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महानायक
मैंने सामने से आती टैक्सी को इशारा किया। टैक्सी पास आकर रुक गई।
दरवाजा खोल मैं टैक्सी में धंस गई।
धीरे से ड्राइवर से कहा,' साउथ एक्स।`
टैक्सी ड्राइवर ने मीटर डाउन किया और टैक्सी ने रतार पकड़ ली।
यही मेरा रूटीन है। हर चीज में किफायत कर सकती हूं लेकिन चलूंगी टैक्सी से ही। वैसे टैक्सी मिलना भी आजकल मुश्किल काम हो गया है। कई बार तो इतनी चिरौरी करनी पड़ती है, बस पूछो मत। टैक्सी न मिले तो मजबूरी में ऑटो से चलना ही पड़ता है। किराया भी कितना महंगा हो गया है। कभी कभी लगता ही आधी तनखा मैं इसी में लुटा देती हूं। कार से भी महंगा पड़ता है।
दरअसल कार ड्राइव करने से मुझे डर लगता है। स्टियरिंग हाथ में आते ही मुझे लगने लगता है कि दो चार को कुचल दूंगी कार के नीचे। बस में तो कभी कॉलेज के दिनों में बैठी थी। इस दिल्ली शहर में जितनी जिल्लत बसों में किसी औरत को भुगतनी पड़ती है मैंने भी भुगती थी और कसम खाई थी, जिस दिन जेब में पैसे होंगे, उस दिन बस में चलना बंद कर दूंगी।
और मैंने ऐसा ही किया भी।
जब से नौकरी शुरू की, कभी ऑटो और कभी टैक्सी। आज की तारीख में बेस्ट सोल्युशन यही लगता है। हालांकि आज बदलते हालात में कभी कभी डर भी लगता है टैक्सी में बैठते। वह भी रात बिरात के समय। अब मेट्रो इस शहर में हर जगह अपना जाल बिछाती जा रही है। बड़ा लुभावना जाल है मेट्रो का। हो सकता है तब मेरी पसंद भी बदल जाए। लेकिन अभी तक मेरी पहली पसंद है टैक्सी।

मैंने शिव खेड़ा की किताब निकाली और नजरें किताब पर गड़ा दीं। क्या जबरदस्त लिखता है यह आदमी भी मैनेजमेंट के बारे में।
शिव खेड़ा से मैंनेजमेंट के गुर सीख ही रही थी कि अचानक किसी की सिसकियों की आवाज सुनाई दी।
मैंने किताब से नजरें उठा कर चारों ओर देखा। मैं अभी भी टैक्सी में ही थी। टैक्सी दौड़ रही थी। आस पास भी ऐसा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था और टैक्सी में मेरे और ड्राइवर के अलावा कोई और नजर नहीं आ रहा था।
मैंने फिर पढ़ना शुरू कर दिया।
दो चार लाइनें ही पढ़ी होंगी कि फिर ऐसा लगा कि जैसे कहीं से सिसकियों की आवाज आ रही है।
मैंने किताब सीट पर रख दी और टैक्सी से बाहर देखने लगी।
मैं हैरान थी। पता नहीं क्यों मुझे सिसकियों की यह धीमी धीमी आवाज सुनाई पड़ रही है। कैसा वहम है यह? क्या कान बज रहे हैं मेरे? गर्मियों की दोपहर है और अकेलापन।
बचपन में दादी से सुनी कहानियां जेहन में आने लगीं। उन कहानियों में अक्सर दोपहर के वक्त अकेले चलते हुए कोई न कोई भूत साथ हो ही लेता था। उनकी एक कहानी का प्रेत तो औरत का वेश धर कर रास्ते में बैठा रहता था। जो राहगीर उसके चंगुल में फंस गया, उसका खून चूस लेता था।

इस समय भी टैक्सी के साथ कोई भूत सफर कर रहा है? जेहन में आया।
मैं खुद ही मुस्कुरा दी। किसी से कह दिया तो अच्छा खासा मजाक हो जाएगा। इस दिल्ली शहर में तो इंसान ही भूत का खून चूस ले।

सिसकियां अब भी सुनाई दे रही थीं। इतनी धीमी कि यह भी पता नहीं चल पा रहा था कि आवाज पास से ही आ रही है या गाड़ी के पीछे से कहीं से।

मैंने आगे की सीट की ओर देखा। ड्राइवर को देखने की कोशिश की। कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन मुझे एक बार को ऐसा लगा कि हो न हो, आवाज ड्राइवर की सीट से ही आ रही है। धीरे धीरे सरक कर मैं कुछ इस तरह बैठ गई कि रियर व्यू मिरर मे ड्राइवर की शक्ल दिखाई देने लगी।

मेरा ाक सही निकला।
सिसकियां ड्राइवर की ही थीं। मिरर में साफ नजर आ रहा था। ड्राइवर की भरी हुई आंखें अब मुझे साफ साफ दिखाई दे रही थीं। कई दिन की बढ़ी हुई ोव। सूजी हुई आंखें। उनमें लाली नजर आ रही थी। जब मैं टैक्सी में बैठी थी, मैंने उसका चेहरा देखा ही नहीं था। हालांकि मां कहा करती थीं कि किसी भी सवारी में बैठने से पहले ड्राइवर का चेहरा जरूर देख लेना चाहिए। इससे बहुत सी मुसीबतों से बचा जा सकता है। लेकिन इस सीख पर मैं कभी अमल नहीं कर पाती। खुद में मैं इस कदर खोई रहती हूं कि हमेशा सफर खत्म होने के बाद मुझे यह सीख याद आती है।
' हे भगवान, यह रोते हुए कहीं टैक्सी ही न दे मारे।` उसे रोते देख कर सबसे पहला झटका तो मुझे यही लगा।
फिर लगा कि मैं भी कितनी स्वार्थी हूं। यह सोचने के बजाय कि यह भला आदमी टैक्सी चलाते चलाते भी क्यों रो रहा है, मैं अपने बारे में ही सोच रही हूं। पता नहीं किस मुसीबत का मारा हुआ है बेचारा!
मुझे संकोच भी हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि उसके रोने के बारे में पूछ कर कहीं उसे शर्मिंदा तो नहीं कर रही? फिर भी मैं आगे की ओर थोड़ा सा झुकी और ड्राइवर से पूछने लगी, ' क्या आपको प्राब्लम है कोई?`
हालांकि जिस तरह हकलाते हुए मैंने पूछा, मुझे खुद पर ही हंसी आने लगी।
ऐसा लगा कि इस तरह मेरे पूछने से वह अचानक चौंका, जैसे किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो।
' नहीं, नहीं जी, कुछ नहीं, जी।`
'कुछ तो है।` मैंने बात आगे बढ़ाई। अब मुझमें अच्छी खासी उत्सुकता जाग चुकी थी कि आखिर ऐसा क्या है जो बेचारा इस तरह जार जार रो रहा है।

मेरे पूछते ही जैसे धारा बह चली। उसने फूट फूट कर रोना शुरू कर दिया था।
मुझे लगा मेरे घर पहंुचने से ज्यादा जरूरी इसकी तकलीफ है। या तो मैं टैक्सी बदल कर दूसरी टैक्सी से घर चली जाऊं या फिर इसकी बात सुनूं। हो सकता है कोई हल न निकले, और कुछ नहीं तो इसका रोना तो कम से कम बंद हो। बात कह देने से भी दिल हल्का हो जाता है।
टैक्सी की रतार थोड़ी धीमी हो गई थी,' आपकी समस्या क्या है?`
वह खामोश रहा।
' मैंने एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निबाहते हुए फिर कहा,' आप बताइए तो, हो सकता है, मैं आपकी कोई मदद कर सकूं। आपको कोई गम तो जरूर है। और कुछ नहीं तो, बताने से गम ही कम हो जाता है।`
वह रुंधे हुए गले से ही बोला,' मेरा एक बेटा है। चौदह साल का। उसे कैंसर है। बीवी की आखिरी निशानी है। वह भी कैंसर से मरी थी। छह साल हो गए उसे मरे। तब वह आठ साल का था। गांव में हमारी काफी जमीन जायदाद थी। अपनी जीप भी थी घर की। मैंने काफी जमीन बीवी को बचाने के लिए बेच दी थी, जीप भी बेच दी लेकिन उसे बचा नहीं पाया। बाद में वहां गुजारा भी मुश्किल हो गया था। बीवी की याद भी वहां नहीं रहने देती थी। इसलिए बेटे को लेकर दिल्ली आ गया था। सोचा था, इसे खूब पढ़ाऊंगा, लिखाऊंगा। इसे भी डाक्टरों ने कैंसर बता दिया। काफी दिन से इलाज चल रहा था। अब डाक्टरों का कहना है कि ऑपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जाएगा। कल सुबह तक की मियाद दी है।`
' दिक्कत क्या है?` मैंने पूछा।
' अस्पताल वालों ने पचास हजार रुपए मांगे हैं। चालीस हजार का इंतजाम तो मैंने कर लिया है। गांव की बची खुची जमीन भी बेच दी। कुछ दोस्तों रिश्तेदारों से मांग लिए। दस हजार का इंतजाम और करना था। टैक्सी किराए की चला रहा हूं। वरना इसे भी बेच देता, बेटे को बचाने के लिए। एक दोस्त ने आज शाम को छह हजार देने का वादा किया है। अब ऐसा कोई दोस्त रिश्तेदार नहीं दिखाई दे रहा जिससे और पैसा मांग सकूं। जिसने देना था, दे दिया। जिसने मुंह फेरना था, दोबारा मांगने से भी देने वाला नहीं।
सिसकियों में डूबे डूबे ही उसने फिर कहना शुरू किया, ' मेम सा`ब मेरे पास टाइम भी होता तो कुछ न कुछ कर लेता लेकिन टाइम ही तो नहीं है। अब शाम के चार बज रहे हैं और समझ नहीं आ रहा किस घर जाकर भीख मांगूं? किस मंदिर गुरुद़्वारे में मिल सकती है मेरे बेटे को जिंदगी। अब लगता है कि चार हजार रुपए की वजह से मेरा बेटा मुझसे बिछड़ जाएगा। मैं इस दुनिया में अकेला रह जाऊंगा।`
उसने फिर जोर जोर से रोना शुरू कर दिया था।

मैं सोचने लगी, महज चार हजार रुपए की वजह से एक बच्चे की जान चली जाएगी!
उसकी बात सुन कर इस कदर दुखी हो गई थी कि गाड़ी एक किनारे रोकने को कहा।

पास ही टी स्टॉल दिखाई दिया। स्टॉल वाले को दो चाय भेजने को कह दिया।
' तुम डाक्टरों से क्यों नहीं कहते? चार हजार की ही तो बात है। इतना तो लिहाज वे भी कर सकते हैं। आखिर वे भी इंसान हैं।`
वैसे उससे कहते कहते, मैं सोचने लगी थी कि आजकल के डाक्टर भी डाक्टर नहीं रह गए हैं, पूरे जल्लाद हो गए हैं। उनकी नजरों में इंसान की जिंदगी की कोई कदर नहीं रह गई है। इंसान की जान को चांदी के सिक्कों में तोलते हैं। अस्पताल थोड़े ही हैं, बिजनेस हाउस बन गए हैं।
लेकिन उसने जो बताया, उससे यह तस्वीर बदलने लगी। वह बोला,' वो डाक्टर सा`ब तो भगवान हैं जी। ऑपरेशन में एक लाख से ज्यादा का खर्चा आ रहा था। मेरी हालत पर तरस खाकर उन्होंने कम कर करा कर पचास हजार किया लेकिन इससे कम नहीं कर सकते।`
ऐसा लग रहा था कि दिल की भड़ांस निकाल कर वह संयत हो गया था। चाय खत्म हो चुकी थी।

सफर दोबारा शुरू हुआ।
उसने न जाने किस उम्मीद से मुझसे कहा, ' मेम सा`ब आप किसी बड़े घर की लगती हैं-पढ़ी लिखी। क्या किसी संस्था से आपकी जान पहचान नहीं है? जो मेरी मदद कर सके।`
' नहीं।` मैंने धीरे से कहा। लेकिन ऐसा लगने लगा था जैसे अपनी परेशानी उसने अब मुझे दे दी थी। कैसे कर सकती हूं इस गरीब आदमी की मदद? मुझे लग रहा था कि अगर इस आदमी का बेटा नहीं बच पाया तो मैं भी जिंदगी भर इस गुनाह का बोझ लिए घूमती रहूंगी।

मैंने अपना पर्स टटोलना शुरू किया। करीबन दो हजार रुपए थे उसमें। राहुल के लिए स्पोटृर्स शूज लेने थे। काफी दिनों से कह रहा था। आज प्रॉमिस किया था उससे। उसने कहा था, आज शूज नहीं दिलाए तो ममा मैं आपसे कुट्टी कर लूंगा। घर जाते ही उसे लेकर बाजार जाना है। वह इंतजार कर रहा होगा। घर में भी थोड़े बहुत ही पड़े होंगे। आजकल के हम लोगों की जिंदगी भी कर्ज की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा चलती है न। अभि ोक से पूछूं कुछ?
' ना बाबा ना। हो सकता है मियां जी उलटे नाराज ही हो जाएं।` कहने लगंे, ' ये टैक्सी वाले को लिए क्यों घूम रही हो? बहुत सोशल वर्क करने का मन कर रहा है? `
' बैंक से पैसे निकालूं? चेक दे सकती हूं?`
सोचने लगी,' अचानक मन में बैठे किसी चोर ने कहा,' इतना ज्यादा नहीं। मदद भी यह देख कर करनी चाहिए कि किसकी की जा रही है। इस टैक्सी ड्राइवर से तुम्हारा लेना देना ही क्या है! इंसानियत के नाते जो कर सकती हो, कर दो। बाकी तुम्हारा लेना देना क्या?`
'राहुल को स्पोटृस शूज फिर कभी दिला दूंगी।` मैं सोचने लगी। 'ये पैसे तो इसे दे सकती हूं।`

घर आ गया था। टैक्सी रुक गई थी। मैंने पांच सौ रुपए अपने पास रख कर डेढ़ हजार रुपए उसके हाथ में धीरे से रख दिए। ' आपके बेटे के लिए इस समय मैं इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकती।`
वह इंकार करने लगा। ' नहीं, नहीं आप मेरे लिए तकलीफ क्यों करें? मैं आपको यह रुपया कहां लौटा पाऊंगा?`
' रख लें। मुझे वापस नहीं चाहिएं। आपका बच्चा जीवित रहा तो मेरे लिए इससे बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है!`
पैसे उसने थाम लिए थे। ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरे उपकार तले दब रहा हो।
वह टैक्सी से बाहर निकला। मेरा दरवाजा खोला। मैं बाहर निकली तो मेरे पांव छू लिए। फिर आंसुओं की गंगा जमुना बह निकली।
धीरे से बोला,' मेम सा`ब आप बुरा न मानें तो अपना कार्ड दे दीजिए। जिंदगी में कभी बना तो आपका यह कर्ज चुका तो सकूंगा।`

मैंने उसे यह कहते हुए अपना कार्ड दे दिया,' पैसे लौटाने की कोई जरूरत नहीं है। हां, कोई जरूरत हो तो मुझे फोन कर सकते हो। बेटे के ऑपरेशन के बाद बता जरूर देना।`

उसका कोई पता ठिकाना था नहीं। ' मेमसाब किसी रिश्तेदार के घर ठहरा हूं। फोन शोन हम गरीबों के पास कहां होता हैं। ऑपरेशन होते ही आपको खबर जरूर करूंगा। आप तो कलयुग की देवी हैं जी।`

कई दिन बीत गए। मैं इंतजार करती रही उसके फोन का। ऑपरेशन कैसा रहा उसके बच्चे का? बच गया या नहीं? मन में कई दिन तक यही सवाल चलते रहे।
उसका फोन नहीं आया। लेकिन मुझे काफी अरसे तक ऐसा लगता रहा कि मैंने जिंदगी में कोई महान काम किया है। मुझे लगने लगा था कि मेरा कद थोड़ा सा बढ़ गया है। कई बार सपने में दिखाई देता, वह आदमी मेरे पैर छूते हूए। सोचने लगती थी कि इंसान अपनी जिंदगी में कोई एक भी काम अच्छा कर ले तो जिंदगी ही बदल जाए।

जिंदगी तो चलती ही रहती है अपनी रफ्तार से। राहुल के जूते भी अगले महीने आ गए।

कई महीने बीत गए। शायद साल। इस बात को मैं बिलकुल ही भूल गई।

फिर एक शाम घर वापसी के लिए मैंने टैक्सी ली। आदतन किताब पढ़नी शुरू ही की थी कि सिसकियां सुनाई देने लगीं।
मुझे अचानक उसी टैक्सी वाले की याद आ गई। उसकी सिसकियां, उसका बेटा।
लो देखो, मां की बात फिर भूल गई न, टैक्सी में बैठने से पहले ड्राइवर का चेहरा देखने वाली। वही फिर से चेहरा देखने की मशक्कत रियर व्यू मिरर में। उसकी आंखें लाल लाल सूजी हुई। वही बढ़ी हुई शेव। यह तो वही लगता है। मुझे शक हुआ, लगता तो वही है। हो सकता है कोई और हो?
मैंने उत्सुकता दबा कर पूछा,' भई, रो क्यों रहे हो?`
उसकी रुलाई फूट गई थी।' मैडम क्या बताऊं, मेरा चौदह साल का बेटा है। कैंसर का मरीज। कल सुबह तक उसका ऑपरेशन न हुआ तो........`
उसकी कहानी शुरू हो चुकी थी। एक एक शब्द वही था। इस अरसे में कुछ भी तो नहीं बदला था। मैं सोच रही थी कि उस महानायक की भी आखिर गलती कहां हैं! जिंदगी के रंगमंच पर रोज रोज नाटक करते करते, कहां तक याद रखे एक्स्टरा कलाकारों को। कभी कभी तो भूल चूक हो ही जाती है।


सुषमा जगमोहन
मार्च 15, 2006
 

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