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 अंक - 1
तत्त्वमसि

पहाड़
रात का अंधेरा कितना सुकून देता है, हर चीज सोयी-सोयी सी... पेड़, पौधे, फूल, पत्थर, जीव-जन्तु और मनुष्य। नहीं, सब नहीं सोते। इनमें कुछ जागता रहता है हमेशा चैतन्य स्थितप्रज्ञ...। कौन जानता है, वह क्या है ? जो जानता है, नहीं कह पाता...। हम उसके बारे में कुछ नहीं कह पाते, जो जानते हैं। हम वही कहते हैं, जो लगता है। ' लगने ' और ' जानने ' के बीच के फासले तय करने को होता है किसी-किसी का जन्म...। नहीं सभी का। पर कुछ जान पाते हैं, कुछ नहीं। मैं जो जानती हूं, कह सकती हूं किसी से ?
पीछे मुड़कर देखती हूं तो एक लंबा सिलसिला है - एक अनंत विस्तार... जाने कितने पहाड़... जंगल और नदियां और इसके बीच गुजरती मैं...। मैं पहाड़ हूं... स्थित, स्थिर, स्थितप्रज्ञ, निर्विकार...। अपनी तलहटी में जाने क्या-क्या छिपाये... होठों पर उंगली रखे... बर्फ को सिर से लपेटे... कोहरे से ढ़के... उदासीन...।
मैं जंगल हूं... जाने कितने रहस्य लपेटे, घायल पशुओं की चीखें... चीत्कारें... कच्चे मांस और सड़ रहे बीजों की बासी गंध समेटे...।
मैं नदी हूं... अपने आप में अकेली और पूरी...। नदी समुद्र से मिल गई, कोई कहता है और मैं बिछलकर हंस पड़ती हूं... समुद्र... सिर्फ समुद्र... इसके पहले और बाद में... ? किसी ने कभी नदी से जाकर पूछा है... उसे क्या चाहिये... वह चाहती है समुद्र से मिलना या तुम ही तय कर रहे हो सब। हां, हम ही तय करते हैं सब, नहीं तो फिर दिक्कत हो जायेगी न। अब नदी तो नहीं कहेगी उसे नहीं बहना या पहाड़ तो नहीं कहते, अब चलें कहां और ? या जरा बैठ ही जायें, खड़े हैं बरसों से।
कहा नहीं किसी ने उनसे - बैठ जाओ भाई, जरा सुस्ता लो। उनकी नियति है, हम जानते हैं। और हमारी नियति- हमारी नियति है भटकना...। हवा की तरह.... इधर-उधर...। तय कुछ और ही था, हो कुछ और गया। जो हो गया, वही बताने को तो लिख रही हूं यह सब...।
तय भी यही हुआ था... हुआ भी यही। यही बताने को तो लिख रही हूं...

भाग - १
पहाड़

चौथा पीरियड खत्म होने की घंटी बजती है और धप्प से मेरी पीठ पर धौल पड़ता है...
'' पढ़ उपन्यास पढ़, यही तेरे काम आयेगा, अच्छा। चेहरा तो ऐसे बनाती है, जैसे यही एक पढ़ने वाली है। ''
मैं खिसियानी हंसी हंसते हुये बीना को देखती हूं। पूरी क्लास में ाोर हो रहा है। टीचर जा चुकी है। वे नहीं जान पाई, मैं उन्हें नहीं सुन रही, उपन्यास पढ़ रही थी।
'' पकड़ी जाती तो....। '' रिसेस हो चुकी। वह किताबें समेटकर अपने बस्ते में डाल रही है।
'' तो उन्हें उपन्यास दे देती पढ़ने को। कहती, जो आप पढ़ा रही हैं, उससे अच्छा है, खुद पढ़के देखिये। ''
मैंने उपेक्षा से कहा। वैसे भी मुझे इकॉनामिक्स की इस टीचर मिसेस बेदी से चिढ़ है। ाक्ल ऐसी जैसे चप्पल उल्टी पड़ी हो। मुझे टोकने का तो इसे बहाना चाहिये एक। कभी-कभी लगता है, वे दुनिया की हर खूबसूरत चीज से चिढ़ती हैं, जैसे - नदियां, पहाड़ों, खुशबुओं से। जैसे - मुझसे।
हम सब क्लास से बाहर आ गये। कुछ लड़कियां खाने और कुछ खेलने चली गयीं। न मुझे अब खाना अच्छा लगता है स्कूल में, न खेलना। अब खेलने-खाने की उम्र रह गयी है क्या मेरी ? नवीं में आ गयी हूं। मैं लड़कियों से घिरी-घिरी धीर-गंभीर नायिका की तरह पांव रखती बाहर बरामदे में आकर खड़ी हो जाती हूं।
कुछ छोटी क्लास की लड़कियां हमारी तरफ दौड़ती आती हैं...
'' दीदी-दीदी, हमारे साथ खेलिये न। ''
मैं बुजुर्गाना ढ़ंग से मुस्कुराती हूं और उन्हें हाथ से जाने का इशारा करती हूं। सामने गेट है बड़ा-सा। लकड़ी के पट्टों से बना। उसके बाहर आठ-दस लड़के हमेशा रिसेस में और छुट्टी के दौरान खड़े मिलते हैं। मेरी सहेलियां उन्हीं की बातें करतीं हैं। दबी आवाज में मुझसे छुपाकर। इस मामले में वे मुझे अपने आप से अलग कर लेती है। उनके ख्याल से मैं किसी दूसरे ग्रह से आई हुई प्राणी हूं, जो बगैर लड़कों के खुश रहती है अपने आप में। और मैं उन लंबे-दुबले-काले, ढ़ीली-ढ़ाली ार्ट और चप्पल पहने गवंई लड़कों को देखती हूं तो मेरी मन विरक्ती से भर जाता है। मुझे अमृता प्रितम के उपन्यासों के समान किसी नायक की तलाश है- मारक सौंदर्य और पुरुत्व से भरपूर। जिसमानी खूबसूरती के लिये हमेशा अहमियत रखती है, चाहे वो खुद मेरी हो या दूसरों की। जब कभी मेरी सहेलियां घर आतीं, छोटी बुआ कहती-
'' तू कैसी है और तेरी सहेलियां कैसी हैं- एकदम काली-कलूटी। तुझे अपनी जैसी लड़कियां नहीं मिलती क्या ?''
मैं एक विशि टता के बोध से भर जाती। इस सबके बावजूद मैं उन सबसे बहुत प्यार करती। वे चलते-चलते मेरे गले से झूल जाती, मेरी कमर में हाथ डालकर चलती। मैं हंसती तो वे मुग्ध भाव से देखती और गाल पर पड़ रहे गढ़ढे पर अपनी उंगली टिका देती।
मैं बाहर खड़े लड़कों पर उचटती नजर डालती हूं। निर्लिप्त भाव से- जो मुझे देखता है, मैं उसकी तरफ नहीं देखती।
लड़कियां इमली, अमचूर, खट्टे बेर खरीदती हैं। मैं यह सब नहीं खाती। वे मुझे देती हैं, मैं मना कर देती हूं...
'' मुझे खट्टी चीजें अच्छी नहीं लगतीं। ''
'' ए, तू लड़की नहीं है क्या ? ''
मीना मेरी पीठ पर धौल मारती है।
मैं थोड़ा-सा घूम-घाम के वापस लौटती हूं। क्या करुं अब ? उपन्यास भी खत्म हो गया। मैं कापी खोलती हूं पीछे से। और उस पर कवितायें लिखती हूं...। खूब सोंच-सोंचकर, तुक से तुक मिलाकर -
' मेरे नगमों को गुनगुनाएगा कौन ?
गुनगुना के मुझको रुलाएगा कौन ?
यकीं नहीं है मुझे इस सूरज पर
अस्त होने से इसे बचाएगा कौन ?
रिसेस खत्म होने की घंटी बजती है और लड़कियां झुंड की झुंड मुझ पर आ गिरती है...
'' ए, ये गई काम से। ''
'' तुझे कुछ और नहीं आता लिखने के सिवा। ''
'' ए मनु, तेरा सच में कुछ नहीं हो सकता। ''
क्या होगा मेरा ? क्या हो सकता है मेरा ? पता नहीं। मैं नहीं सोंचती। मुझे फुर्सत नहीं है। मुझे पॉकीजा की मीनाकुमारी की तरह होना है - दु:ख सहती - अपने अस्तित्व को जमाने की ठोकरों से बचाती - नहीं, मैं लिखना नहीं छोड़ूंगी।
अगले तीनों पीरियड खाली हैं। अब ?
' अंताक्षरी ' कोई जोर से चिल्लाती और पूरी क्लास में हड़कंप मच गया। तुरत-फुरत दो ग्रुप बन गये। डेस्क एक तरफ हो गये, कुर्सियां एक तरफ। सीमा ने मुझे खींचकर अपनी तरफ कर लिया - अपने पास वाली कुर्सी पर बैठा मेरी कमर में बांह डाल दी। मुझे गुदगुदी हो रही है। मैं हाथ हटाना चाहती हूं। वह सख्त कर लेती है - एक नर्म-नर्म हाथ- किसी की बाहों में खो जाने का मन पहली बार होता है। मैं उसकी बाहों में खुद को ढ़ीला कर देती हूं। वह थाम सा लेती है।
'' ाुरु करो अंताक्षरि, लेकर हर का नाम...।
' म ' से बोलो। ''
'' मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने...
सपने-सुरीले सपने...। ''
किसी ने ाुरु किया। डेस्क बजने लगे। एक आवाज में कई आवाजें मिल गईं। समां बंध गया। मैं खुली और खुलती चली गई। मैं काफी अच्छा गाती हूं। खासतौर से लता मंगेशकर के गीत और इस मामले में मेरी याददाश्त का भी जवाब नहीं। और आखिर डेढ़ घंटे के बाद हम जीत गए। डेढ़ घंटे क्या सिर्फ यही हुआ था उस दौरान कि हम जीते थे। नहीं, मैंे हार गई थी।
जाने कब सीमा ने मुझे अपनी गोद की गरमाई में समेट लिया था और मुझे उठने नहीं दे रही थी। मेरी पीठ के नीचे बेंच का कड़ापन था, पर मुझे एक असीम सुख की अनुभूति हो रही थी। मैंने उसकी बाहों में मुंह छिपा लिया। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने उसका दुपट्टा आंखों पर रख लिया। मैं हंस रही हूं। मैं रो रही हूं। ' ऐसा हो जाता है बहुत बार कि जिंदगी बिलकुल आपके करीब से गुजर रही हो और एक बेहिस व्याकुलता के साथ आप उसका हाथ अपनी दोनों मुटि्ठयों में कसकर पकड़ लेना चाहते हों। चाहे लम्हे को ही सही, आप उसे अपने अंदर महसूस करना चाहते हों, पर पता नहीं किस संकोच से आप ठिठके खड़े रह जाते हैं, इस बात से बेखबर कि एक नामालूम-सा पछतावा आपकी नियति बनने वाला है। '
यह मैंने घर आने के बाद लिखा था-रात को।
पर उस वक्त तो मैं घर वापस नहीं लौटना चाहती। क्या है वहां ? मैं हमेशा भारी कदमों से घर वापस लौटती हूं। मुझे हमेशा लगता है, एक जेल का बड़ा-सा फाटक खुलता है। मैं अंदर होती हूं, वह बंद हो जाता है।
घंटी बजती है और हम घर वापस लौटते हैं। मैं वही नहीं लौटती, जो गई थी। सख्त गर्मी के बावजूद तेज धूप नहीं लग रही। अपने पसीने की महक अच्छी लगती है। अपने कपड़ों से उठती अपनी देहगंध। मैं हवा में बाहें फेलाना चाहती हूं, नहीं फैलाती। मैं किसी को चूम लेना चाहती हूं, नहीं चूमती। मैं दौड़ना चाहती हूं बहुत तेज, नहीं दौड़ती। मैं संतुलित कदमों से बाहर निकलती हूं। हम सब ' ओ.के. बाय ' कहकर विदा लेते हैं। सीमा और मैं एक-दूसरे को देखकर हंसते हैं। वह मेरे गाल थपथपाती है और पीठ मोड़ लेती है। मैं दूर जाती हुई उसकी पीठ देखती हूं।
घर आती हूं। सबकुछ वही है। मां और दादी के अंतहीन झगड़े...। छोटी-छोटी बातों पर वे हतों झगड़ती थीं। बाबूजी और दादाजी के झगडे।बाबूजी बहुत चिल्लाते हैं। जितने देर वे घर पे रहते हैं, हम कोशिश करके बाहर नहीं निकलते, जब तक वे न बुलाएं। वे बुलाते हैं तो 'मनु' का 'उ' खत्म होते न होते चार छलांगों में उनके पास पहुंचना होता ही होता। नहीं तो इस बात पर डांट कि इतनी मरी चाल से क्यूं चलते हो ?
मां इंतजार करती मिलती है। सुबह से कुछ नहीं खाया मैंने। वे जल्दी से मेरा खाना लगाती हैं। मैं हमेशा एक रोटी खाती हूं और वे हमेशा इस बात पर नाराज होती हैं। खाना खाकर मैं लेट जाती हूं। और कोई दिन होता, मैं खाना खाकर या तो क्रोशिया बनाती या तकिये के कवर पर सिन्धी कढ़ाई। मां इन दिनों मेरे ये सब सीखने पर ज्यादा तवज्जह देती है। मुझे क्या सीखना चाहिये, कैसे बनाना चाहिये, ये सब वे खुद तय करती हैं। आज मन भरा हुआ है, मैं चादर में मुंह छिपाकर रोती हूं। चुपचाप खामोशी से-कुछ भरा हुआ है अंदर-मैं खाली होना चाहती हूं। रोते-रोते मैं सो जाती हूं। मुझे कोई नहीं जगाता।
ााम पांच बजे उठती हूं। ट्रेन आने का समय हो गया है। हमारे घर के पीछे रेलवे फाटक बना है। थोड़ी दूर पर प्लेटफार्म। पीछे के दरवाजे से या ऊपर छत पर खडत्रे होकर हम रेलगाड़ी देखते हैं। छोटे थे तो खिड़की से झांक रहे यात्रियों को देखकर मैं और मेरा भाई हाथ हिलाया करते। वे भी हमें देखकर हाथ हिलाते। अब वह रोमांच नहीं होता। तब हम टहलते हुए प्लेटफार्म पर रुकी ट्रेन के पास चले जाते। एकदम इंजन के पास। किसी को इंजन के मुंह में कोयले डालते देखते और फिर धुआं-फिर भभकती आग। पटरियों पर दस पैसे का सिक्का रखते। ट्रेन के गुजरने के बाद वह चपटा सिक्का उठा लेते। पटरियों से कान लगाकर गुजर चुकी ट्रेन की झनझनाहट सुनते। खंभे से टिककर खड़े होते। उसमें से एक अजीब सी आवाज आती।
मैं गुजरती हुई ट्रेन देखती हूं। जिस तरफ ट्रेन जा रही है, उस तरफ कितने स्टेशन हैं और जिस तरफ से ट्रेन आ रही है, उस तरफ कितने स्टेशन ? मैं भाई से पूछकर जान चुकी हूं। मुझे याद नहीं आता-मैं कभी ट्रेन में बैठी हूं। मां कहता हैं, जब तू एक साल की थी मुझे इलाहाबाद ले गये थे मुंझन करवाने। तब ट्रेन में बैठी थी तू। तबकी एक तस्वीर टंगी है मां के कमरे में....। मां, बाबूजी और मां की गोद में मैं... सर सफाचट, जरा-सी समोटी। तबकी मुझे याद नहीं, पर अब मैं दूर जाना चाहती हूं। उस तरफ, जिस तरफ स्टेशन खत्म नहीं होते। हर स्टेशन पर गाड़ी रुकेगी, मैं नहीं उतरुंगी। क्या कोई ऐसा टिकट होगा कि हम कहीं न उतरें, बस चलते जाएं।
ट्रेन चली जाती है, मुझे वहीं खड़ा छोड़कर। मां अक्सर डांटती हैं... जब से पैदा हुये हो, ट्रेन देख रहे हो, पर अभी भी जी नहीं भरा। मैंने उनसे नहीं कहा-मैं उसे छूकर देखना चाहती हूं-ठंडा, लोहे का स्पर्श...। उससे गाल टिकाओ तो गालों के अंदर कुछ बनजे लगता है। अंदर आती हूं तो मां पूछती है-
'' खाना बनाएगी या पढ़ेगी। ''
'' खाना बनाकर पढ़ूंगी, क्या बनाना है ? ''
आज सुबह से मैंने घर का कोई काम नहीं किया। घर का काम न करो तो डांट सुनने को मिलती है-
'' ससुराल जाकर नाक कटाएगी क्या ? कहेंगे, एक लड़की थी, उसे भी कुछ नहीं सिखाया। ''
हां, मैं एक ही अकेली। किससे बात करुं, कहां जाऊं ? भाई से हर वक्त का झगड़ा रहता है। मां और बाबूजी से कुछ कह नहीं सकते। दादा और दादी से भी नहीं। चार बुआएं हैं मेरी। बड़ी तीनों से तो नहीं, सबसे छोटी बुआ से मैं मस्ती कर सकती हूं। खेल सकती हूं। पर कितनी देर ?
मुझमें सीमा का चेहरा उतर रहा है। मैं कविता लिखती हूं-
' तुम्हारा साथ
जैसे कोई बादल गहराता
कंधों तक झुक आए
जैसे मौसम की पहली बरसात
सोंधी मिट्टी की खुशबू
साथ अपने ले आए। '
खाना बनाकर पढ़ने का मन नहीं होता मेरा, तो बिनाका गीतमाला सुनती हूं। अमीन सायानी की आवाज अच्छी लगती है। सीमा कहती है, '' मनु तेरी आवाज बहुत अच्छी है। तू हंसती है तो और भी अच्छी लगती है। '' मैं रेडियो अनाउंसर बनूंगी, अमीन सायानी की तरह।
बाबूजी मेरे पास आकर बैठ जाते हैं। मेरी राइटिंग देखते हैं, खुश होते हैं। कहते हैं, मैं तुम दोनों को काश्मीर भेजूंगा पढ़ने के लिए। वे वहां की काल्पनिक बातें बताते हैं। हममें से कोई भी काश्मीर के बारे में कुछ नहीं जानता सिवाय इसके कि वहां ठंड बहुत है, कि वहां रात को थाली में पानी भरकर घर की छत पर रखो तो सुबह बर्फ बन जाती है। यहां नहीं बनती, मैं कई बार रखकर देख चुकी हूं। वे कहते हैं, वहां जेब खर्च रोज एक रुपये मिलता है, हम खुश होते।
मैं पढ़ने में अच्छी थी। भाई तो ले-देकर पास होता। वे गालिब की बातें करते, ज़ौंक की, दाग की, टूटे-फूटे शर सुनाते। मैं उनसे नहीं कहती, मैं भी लिख सकती हूं। यह मेरी पर्सनल बात है, इससे किसी दूसरे का क्या वास्ता ? मुझसे कहते, या तुम गायिका बनना या ायरा। मैं तो खुद अमृता प्रीतम की परछाईं बनी घूमती हूं, मैं मन में कहती। पर दूसरी तरफ उन्हें खुद नहीं मालूम कि इसके लिए क्या कुछ करना चाहिए ? एक तरफ वे ऐसी बातें करते। दूसरी तरफ कहते, लड़कियों को जोर से नहीं हंसना चाहिए, तेज आवाज में बात नहीं करनी चाहिए। सिर ढ़ंक के घूमना चाहिए, दौड़ना नहीं चाहिए। अजब विरोधाभास है, मैं सोंचती हूं।
भाई तरह-तरह की ैतानियां कर सकता है, मैं नहीं। वह दिनभर गली-मोहल्लों के बच्चों से मार-पीट करता। वे शिकायत लेकर घर आते। स्कूल से भाग जाता। दादी पापड़ बनाकर रखती तो वह पापड़ के ड्रम में पानी का लोटा डाल देता। फिर दादी और मां के बीच घमासान लड़ाई ुरु, हतों तक। घर क कुएं में बर्तन डाल देता तो मां किसी से मनुहार कर निकलवा लेती। वह पहले तेल पीता फिर अपने कपड़े उतार सिर्फ धोती में अंदर उतरता। नीचे देखो तो कुएं की सतह पर सिर्फ उसकी धोती तैरती दिखती। हम गहरी उत्सुकता से नीचे देखते रहते। वह ऊपर से लटकाई बाल्टी में सब बर्तन डाल देता और मोटी गांठों वाली रस्सी पर चढ़कर ऊपर आता।
अगला दिन निवार का दिन। इस दिन बड़े से हालनुमा कमरे में कोई-न-कोई प्रोग्राम होता ही होता। गाने का होता, मैं जरुर हिस्सा लेती। उस दिन भी लिया। मैं गा रही हूं-
' जाने क्यूं लोग मोहब्बत किया करते हैं। '
हाल में सन्नाटा छा गया। मैं किसी की तरफ नहीं देखती गाते वक्त। किसी की तरफ देखो तो उसे अपनी तरफ देखता पा एक अजब-सा डर लगता है। गाना खत्म हुआ तो हॉल तालियों से गुंज उठा। मेरे गाल दहक रहे हैं। मेरा चेहरा लाल हो रहा है यद। मेरे हाथ ठंडे हो गए हैं। मैं बाहर आ जाती हूं। मेरे बाद किसी और को गाना है। मुझे बाहर जाते देख मेरे पीछे सीमा भी आ जाती है। मैं बरामदे के खंभे से टिकी खड़ी हूं कि वह आकर मुझे गले से लगा लेती है।
मैंने उसके कंधे पर सिर रखते हुए एक गहरी सांस ली। उसने मेरा माथा और आंखें चूम लीं। मैंने भर आई आंखें लौटाईं। उसने मेरे चेहरे को अपने हाथों में ले लिया और मेरी आंखों में देखा-
'' तेरा चेहरा इतना लाल क्यूं हो रहा है। डर लग रहा था ? ''
मैंने रमाते हुए ' हां ' में सिर हिलाया।
वह हंस पड़ी-
'' तुझे पता है लोग क्यूं मोहब्बत करते हैं ? '' और ज्यादा र्माया मैं। उसके कंधे में मुंह छिपा लिया। वह और जोर से हंस पड़ी।
मुझे सच में नहीं मालूम, लोग मोहब्बत क्यूं करते हैं ? कुछ है, जो मैं ठीक-ठीक नहीं जानती। कुछ है, जो मुझसे लगातार छिपाया जा रहा है। क्या है वह ? कौन-सा राज है ? किससे पूछूं ? पर पूछना भी कितने र्म की बात होगी ? इन सबको किसने बताया ? ये क्यूं बातें करते-करते मुझे देखते ही चुप हो जाती हैं ?
वह मेरा हाथ पकड़ हॉल में वापस ले आती है, जहां इस वक्त तालियों की गुंज है।
रात को सोते समय दादाजी भाई को कोई पुरानी कहानी सुनाते हैं तो मैं ध्यान से सुनती हूं। वैसे अब मुझे इन कहानियों में उतना मजा नहीं आता जितना उपन्यास पढ़ने में आता है। रात को सोती हूं तो उपन्यास के सारे पात्र चलते-फिरते से महसूस होते हैं। उनसे बाते करती हूं। उनकी बातें ध्यान से सुनती हूं। उनके दु:ख में दु:खी होकर रोती हूं। रानू के उपन्यास बहुत रुलाते हैं मुझे और अमृता प्रीतम की नायिकाएं।
मैं कल्पना करती हूं कि अमृता प्रीतम मेरे गाल चूम रही है क्योंकि मैं बहुत खूबसूरत हूं। बिलकुल उनकी नायिकाओं की तरह। पुरुष लेखकों की छवि मेरे मन में हीरो की-सी होती। वे ऐसे बातें करते हैं, ऐसे चलते हैं, ऐसे कपड़े पहनते हैं। वे सत्य और अहिंसा के पुजारी होते हैं। वे कभी कोई गलत काम नहीं करते। लेखक होने का मतलब ही है-महान् होना। मैं महान होना चाहती हूं।
आजकल मां सारे काम खत्म करने के बाद मेरी बगल में आकर लेट जाती है कि उपन्यास पढ़कर सुनाओ। मैं उन्हें अक्सर रानू और गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़कर सुनाती हूं। अमृता के भी-फिर उन्हें समझना पड़ता है। कुछ-कुछ छोड़ना पड़ता है।
जब बाबूजी के साथ उनका घमासान युद्ध हो जाता है तो वे दो-दो महीनें उनसे बात नहीं करतीं। फिर वे और ज्यादा उपन्यास सुनती हैं। बाबूजी और दादाजी को देखती हूं तो मेरे मन में पुरुषों की कोई अच्छी छवि नहीं बनती। मां कहती हैं-सभी पुरुष ऐसे ही होते हैं। मैं मान लेती हूं।
बाबूजी दादाजी के बीड़ी पीने पर बहुत चिढ़ते हैं। उनसे कहते हैं-मुझे देखो, मुझमें है कोई एब ? न मैं दारुखोर, न मैं रंडीखोर, न मैं जुआरी, न पान खाता, न फिल्म देखता। मैं तो सूफी हूं सूफी...।
'' हूं... सूफी। '' मां मुंह बिचका देतीं-
'' एक नंबर के मतलबी हो तुम। गाली दो तुम। मारो तुम। झगड़ा करो तुम, फिर भी सूफी...। ''
वे दादी पर गुस्सा निकालतीं-
'' राक्षस पैदा करके मुझे दे दिया। ''
कभी-कभी मुझे भी धमकाती हैं-
'' संभलकर चलना, बाप को देखा है अपने। काटकर फेंक देगा। ''
फेंक दे काटकर, मुझे कौन सा तुम्हारे साथ रहना अच्छा लगता है। मैं गुस्से से धू-धू जलती रहती अंदर से, पर बाहर से चुप बनी रहती।
घर का माहौल अक्सर तनावपूर्ण बना रहता है और मैं भागकर कहां जाऊं सिवाय स्कूल के। स्कूल गोल करना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता। मेरा बस चले तो मैं इतवार को भी वहीं जाकर बैठूं और कहानी लिखती रहूं।
हां, इन दिनों मैंने कहानियां लिखनी ुरु की है। हल्की-फुल्की प्रेम कहानियां...। सबसे पहले सीमा को दिखाती हूं। उसे पसंद आये तो सबको, न आये तो फाड़कर कचरे के डिब्बे में।
इसके पहिले दु:ख मेरे लिए हमेशा बाहरी वस्तु रही है। जिसे देखकर मैं दु:खी होने का अभिनय कर सकती थी। पर रता-रता वह मेरे बचपन के साथी की तरह मेरे साथ रहने लगा। मैंने जरा-सा सरक उसे अपने अंदर जगह दे दी थी, इस चेतावनी के साथ कि अब वह और पैर नहीं पसारेगा।
हमारे परिवार का सबसे उपेक्षित प्राणी रहा-बड़ी बुआ का पति यानी हमारे फूफाजी। वे कुछ करते-धरते नहीं थे। एकदम काला रंग, नाटा कद, हाथ-पैरों पर घने काले रोयें, गठा हुआ बदन। और बुआ एकदम गोरी-चिट्टी-मोम की बनी। छूओ तो लगता गुलाब की पंखड़ियों को छू रहे हैं। बुआ उन्हें गहरी नफरत से कहतीं-' ंभू '। वे सुबह सवेरे घर से निकल जाते। दिनभर पता नहीं कहां-कहां घूमते। रात को घर आते, खाते-पीते, सो जाते।
बुआ की ादी दूर गांव में हुई थी। ादी के कई साल बाद उनकी ससुराल वालों ने कहलवाया, '' आपकी बहन भूखों मर रही है, आकर ले जाइए। '' बाबूजी जाकर उन सबको यहां लिवा आए कि फूफाजी को अपनी नजर में रख सुधारेंगे। पर फूफाजी ने तो न सुधरने की कसम खाई थी। उन्हें पहले एक आटा-चक्की पर लगाया गया। फिर जूते की दुकान खोलकर दी गई। फिर किराने की दुकान, फिर राशन की। पर कुछ न हुआ। वे अपनी दुकान छोड़कर ही भाग जाते।
बुआ मशीन चलाती हैं। अपने चारों बच्चों को हमारे पास छोड़ वे एक बार दो महीने के लिये कहीं बाहर गईं और वहां से सिलाई-कढ़ाई की ट्रेनिंग लेकर लौटीं। फिर अपने घर में उन्होनें सिलाई-कढ़ाई स्कूल खोल लिया। उनके जैसी सफाई पूरे गांव में किसी की नहीं थी। दूर-दूर से मांएं अपनी लड़कियों को उनके पास सिखाने ले आतीं। मैं भी जाया करती हूं।
जब मैं उनके पास पहुचती, वे बहुत खुश होतीं। जो लड़कियां उनके पास सीख रही होतीं, वे मुझे देखकर कहतीं-
'' आपकी भतीजी बिलकुल आप पर गई है। '' वे मुझे गर्व से देखतीं- '' खून मेरा है न। '' वे कोई फैशन नहंी करतीं, फिर भी उनका रुप उनके सादे कपड़ों में दिप-दिप कर जलता।
उनका मां दुर्गा का रुप मैं तब देखती, जब वे फूफाजी पर बरसतीं। एक बार वे उनके काफी रुपये पार कर गए। बस फिर क्या ?  इतनी लानत-मलामत की कि वे तंग आकर रसोई से मिट्टी के तेल का कनस्तर उठा ले आए और लगे अपने ऊपर छिड़कने कि आज मैं आग लगा दूंगा खुद को...। वे एक मिनट नजारा देखती रहीं, फिर लपककर माचिस ले आईं और उनकी तरफ फेंककर बोलीं-
'' अपनी मां का बेटा है तो लगा ले आग। मैं भी मां की बेटी हूं तो रोकूंगी नहीं। ये ले, तेरे जीते जी चूड़ियों तोड़ी मैंने। ''
उन्होनें अपनी चूड़ियां उतारकर उनके मुंह में फेंक दीं।
वे माचिस थामे कुछ देर वहीं खड़े रहे, फिर सिर झुकाकर उन्हीं कपड़ों में बाहर चले गए। फिर वे कई दिनों तक घर नहीं आए। बुआ इसी तरह अपना काम करतीं रहीं। दादी ने पूछा तो बोलीं-
'' जाएगा कहां, पैसे खत्म हो जाऐंगे तो लौट आएगा। चला भी तो नहीं जाता कहीं कि इसको देखना न पड़े। ''
कभी-कभी वे दादीजी से बहुत लड़तीं कि उनका जीवन खराब कर दिया उन्होनें। उन्हें लेकर दादाजी हमेशा पश्चाताप् की मुद्रा में दिखाई पड़ते। उन जैसी जीवट महिला हमारे खानदान में दूसरी नहीं हुई।
धीरे-धीरे मैं बड़ी हो रही हूं। नवीं पास करके दसवीं और फिर ग्यारहवीं में आ गई। कोई नहीं आया मेरी जिंदगी में-कोई नहीं। किसी ने मेरा हाथ तक नहीं पकड़ा और मैं इतनी बड़ी हो गई। लैला-मजनू, हीर-रांझा, ीरीं-फरहाद... पढ़ती तो लगता कि क्या कोई सच में किसी से इतना प्यार कर सकता है ? क्या ऐसा कोई मेरे जीवन में नहीं आयेगा जो ऐसे ही दीवानगी से मुझे प्यार करे। जिसके लिये मैं हूं बस, और कोई नहीं, और कुछ नहीं।
अब मैं घर के कामों में मां का हाथ बटानें लगी हूं। फिर भी देखती हूं, वे सारा दिन काम करती हैं। सुबह चार बजे उठती हैं, तो फिर रात हो जाती है।
सुबह उठती हूं तो मां ब्रश लगाकर कपड़े धोती मिलती हैं। बाबूजी को देखती हूं, उठते वे भी जल्दी हैं, पर सिर्फ अपनी वजह से। वे ' ेव ' बनाते और ट्यूब का ढ़क्कन गिर जाता तो मां को आवाज देते-
'' सरु...। ''
गीले कपड़ों में वे भागती आतीं।
'' ढ़क्कन तो देखो जरा...। ''
वे आईने के सामने खड़े हो विभिन्न कोणों में अपना चेहरा देखते। मां ढ़क्कन उठाकर देतीं, फिर वापस आ जातीं..।
'' मां रहने दो न, दाई धो देगी। ''
'' क्या-क्या करेगी वी ? कोई एक काम है इसके लिए ? ''
कपड़े धोकर वे नाश्ते की तैयारी में जुटती हैं। हर वक्त बाबूजी के लिए कुछ स्पेशल बनता है। साधारण खाना तो कभी खाया ही नहीं जाता उनसे। दादा-दादी के लिए कुछ अलग, हम बच्चों के लिए कुछ अलग। बाकी बचीं वे। जो बच जाए, वही। नहीं तो दही या मट्ठे के साथ दो रोटियां खा लेती हैं।
हमारे यहां देवनानी दंपती आते हैं- डा. देवनानी बड़ी बुआ के कोई रिश्तेदार हैं। हमारे घर भी आते हैं। मिससे देवनानी बहुत हंसमुख हैं। सबसे प्यार से बातें करती हैं। मां से तो बहुत ज्यादा। मां ने उन्हें एक बार बताया कि वे बाबूजी से ढाई महीने से बात नहीं कर रही हैं तो हैरत से उनकी आंखें फटीं रह गईं-
'' बाप रे, मैं तो डा. देवनानी से बात किए बगैर ढाई घंटे नहीं रह सकती। ''
मुझे सुनकर अच्छा लगा। मैं मोहब्बत में हमेशा एक जुनून, एक दीवानगी की कायल रही हूं। साधारण आकर्षण मेरे लिये कोई मायने नहीं रखता। मेरे लिए वे हमेशा आदर्श दंपती रहे।
डा. देवनानी की बहन कुसुम मेरी दोस्त है। वह अक्सर अपने भैया-भाभी की बातें करती। एक बार उसने अपनी भाभी की पसंद का गीत सुनाया था-
' तुम मुझसे दूर चले जाना ना
मैं तुमसे दूर चली जाऊंगी। '
इन दिनों मैं अक्सर सोंचती हूं मेरी जिंदगी में कोई ऐसा आए, जो मुझे बेइंतहा प्यार करे, पर कौन है वह ? कहां है ? आया क्यूं नहीं ? इन दिनों मैं ढ़ूंढ-ढ़ूंढकर लव-स्टोरीज़ पढ़ती हूं।
मुझे अपने घर में किसी को भी लाते संकोच होता है। हांलांकि मां और बाबूजी मेरी सहेलियों को देखकर खुश होते। मां उन्हें घर की बनीं अच्छी-अच्छी चीजें खिलातीं। पर पता नहीं क्यूं मैं महज महसूस नहीं कर पाती। उनके आने पर तो सबसे पहले मुझे मशीन छिपाकर रखनी पड़ती। मैं नहीं सह सकती थी कि वे जानें, हम मशीन चलाते हैं। मशीन को छिपाने के साथ-साथ सिले-अनसिले कपड़ों का गट्ठर, धागे इत्यादि जो बिखरे रहते थे, सब उठाना पड़ता। मां इससे नाराज होतीं। कहतीं, इसमें र्माने की क्या बात है ? अपनी मेहनत का खाते हैं, किसी से मांगने नहीं जाते। वे अपने मोहल्ले की औरतों का उदाहरण देतीं, जो बाहर चबूतरे पर बैठकर गप्पेबाजी करतीं थीं और एक फटा-कपड़ा सिलवाने मां के पास आतीं थीं। उनके तन पर मैली सूती साड़ी होती, बाल तेल से सने, हाथ-पैर काले। हम अपने घर में बहुत अच्छे से रहते हैं। जरा-सी गंदगी मां और बाबूजी को बर्दाश्त नहीं होती।
मां और बाबूजी दोनों मेहनतकश हैं। बाबूजी कहते हैं, जब वे पाकिस्तान से आए, क्या था उनके पास ? कुछ नहीं। आज वे इतनी बड़ी मिल के मालिक हैं तो वे अपने बूते पर। घर में वे पानी भी उठाकर नहीं पीते, पर मिल में जी-तोड़ मेहनत करते। धीरे-धीरे हम काफी सम्पन्न हो गए और अब मशीन चलाने की जरुरत नहीं थी। पर मां की यह दलील कि खाली बैठकर क्या करें ? इस तरह दो पैसे अपने हाथ में रहते हैं। बार-बार किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता। बगीचे से जो सब्जियां और दूध आता, मां जरुरत जितना रखकर बाकी बेंच देतीं। इसके अलावा मां और दादी ब्याज पर रुपया दिया करतीं। गांव के लोग आते-अपनी करधन, हंसुली, पायल, झुमके, बड़ी-बड़ी पीतल की थालियां, गुंडी आदि रहन रख पैसा उठाते। ब्याज उनके तगड़ा लिया जाता। बहुत से लोग अपनी चीजें नहीं छुड़ा पाते। वे छोड़ देते कि अब इतना ब्याज कौन भरेगा ? इस तरह हमारे घर में चांदी और पीतल के बर्तन काफी हो गए। पर वे ये सब काम बाबूजी से छुपकर करतीं। उन्हें ये सब पसंद नहीं था। उन्हें तो ये भी पसंद नहीं कि कोई बाहर का आदमी घर के अंदर आए।
इस तरह उस जेल के छोटे से फाटक के अंदर मेरे सोलह बरस गुजर गए। मैं हतप्रभ हूं। सोलह बरस गुजर गए, क्या किया मैंने ? सिर्फ मैट्रिक ? और अब ? ादी की तैयारी ? मैं घर में जिद करती हूं-मैं पढ़ूंगी। देखो, मेरी सारी सहेलियां बी.ए. कर रही हैं। मैं क्यों नहीं ? आप लोग तो कहते थे, हम ये करेंगे, हम वो करेंगे, काश्मीर भेजेंगे। सब झूठ। मैं रोती हूं बहुत।
मां कहती हैं - अपने बाप से पूछ। मेरी इस घर में चलती है क्या ?
बाबूजी किसी बात का कोई निश्चित उत्तर नहीं देते - देखेंगे। अगर इन छुटिटयों में तेरी सगा नहीं हुई तो प्राईवेट कर लेना।
मैं हैरानी से देखती हूं। भाई नहीं पढ़ना चाहता, तो उसे सब जिद करके पढ़ाना चाहते हैं। बाबूजी उससे रोज पूछते हैं- '' सागर जाएगा पढ़ने ? इंदौर भेजें ? बनारस जाना हैं ? ''
पर मैं ? मैं कुछ नहीं। क्या होगा मेरे सपनों का ? मेरा अमृता प्रीतम की तरह महान् लेखिका बनने का सपना। मैं जो हर रोज सपना देखती हूं- एक दिन मेरा लिखा एक-एक ब्द मूल्यवान होगा। मेरे मुंह से एक ब्द सुनने के लिए जाने कितने कान तरसेंगे। मैं मानती रही हूं, मेरा जन्म किसी विशिष् उद्देश्य के तहत हुआ है। क्या इसी दिन के लिए मैंने अपने आप को दूसरों से इतना अलग और विशिष्ट बनाया कि ादी कर लूं और मां का-सा जीवन जिऊं।
और मेरे उपन्यास और कहानियां और कवितायें- कौन पढ़ेगा उन्हें ? किसके लिए हैं वे सब ?
मैंने पाया, इस बीच मेरी कई सहेलियों की ादी हो गई। वे सब सहज हैं। वे मान लेती हैं कि हां यही होता है। मैं क्यूं नहीं मान रही ? सारा वक्त मुझमें गुस्सा भरा रहता है। जिद, तड़प, बेचैनी। कहां जाऊं ? क्या करुं ? जितना ज्यादा पढ़ती हूं, जीवन के उतने की नए अर्थ निकलते हैं, उतनी ज्यादा बेचैन होती हूं। घर के कामों से मुझे नफरत होने लगती है। मैं अपने हाथ देखती-क्या यही काम करने के लिए बने हैं ? जीवन का कोई बड़ा उद्देश्य इनसे पूरा नहीं होगा क्या ? कौन सा उद्देश्य, मैं नहीं जानती।
और कुछ नहीं हुआ। तमाम बातों के बावजूद कुछ नहीं हुआ। बाबूजी ने एक लड़का अपनी मर्जी से पसंद कर लिया। मेरी सगाई तय कर दी। कुछ अजनबी आए, मुझे देखा, पसंद कर लिया। पर वह नहीं आया, जिसे मुझे पसंद करना है- वह तो आया ही नहीं। बाद में मुझे उसकी फोटो दिखाई गई। एकदम साधारण सा चेहरा। मैने देखा-मुझमें कुछ नहीं जागा। न हर्, न विाद। मुझे सीमा कहा करती थी-
'' तू ादी से पहले एक बार मोहब्बत जरुर कर ले। क्या पता फिर कर पाए या नहीं। ''
मोहब्बत। क्या कभी कर पाऊंगी। कहां है वह ? क्या है प्रेम ? प्रेम का मतलब क्या ? एक दूसरे को अपना-आप दे देना। कौन दूसरा, कहां है वह ? कब आएगा ? क्या कभी आएगा ? कौन मेरी नींद में स्वप्न बनकर उतरेगा ? कौन मेरी आशाओं में बीज बनकर फूटेगा ? वह अंकुरित होगा, खिलेगा और मैं फूलों से लद जाऊंगी।
मैंने अपने आपसे कहा-प्रतीक्षा करो। मैंने अपनी आशाओं, इच्छाओं, स्वप्नों, उम्मीदों से कहा, प्रतीक्षा करो। उन्होनें मुझसे नहीं पूछा-कब तक ? और मेरी प्रतीक्षा ाब्दों में ढ़लने लगी। मैं लिखती-लिखती-बस लिखती...।
क्या कोई नहीं आएगा कि आकर द्वार ही खटखटा दे और बरसों से ऊंघ रही प्रतीक्षा एकाएक सजग हो बाहर की ओर दौड़ पड़े। क्या कोई नहीं पुकारेगा कि पहाड़ की तलछटी में दबा मौन सिर उठाए और चट्टानों को दरकाता बाहर आ जाए।
पुकारेगा-कोई तो पुकारेगा। किसी को मेरी जरुरत होगी सिर्फ मेरी-वह मुझे ढ़ूंढ़ेगा...। हर चेहरे में ढ़ूंढ़ेगा और न पाकर उदास होगा। इतनी बड़ी दुनिया में वह मुझे ढ़ूंढ़ ही लेगा आखिरकार और तब... तब पता नहीं ?
मैं अपने घर में अजनबियों सी हो गई। जो काम बोला जाता कर देती बल्कि और अच्छे ढ़ंग से। हम भाई-बहन ने झगड़ना बंद कर दिया। थोड़े से तो दिन हैं-फिर यह घर छूट जाएगा। मां के मन में बहुत-सी मनौतियां और बहुत से अरमान हैं मेरी ादी को लेकर। ये भी बनाना है, ये भी और ये भी।
'' तुझे कोई खास चीज चाहिए। '' मां अक्सर पूछती हैं। मैं इनकार से सिर हिला देती हूं। मैं कभी कुछ नहीं चुन सकंगी। मैंने कभी कुछ नहीं चुना-अपनी इच्छा और अनिच्छा तक नहीं। तुम चुनोगे मेरे लिए पूरा एक जीवन और मैं उसे जीने को बाध्य होऊंगी। वही जीना होगा मुझे। उसके अलावा मेरे पास कुछ है भी तो नहीं।
और ादी की तारीख तय हो गई। सारा घर तैयारियों में खोने लगा। मां और बाबूजी बॉम्बे गए और मेरे लिए दहेज का सामान खरीद कर ले आए। एक ही बेटी हूं उनकी, सारे अरमान मुझी से पूरे करने हैं। गाना-बजाना ुरु हो गया। मेहमान इकट्ठे होने लगे। मिठाईयां बनने लगीं। छोटी बुआ आईं-मेरी प्यारी छोटी बुआ...। मुझे कसकर अपने गले से लगा लिया। उनकी आंखें भर आईं।
'' कैसी करेगी इतनी छोटी लड़की यह सब ? '' उन्होनें मां से कहा।
'' सभी करते हैं। सीख जाएगी। मैं इतनी बड़ी थी तो मेरे एक बच्चा भी हो गया था। ''
'' वह जमाना दूसरा था। '' वे कहकर चुप हो गईं।
मेरी छाती पर आंसुओं का पहाड़ है। मुझसे उसका बोझ उठाया नहीं जा रहा। मैं उसे काटना चाहती हूं। हटाना चाहती हूं। सिर्फ आंसुओं का पहाड़ नहीं, मेरी जिंदगी स्वयं एक पहाड़ है। हमेशा एक जगह पर खड़ी। अपने अंदर जाने कितने ज्वालामुखी छिपाए... ऊपर से सख्त और बेजान...। इस पर चलने के लिए मुझे अपने रास्ते स्वयं बनाने होंगे। मैं इसकी तलछटी पर और अधिक दिन नहीं जी सकती। मुझे शिखर पर होना है। वही मेरा अंतिम पड़ाव है। उससे कम से काम नहीं चलेगा।
'' यह जो जिंदगी दे रहे हो तुम मुझे, मुझसे कुझ पूछे बगैर... यह मैं एक दिन छोड़कर बहुत दूर चली जाऊंगी। मैं तुम्हारा दिया जीवन जीनें को बाध्य नहीं हूं। मैं अपनी मर्जी से अपना भवि य चुनूंगी। मैं पहले इस काबिल कर लूं खुद को। हां मैं, पहले चुनने के काबिल हो जाऊं। फिर मैं चुनूंगी अपने लिए। अभी तो इतना संवारना, इतना तराशना है मुझे स्वयं को कि इस दुनिया के सामने पैर टिकाकर खड़ी हो सकूं। अभी तो इस अनगढ़ पहाड़ पर अपने लिए रास्ते तलाशने हैं, तराशने हैं। तुमने जो करना था, कर लिया, अब मेरी बारी है। ''
'' ओ अदृश्य ईश्वर! अगर तुम कहीं हो तो सुनो, तुमने अपना काम कर लिया। अब मेरी बारी है। ''
ादी में सिर्फ छ: दिन रह गए हैं। नाउन आने लगी है मुझे उबटन लगाने। वह मुझे एक खाली कमरे में बैठाती है और मेरे हाथ-पैरों में हल्दी-मलाई का उबटन लगाती है...
'' कैसा रुप पाया है सितिया माता-सा। जहां जाएगी बिटिया, उजियारा कर देगी। ''
उसकी आंखों में ममता है। मैं स्वयं को देखती हूं... इस तरह पहली बार। मेरी देह मेरी आंखों में उजास भर देती है। सिर्फ यह मेरी देह नहीं, इसमें छिपा मन भी सुंदर है। पर कौन देखता है मन ? सब देह ही देखते हैं।
वह जो कुछ कह रही थी अपनी भाषा में, उसका तात्पर्य यह था कि ईश्वर यूं ही नहीं दे देता इतना रुप किसी को, नहीं तो सारी दुनिया सुंदर होती। उसके मन में क्या छिपा है, कौन जानता है ? मैं सुनती हूं सिर्फ... बहुत ध्यान से उसका चेहरा देखते हुए...।
विवाह पूर्व रस्मों में दिन गुजर रहे हैं। पैकिंग हो रही है। अंत तक कुछ-न-कुछ होता ही रहता है।
और वह दिन, वह घड़ी, हम चल पड़े हैं- बारात लेकर उस अनजाने ाहर की ओर। हमारे यहां बारात लड़की की जाती है, इस पर काफी हंसी-मजाक कर चुकी हैं मेरी सहेलियां। मुझे एक बड़ी सी सफेद चादर से ढ़ापकर ट्रेन में बिठा दिया है। कोशिश है कि हाथ-पैर तक न दिखें। पर चढ़ते-उतरते हाथ-पैर में लगी मेहंदी झलक ही जाती है।
मैं खिड़की के पास बैठी हूं और बाहर के गुजरते दृश्य देख रही हूं। आज मैं अपने होश में पहली बार ट्रेन में बैठी हूं। मैं उसकी गति अपने अंदर महसूस करती हूं। मैं उसके शोर को अपने अंदर बज रही धुन से मिलाती हूं। मैं सोती नहीं, खाती नहीं, बस बाहर देखती जाती हूं। इतने जंगल, इतने पहाड़, इतनी नदियां - यहां कोई छोटा सा घर बना दे मेरे लिए और मैं रहने लगूं अकेली। जी चाहता है सारे के सारे जंगलों, नदियों, पहाड़ों को अपनी बाहों में भर लूं और ये सारे के सारे दृश्य मुझमें समाहित हो जाएं।



जया जादवानी
नवम्बर 20, 2006

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