ की भाँति उस शाम भी उसने पत्र पेटिका खोली, काग़ज़ात तहाए और टेबिल पर ले आया। फिर क़लम हाथ में लेकर एक-एक ख़बर पढ़ता हुआ टिकमार्क और अंडरलाइन करने लगा। तभी अचानक उसके हाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम एक महिला शिक्षिका का ख़त लगा। जिसे वह बिना रेखांकित किये साँस साधकर पढ़ता चला गया।।।। अब तक ख़बरें तो उसने बहुत पढ़ी और भेजी थीं- हत्या, लूट, अपहरण, रैप, पुलिस-जुल्म और न जाने क्या-क्या।।। पर यह ख़बर नहीं, एक लड़की की कस्र्ण गाथा थी। इस पुस्र्ष प्रधान यौन कुंठा ग्रस्त समाज द्वारा तिलतिल एक लड़की को जलाये जाने की कस्र्णकथा। इस देश के असंख्य पढ़ेलिखे तेजतर्रार लोगों को सरकार द्वारा नौकरियों के नाम पर शूली पर लटकाये जाने की बेशर्म दास्तान।।।।
कम्प्यूटर ऑन कर वह खबर टाइप करने लगा:

मुख्यमंत्री से की सबा ने मार्मिक अपील
शहर: ८ दिसम्बर। सबा ने अपनी पीड़ा एक आवेदन में कहानी की तरह उकेर कर रख दी है। अटेर क्षेत्र के जिस रिदौली गाँव में वह शिक्षाकर्मी वर्ग-३ के पद पर पदस्थ है, उस गाँव की तस्वीर को अपनी तक़दीर के साथ जोड़ कर जिस तरह का चित्रण सबा ने किया है वह वाकई रोंगटे ख़डा कर देने वाला है। काश सबा का पूरा आवेदन शिक्षा विभाग के आला अफसर और उसकी पदस्थापना करने वाले पढ़ भर लें तो उन्हें स्वयं को यह लगने लगेगा कि उन्होंने सबा के साथ न्याय नहीं अन्याय किया है। सबा ने अपनी छह वर्ष की दर्दभरी दास्तान का जो बखान किया है, वह मूलत: इस प्रकार है।।।
आदरणीय बहन,
आप प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री हैं, इसलिये मैं आपसे अपनी वह तकलीफ बयान कर सकती हँू जो आपके पूवर्जोंं से नहीं की।।।।
मेरा विद्यालय सड़क से पाँच किलोमीटर दूर है। डेढ़ किलोमीटर डब्ल्यू।बी।एम। रोड के बाद कच्चा रास्ता है जो बरसात में कीचड़ से भर जाता है। काली मिट्टी होने से मुझे अपनी साइकिल बीच राह में छोड़ कर तथा जूतियाँ हाथ में लेकर पदयात्रा करनी होती है। यकीन माने मेरे नंगे पाँवोंे में रोज़ कोई न कोई काँटा लगता है।।।।
स्कूल गाँव बाहर जंगल में है जहाँ स्कूल परिसर में ही, जबसे आपकी सरकार बनी है, अतिक्रमण की गरज से एक मंदिर बन गया है। उस पर एक युवा साधु रहता है। जिसका सामान और गाय के लिए भूसा स्कूल के हॉल में रखा गया है। अब पढ़ाई के लिए सिऱ्फ एक हॉल बचा है जिसमेंं बच्चे भूसे की तरह भर जाते हैं।।।।
हालात ये हैं कि स्कूल टाइम में गाँव के अधिसंख्य बेरोजगार स्कूल में चक्कर काटते और मंदिर पर बाबा के साथ गाँजा पीते हैं। स्कूल ऑफिस में पालक-शिक्षक संघ की महिला सदस्यों के पति आकर बैठ जाते हैं जो अपनी अश्लील गपशप से शिक्षण कार्य दूभर कर देते हैं।।।। स्कूल के दरोदीवार पर लिखे मेरे नामजद अश्लील जुमले यह बता देंगे आपको।।। कि मुझे ढाई हजार स्र्पये मासिक की पगार के लिए प्रतिदिन ऐसी दुशवारियों का सामना करना पड़ता है जो एक स्त्री के शील-सतीत्व के लिए अमिट प्रश्नचिन्ह हैं।।।।
आप जानती हैं कि असमानता यानी भाई भतीजावाद और रिश्वत हर जगह विद्यमान है।।।। छह साल पहले हुई मेरी भरती में स्पष्ट नीति थी कि महिलाआें को रोड साइड और सुगम पहुँच मार्ग वाले विद्यालयों पर रखा जावे। किंतु तत्कालीन नियोक्ताआें ने अपने पुत्र-पुत्रियों, सम्बंधियों एवं थैली भेंट करने वालों और असरदार नेताआें के कृपापात्र उम्मीदवारों को सुगममार्गी विद्यालय दे दिए और मुझ सरीखे अकिंचनों को डाकुआें की शरण स्थली।।।।
ग्राम रिदौली जो अब खुद बेचिराग होकर दो मजरों के रूप में कँुआरी नदी के तट पर बसा एक पुराना देहात है। इसके बीहड़ में मेरे स्कूल के ठीक नीचे भरखों में सर्दियों भर दस्युदल अव जमाये रखता है (उसे गाँव की ओर से रसद उपलब्ध करायी जाती है, पुलिस जानती है।) और मैं अगवा कर लिए जाने के भय से निरंतर काँपती रहती हूँ। निर्भय ने कितनी औरते पक़ड रखी हैं!
एक महिला होकर निरंतर छह वर्ष से समानकार्य-समानवेतन की चाह में मैं वह खतरनाक सफ़र तय कर रही हूँू जो मुझे किसी भी दिन रौरव नर्क में धकेल सकता है।।। अपनी स्त्री अस्मिता बचाये रखने के लिए आज तक मैंने यह बात किसी अधिकारी/नेता/मंत्री/मुख्यमंत्री से नहीं कही। ।।।आपके होने से लगा कि महिला हिंसा के इस युग में भी स्त्री शायद अपना सिर उठा कर चल सकती है।।। उम्मीद है, मेरी परिस्थिति पर विचार कर मेरी गुहार पर यकीन करेंगी और मुझे सड़क किनारे स्थित किसी पाठशाला में पदस्थ करने की कृपा करेंगी।
विनीत
सबा
डिश एेंटिना के मार्फत कम्प्यूटर हेड ऑफिस से जुड़ा था। अनिल की ख़बरें आंचलिक पृष्ठ पर बिना हेरफेर किये सीधी छपती थीं। उसने बाक़ी समाचार और विज्ञापन भी यथा-स्थान टाइप किये। फिर कमाण्ड देकर कम्प्यूटर ऑफ कर दिया। रात का खाना खाते वक़्त भी उसके ज़हन में सबा का ख़त कौंधता रहा। ।।।बेरोजगारी के दिनों में उसने भी आधी पगार वाली ऐसी नौकरियों के लिये खूब सिर मारा था, पर किसी ने घास नहीं डाली।।।। एक प्रकार से ठीक ही रहा- नहीं तो गुलाम हो जाता दो पैसे का! उन धूर्तों का जो जाति/धर्म के नाम पर राजनीति कर विकास/बेहतरी के स्वप्न दिखाते हुए हमें अपराध और अभावों की दुनिया में बदलते जा रहे हैं।।।।
सुबह कॉलबेल की किर्रकिर्र से उसकी तंद्रा टूटी। उठ कर गेट खोला तो वह प्रात:कालीन हवा की भाँति नमूदार हुई!
`आइये।।।।' वह अपरिचय की स्थिति में भी पुलकित-सा बोला।
सबा भीतर घुस आई। उसके हाथ में ताज़ा अखबार था। आँखों में कृतज्ञता। पृष्ठ खोल कर धन्यवाद ज्ञापित करने लगी, `आपने बहुत बड़ा काम कर दिया।।।। मुझे यकीन नहीं था कि कोई इतना रिस्पॉन्स देगा।' आँखें भर आई थीं।
अखबार की गंध अनिल के नथनों में भर कर रह गई। ।।।अपनी सृजनोपलब्धि पर हर्षातिरेक में दिल चहक उठा, `नहीं।।। ऐसा कुछ खास नहीं किया मैंने, आपकी समस्या सचमुच गम्भीर है।।।'
उसने सोचा भी नहीं था कि कोई ख़बर लगा देने भर से इतना उपकृत हो जाएगा! लड़की भोली और भली लगी उसे। उसने आश्वासन दिया कि तबादले या अटैचमेंट का प्रयास करेगा।।।।
मगर छह महीने गुजर गए। कुछ नहीं हो सका। सबा मिलती रही उससे और वह भी उसके प्रार्थना-पत्र कभी बी।ई।ओ। कभी डी।डी।ई। तोे कभी कलेक्टर तक पहुँचाता रहा। एक ही जवाब था हर बार- शिक्षाकर्मियों के स्थानांतरण की अभी कोई नीति नहीं बनी।।। अटैचमेंट शासन ने टोटली बंद कर रखे हैं।।।।

नया शिक्षा सत्र शुरू हो गया था। ।।।और बारिश फिर आ गई थी। बारिश के डर से ही जल्दी बंद करके जा रही थी कि शुक्ला बंधुआें ने आ घेरी। उनमें से एक जानवरों का इलाज करता था, दूसरा खेती। शक्ल से दोनों राक्षस दिखते।
`आठ दिन में आज स्कूल खुला है तुम्हारा और उस पे भी इतनी जल्दी छुट्टी! घड़ी देखो- घड़ी।।।।'
सरासर झूठ। वह तिलमिला गई-
`हम तो जाएँगे।।। तुम्हें करना हो सो कर लो!'
`बांध के डार देंगे, जाएँगी कैसे!' जो जानवरों का इलाज करता था उस झब्बेदार मूँछ वाले विकराल चेहरे ने रौद्र रूप अख्तियार कर लिया।
उसके आगे अहाते में खेती करने वाला भाई लट्ठ लिए ख़डा था। बच्चे निकल गए थे, डर कलेजे तक घुस आया।
`तुम रिपोर्ट करो %।।।' बचाव में वह चीखी, श्वास उख़ड गया।
वे थोड़ी देर ख़डे आँखें निकालते रहे, फिर रास्ते से हट गए-
`ठीक है- अब रिपोट ही करेंगे।।।'
जानती थी, दोनों पढ़ेलिखे हैं। रिपोर्ट भी क़ायदे की होगी अब! नौकरी मिली नहीं। खिसियाए फिरते हैं। ।।।और सरकार द्वारा यह प्रचारित कर देने से कि ग्राम्य इकाइयों में अब स्थानीय शिक्षित बेरोजगारों को ही भरती किया जाना है, वे उस पर खार खाए बैठे हैं! उन्हें उम्मीद थी कि वह छोेड़ भागे तो हमारे भाग चेतें!
अनिल इस घटना से बड़ा विचलित हुआ कि एक तो चौथाई पगार पर रखा हुआ है इन लोगों को, ऊपर से ये शिग़ूफ़े।।।।
उसने एक आवेदन और तैयार कराया। सम्बंधित थाना प्रभारी के नाम। ।।।लिखवाया सबा से कि शाला बीहड़ी क्षेत्र में होने के कारण गैंग आदि की शरणस्थली होने से मुझे अपहरण का खतरा है।।।। हाल ही में पालक-शिक्षक संघ द्वारा की जाने वाली अभद्रता के कारण एवं शाला परिसर में मंदिर बन जाने और वहाँ असामाजिक तत्वों के जमावड़े से महिला विरोधी वातावरण निर्मित हो गया है, ऐसे में मैं अपने कर्त्ताव्य पर उपस्थित होने में असमर्थ हँू। इस सम्बंध में मैंने मुख्यमंत्री महोदय को भी अपना आवेदन-पत्र भेजा है।।।। कृपया, सुरक्षा की व्यवस्था करने का कष्ट करें!
थाना प्रभारी ने अनिल को उचित रिस्पॉन्स दिया, कहा, `दो-चार दिन में दो-चार लोगों पर डंडा बजाऊँगा, सब ठीक हो जायेगा।।।।।' फिर वह सबा से बोला, `तब तक आप बिल्कुल स्कूल न जाएँ। अच्छा हो, दो-चार नाम बतादें!'
नाम बता कर वह जल में रह कर मगर से बैर मोल नहीं लेना चाहती थी, हिचकिचा गई। यहाँ तक कि अब अकेलेेे स्कूल जाने की हिम्मत न थी उसमें! तब ठीक चार दिन बाद अनिल के साथ ही गई उसकी बाइक पर बैठ कर।।।।
महावट का मेह बूँद-बूँद बरस रहा था। २० किलोमीटर के सफ़र में नितान्त भीग गए थे वे। कंपकंपी छूट रही थी फिर भी स्र्क नहीं रहे थे। मंजिल वह पाठशाला थी, जहाँ वह बच्चों को पढ़ाने जाती। यह जगह दो मज़रों के बीच एक टीले पर इकलौती इमारत के रूप में ख़डी थी।
बाइक मज़रे से गुज़री तो बच्चे, `दीदी नमस्ते-दीदी नमस्ते,' चिल्लाये और बस्ते गले में लटका कर उसके पीछे दौड़ लगाने लगे।।।।
और आश्चर्य! मंदिर सूना पड़ा था।।।। कोई साधू-बाधू नहीं था वहाँ। स्कूल का हॉल जिसमें गाय के लिए भूसा और साधु की गृहस्थी का सामान भर लिया था, अब खाली पड़ा था।।।। हिम्मत आँखों में आकर चमकने लगी। अनिल के प्रति दिल में अहसान के घटाटोप बादल मंडराने लगे।
छुट्टी के बाद वह स्कूल ऑफिस में अपनी चेयर पर आ बैठी। सामने की चेयर पर वह पहले से बैठा किसी रिपोर्टिंग में मशगूल था।।।। बच्चे- `दीदी नमस्ते, सर्जी नमस्ते' करते हुए स्र्खसत हो रहे थे।
`लो।।।' उसने टिफिन खोलते हुए कहा।
चावल का ढोकला और उबली हरी मिर्चें अनिल के आगे खुल गइंर्। मुस्कराते हुए उसने काग़ज़ क़लम समेट कर बेग के हवाले किये और पीस-पीस उठा कर खाने लगा। बीच-बीच में मिर्च कुतरता जाता। आँखें कृतज्ञता अर्पित कर रही थीं, जैसे- इतना स्वादिष्ट नाश्ता पहले कभी नहीं मिला! सबा के पीछे ख़िडकी के पार टीले और भरखे दूर आसमान तक फैले हुए। अनिल के पीछे दरवाजे के पार स्कूल का मैदान, फिर सैर, खाई और खेेत!
नाश्ता निबट गया तो उसने कहा, `चलो- बच्चे कबके निकल गये।।।।'
`मैं जानकारियाँ बनाने के लिए कई बार स्र्क जाती हूँ।' उसकी मुस्कान में इत्मिनान था आज।।।।
बीच में टेबिल थी। चेहरे आमने-सामने। अनिल की मुस्कान उसको छूने लगी।।।। थोड़ी देर में चेहरा गुलज़ार हो आया सबा का। दिल आहिस्ता-आहिस्ता घड़कने लगा। छह-आठ महीने की मुलाक़ात प्यार में बदल रही थी, गोया। टेबिल के ऊपर क्षण भर के लिये हाथ हाथोें में ले लिए अनिल ने।।।।
फिर वह नियमित जाने लगी। जिस दिन गैप कर जाती, अगले दिन ताने सुनने पड़ते। यूँ भी मजरे से गुज़रती तोे हर ऐरागेरा टोकता, `अब आ रही हैं, दिए धर के।।। घड़ी देखोे, घड़ी।' वह तिलमिलाती, पसीने में नहायी साइकिल की रफ्तार और बढ़ाती फिर शाला में आते ही ढह जाती। भय और अपमान के कारण एक अजीब-सी नर्वसनेस से बी।पी। लो होने लगता। सर्दियाँ शुरू हुइंर् और बीहड़ में गैंग की ख़बरें उड़ने लगीं।।।। कोहरे में दो गज दूर का व्यक्ति भी घब्बा-सा दिखता, एक राहगीर ने आकर बेतरह डरा दी उस दिन, `छुट्टी करके घर भाग जाओ फोरन।।। पक़ड हो सकती है आज तुम्हारी!'
चेहरा ज़र्द पड़ गया उसका। जल्दी में ताले भी नहीं लग रहे थे।।। हाथपाँव फूल गए थे और सीने में शूल-सा उठने लगा था। दोंची में साइकिल की चेन उतर गई। हाँफती-काँपती किसी तरह मज़रे तक आई और एक गड़रिये के घर में जा छुपी। निर्भय ने कितनी लड़कियाँ पक़ड रखी हैं! रात भर दिल में बवण्डर मचा रहा।।।।
तबसे कोहरे भरे दिनों में जाना छोड़ दिया।
पर घर में भी मन कहाँ लगता। दिल पर हरदम एक बोझ-सा रखा रहता। फ़ऱ्ज और भय का बोझ। पढ़ाना चाहती थी। नई पौध को नये संस्कार देना चाहती थी। ताकि इंसानों को छोड़ वह जानवरों की पूजा में न लग जाय। गोबर को विकास का प्रतीक न मान बैठे। जाति से नहीं अपने कर्म से पहचान बनाये।।।। अक्सर वह इसी तरह पढ़ाती थी। गा-गाकर समझाती थी चीजें। और शुरू-शुरू में तो उसका प्रदर्शन देखने दोनों मजरों के लोग आते थे। ।।।मगर जब से शोहदे आने लगे, भले लोगों ने आना छोड़ दिया। ।।।वह आज भी उसी तरह पढ़ाना चाहती है, पर भय मुक्त हुए बिना यह कितना दुष्कर है? अगर उसे रोड का स्कूल मिल जाये तो कोई देखे उसकी नियमितता और प्रतिबद्धता।
असुरक्षा दिमाग से हटाए नहीं हटती। जाने पर जान का, इ़़ज्जत का, अपहरण का भय और न जाने पर शिकायत का, नौकरी की सुरक्षा का भय। सो, न जाकर वह और तनावग्रस्त हो जाती। व्यर्थ ही अनिल के पास जा पहुँचती, स्यात् कोई राह निकले।।।।
वह अपनत्व से समझाता, भरोसा दिलाता कि कभीकभी मैं चला करूँगा तुम्हारे साथ। कौन लोग हैं! आखिर बात तो की जाय।।।। और जब तक ट्रांसफर पॉलिसी नहीं बनती, नौकरी तो करनी पड़ेगी। वैसे, तुम्हारी गैरहाजिरी कोई नहीं करेगा। सबको पता है- तन्खा नहीं स्र्केगी। चाहे जितनी शिकायत करलें गाँव वाले- कलेक्टर, एम।एल।ए। तक चले जायें!'
सहमति में गर्दन हिलाती वह। अहसान फ़रामोशी नहीं करना चाहती थी, इसलिये! पर सब्र नहीं होता ऐसी बातों पर।।।।
छुट्टी के दिन भी घर में मन नहीं लगता।
पहुँची तो अनिल कहीं जा रहा था।।।। पूछने लगा, `चलोगी? एक पुराने किले पर फीचर तैयार करना है।'
सबा साथ हो ली। क्योंकि अब उसी के साथ भयमुक्त होती थी। दोस्ती पर यकीन आ गया था। और आकर्षित भी थी!
रास्ते में कई बस्तियाँ और सड़कें मिलीं। एक ढाबे पर उन्होंने तंदूरी रोटी भी खाई। फिर उस खण्डहरनुमा किले में पहुँचे जहाँ चारोंतरफ मक़डी के जाले, कोनो-अंतरों में चमगादड़ों, उल्लुआें और तिलचट्टोंेे का डेरा था।।।। हर दीवार, हरेक छत ढही पड़ी थी। बड़े-बड़े अस्तबल और तोपखाने भी कहाँ साबूत बचे थे। जीर्णशीर्ण अवस्था में दरबार।।। जीर्णशीर्ण अवस्था में महल राजा-रानी के। राजा का दायीं ओर और रानी का बायीं ओर। और बीच में सतखण्डा। जहाँ फुरसत के समय दोनों बैठ कर चौसर खेलते।
बस, यही एक जगह खुले दरवाजों के कारण तेज हवा की आमदरफ्त से थोड़ी साफसुथरी मिली। न उल्लू-चमगादड़, न मक़डी के जाले। वे वहीं आकर बैठ गए। अनिल नोट्स लेने लगा। और सबा फोटोग्राफी करने लगी। ।।।उसके थे भी सात खण्ड। गोल चक्करदार सीढ़ियाँ। आखिरी खण्ड से तलहटी में पड़ी नीली नदी प्राणों को खींचती थी। हरेक खण्ड चौतरफा खुले दरवाजों के बीच छतरीनुमा छत के नीचे श्वेत पत्थर के फर्श से जगमगाता हुआ।।।।
`राजा-रानी यहाँ चौसर खेलते थे।।।' अनिल हँसा।
`हाँ! उन्हें वक़्त और सुविधा थी।' वह उदास हुई।
फिर वह उदासी राह भर टूटी नहीं, सो अनिल रात भर सो नहीं पाया।
तब सबा ने सोचा भी नहीं था कि अगले दिन अचानक उसका फोन आ जाएगा!
`स्कूल चलोगी?'
उसका मन भर आया।
`स्टैंड पर मिलना।।।।' अनिल ने फोन रख दिया।
वह मुस्कराने लगी।।।। फिर पढ़ाने के जोश में होश नहीं रहा। चार घंटे कब ग़ुज़र गए? अनिल ने हॉल के दरवाजे पर दस्तक देकर कहा, तब पता चला। छुट्टी बोलते ही बच्चे बस्ते समेट कर बंदरों-सी उछलकूद करते भाग ख़डे हुये। ऑफिस में आकर अपनी चेयर पर बैठ गई सबा। ख़िडकी के पट नहीं खोले। बाहर आसमान खुला था, मगर भीतर झींसयाँ-सी झड़ रही थीं। टिफिन खोलकर पाव-भाजी और कच्चे केलों के दहीबड़े भरे डिब्बे सजा दिये मेज पर।।।। अनिल एकटक निरखने लगा।।। खाते-खाते चेहरा और पास आगया जो अब काफी छोटा और बेहद मासूम लग उठा था! दिल में एक कशिश-सी उठने लगी कि हथेलियों में भर कर एक नन्हा-सा चुम्बन अंकित कर दे इन काँपते अधरों पर।।।।
राह पर आकर बाइक यकायक जंगल की ओर मोड़ दी उसने।।।। टीलों के पार एक टीले पर किसी मंदिर का ध्वज लहरा रहा था। चेहरा मोड़कर धीरे सेे बोला, `वहाँ तक चलना पड़ेगा। पुराने मंदिरों पर फीचर्स की डिमाण्ड है इन दिनों।।।।'
वह कहीं और गुम थी गोया।
पक्के रास्ते तक अक्सर किसी सवारी से आती, वहाँ से साइकिल उठा कर शाला तक साइकिलिंग करनी पड़ती। बीच में मज़रा पड़ता।।। लोग टोकते, `आज फिर लेट आइंर्।।। अब कित्तो घंटा पढ़ाई होगी?'
`नौकरी का घमण्ड देखो- बोलती भी नहीं।।।' औरतें तक मुँह चलातीं।
`सरकारी हंडी से खाने को मिल रहा है।।। हमें देखो- यहाँ मुँह अंधेरे से खप रहे हैं खेतों में! उस पे भी सूखा-ओला तो कभी मंदी की मार।।। अरे- कुछ तो भविष्य देखो हमारे बच्चों का कि उन्हें भी हमारी तरह यहीं गाड़ देना चाहोगी?'
शोहदे बीच राह टोकते, `ऐ मैडम सुनो, यहाँ आओ!'
डर लगता अक्सर।।।।
आजकल हर तरफ बलात्कार की धूम है। ये सीधे-सादे देहाती असम राइफल्स के सिपाहियों से कम नहीं, जिन्होंने मनोरमा देवी को।।। हर साल पुताने के बाद भी स्कूल की दीवारों और दरवाजों पर फिर लिखा मिल जाता- सबा की चू।।। साथ ही बने होते आड़े-तिरछे लिंग-योनि! कोयले, गेरू, खड़िया-मिट्टी और कभी-कभी नुकीले पत्थर से खरोंच कर उकेरे गए तोहफे।।।।
बाइक मंदिर वाले टीले पर आकर ठहर गई अकस्मात्। चूने-पत्थर के हज़ार-आठसौ साल पुराने खण्डहर मंे शिवलिंग बदस्तूर स्थापित था, सम्मुख नंदी विराजमान।।।। हिंदू देवी-देवताआें के बारे में जियाद: पता नहीं था उसे। गौर से देखने पर लगा कि लिंग योनि में स्थापित है, ऊपर छींके में लटका घट बूँद-बूँद जल टपकाता हुआ।।।। शर्म से नज़रे चुराने लगी वह।।।। अनिल ने लक्ष्य किया। फीचर की भाषा मुखरित हो उठी, `शिव तो कल्याण के देवता हैं। लिंग उनका प्रतीक रूप है। वह कामवासना को तृप्त करने वाला तत्व है। और योेनि उत्पत्तिा की भूमि। यह देह का प्रतीक है। इसे भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती, सबा!'
संकोच गिर गया। यथार्थ को पहचाना सबा ने।।।। फिर नज़र बरामदे की खूँटी पर टँगी एक पुरानी मृगछाला पर पड़ी। कौतूहल फिर जागा। अनिल ने विश्वासपूर्वक समझाया कि यह साधना के लिये रख छोड़ी गई है। शक्ति के उपासक भैरवी के माध्यम से सिद्धि प्राप्त कर बूँद को पत्थर बना लेते हैं। फिर कुछ भी अजेय नहीं रह जाता। उनकी इच्छामात्र से कार्य फलित हो जाते हैं।।।।'
`काश! तुम्हें ये सिद्धि हासिल होती।।।।' वह उसास भरकर बोली।
`हो-तो सकती है,' अनिल की आँखों में काले नाग-सी चिलक उभर आई, दिल में जीभ लपलपा कर दीपक से दूध चाट लेने की कामना, `इसके लिए तुम्हें भैरवी का रोल प्ले करना होगा।।।।'
`भैरवी!' उसने विस्मय से दोहराया।
`तांत्रिकों की देवी,' उसका दिल धड़क रहा था। मृगछाला फर्श पर बिछाता खोखले स्वर में बोला, `तंत्र में असीम शक्ति होती है-सबा! एक बार सिद्ध हो जाये तो।।।'
तबादले के लिये वह हलक़ान थी।।।। कर लेंगे। उसने गर्दन हिला दी, `क्या करना होगा?'
अनिल दिल ही दिल में हँसता हुआ तुरंत आसन जमा कर बैठ गया। साधक की तरह कुछ मंत्र-सा बुदबुदाया। फिर नेत्र उघाड़ कर बोला, `तप खण्डित करने भैरवी साधक के कंधों पर चढ़ जाती है। वह गिराता है तो भी नहीं गिरती! इस सच्ची ज़ोर-आज़माइश में अगर साधक भैरवी पर सवार हो लेता है-तो सिद्धि मिल जाती है।'
सुनकर वह चौंक गई। मगर अब सोचने का वक़्त नहीं था! उसके जीतने की दुआ करती थोड़ी हिचकिचाहट भरी कंधों पर चढ़ने लगी।।।। कमर की लोच देख अनिल का दिल ज़ोरज़ोर से हँसने लगा।
`अच्छी तरह सवार हो जाना! साधक भरसक गिरायेगा-तुम्हें।।।।' उसने चेताया।
सवा अच्छी तरह सवार हो गई। गर्दन जाँगों के बीच कस ली उसने। आसपास सन्नााटा-सा खिंच गया। रानों की गर्मी से अनिल की रंगें उबलने लगीं। कुछ मंत्र-सा फिर बुदबुदा कर हाथ ऊपर की ओर उठा लिये उसने। ।।।और अचानक कंधे पक़ड कर बलात् नीचे की ओर झुकाने लगा।
सबा के सीने में ज़ोर की धक्धक् मच गई। सबक़ याद कर कुछ देर रीढ़ सख्त किये वह वहाँ जमी तो रही। मगर टेंशन बढ़ता गया तो परास्त हो सिर के बल गिर पड़ी उसकी गोद में। चेहरा घबराहट से भर गया। अनिल ने चुमकारते हुए हौसला दिया, `हिम्मत नहीं हारना। ज़ोर-आज़माइश में कोताही मत करना। साधक बलात् कब्जा करेगा तो ही मंत्र सिद्ध होगा! केश खोलकर छाती पर चढ़ जाओ, बलपूर्वक!'
दिल धड़धड़ा उठा उसका। जैसे, कोई ख़तरनाक़ खेल शुरू हो चुका था।।।। साँप-नेवले का खेल! मगर अब खेलना होगा।।।। यही मानकर कि किसी होरर फिल्म की शूटिंग में फँस गई है! उठकर काँपते हाथों से वेणी खोल दी उसने।
केश नितंबों तक लहराने लगे। काले रंग का शॉर्ट कुर्ता और पैरेलल।।। अनिल ठगा-सा रह गया। यैस्स-स्टार्ट! आँखों से इशारा किया उसने।।।
और सबा ने सचमुच धावा बोल दिया! अपनी स्लिम बांहें उसकी छाती पर अड़ाये उसे भूमिसात् कर उठी।।।। वह प्रमुदित-सा एकटक देखता रहा- काली आँखों की नायाब चमक! ऊपरी ओठ का नन्हा-सा काला तिल! और काले लिबास से झाँकतीं गोरी भरी-भरी गोलाइयाँ! दिल में एक ज्वार-सा उठ ख़डा हुआ।।।। चेहरा सीने में गड़ाकर हठात् पलट दिया उसे!
और वह स्र्आँसी-सी फिर चढ़ बैठी तो, रानों में हाथ डालकर फिर।।।। कुछ देर यूँ ही। दिनरात, धरतीआकाश की जैसे ख़बर नहीं। धरती की दूब छील कर घाटियाँ-चोटियाँ सब उघाड़ लीं किसी ने। साँप केंचुल छोड़ बाँबियों पर फन पटकने लगे तब होश आया!
`हम नहीं!' वह कसमसाईर्।
`पीछे नहीं लौट सकते-अब! प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे%!' वह हाँफ गया। प्यासे भटकते मृग मीठे चश्मों में उतर जाने को आमादा हो आए थे।।।।

स्कूल पर हालात सामान्य हो चले थे।।।। कभी-कभार शिक्षा समिति के लोग आ जाते जो अब क़ायदे से बतियाते। ।।।शिकारी की पहँुच से दूर विस्तृत नभ में उड़ान भरती भयमुक्त चिड़िया-सी वह निर्बाध अपनी डयूटी पर आने-जाने लगी थी। अनिल बगै़र बताये कभी भी आ जाता! जैसे उसे सरप्राइज देना चाहता हो! या गाँव वालों को यह जताना कि स्कूल पर मज़मा लगा कर मैडम को तंग किया तो समझ लेना।।।। वे अकेली नहीं हैं-अब! और उसके आते ही वह थोड़ी देर में छुट्टी कर देती। बच्चे अपने-अपने बस्ते टाँग कर फुदकते हुए चले जाते। सामने वाली चेयर पर बैठ कर अनिल फिर उसका एक गहरा बोसा ले लेता। बुभुक्षा से प्रेरित घूँट-सा भरकर धीमे-धीमे मुस्कराने लगती वह।।।। और अनिल टीले वाले मंदिर के लिये तो कभी स्कूल के हॉल में ही दो मिनट के लिए राजी कर लेता।।।। और उसे हँसी आती कि जहाँ बच्चे रोज़ उसकी मार से बिलबिलाते, मुर्गी बने-बने सिसकते हैं, उसी भूमि पर, उन्हीं टाटपटि्टयों के ऊपर वह जिंदगी का सुखमय खेल खेल लेती है!
मगर कभी-कभी दबी जुबान में कहती जरूर-
`हमें जगह बदलनी पड़ेगी।।।'
`क्यों?'
`तुमने सुना नहीं, दीवारों के भी कान होते हैं!'
वह एक क्षण सोचता, फिर कहता,
`तो- तुम मेरे साथ रहने लगो।।।।'
`तुम्ही मेरे साथ रहने लगो!' वह पलटवार करती।
वह खिसियानी हँसी हँसता, `यह तो एक ही बात हुई।।।'
नहीं हुई। वह जानती थी।
स्वभावत: बचपन से ही अक्ख़ड और दबंग। माँ बात-बात पर कहती, `मेंहदी लगते ही मरद की छाया बन जाओगी।।। झुकी-झुकी फिरोगी आगे-पीछे।'
वह खिसिया जाती, `बिना ब्याह के चलन नहीं चल सकता औरत का।।।'
`नहीं- बेटी किसी की कँुआरी नहीं रही।।।।'
`रहने नहीं दी लोगों ने।।।'
`हाँ- रहने नहीं देते लोग!'
`मैं रह कर दिखाऊँगी!' उसके चेहरे पर दृढ़ता होती।
`देख लेंगे,' माँ चिनचिनाती।
वह और दृढ़ हो जाती।
गाँव का ढर्रा वही था। सबा इधर आती होती उधर लोग द्रेक्टर पर लद कर शहर जा रहे होते। जिन्हें खेतों पर जाना चाहिए वे दिन भर बाजार में मुँह उठाए फिरते। टॉकीजोें से अक्सर उन्हीं का रेला छूटता। ।।।अब वह समझ पा रही थी कि ये वही लोग हैं जो नयी संस्कृति की चकाचौंध से अपने मार्ग से भटक गए हैं! खेती किसानी में मन नहीं लगता जिनका। किराए के द्रेक्टर, टयूबवैल के भरोसे अपने खेतों को बेगाना बना दिया है जिन्होेंने। फसलें अकेली ख़डी बाट जोहती रहती हैं और वे बाजारों में मुँह उठाए फिरतेे हैं।।।।
मगर वे उन्हें साथ देखने के अभ्यस्त जरूर हो गये। अब कोई आँख उठा कर भी नहीं देखता। अब कोई हिसाब-किताब नहीं लेता पढ़ाई का, न स्कूल लगने के घंटोें का, दिनों का! कई बार गैप हो जाता। महीने के कम से कम तीन बीमार दिनों में तो अवश्य!
।।।और तब जाकर उसे समझ में आया कि वे सब यही चाहते थे। अब तो वे उसे तीन महीने तक की मैटरनिटी लीव भी बाखुशी दे सकते थे! एक स्त्री को किसी न किसी पुस्र्ष के आधिपत्य में देने के हिमायती।।।।
और माथा बजने लगा उसका।
जबकि अनिल इस बार फिर उसी पुराने किले में, उसी सतखण्डे पर ले आया था, जहाँ राजा-रानी बैठ कर चौसर खेलते।।।। इस बार तो फीचर राइटिंग और फोटोग्राफी के लिए भी नहीं! यात्रा के अथ से ही आँखों में प्रबल कामेच्छा लिए! मगर तीसरे खण्ड तक आते-आते वह बोल गई।
`क्या हुआ?'
`हमसे अब और नहीं चढ़ा जाता।'
`एक एनर्जेटिक इंजैक्शन ले लो!' उसने प्यार से गाल थपथपाते हुए उकसाया।
`हमेशा भर कर रखते हो?' उसने बेहिसी से पूछा।
`हाँ!' अनिल बौरा गया। उसने उसी क्षण बाँहों में भर लिया उसे और कपड़ोंे से दुश्मनी निकालने लगा! गोया, आज पहली बार इतना पागल हुआ! जैसे- चौतरफा खुले दरवाजों के बीच छतरीनुमा छत के नीचे श्वेत पत्थर के फर्श पर किसी अप्सरा की भाँति उसे आपादमस्तक निर्वसन कर समूचा निगल लेना चाहता हो! ।।।और बेशक़ उसका यूँ टूट कर प्यार करना उसे भला लगता। प्राण प्राणों में समा जाने को आतुर हो आते और वह बेसुध-सी उसकी समूची देह को अपनी देह में समो लेती, मगर उसके दिमाग में कुछ बजने लगा था-
`तुम मेरा तबादला अब कभी नहीं कराओगे।'
`क्यों?' वह चौंक गया।
`तुम इसी तरह मुझे यूज करते रहोगे, जीवन भर..।'
`सबा सबा!' अनिल हड़बड़ा गया, `तुम पागल हो गई हो।।। हम एक-दूसरे को प्यार करते हैं....
`नहीं ' उसने होंठ भींच लिए, `यह प्यार नहीं है।।। मुझे बाँध लिया आखिर तुम लोगों ने.... वह सिसक उठी।



ए. असफल
मार्च 1, 2006

 

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