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हनीमून

लहरे बार बार आतीं पावों को छूकर, दुलराकर फिर लौट जाती समुद्र अभी शांत था रौशनी की कतार के बीच शंख और सीप के सामान, तली हुई मछली, आइसक्रीम,  कैंडी और कॉफी के स्टाल लोगों की भीड उमडती थी, बूढे, बच्चे, जवान

हम दोनो चुपचाप, अलग थलग, भीड से धीरे धीरे एक एक कदम दूर जाते रहे उसके पावों के निशान पर मैं अपने पाव एहतियात से रखती उसके पीछे पीछे तब तक चलती रही जब तक मेरे इस बचकाने खेल से तंग आकर उसने खींच कर मुझे अपने बाहो के घेरे में ले लिया कमर को घेरे उसकी बाहे मुझे कैद कर गई थीं

हम बहुत दूर पानी के किनारे किनारे रेत पर चलते आ गये थे,  रौशनी पीछे छूट गई थी

इस अनजान अजनबी संसार में जैसे हम दोही प्राणी थे, नश्वर, उस अनश्वर समुद्र की गरजती लहरों और जमीन आसमान के एक होने की परछाईं मात्र से सिहरते, अकेले पर फिर भी साथ साथ

हम सप्ताहांत मनाने यहां आये थे पर मैं इस कशमकश में थी कि जो कर रही हूं वो सही है क्या? उसका और मेरा परिचय लंबा था पर अब तक जो मन की परिधि में कैद था उसे शरीर का विस्तार दे पाना क्या संभव था मेरे लिये हम एसे ही मिलते रहें ये भी हो सकता थाकॉफी लाउज में, रेस्तरां में, कला दीर्घा में लंबी बातें होती जो खत्म नहीं होती दूसरे दिन बातों का वही सिरा खोज कर हम फिर नई बातें बुनते

शुरूआत तो ऐसी ही हुई थी उसकी भूरी आंखो में अजीब सी शरारत कौंधती कभी मुझे देखते देखते गहरा जाती उसके बाल जिद्दी बच्चे की तरह माथे पार गिर जाते पर कभी एक नटखट शैतान बच्चा उसके अंदर से बाहर निकलने को बेकाबू हो उठता जैसे एक शैतान बच्चा जो मेहमानो के आने पर माँ के मना करने के बावज़ूद बार बार शरारत कर बैठता है उसके व्यक्तित्व का यह मिश्रण मुझे पहले तो उकसाता रहा पर फिर कब ये चाहना में बदल गया ये पता ही नहीं चला

पर ये जो भी था एकदम प्लैटोनिक था उसने कभी मुझे गलती से भी छुआ नहीं था ऐसा नहीं था कि मौके नहीं थे कई बार घर भी आता टेरेस पर बैठकर कॉफी के अनगिनत प्यालों के दौरान हमारी बातचीत चलती

मैं अकेली अपने स्टूडियो अर्पाटमेंट में पर कभी एहसास नहीं होता कि हम यानि एक औरत और एक मर्द यों अकेले में मिल रहे हैं इसकी वजह मैं थी या वो, ये भी पता नहींवैसे मैं खासी आकर्षक थी अच्छी नौकरी,अपनी गाडी,  अपना घर अकेली रहती थी, कोई रोकटोक नहीं मर्द कई बार मुझे अवेलेबल समझ कर प्रस्ताव कर चुके थे जिन्हे मैं बडी निर्ममता से उनके मुंह पर वापस फेंक दिया करती थी ऐसा करने में मुझे अजीब सा सुख मिलता

और तब अचानक ही उसने एकदम सरलता से अपने साथ सप्ताहांत बिताने का प्रस्ताव रखा था-
''चलोगी, अगले वीकएंड ?''
मैंने चौंक कर देखा था उसे
टटोलने की कोशिश की थी क्या था उस प्रस्ताव के पीछे चेहरे की मासूमियत के पीछे कोई और वक्र भावभंगिमा
''
कहां ?''
मैंने भी अनजान बनते हुये कहा था
मेरा चेहरा पढ न ले इस भय से मुड ग़ई थी उसके लाये फूलों को वास में डालने के बहाने
मैं क्या चाहती थी ?
इस रिश्ते का ये विकास, शायद स्वाभाविक ही था

अपना मन टटोला तो लगा कि कहीं से उसकी ओर से किसी ऐसे प्रस्ताव का इंतजार ही कर रही थी दैहिक अनुभूतियां सनसना गईं थी उसने जगह का नाम लिया था मुड क़र उसकी ओर देखा तो उसकी आंखे स रही थीं चेहरा जरूर बेलौस था

'' हां ,व्हाई नॉट। ''
एक जिद के से स्वर में मैंने कहा ।
''
फिर पलट मत जाना। ''
''
मैं उनमे से नहीं। ''
''
तो तय रहा! ''

जाने के पहले मंथन करती रही अगर हमारा रिश्ता शरीर के हदों को छूने लगे तो संतुलन मुझमें शायद न रहे मुझे उससे नही अपने आप से डर लगने लगा उसने एक बार फिर बीच में कभी टोका था

''अभी भी सोच लो। ''
''
मैं ने एकबार हां कह दी है न। ''

अब मैं बध गई थी अपने ही बनाए बधन में । पर अहम प्रश्न ये था कि क्या छूटना चाहती थी ।

उस जैसे सुदर्शन युवक का साथ और उसकी मेरे साथ की चाहना क्या मुझे भी बेकरार नहीं कर रही थी मैं अपने को नैतिकता के सवालों से पृथक रख रही थी जो जरूरी था मेरे लिये वो ये कि मैं क्या चाहती थी अपने को आधुनिक,लिबरल,कामकाजी औरत के स्टिरियोटाइप से अलग हटाकर सिर्फ अपने मन की चाहत के संदर्भ में कोई निश्चय करना आसान नहीं लग रहा था अंत में थकहार कर क्लांत मन से अपने को बहाव में बहने को छोड दिया

आज छुट्टी का पहला दिन था या ये कहें कि पहली रात थी दिन तो बीत चुका था उसके बाहों के घेरे में चलते चलते रात की संभावना मुझे कहीं आशंकित कर रही थी होटल लौटे थे मैं तुरत अपने कमरे में आ गई थी टब में पडी ,पानी और साबुन के फेनिल झाग में लेटे मन को खाली छोड दिया था फोन की घंटी बजी थी -

''अगर तुरत नीचे नहीं आई तो भूखा सोना पडेग़ा। रेस्तरां बंद होने का समय हो गया है।''
''
बस दस मिनट में नीचे पहुंचती हूं।''

खाना मुझसे खाया नहीं जा रहा था हर कौर अटकता था गले में पानी के छोटे छोटे सिप मैं लेती
रही
वो तन्मय हो कर खाता रहा पोच्ड फिश के कतले, रशियन सलाद, बेक्ड चिकेन,  ओ ग्रातां सब मेरे पसंद के व्यंजन थे पर आज मेरी भूख मर ग्ई थी इतना बडा कदम उठा तो लिया था फिर अंजाम तक पहुंचने में ये हिचकिचाहट, इतनी घबराहट क्यों हो रही थी

''तुम खा नहीं रही ?''

''कहां ? खा तो रही हूं ।''  मेरी आवाज क़ुछ कमजोर सी थी ।
वो बातें करता रहा,  खाने का आनंद उठाता रहा, मेरी मानसिक दशा से जैसे बिलकुल अन्भिज्ञ ।
बिल आ गया था । जब तक वो साइन करता मैं उठ गई थी ।

''मैं एक सिगरेट पी लू ?  ''उसकी आंखे जाने कैसे शरारत से चमक उठी थीं।
''
तुम जाओ ,थक गईं होंगी । शुभरात्रि। '' मेरा कंधा थपथपाकर वह पलट गया । कमरे में पहुंच मैंने दरवाजा बंद किया और फिर बंद दरवाजे पर ही सर टिकाकर हांफ गई । छूट जाने का सा एहसास, पता नहीं क्या था । कपडबदल कर बिस्तर में दुबक ग्ई । सुबह फोन की घंटी से नींद खुली ।

''गुड मॉर्निंग । नींद अच्छी आई ?'' उसकी आवाज मुझे दुलरा गई ।
''
तैयार होकर नीचे पहुचो । फिर आज का कार्यक्र्म तय करते हैं ''
दोनों दिन हम खूब घूमे । रात अपने अपने कमरे में तन्हा सोये । सोमवार हम वापस आ गये थे अपने काम पर ।

पर कहानी का अंत इसे मत समझ लीजिये अजी आप भी कहेंगे ये कौन सी कहानी हुई न कोई घटना घटी न कोई हादसा हुआ कोई रोमांस भी नहीं अरे पर आगे सुन तो लीजिये

आज फिर मैं उसी होटल में ठहरी हूं । एक साल बाद हम उसी दिन की तरह समुद्र तट से घूम कर वापस आये हैं मैं बाथरूम में नहा रही हूं । जल्दी करू वरना रेस्तरां बंद हो जायेगा हमें भूखे ही सोना पडेग़ा अभी उसे भी तो नहाना है कमरे से जो गाने की आवाज रही है उसी की तो है आपको बताया नहीं हम हनीमून पर आये हैं

प्रत्यक्षा
अप्रेल 15, 2005

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