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लघुकथा
तमाचा

नीरू की शादी को करीब १० बरस हो गये थे । सारा घर संभाले वह कब प्रौढ़ा सी बन गई, पता ही न चला । राकेश भी दतर जाकर देर से आना अपना मकसद सा बना बैठा, वह भी अब उसे उपेक्षित नज़रों से देखने लगा कि इस बीच राकेश की दोस्ती मीनू से हो गई । बात काफी आगे बढ़ गई और नीरू से तलाक की माँग की गई । वह सकते में आ गई, उसे अपने बेटे अनु का भविष्य अंधकारमय लगने लगा । झगड़ा काफी बढ़ गया । पूरे ससुराल वाले लड़के की तरफ थे । आज उसकी अन्तिम तारीख थी । फैसला होना था । नीरू रात भर न सो पाई थी । अदालत में ११:३० पर उसे आवाज़ लगी । राकेश ने नीरू पर निराधार इल्ज़ाम लगाये, उसे बदचलन ठहराया । वह फटी-फटी आँखों से सब देखती रही । कटघरे में खड़ी नीरू गहरी नींद से जगी, जब जज साहब ने पूछा, सच-सच बताओ, क्या ये सब सच है ?

नीरू ने कहा, ``हाँ जज साहब सब सच है'' अदालत में बैठे ससुरालवालों की आँखों में चमक आ गई । दूसरे ही क्षण नीरू ने कहा, ``जज साहब, मैं बदचलन हूँ, नीच हूँ, परन्तु ये सब ध्यान से सुन लें कि जिस बच्चे के लिये मुझे यहाँ बुलाया गया है वो भी इसका नहीं है किसी और का है ।''

सुनते ही माहौल बदल गया । राकेश आसमान से ज़मीन पर गिर गया ।


शबनम शर्मा
अप्रेल 1
, 2006
 

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