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भाग-4
तत्त्वमसि
नदी
   


अब वह मेरे पास सुरक्षित है। जब वह नहीं होगा, तब मैं इस ध्वनि का अपने अंदर बजना सुनूंगी। मैं सुनूंगी वह आदिम संगीत, जिससे हर ध्वनि निकलती और उसी में विलीन होती है।
``नहीं होगा।`` मैं चौंकी। मैं हमेशा उसके `होने` में उसका `न होना` क्यूं देख लेती हूं।
वह देख रहा है मुझे उसी तरह। होठों पर फड़फड़ाहट लिए। वह मेरे वापस आने का इंतजार का रहा है। वह जब भी इंतजार करता है- मेरा वापस आना लाजिमी हो जाता है।
मैंने कुछ कहना चाहा- मेरे होंठ फड़फड़ाए कि एक शोर के साथ सामने पोर्च पर गाड़ी आकर रूकी और रोमी कूद कर उतरा। अपनी उसी तेजी और हड़बड़ाहट के साथ। और `मॉम` कहता हुआ दौड़ा मेरी ओर। मेरी आंखें उधर मुड़ गई-
मेरे पास पहुंचते ही वह ठिठका। उसने आश्चर्य से सिद्धार्थ की ओर देखा। वह मुस्कराते हुए उसे ही देख रहा है। वह झुका और उसने अपनी बांहें फैला दी।
``अंकल।`` रोमी हर्ष से चिल्लाया और अपना स्कूल बैग फेंक उसकी बांहों में समा गया।
उसने उसे कसकर अपने में भींच लिया। दोनों कुछ देर उसी तरह रहे। मैं चुप खड़ी उसे देखती आइए न।``
वह उसका हाथ पकड़कर अंदर खींच रहा है। वे दोनों अंदर जा रहे है।
मैं कुछ देर बरामदे में वहीं खड़ी पौधों को देखती रही। मैंने उन पर लगे सारे फूलों को देखा-कितना गहरा चटख रंग है? मैं सारे फूल तोड़कर उसे दे देना चाहती हूं, पर रूक जाती हूं। वह मुझे फूल तोड़ने से मना करता है-
``फूल को फूल नहीं तोड़ा चाहिए, जरूरत क्या है?``
मैं अंदर आ गई। ड्राइंग रूम में उसकी और रोमी की बातें करने की आवाजें हैं और महराज के बर्तन रखने और ले जाने की। और ऊपर चिड़ियों के इधर-उधर फुदकने की। इन सारी आवाजों से मैं उसकी आवाज अलग करती हंू-
मैं इधर-उधर भाग-भागकर उसकी आवाज पकड़ती हूं। कभी हाथ में आती है, कभी चिड़िया की तरह उछलकर दूसरी जगह जा बैठती है। जो हाथ आती है, उसे भी मैं छूकर उड़ जाने देती हूं।
रोमी उसे आग्रह कर करके खिला रहा है और वह उसमें पूरी दिलचस्पी ले रहा है। वह उसे अपने स्कूल की बातें बता रहा है, अपने टीचर्स की, अपने फ्रेंड्स की। वह हंस रहा है- ``तुम भी लो मानसी।``
उसकी आवाज के पीछे भागती हुई मैं वापस आती हूं। अपनी ओर बढ़ाई हुई प्लेट को थामे उसकी उंगलियां। वहीं हाथ बाहर आते हैं और उसकी उंगलियां को छू वापस हो लेते हैं। मैं प्लेट में से एक टुकड़ा उठा लेती हूं।
``तुम्हारी मॉम ने मौन व्रत लिया हुआ है क्या?`` वह हंसता हुआ रोमी से पूछा रहा है।
``नहीं तो।`` रोमी ने मुझे देखा।
मैं झेंपकर मुस्करा दी।
``फिर ये कुछ कह क्यूं नहीं रही?``
``असल में न अंकल, ये आपके अचानक आने के `शॉक` से उबर नहीं पाई है।``
उसने शरारत से कहा और हम तीनों हंस पड़े।
``तुमने अभी तक नहीं बताया, तुम कैसी हो?``
उसने सीधे मेरी आंखों में देखा-वे आंखें-मैंने अपनी देह में सिहरन महसूस की। कोई और वक्त होता, मैं उसका चेहरा परे कर देती-
``ऐसे मत देखों मुझे।`` मैंने उसे हजार बार कहा है।
``तो कैसे देखूं ?`` उसने एक बार पूछा था।
``जैसे सबको देखते हो।``
``जो सब हैं, वह तुम नहीं हो मानसी।`` उसने मुझे अपने पास खींच लिया था।
मैंने अपनी आंखे परे कर लीं।
``तुम कैसे हो?`` सबकुछ को अपने से अलग झटककर मेरी आवाज अपने से बाहर आई।
एक चिड़िया अपने कटोरे से फुदकी और दूसरे कटोरे पर आ गई.......।
मेरी आंखों की छअपटाहट ने उसकी आंखों की छअपटाहट को पकड़ा और दोनों की आंखें खामोश हो गई। जब वे एक साथ ठहरी हैं। फड़फड़ा नहीं रही। उन्हें कहीं नहीं जाना। मेरी पलकों पर आंसू आकर ठहर गए। कोई नहीं देख पाया। चिड़िया भी नहीं। बस वे पलकें, जिनसे मैं छिपा रही थी, उन पलकों ने देखा और आश्वस्त किया- नहीं, कुछ नहीं। सब ठीक है। मैं मान गई। मैं उसकी हर बात मान लेती हूं। वह अक्सर कहता है- `नहीं, सब ठीक है।` तो मेरे लिए जितना गलत होता है, वह भी ठीक होने लगता है। उसके साथ रहकर मैं एतराज करना भूल जाती हूं, स्वीकार रक लेती हूं।
``तुम्हारे पापा कहां हैं रोमी? उसने रोमी से पूछा।
``वो तो पूना गए हैं अंकल।``
``ओह, नो।`` उसके स्वर में गहरी निराशा है। उसने मुझे देखा-``तुम्हारा फोन खराब है क्या? मैं दो दिनों से मिला रहा हूं।``
मैंने `हां` में सिर हिलाया।
``अकर पापा को मालूम होता कि आप आ रहे हैं तो वे रूक जाते अंकल।``
``हां, मैं जरूर रोक लेता उन्हें। पर यह फोन.........।
उसने बेबसी से सिर झटका।
``तो इसमें क्या है अंकल? पापा आ जाएंगे। तब तक मैं आपको?कहीं नहीं जाने दंूगा।
कहकर वह उठा और- ``मैं चेंज करके आता हंू``, कहकर भाग गया।
सिद्धार्थ ने चारों ओर देखा, फिर मुस्कराते हुए मुझे-
``तुम्हारा घर बहुत सुंदर है मानसी।``
यह तो रोज वहीं है सिद्धार्थ, पर आज सचमुच सुंदर लग रहा है। तुम जो आ गए हो। तुम होते हो तो जीवन अपने नए-नए रंगों, नए-नए रूपों में मुझे घेर लेता है। सबकुछ वहीं होता है सिद्धार्थ, पर मात्र किसी की उपस्थिति उसमें कल्पनाओं के इतने विचित्र रंग और दृश्य भर देती है कि हमें वही सब विलक्षण लगने लगता है।
मेरी आंखें चारों ओर घूम गई-गोल कमरा-चारों तरफ कांच की बड़ी-बड़ी खिड़कियां-उन पर झूलते भारी परदे-जिन्हें बड़े करीने से नीचे से बांध दिया गया है। दीवारों पर लगी पेंटिंग्स...........। कुछ फेमिली फोटोग्रास, सोफे का ब्राउन कलर, डायनिंग टेबल का चमकता हुआ ग्लास और गद्देदार भारी भरकम कुर्सियां- यहां से वहां तक बिछा हुआ कालीन, उसका चटखता रंग-नहीं, कुछ भी बुरा नहीं है। सब सहज है, सुंदर है।
मैंने फिर उसकी ओर देखा-
कितना उपाम आकर्षण है तुममें-एक ग्रेविटेशन-एक कशिश जो मुझे खींचती है तुम्हारी ओर -पर मैं ठिठकी खड़ी रहती हूं........। क्यूं मुझे लगता है, मैं तुम्हें छुऊंगी ओर वह क्षण गुजर जाएगा। और सिद्धार्थ, मैं उसे गुजरने नहीं देना चाहती। मैं उसी में स्थित हो जाना चाहती हूं। प्रतीक्षा....... यह प्रतीक्षा कितनी आह्यादकारी है मेरे सामने तुम बैठे हो.....और मैं तुम्हें छू नहीं रही, इन हवाओं के साथ नाच नहीं रही......तुम्हारे सीने से लगकर रो नहीं रही। एक दुर्दमनीय चाह कि सिर्फ तुम्हें छू लूं और मुझमें कुछ विलक्षण जैसा घटित हो जाएगा- मैं उस चाह का आहिस्ता-आहिस्ता कांपते हुए अपने अंदर ठहर जाना देखती हूं।
मेरी आंखें भर आती हैं। मैं पलभर आंखे बंद कर अपनी नसों में उस चाहत को थरथराता महसूस करती हूं- जीती हूं वह पल.........।
``आज खाने में क्या बनेगा?``
मेरी सोच टूटी। मैंने सुना-महराज पूछ रहा है।
इतने में रोमी दौड़ता हुआ आया और सिद्धार्थ की बगल वाली कुर्सी पर बैठ गया।
``जस्ट कमिंग।`` कहती हुई मैं उठती हूं। उसकी निगाहें कुछ देर मेरा पीछा करती हैं, फिर रोमी की ओर मुड़ जाती है।
मैं महराज के साथ अंदर आ जाती हूं, किचन में.........
``देखों, आज तुम कुछ मत बनाना। मैं बनाऊंगी। तुम सिर्फ मेरी मदद करना, अच्छा?``
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``वा......ओ.......।``रोमी खुशी से चिल्लाया-
``कैंडल लाइट डिनर। मॉम, क्या बात है? फिर तो आइसक्रीम भी बनाई होगी। अंकल, आज की शाम, आपके नाम........।``
वह हंस दिया। एकदम धीमी हंसी.........। चिड़िया ने पंख फड़फड़ाकर अपनी जगह बदली। किसी ने नहीं सुना, सिर्फ मैंने सुना.......। हवा ने सरक कर उन पंखों को अपने में जगह दी। उस ध्वनि को अपने में समेटा और सिर्फ वहीं दिया-जहां लिया जाना था। एक चिड़िया ने अपनी चोंच में कुछ पकड़ा और दूसरी की चोंच में पकड़ा दिया। उन्होंने आपस में कुछ कहा। हवा सीटी बजाती हुई गुजर गई......। उसने वादा किया है, वह किसी से कुछ नहीं कहेगी। सिर्फ सुनेगी और खामोश रहेगी।
``इतना परेशान होने की क्या जरूरत थी मानसी।`` उसने धीरे से कहा।
परेशान? मैंने सुना और मुस्कराई।
उसने पहले रोमी की प्लेट में कुछ डाला, फिर मेरी......। उसकी अपने समीप आती उंगलियां देखीं मैंने.........। मेरी पलकों ने उन्हें फड़फड़ाकर छुआ..... वे वापस चली गइ।
और मैं सुनती रही- मेज पर से आ रही बर्तन की आवाजें, उन्हें उठाए जाने, रखने की, महराज के आने-जाने की, रोमी के मस्ती करने की, म्यूजिक सिस्टम से आ रही जगजीत सिंह की आवाज....। इस सबके बीच मैं वह ढूंढ़ रही हूं, जो सिर्फ मेरे लिए है। वे शब्द......जिनके जन्मने से हले हवा मुझ तक पहुंचा रही हैं वह ध्वनि, जो सबकुछ को चीरती हुई, उन खाली जगहों को भर रही है, जो जाने कब से खाली थीं और इस क्षण की प्रतीक्षा कर रही थीं। यह क्षण....नहीं, कुछ नही। मैंने उसे शब्द देने की कोशिश नहीं की।
``कैसे संभाल लेते हो तुम इतना प्रेम....मुझसे तो यह संभलता ही नही?``
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सारे शोर, सारी आवाजों का अंत हो गया। महराज चला गया, बहादुर भी। रोमी सोफे पर ही सो गया है।
मैं उसका आहिस्ता-आहिस्ता जाना देख रही हूं। उसने बताया, वह यहां कुछ दिनों के लिए आया है, काम से ओर हॉटेल `क्लार्क` में ठहरा है।
`काम से` मेरे मन में बजा-
``मुझसे मिलने नही।`` मैने कहा तो वह हंस दिया-
``शुक्र है, तुम कुछ बोली तो। जानती हो, जब वह तुम्हारी चिड़िया बोल रही थी, तो मुझे लग रहा था, तुम बोल रही हो।``
हम गेट के पास पहुंच रहे हैं। कुछ भी तो नहीं कहा मैंने और ये कुछ घंटे बीत गए.......।
``कल तुम आ रहे हो न........।`` मेरे मुंह से कांपते शब्द निकले।
``हां मानसी।`` उसके शब्दों ने मुझे इस तरह हुआ कि मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। मन  में एक हिलोर उठी-इस पार से उस पार तक.........। हवाएं इतनी तेज चल पड़ीं कि कुछ सुनाई ही न दिया........। पत्तों की खड़खड़ाहट, झरनों का शोर, समंदर की लहरों की आवाज- वृक्षों की फुसफुसाहट ....रक्त की सनसनाहट........।
मैंने हाथ छोड़ दिया- पर उसके पहले सिर्फ इतना ही नहीं हुआ कि सारा का सारा समंदर हमें बहा ले गया ओर हम लहर ही हो गए और तय था लहर के लिय किनारा और उन्हें लौटना था वापस.....लौट गई। यह भी हुआ कि वे जो लाई थीं उन अतल गहराइयों से अपने साथ बहाकर उन किनारों तक........वापस छोड़ गई वे वहीं उन्हीं किनारों पर........जिसे न उसने छुआ, न मैंने...........और हम उन किनारों से गुजर गए।
हम गेट के पास खड़े हैं-
``तुम अपना खयाल रखा करों। देखा है तुमने अपना चेहरा?``
मैंने उसकी आंखों में देखा-
मेरा ही प्रतिबिंब-रात की उस धुंधली रोशनी में......। मेरी आंखों में पानी झिलमिल करने लगा.......नहीं, कहां देखा है मैंने अपना चेहरा? तुम जो नहीं थे, कैसे देखती?
``अच्छा मानसी, गुड नाइट।`` मुझे लगा, उसने मेरे सिर को छू लिया है। हवा का तेत झोंका आया और मेरे बाल उड़ने लगे। हवा ने उसकी बात मान ली होगी। मैंने अपने बाल पीछे करते हुए सोचा।
वह गेट के बाहर निकल गया।
बाहर ड्राइवर उसका इंतजार कर रहा था। गाड़ी स्टार्ट होने की आवाज आई, हेडलाइट्स की रोशिनियां चमकीं और गाड़ी आगे बढ़ गई।
क्या तुम जान पाए सिद्धार्थ कि मेरा एक हिस्सा जो तुम्हारे गले से झूल गया था- वह वापस नहीं आया फिर- उसे तो तुम लिए-लिए ही चले गए। अब वह कभी वापस नहीं आएगा, मैं जानती हूं।
मैं वापस मुड़ी। एक अंधेरे से दूसरे अंधेरे की ओर।
मैंने रोमी को बांहों में उठाया और अंदर कमरे में ले आई। दरवाजा बंद कर बिस्तर पर लेट गई मैं।
मैंने कमरे की धीमी रोशनी में खुद को देखा-मैं रो रही हूं, तकिये में मुंह छिपाए। कब का बांधा हुआ बांध फूट पड़ा है- और अंदर की सारी वेदना उमड़ी पड़ रही है बाहर....
``क्यों रो रही हो मानसी?`` मैं अपने समीप आई और अपने सिर पर हाथ रखा-
``अभ भी तुम्हें उसके बिना जीना नहीं आया। तुम तो जानती हो न, हवा का झोंका है वह। आ गया राह चलते तो ठीक है, जी लो वह सारे पल उसके साथ- नहीं आया तो प्रतीक्षा करों। उसकी प्रतीक्षा भी प्यारी है। यह आंसू, यह पीड़ा- यह सबकुछ जो उसने दिया- इतना ज्यादा है कि एक जीवन में कैसे जी पाओगी तुम? मानसी, तुम तो मानती हो न, जीते हम पल ही हैं, बरस तो बस गुजार देते हैं। तो क्या हुआ अब? पलों को जीते-जीते बरसों की मांग क्यों उठने लगी तुम्हारे भीतर? तुम्हें क्या पता था, वह इस तरह आ जाएगा? आ गया है तो जियों न फिर? वह आया ही है इसीलिए कि यह तड़प खत्म हो कि तुम जी लो और....... जी लो और मुक्त होओं। सीपी नहीं कहती, मुझे एक बूंद नहीं चाहिए, पूरा सागर ही चाहिए। वह तो एक बूंद ही चाहती है। सागर तो है ही उसके चारों तरफ। वह तो उसी एक बूंद के लिए भटकती है सारा वक्त। और बस - उसके बाद वह नहीं मांगती कुछ। इसके बाद मांगना बेमानी है। फिर वह आदत है, अनुभव है, और प्रेम मानसी, न आदत है, न अनुभव। वह सीपी में आ टपकी बूंद है- वहीं सागर है।
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मैं अपनी खिड़की खोलकर खड़ी हूं। पूरा का पूरा लॉन दिख रहा है- हल्के अंधेरे में तैराता........चांद आसमान में ऊपर उठ आया है- मेरी खिड़की के ठीक ऊपर...........चांदनी मेरे कमरे में चली आई है और मैं उसकी खुशबू से लिपटी खड़ी हूं ........। हर रोशनी का अपना एक जादू होता है- हम चाहकर भी उससे बच नहीं सकते। लॉन के दोनों तरफ, पौधों की कबारें दूर तक जाकर अंधेरे में डूब गई हैं। कहीं-कहीं उनकी हिलती हुई परछाइयां दिख रही है........।
मैंने जोर से सांस खींची- मेरे नथुनों में रातरानी और भीनी-भीनी घास की महक आ रही है। उस चांदनी रात में मैंने अपने आपको देखा- मेरी देह में उजाले की एक गंध है, जो यह चांदनी अपने साथ बहा ले जाएगी उसके पास। वह जान जाएगा- चांद का इस खिड़की से उस खिड़की तक की यात्रा का रहस्य। वह चांदनी को छुएगा और जान जाएगा।
मैंने लॉन के उस पार लोहे के गेट को देखा........। जिसके दोनों तरफ दो बल्ब लगे हुए हैं। पता नहीं क्यूं मुझे लगा- अभी गेट खुलेगा और वह अपनी चमकती आंखों से मुझे दुखता वहां खड़ा होगा। मैं क्या करूंगी? एकदम से भागूंगी उसकी तरफ? नहीं, मैं बहुत देर उसे देखती रहूंगी इसी तरह........। आधे अंधेरे ओर आधे उजाले में खड़ा होगा वह- धरती और आसमान के बिल्कुल मध्य में। उसकी आंखों से तारे छिटकेंगे ओर आसमान से जा लगेंगे। भर जाएगा वह तारों से।
मैं आहिस्ता-आहिस्ता चलूंगी उसकी तरफ। प्रतीक्षा के वे विलक्षण क्षण मैं यूं ही नहीं खो दूंगी। यही तो होते हैं हमारे अपने क्षण-जिनकी चमकती रोशनी में हम अपने-आपको देख सकते हैं। उससे मिलने के बाद तो कुछ भी याद नहीं रहता।
मैं मुस्काराती हूं। इस वक्त मैं उसे हर शै में देख रही हूं- आसमान में, तारों में, चांदनी में, लॉन में, हरी दूब में, पौधों में ओर सबसे ज्यादा अपने आपमें.........।
सबकुछ वहीं है, जिसे मैं हर रोज देखती आ रही हूं- पर उसके उजाले में आज हर चीज नई लग रही है। मुझे लगा- अगर मैं इस खिड़की से आ रहे उजाले पर चलती चली जाऊं तो एक अदृश्यलोक में पहुंच जाऊंगी.........पहुंच ही गई हूं उस अदृश्यलोक में- इस लोक में हूं कहां?
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        जया जादवानी
सितम्बर 1, 2007

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