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भाग-5
तत्त्वमसि
नदी

''क्या पढ़ रही हो आजकल?''
 डिनर के बाद जब हम कॉफी पीने बैठे तो उसने पूछा। आज मैं काफी सहज हूं। जब वह आया, मैं उसी का इंतजार कर रही थी। और इस तमाम वक्त में हमने ढेर-सी बातें की...........उतनी ही सहजता से, जितनी सहजता कसे वह इस वक्त मेरे सामने बैठा हुआ है।

      रोमी अपने 'समुराई' में बिजी है और हम ड्राइंग रूम में दूसरे कोने में बैठे हैं।

      ''उपनिषद्।'' मैंने कहा।

      ''ओ......हो......। समझ में आते हैं या पढ़े चली जा रही हो।'' उसने हंसते हुए पूछा।

      ''नहीं आते, तुम्हीं से समझूंगी।''

      ''तौबा।'' उसने इस तरह कहा कि मेरी हंसी छूट गई।

      ''अच्छा बताओं, किस उपनिषद् से तुम सबसे ज्यादा प्रभावित हो?''

      ''प्रश्न उपनिषद् से।''

      ''क्यों?''

      ''वह मुझे अपने नजदीक लगता है। लगता है, जिन प्रश्नों के उत्तर मैं खोज रही हूं, वह इसी में मिलते है।''

      कहते हुए मैं रूक-सी गई।

      ''तो? इसी पर बात करें पहले।''

      ''नहीं, केन उपनिषद् से शुरू करते हैं।''

      ''जानती हो मानसी, शॉपेन हावर की मेज पर उपनिषदों की लैटिन प्रति रहती थी और वे सोने से पहले उसमें से ही अपनी प्रार्थनाएं किया करते थे.....।''

      ''हां सिध्दार्थ, शॉपेन हावर तो यह भी कहता था न .... समस्त संसार में उपनिषदों जसा कल्याणकारी और आत्मा को उन्नत करने वाला कोई और ग्रंथ नहीं है। ये सर्वोच्य प्रतिभा के प्रसून हैं। देर-सवेर लोगों की आस्था का आधार बनकर रहेंगे।''

      ''तुम तो अब तक बहुत कुछ जान गई होगी मानसी।'' उसने मुझे ध्यान से देखा।

      ''बहुत कम सिध्दार्थ। जो रास्ता तुम दिखा रहे हो, उसी पर आगे बढ़ने की कोशिश करती हूं।''

      ''ठीक है फिर। आज की शाम, उपनिषदों के नाम।'' वह हंसकर बोला।

      ''सिध्दार्थ, याद है, तुमने कहा था-''लव इज अनफेथोमेबल फॉर एवर एण्ड एवर। हाउग्रेट इट इज, लव अनफेथेमेबल।''

      मेरी आवाज में पता नहीं क्या था कि हम सहसा चुप हो गए।

''सिध्दार्थ, सृष्टि के आदि से यह चिरंतन प्रश्न है मेरा-डायरेक्टेड बाई द विल ऑफ हूम?''

      ''हां, डायरेक्टेड बाई द विल ऑफ हूम?.......हैव आई कम हियर?''

      उसने सीधा मेरी आंखों में देखा। ओर कोई वक्त होता.....। पर यह वह वक्त नहीं.......।

      मैं हंस पड़ी-

      ''बहुत टिपिकली प्रश्न को मोड़ दे दिया है तुमने। मेरा प्रश्न है सिध्दार्थ- किसके द्वारा निर्देशित होकर यह मन अपने विषयों की ओर उन्मुख होता है?''

      ''हां, किसके द्वारा निर्देशित होकर? किसके द्वारा निर्देशित होकर यह मन....... यह मन अपनी मानसी की ओर उन्मुख होता है?'' वह नहीं हंस रहा, वह गंभीर है.......। मैं उसकी आंखों के रास्ते उसमें उतरती हूं-

      ''हां सिध्दार्थ, किसके द्वारा निर्देशित होकर यह प्राण.......। केनं प्राणं, प्रथमं प्रैति युक्त:।''

      उन आंखों में उदासी का गहरा समंदर है। सिर्फ तुमने ही नहीं सहा मानसी, इसने भी सहा है- तुमसे ज्यादा-तुमसे ज्यादा गहरा है ये, शायद इसीलिए- इसकी पीड़ा भी तुमसे ज्यादा गहरी है.........। मैं देखती रही........।

      ''हां मानसी, किसके द्वारा निर्देशित होकर यह प्राण.......। यह लाइफ फोर्स.........। यह जीवंत चेतना........किसके द्वारा निर्देशित होकर ........यहां चली आती है? परिभाषाएं भी अपरिभाषित हो जाए जहां। अस्तित्व जिया आने लगे। प्रश्नकर्ता और प्रश्न दोनों ही गिर जाएं। पूर्ण होता है तब, तुम्हारा यह केन उपनिषद्।''

      उसकी आवाज में पता नहीं क्या था? कुछ है तुममे सिध्दार्थ, जो हमेशा मेरी पकड़ के बाहर रहेगा........।

      ''जो कहता है- मैं जानता हूं। एण्ड एट द सेम टाइम, जो कहता है- मैं नहीं जानता। वही जानता है।''

      मैं अपनी बात आगे ले गई।

      ''तो क्या तुम कहना चाहती हो, तुम जानती हो और यह भी कि तुम नहीं जानती।''

      मैं कुछ नहीं जानती सिध्दार्थ, मैं तुम्हारे सिवाय कुछ नहीं जानती। सिर्फ तुम्हें ही जान जाऊं-सिर्फ तुम्हें, तो कुछ और जानने की जरूरत ही न रह जाए।

      हम दोनों सोफे पर आमने-सामने बैठे हैं। बीच की टेबल पर कॉफी के खाली प्याले पड़े हैं। ऊपर के लैंप की रोशनी में सराबोर उसका चेहरा उसकी काली पलकें और चमकती हुई आंखें........उसका माथा...........उसके माथे पर अपने होंठ रखने की कामना मन में लिए उसके सामने बैठी मैं.......

      ''मानसी, जो कहता है, वह नहीं जानता- 'विज्ञातं अविजानतां' वही जानता है। ओर केन उपनिषद् का ऋषि कहता है, जो कहता है, वह जानता है, वह वास्तव में नहीं जानता। और मानसी, मैं कहता हूं - मैं जानता हूं।''

      मैं उसके कांपते होंठ देखे-शब्दों का उसकी आत्मा से निकलना-अपने चारों ओर फेलना और उस ध्वनि का मुझे अपनी गिरफ्त में ले लेना।

      ''मैं जानता हूं'' जब उसने कहा, मेरी आंखें उसकी आंखों से जा मिलीं- ''हां, यह जानता है, कहे चाहे यह कुछ भी।'' जिस तरह तुम कहते हो, तुम प्रेम करने से कहां कुछ फर्क पड़ा? और यह तुम किसे कह रहे हो? मुझे? मैं तुम्हें कितना भी कम जानती होऊं- तुमने मुझसे कितना भी अपना आप छुपाया हो, इतना तो कभी नहीं छुपा पाए- इतना तो मुमकिन भी नहीं था। पर कभी-कभी मुझे लगता है- तुम जीवन जी रहे हो मेरे साथ, प्रेम जी रहे हो मेरे साथ- हर पल, हर क्षण, हर ध्वनि, हर शब्द, हर रंग, फिर भी तुममें कुछ है जो अस्पर्शित है। जो हुआ नहीं गया कभी। और उसे छू पाना संभव नहीं..........। बिल्कुल आसमान की तरह कि सारे रंग और दृश्य उसमें होते है- फिर भी वह सबसे अलग होता है- अनछुआ।

      ''हाउ वुड यू इंटरप्रिट इट? एज्.ा माई इग्नोरेंस? हाउ?''

      इग्नोरेंस-प्योरटी......। मैंने तुम्हें छुआ पर क्या सचमुख छुए गए तुम, मैंने तुम्हें प्रेम में जाना, पर क्या सचमुच जान पाई? अभी भी तुम्हारी आंखों के उमड़ते बादलों से मैं उतनी ही अनजान हूं, जितनी उस दिन थी।

      ''इट इज्.ा कंट्राडिक्शन ऑफ ए कंट्राडिक्शन। डबल निगेशन इट इज्.ा। कमअजकम मैं यही इंटरप्रिट करूंगी सिध्दार्थ। तुम्हारे लिए, हमेशा ही। तभी तो जानना है, मुझे तुमसे यह-और भी बहुत कुछ.......।''

      ''बहुनि में व्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन तान्यहं वेद सर्वानि.......।'' कहते हैं कृष्ण- ''वह सबकुछ मैं जानता हूं।'' लेकिन फिर उन्हें कहना पड़ता है- ''न त्वं वेत्थपरंतप।'' ''हे परंतप, तुम नहीं जानते। लेकिन क्यों?''

      ''क्या कृष्ण जान सके अर्जुन को?'' मैं उसी तरह उसे देखती रही।

      सवाल यह है मानसी, क्या अर्जुन जान सका खुद को? और फिर-कृष्ण कहें अगर 'मैं नहीं जानता' तो भाग जाएगा अर्जुन। क्योंकि अर्जुन आया ही है, कृष्ण के पास। और अगर 'केन उपनिषद्' का ऋषि कहे अपने शिष्य से कि 'मैं जानता हूं, जानकार हूं मैं।' तो शिष्य भाग जाएगा.......'लाइफ इज्.ा नॉट सो सिंपल, मानसी।' अस्तित्व है यह, बहुत संवेदनशील। तो प्रश्नकर्ता को उत्तर देना पड़ता है। ' द वन हू पुट्स द क्वेश्चन, विकम्स इंपाटर्ेंट, नॉट द क्वेश्चन, इन इटसेल्फ।' ''

      हां सिध्दार्थ, ठीक कहते हो तुम। प्रश्नकर्ता ही महत्त्वपूर्ण है, प्रश्न नहीं। मेरा जवाब किसी और का नहीं हो सकता। और भी सिध्दार्थ- जो मैं तुमसे कहूंगी, जो मैं तुमसे सुनूंगी, वह किसी ओर से नहीं कह सकती, नहीं सुन सकती। ऐसा हो ही नहीं सकता। तो सिध्दार्थ.......

      प्रश्नकर्ता आया है, प्रश्न के पास।'' उसने आगे कहा तो मेरी सोच बिखर गई-

      ''ऋषि के पास नहीं। ऋषि तो माध्यम है, निमित्त। एफीशिएंट कॉज्.ा। और इसीलिए ऋषि कहता है 'जहां तक इस प्रश्न का उत्तर मेरे लिए है, मैं जानता हूं।' 'आई नो।' और जहां से तुम्हारे लिए प्रारंभ होता है- ' मैं नहीं जानता।' ' आई नो नॉट।' वह परात्पर सत्ता है-'श्रोत्रस्य श्रोत्रम्।' वही है 'मनसो जवीयो' 'प्राणस्य प्राण' है वह। लेकिन यह जानना तो मेरे लिए है। तुम्हारे लिए तो यह 'फंडामेंटल पैराडॉक्स' है। आधारभूत विरोधाभास। जीना पडेग़ा तुम्हें। अभी और यहीं। तभी जान सकोगे इसे।''

      मैं देखती ही रहती हूं उसकी आंखों में-ठीक कहते हो तुम-बिना खुद जिये नहीं जाना जा सकता। ओर जो तुम्हारा जानना है, वह मेरा जानना नहीं है। पर इससे क्या फर्क पड़ता है?

      ''यही प्रश्न जब किया जाता है कृष्ण से, ईसा से, तो कहते हैं वे........'मैं ही हूं ......'श्रेत्रस्य श्रोत्रम' .... 'मैं ही हूं मानसो जवीयो।' मैं हूं ....प्राणस्य प्राण: ।' जिसके कान हों, सुने वह। और आंखें हों, वह देखे। ऑय एम द लाइफ। द लाइट ऑय एम। एंड ऑय एम द लव। कहते हैं कृष्ण और कहते हैं क्राइस्ट...........।''

      ''और कहते हो तुम'' मेरे मन में बजा, पर मैंने हंस कर उसकी ओर देखा-

      ''और तुम........ तुम क्या कहतो हो?''

      ''हाउ फार यू कुड अंडरस्टैंड मी मानसी?''

      मैंने टेबल पर आपस में गुंथे उसके हाथों को पकड़ लिया। उसका चेहरा अपनी आंखों से छुआ......

      ''ऐसा न कहो सिध्दार्थ, इतने निराश क्यूं?'' कहने की कोशिश में मेरी आंखें भर आई उसकी आवाज का भीगापन उसकी आंखों में उतर आया है। वह अपलक मुझे ही देख्का रहा है- होश खो दूंगी मैं इन आंखों में, अपने को संभालते हुए मैंने उसकी आवाज सुनी-

      ''डोंट मेक मी 'ब्लासफेमियस'। अग्नि हो तुम। तुम्हारे द्वारा निर्देशित होकर यह मन अपने विषयों की ओर......तुम्हारे द्वारा निर्देशित होकर यह प्राण........हां मानसी हां........। हेल प्रिया........स्वीट नाइट.........''

      उस एक पल सिध्दार्थ, मैंने भर आई आंखों से तुम्हारी आंखों में देखा और बहने लगी। कोई उपाय नहीं था। मैंने खुद को तुम्हारे साथ बह जाने दिया। लगा, कि तुम बह रहे हो और शायद प्रतीक्षा कर रहे हो कि........। अब किसके लिए बचना और क्यूं?

      और सिध्दार्थ, मैंने पहल बार जाना, मैं अपनी सहजता में हूं ं....निश्छल सहलता में। मैं तुम्हारे साथ हूं, अपने साथ हूं अस्तित्व के साथ हूं। हवा बह रही है, पानी बह रहा है, खुशबू बह रही है- वृक्ष, फूल, पत्ते सभी बह रहे हैं- और हमारे पैरों से लिपटी यह रात बह रही है- सिर्फ मै। ही रूकी हुई थी बहुत देर से और अब मैं इस सबका अंग हूं , इसलिए अपना भी।

      और मैं देखा- इस तरह बहने का अपना एक सौंदर्य है......बहुत आहिस्ता-आहिस्ता नदी की तरह......  कि हवा की तरह......... कि बादल की तरह..... कि स्वप्न की तरह........। एक बार इस तरह जीना आ जाए तो।

      उसने हाथ बढ़ाकर मेरे आंसू पोंछ दिए। बहुत देर तक हम उसी तरह बैठे रहे, एक दूसरे में डूबे..... एक दूसरे में गुम........।

      रोमी खेलते-खेलते पता नहीं कब सो गया है।

      ''मैं इसे अंदर सुलाकर आती हूं। '' मैंने उससे कहा और उठने लगी।

      ''तुम बैठो, मैं सुलाकर आता हूं।'' वह उठा तो मैंने पूछा-

      ''कॉफी पिओगे?''

      उसने मुस्करा कर मुझे देखा और सहमति से सिर हिलाया। फिर उसने रोमी को अपनी बांहों में लिया ओर अंदर सुलाकर लौट आया।

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हमारे बीच ऊपर चल रहे पंखे की आवाज के सिवा और कोई आवाज नहीं ह। हम चुप बैठे हुए हैं.......। मेरा मन नहीं कर रहा है, मैं कुछ कहूं ........ कुछ पूछूं .........। पर उसकी आवाज सुनने को जी चाहता है। उसकी आवाज जब मुझ पर गिरती है........बारिश की तरह तो जी चाहता है खे दूं उसमें अपने आपको.....। मुझे याद नहीं आ रहा, पर शायद मैंने उसे कभी नहीं बताया कि उसकी आवाज के पीछे कितनी पागल हूं मैं? पर इसे बताना क्या है? जो बताने से बहुत ज्यादा समझता हो, उसे.......।

      दीवार पर लगी एक पेंटिंग की पृष्ठीाूमि में मैं उसका चेहरा देखती हूं। उसके होंठ जैसे पंखुरी खिलने को उत्सुक हों..........और उसकी आंखें........कुछ सोचती-सी.........किसी विचार के बोझ से भारी....उसका प्रतीक्षा करता-सा चेहरा मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। मुझे उस क्षण भी लगा, वह अनंतकाल तक मेरे बोलने की प्रतीक्षा कर सकता है, मेरी कर सकता है.........

      ''प्राचीन मिथक बहुत बार प्रतीकात्मक होते हैं सिध्दार्थ। ऐसा ही मिथक केन उपनिषद् के तृतीय खंड में आता है- देवासुर संग्राम का। एक ऐसे संग्राम का जो सात्विक और तामसिक प्रवृत्तियां के बीच लड़ा जा रहा है। सवाल यह है सिध्दार्थ कि ऐसी परिस्थितियों में क्या विजय हमेशा सात्विक प्रवृत्तियों की ही होगी?''

      ''मानसी, विजय हमेशा उस प्रवृत्ति की होगी, जिसका साथ वह अतींद्रिय सत्ता देती है?''

      ''व्हाय आर यू सो एअरी सिध्दार्थ?'' मैंने जरा-सा हंसकर पूछा।

      ''सवाल एअरी होने का नहीं है मानसी। कोई भी प्रवृत्ति अच्छी या बुरी नहीं क्योंकि हर प्रवृत्ति उसी ईश्वर की है और जिसे वह विजयी बनाए और उस संग्राम में देवों का साथ दिया उसने और गर्व से देव प्रजाति यह मान बैठी कि वही सर्वशक्तिमान है और उसके अतिरिक्त कोई नहीं। मानसी, यही है ब्लासफेमी। और इसी अहंकार को, गर्व को दूर करने उस वक्त, उस मिथक में उपस्थित होता है यक्ष........।''

      ''वह यक्ष कौन था सिध्दार्थ?''

      ''मिथक के अनुसार चाहे वह जो भी हो। यक्ष हम सबके भीतर मौजूद हमारी ही वह शक्ति है, जो हमारे अहंकार से आहत होकर, समय-समय पर हमारी तद्जनित सीमाओं का अहसास कराती है।''

      ''एक बात और बताओं सिध्दार्थ......।''

      मैंने उसे ही देखते हुए पूछा-

      ''इंद्र को यक्ष से दूर क्यों रखा गया? इंद्र के आते ही यक्ष क्यों अंतर्धान हो गया।''

      वह सोफे से पीठ टिकाए बैठा है, उसी विचारपूर्ण मुद्रा में..........

      'स्वन'-युवन-मधवन' कहता है पाणिनि, वही, जिसने कहा-''इक परे अब आ जाए, तो वह यण् में परिवर्तित हो जाता है।'' यक्ष तो प्रजापति है मानसी। धर्मराज भी वहीं है। मधवन के आने पर तो उसे भागना ही होगा।

      इंद्रिय चेतना को प्रतीकात्मक रूप में, इंद्र के रूप में चित्रित किया है। और मानसी-''दिस इज ऑल द स्ट्रगल बिटवीन माइंड एंड मैटर।'' और इससे ही यक्ष आहत होता रहता है। अपनी भौतिक समृध्दि में मनुष्य जब अपने को 'ऑल परवेडिंग' मानने लगे, तो यक्ष का आहत होना स्वाभाविक ही है। इन्हीं परिस्थितियों में जरूरत पड़ती है, एक ऐसी शक्ति की जो मन को पदार्थ हटाकर उस असीम सत्ता की तरफ केंद्रित कर सकें यही है केन उपनिषद् का वह मिथक जो इंद्र के समक्ष हेमावती को उपस्थित करता है।''

      ''यह भी बताओं सिध्दार्थ कि इंद्र के समक्ष उमा-हेमावती क्यों उपस्थित होती है और क्या पूछती है?''

      ''इंद्र को तो रास्ता उमा ही दे सकती है। हेमाकवती ही। और कौन समझाएगा उसे? और कौन पूछ सकता है उससे?''

      ''यक्ष प्रश्नों पर क्यों जाती हो मानसी।'' उसने सीधे मेरी आंखों में देखा-

      ''और वही हो 'तुम'। हेमावती हो 'तुम'

      मैं एक उदास-सी हंसी हंस पड़ी-

      ''टालो मत सिध्दार्थ। क्या रहस्य है, बताओं न प्लीज।''

      ''मेरे लिए तो यही है।''

      ''वह इंद्र के ही समक्ष क्यों उपस्थित होती है?'' मैंने जोर देकर पूछा।

      ''और किसके समक्ष उपस्थित होगी वो?'' वह मुस्कराता रहा-

      ''इंद्र हमारी इंद्रियजनित चेतना का प्रतीक है और हेमावती हमारी शुध्द अंतश्चेतना का प्रतीक है। उमा है वह, उस अदृश्य परम सत्ता का हमारे अहं से संबंध हो सके, उसकी कड़ी है यह। ध्वनि है यह हमारे ही भीतर की, वाइब्रेशन है यह। हां मानसी, उमा है यह उमा- और मानसी.....तुम हो उमा...... तुम्हीं हो मानसी।''

      जैसे पानी बरसता हुआ एकाएक बंद हो जाता है, वह भी चुप हो जाता है। मैं भीगी हुई उसे ही देखे जा रही हूं .......।

      कितनी अजीब बात है सिध्दार्थ कि तुम अपना होना भी मेरे द्वारा स्वीकारते हो। तुम हो ही- वह सब जो तुम मुझमें देखते हो- हो तुम स्वयं-तभी कह जाते हो, अन्यथा कोई कह नहीं सकता तुम्हारे बगैर। यह मुमकिन ही नहीं। तुम स्वयं इतने विराट हो कि मुझमें समाहित हो मुझे भी विराट बना जाते हो। कभी मैं सोचती थी, नदी सागर में ही क्यूं विलीन होती है? वह अपना अस्तित्व खोने पर क्यूं विश्वास करती है? आज जब सागर खुद ही आ समाया है नहीं में तो नदी सुंकुचित हो उठी है...... एक ही बात थी। मैं आती, तुम आते-फर्क नहीं था। पर तुमने मुझे समझा, तुम आए तो जान सकी हूं, मैं भी आती तो भी एक ही बात थी। व्याकुलता एक ही है एक दूसरे में समाहित होने की, तो, कोई भी आए, क्या फर्क पड़ता हैं?

      कहा नहीं गया मुझसे, फिर भी लगा, उसने सुन लिया है, समझ लिया है.......।

      ''अच्छा मानसी, मैं चलूं?'' उसने उठते हुए कहा तो मैं अपने से बाहर आई। उसे उठते देख मैं भी उठ खड़ी हुई.......। मैं टेबल की दूसरी तरफ से घूमकर उसके पास आई। वह मेरे सामने खड़ा है- अपनी आसमानी आंखों से मुझे देखता........। मैं खुद को सख्ती से थामे खड़ी हूं ं.....तुम्हें नहीं लगता सिध्दार्थ कि मुझे छू लो, कि मुझे अपनी बांहों में भर लो......। असह्य व्याकुलता से मेरे हाथ उठे........ उसका चेहरा थामा और उसके माथे पर अपने जलते होंठ रख दिए। उसकी बांहों ने मुझे चारों तरफ से घेर लिया और हम खड़े रहे उसी तरह........सदियों से सदियों तक.......बिना हिले.....एक दूसरे में समाहित........एक दूसरे को जीते हुए.......।

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और एक दूसरे दिन की शुरूआत मैं उसकी याद के साथ करती हूं ......। उसके साथ या उसकी याद में जीते हुए हर क्षण नया है, कुछ भी दुहरता नहीं। ये जो दिन आए हैं मेरे  जीवन में, मैंने कभी सोचा नहीं था कि वह इस तरह....। मैं उसके साथ क्षण-क्षण कण-कण जीने लगी हूं । जिस अदृश्य नियति ने उसे भेजा है मेरे पास- वह कहीं न कहीं जानती तो होगी मेरी बेचैनी, मेरी छअपटाहट और तुम ळाी सिध्दार्थ........। कुछ भी कहती हूं तुमसे तो मन में कहीं हर पल लगता है, कहने की क्या जरूरत है, तुम जानते हो सब। हां सिध्दार्थ, जानते हो सब, पर फिर भी कहने का भी एक सुख है न सिध्दार्थ......।

      वैसे तो सिध्दार्थ, क्या सच में कुछ कहा जा सकता है? इन सारे दिनों की व्यथा और तड़प् मैं क्या कभी कह पाऊंगी? ऐसे शब्दों का निर्माण ही नहीं हुआ सिध्दार्थ कि.....। मैं जब कहती हूं- 'सिध्दार्थ', तब क्या सिर्फ 'सिध्दार्थ' ही कहती हूं? और जब तुम कहते हो 'मानसी', तब वे क्या मात्र नाम और शब्द ही होते है? वह सारा प्रेम, वह सारी तड़प् और वह सारी पीड़ा, सारा आसमान, सारी सृष्टि, सारी कायनात, यह सातों समंदर-सभी कुछ तो इस एक नाम में समाहित हो जाते हैं। हां सिध्दार्थ, सिर्फ तुम्हारे एक नाम में......और मैं.....मैं तो लहर हूं सिर्फ। अगर लहर से कोई पूछे, सागर है क्या? तो क्या वह बता सकती है? वह कहेगी, मैं नहीं जानती, मैं नहीं जान पाई। जितना मैं जानती हूं, कम है बहुत।

      आज वह आएगा शाम को........। मेरी देह, मन और आत्मा का कण-कण उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। उसके साथ होना, उसके साथ जीना......कभी किसी पल लगता है, सिर्फ मैं ही नहीं प्रतीक्षा कर रही उसकी, यह सारी सृष्टि, यह समूची कायनात प्रतीक्षा करती है उसके आने की, उसके बोलने की.......और जब वह बोलता है.........हवाएं संभाल लेती हैं उसके शब्द......आकाश भर लेता है अपना खालीपन.......जैसे मैं भरती हूं अपने आपको.........। तुम्हारे कहे हुए सारे के सारे शब्द सिध्दार्थ, अंतरिक्ष में कहीं न कहीं होंगे जरूर......। सब जानते हैं, तुम मानसी से ही कहोगे....। और सभी को सुनना है सिध्दार्थ.......सब सिमटकर नजदीक आ जाते हैं........और सिध्दार्थ, जब बहुत बरस बीत जाएंगे- हम दोनों नहीं रहेंगे इस प्लेनेट पर.......तुम्हारे शब्द फिर भी रहेंगे। क्या कभी इन्हें समूचे अंतरिक्ष से ढूंढ़ कर अलग किया जा सकेगा? समूची आवाजों से अलग.....। तब सब सुनेंगे और कहेंगे- यह सिध्दार्थ ने कहा है, मानसी से, कहा सभी के लिए है, पर सिर्फ मानसी से। मानसी तब भी अपने सिध्दार्थ के साथ रहेगी।

      शाम हो गई है। मैं बार-बार बाहर तक आती हूं , जाती हूं। मैं शाम ही हूं - मैं बुला रही हूं तुम्हें कि देखों सिध्दार्थ, वक्त हो गया- चले आओं।

      और वह आता है- मैं हमेशा की तरह उसका अपने निकट आना देखती हूं ......। किसी-किसी पल लगता है, उसको लगातार देखते-देखते ही मैंने अपने आपको देखना सीखा है। उसी से सीखा है सब......। उसी ने बताया है मुझे मेरा पता-और कौन?

      बल्कि यह सोचते हुए भी अजीब लगता है.....। अत तो यही लगता है- कौन सिध्दार्थ? कौन मानसी? क्या दोनों में से किसी को जुदा करके बुलाया जा सकता है? दूसरा कौन है?

      वह रोमी के साथ काफी देर से 'चेस' खेल रहा है। आखिर मैं ही रोमी को उठाती हूं और उसे पढ़ने के लिए डांटती हूं। वह बड़े अनमने ढंग से उठता है और अपना बैग उठाकर अंदर चला जाता है-

      ''क्यूं भेजा तुमने उसे?'' उसने मेरी तरफ देखा।

      ''क्यूंकि मुझे तुमसे बात करनी है।''

      ''तुम बाद में कर लेना।''

      ''बाद में क्यूं, अभी करनी है। मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूं।''

      ''सिर्फ तुम्ही देख रही हो?'' उसने ऐसी आवाज में कहा कि मैं कुछ कह नहीं पाई। मैंने उसकी आंखों में देखा ओर खामोश हो गई।

      ''हां पूछो, क्या पूछना है?''

      उसने कहा तो मुझे लगा सहसा मैं खाली हो गई हूं। अब क्या पूछना है और किसके लिए? मैं उसे उसी तरह देखती रही.........।

      ''मानसी।'' उसने मुझे पुकारा तो मैंने सजग होकर उसकी तरफ देखा। मैंने हवाओं को देखा-देखो, कहीं ये शब्द मत उड़ा ले जाना तुम, ये सिर्फ मेरे लिए है। ये मेरा है।

      ''मानसी-सिध्दार्थ।'' एक ही शब्द है यह। पूर्ण है यह.......। इसमें न कुछ जोड़ा जा सकता है, न घटाया जा सकता है। ये ऐसे ही है जैसे आसमान है, यह सारी सृष्टि है, अपने होने में खुश.... तृप्त...........तल्लीन......।

      ''क्या सोच रही हो?''

      ''तुम्हें सिध्दार्थ तुम्हें। तुम्हीं को सोचती हूं , तुम्हीं को जीती हूं, तुम्हीं में रहती हूं .....। रहती हूं न मैं तुम्हीं में.....।''

      मेरे मुंह से थरथराते शब्द निकले-।

      ''हां मानसी।'' खोई हुई आवाज में वह बोल रहा है-

      ''तुम्हीं तो...... तुम्हारे ही लिए आता हूं ......बार........बार.......सिर्फ तुम्हारे लिए मानसी।''

      वह चुप हो जाता है सहसा......। मैं उसके अंतिम शब्दों को अपनी आंखों से अपने होठों से सोखती खामोश हो जाती हूं ...... बहुत देर तक हममें से कोई कुछ नहीं कहता-

      ''तुम कुछ पूछ रही थीं मानसी।'' काफी देर बाद उसने मुझे छूती-सी आवाज में कहा।

      ''हां सिध्दार्थ.....।'' मैंने एक गहरी सांस बाहर फेंकी-

      ''प्रश्न उपनिषद् के प्रश्नों के बारे में.......।''

      ''क्या?'' वह मुझे देखता रहा।

      ''प्रश्न उपनिषद् के प्रश्न सरल नहीं हैं सिध्दार्थ। ऊपर ब्रह्म की निष्ठा में पारंगत छ: विद्वान ऋषि और सिध्दि के परमज्ञाता, लौकिक ऐश्वर्य से मंडित ये महापुरूष, क्यों नहीं संतुष्ट हो सके? अपर ब्रह्म से। सांसारिक ऐश्वर्य से....। 'इन्फीरियर लॉर्डशिप' से.....।''

      ''मानसी, पदार्थ को प्राप्त करने के बाद ही, उसकी निरर्थकता पकड़ में आ सकेगी। 'रयि' और 'प्राण' एक दूसरे के सहयोगी 'विपरीत' हैं। 'द कोऑपरेटिंग आपोजिट्स।' अपर ब्रह्म से 'इन्फीरियर लॉर्डशिप' से गुजरता हुआ ही कोई 'परब्रह्म' तक 'सुपीरियर सेल्फ' तक पहुंच सकेगा। भोग और मुक्ति इसीलिए दोनों ही पुरूषार्थ माने गए हैं।'' उसने कुछ अनमनेपन से कहा। वीरानापन झलक रहा है उसकी आवाज में।

      ''पिप्पलाद के पास ही क्यों पहुंचे वे?'' मैंने पूछा।

      ''यह 'डेस्टिंड' है माकनसी। 'डेस्टिंड इट इज्.ा'। मुक्ति के अनेक मार्ग हैं। सांख्य से पहुंचता है कोई, कपिल है उसका मार्ग। वैशेषिक से पहुंचता है, कणाद ही मिलेगा उसे। वीतरागी होना, नियतत्व हो अगर, तो निप्पलाद है। न छोड़ना है कुछ, न पकड़ना है.....ठहरना है बस ठहरना......। तो यह पिप्पलाद है मानसी......।''

      उसकी आंखों में बादल आकर ठहर गए हैं। मैं इन्हें एक बार छू दूं और यह मुझ पर बरस पडेेंग़। मैं देखती रहती हूं सिर्फ......।

      'हां सिध्दार्थ, अत तो ठहरना ही है.....।' मैंने उसकी तरफ से दृष्टि हटाते हुए सोचा-'और अब मैं सच में ठहर जाना चाहती हूं तुममें- हां सिध्दार्थ, तुममें' सिर्फ तुम्हीं में।'

      ''जिसकी शर्त होगी, प्रश्न मत करना अभी। बस ठहरना, वर्ष भर, कम से कम, मेरे पास। मेरे साथ।''

      कहते हुए लगा, कह दूं -ठहरी ही हुई हूं सिध्दार्थ, तुममें- तुम्हारी आंखों में, तुम्हारी सांसों में, तुम्हारे विचारों के कण-कण में, पोर-पोर में तुम्हारे.....।

      ''हां, ओर यह प्रश्न उपनिषद् की शुरूआत है। प्रश्नों की झड़ी की शुरूआत।

      हां सिध्दार्थ, ठहरने से......मैं उसकी आंखों में देखती रही-ठहरकर ही कोई कुछ पा सकता है। गति जीवन है सिध्दार्थ पर जीवन गति नहीं है, वह ठहर जाना ही है। जो जहां है, वहां......।

      ''........ओर जो कुछ छूट जाए इस अंतराल में, वह 'रयि' है, और जो रह जाए, वह है 'प्राण'''

      ''तुम क्यों नहीं ठहरते सिध्दार्थ?'' अचानक मैंने पूछ लिया।

      ''ठहरा ही तो हूं मानसी।'' उसकी आंखों ने मुझे घेर लिया। मैंने उसकी आवाज के कंधे पर अपना सिर रखा और उसे चूम लिया। ध्वनि तरंगें हल्के से कांपीं ओर मुझमें समाहित हो गई-

      ''देखों न, मेरे अन्न में है कौन? विज्ञान में है कौन? मेरे आंसुओं में मानसी ओर मेरे आनंद में है कौन? ठहरा ही तो हूं , मैं.....।

      उसके हाथों को थामा मैंने और झुक गई उन पर..........सारी की सारी........मेरे होठों ने उन हाथों को छुआ....मेरी आंखों से दो बूंद आंसू गिरे उन हाथों पर.......। वे हाथ पल भर कांपे फिर उन्होनंने मेरा चेहरा थामकर ऊपर उठाया......मैंने उसकी गीली पलकें देखीं......मैंने अपने चेहरे पर टिके उसके दो हाथ देखे.......और जाना, प्रेम जितना गहरा होता जाता है, उसे शब्द देना उतना ही कठिन होता जाता है। जब एंगेल्स सिलेसियस यह कहता है- 'मैं जानता हूं कि मेरे बिना ईश्वर एक क्षण भी नही रह सकता।' तब वह इसी प्रेम की बात कर रहा होता है।

      ''सिध्दार्थ.....।''

      ''हां, मानसी.....।''

      कई पल मुझे स्वयं को संभालने में लग गए-

      ''पहला प्रश्न है, प्रश्न उपनिषद् का। इस सृष्टि में यह जो कुछ है, यह सब, यह किससे उत्पन्न हुआ है?''

      ''कबंधी का प्रश्न है यह मानसी।'' उसके हाथ उसके घुटनों पर बंधे हैं। वह एक पल ऊपर लैंप पर फुदकती चिड़िया को देखता है, फिर मेरे उड़ते बालों पर से उसकी दृष्टि गुजरती है- और मुझ समूची को घेर लेती है-

      ''छइवें और अंतिम प्रश्र्नकत्ता का प्रश्न। और पहला उत्त्र बनता है, यह प्रश्न। तो यहां पिप्पलाद.....।''

      वह रूक गया।

      ''जिसका अर्थ ही है कि अंत से होते हुए, प्रारंभ पर पहुंचना है।'' 'फ्रॉम ओमेगा टेू अल्फा'। मैं आगे बढ़ाती हूं उस प्रश्न को।

      ''हां, अब तक जिस गति से चले हो तुम, तुम्हें उससे विपरीत गति में चलना है। जिस दिशा में सोचते हो तुम, उससे विपरीत दिशा में क्योंकि यह सृष्टि स्वत: दो विपरीतताओं से निर्मित है। विपरीत युग्म 'प्राण' और 'रयि''द कपल्ड अपोजिट्स।' ' मैटर एंड माइंड।''

      उसके हाथ उसके शब्दों के साथ हवा में उठते हैं- मुझे समझाते से.....। हवा बेझिझक उसे छू-छू लेती है बार-बार.......। हवा उन हाथों की गंध में डूबी मुझ तक आती है। मैं उसे अपनी सांसों में भर लेती हूं ....।

      ''इस सृष्टि में यह जो कुछ है, यह सब, किससे उत्पन्न हुआ है?''

      ''मानसी, पिप्पलाद का उत्तर है-

      उसने तपस्या की, प्रजाति पर, 'मेडीटडेड अपॉन', ताकि वह प्रजापति बन सके। वह प्रजापति बना, और तब, उसने, दो विपरीतताओं की सृष्टि की, यह सोचकर, कि यह दो विपरीतताएं नाना प्रकार के युग्म बनाती हुई, विभिन्न प्राणियों को उत्पन्न करेंगी......।''

      उसके चेहरे पर सोच की रेखाएं हैं। मैं यह सोच भी नहीं पा रही कि वह मेरे अलावा भी कुछ सोच सकता है। पर वह सोच तो रहा है कुछ। उसके अंदर समा जाने की तीव्र इच्छा से मैं आंखें चुराती हूं । वैसे भी वह उत्तर तो मेरी समझ में ही नहीं आया-

      ''सिध्दार्थ, क्या यह उत्तर तुम्हारी पकड़ में आ सकता?''

      ''हां भी और नहीं भी।''

      ''सिध्दार्थ, क्या तुम मुझे बतला सकोगे?''

      ''हां मानसी, बतलाना तो तुम्हें ही है।'' वह हल्के से मुस्कराया। उसके होठों की फड़कन अपने अंदर महसूस की मैंने-

      ''कब सिध्दार्थ?''

      ''लेट द टाइम कम मानसी। लेट द टाइम कम।''

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''सिध्दार्थ, प्रश्न उपनिषद् का दूसरा प्रश्न है- वे कौन से तत्त्व हैं जो सृष्टि के स्थायित्व को आधार प्रदान करते हैं और इनमें कौन सर्वप्रमुख है? और सिध्दार्थ, भार्गव के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पिप्पलाद कहते हैं-

      ''आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वाक्, बुध्दि, आंख और कान, यही वह तत्त्व हैं और इन समस्त तत्त्वों को आधार देने वाला तत्त्व है- प्राण! ......'द ब्रीद।' सिध्दार्थ, पिप्पलाद ने क्यों इतना महत्त्व दिया है 'प्राण को। व्हाई? व्हाई सो सच इम्पपॉटर्ेस डु 'द ब्रीद'''

      ''यही है वह महत्त्वपूर्ण प्रश्न मानसी! जो हम सबकी धुरी है। कौशल्य का प्रश्न। तीसरा प्रश्न। द थर्ड क्वेश्चन।''

      उसने मुझे देखा तो मुझे लगा, मेरे चेहरे पर अनेक प्रश्न उग आए हैं....। हां, प्रश्न। कितने सारे प्रश्न हैं मेरे अंदर.........। इतना सोचती हूं कि इन्हें बिना जाने इनसे छूट जाऊं, पर कहां होता है चाहने से कुछ। जानकर ही छूट सकें, यही बहुत है।

      ''यह प्राण कहां से उत्पन्न होता है?'' मैंने आगे पूछा-

      ''यह प्राण शरीर में कैसे आता है? अपने आपको विभक्त करता हुआ भी यह प्राण शरीर में कैसे रहता है? यह प्राण शरीर से कैसे अलग होता है?''

      ''हां, यही है वह तीसरा प्रश्न......। उसके हााि की एक उंगली हवा में उठी, नीचे झुक गई-हां, यह 'प्राण', यह 'ब्रीद' क्यों इतना महत्त्वपूर्ण है?''

      रोमी अपनी पढ़ाई छोड़कर मेरे पास आता है और मेरे गले में बांहें डाल देता है। यह 'डिस्टर्ब' न करें, यह सोचकर मैं उसे कुछ बोलने का इशारा करते हुए अपने पास बैठा लेती हूं-

      ''पहली बात।'' सिध्दार्थ ने उसे देख अपनी बांहें फेलाई तो वह उसके पास चला गया-

      ''उपनिषद् का ऋषि पिप्पलाद कहता है, यह प्राण, हमारे 'अपने' भीतर से उत्पन्न है। हमारे 'स्व' के भीतर से। हमारे 'सेल्फ' से। वह 'सेल्फ' जिसे जान लेने की आतुरता है हमारी। इसीलिए यह 'प्राण' ही वह सेतु बनता है, जिसे समझकर, जिसे रेगुलेट कर, जिसे पारकर हम 'स्व' तक पहुंच सकेंगे।''

      ''क्या सचमुच 'प्राण' स्व से उत्पन्न है?''

      '' 'स्व' हमारा अपना 'सेल्फ' बहुत कीमती है हमारे लिए। इसीलिए वह सब कुछ जो 'स्व' को पहचानने में मदद कर जाए, कीमती हो जाता है। ऐसा ही 'इक्वेट' करो, इसे इस समय।''

      ''सिध्दार्थ! अपान, उदान, व्यान, समान इसके ही रूप  बतलाए गए हैं। इनकी गति और क्रियाओं का ही वर्ण है तंत्रिका तंत्र के संचालन में। इनकी उस महत्त्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख है, जो ऊर्ध्वगति से होती हुई 'सुषुम्ना' और 'सहस्त्रार' तक की यात्रास है।''

      रोमी बोर हो उठा और ड्राइंग रूम के दूसरे हिस्से में चला गया। टी.वी. ऑन करके वह चैनल बदल रहा है।

      ''मानसी, शब्द तो शब्द हैं, जब तक हमारी पकड़ में न आएं।'' वह पल भर मुस्कराया-

      ''हमारी अनुभूतियों के दायरे से गुजरते हुए, हमें झकझोर न जाएं। अभ्यास तो करना ही होगा। रेगुलेटिंग फोर्स है प्राण।''

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''इस सृष्टि में जो कुछ भी जीवंत है, वह 'ब्रीदिंग' ही है। लेकिन इस 'ब्रीदिंग' को भी रेगुलेट करने की विधा हमारे पास है, मनुष्य के पास। उपनिषदों के ऋषियों के अथक परिश्रमजन्य खोज का स्वाभाविक परिणाम। 'प्राणों' को रेगुलेट कर लो और करीब हो तुम 'सेल्फ' के। 'सेल्फ' ही हो तुम। फिर कहां का पुनर्जन्म। कहां के बंधन। मुक्त हो तुम। अमर हो तुम।''

      ''सिध्दार्थ।'' मैं उसका आवेश देखकर कांप गई।

      ''हां मानसी।'' वह पल भर ठहरा- ''विश्रृंखल नहीं होता आकाश। धैर्य है उसमें........। तरंग धैर्य.....।''

      ''सिध्दार्थ।'' कहीं दूर से मैंने उसे पुकारा।

      ''हां मानसी।''

      ''सिध्दार्थ।''

      ''मानीस। ऑय वुड लाइक टु मर्ज इन यू। नहीं चाहिए मुक्ति। अमरता भी नहीं। तुम हो प्राण मेरे। प्राणों के प्राण। मॉय ब्रीदिंग फोर्स। परब्रह्म हो तुम.....द अनमूव्हड मूवर.......।''

      उसकी आवाज भरे हुए बादल की तरह झुकी। उसकी पलकें.......उसने एक पल आंखें बंद कर लीं........।

      क्षण भर के लिए मैं बिल्कुल खाली हो जाती हूं। मेरे सामने उसका चेहरा है बस...। उसने आंखें खोलीं और मेरी आंखों में देखा- और बस......कोई शब्द नही। कोई ध्वनि नहीं। कुछ भी नहीं......सन्नाटा और खालीपन तक नहीं........एक उजलाती रोशनी थी बस......जो उसकी आंखों से मुझ तक आई और मुझत्रमें समा गई.....। मैं उस रोशनी में डूब गई अपने अंदर.......सारा समय सिमट आया उस एक पल में।

      वह पल गुजर गया और मैं एक अजीब-सी सिहरन मन में लिए बैठी रही.....उसके सामने। वह भी मुझे देख रहा है। मैं सह नहीं पा रही उन आंखों का ताप- मैं उठ जाती हूं .......।

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हम तीनों डिनर ले रहे हैं। महाराज सर्व कर रहा है। वह अब रोमी से बातें कर रहा है। मुझे हमेशा ही लगता है यह हर पल......हर क्षण.......हर स्थिति की अपनी पूरी शिद्दत से जीता है........उसी में लीन होकर........उसी में स्थित होकर.........। कुछ भी इससे बाहर नहीं है।

      मैं जानबूझकर अपनी प्लेट की ओर ध्यान लगाए हूं । किसी से बात करने का मेरा मन नहीं हो रहा। मैं अभी भी उसके शब्दों में खोई हूं। अभी भी उसकी आवाज का अहसास मेरे अंदर है। अभी भी इतने घने बादल हैं मेरे अंदर कि किसी भी क्षण बरस पड़ना चाहते है ......। मैं चाहती हूं, वे बरसें। अब उनका बोझ मुझसे सहा नहीं जा रहा।

      ''अरे, तुम तो कुछ ले ही नहीं रही?'' उसकी आवाज। मैं सिर उठाकर उसे देखती हूं। एक फीकी-सी मुसकान मेरे चेहरे पर आती है और मैं अपना सिर झुका लेती हूं।

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''पिप्पलाद से किया गया है चौथा प्रश्न। विचित्र है सिध्दार्थ। जब व्यक्ति सोता है, तब क्या वास्तव में वह सोता है? क्या कुछ ऐसा भी है उसमें, जो उसके सोते समय भी उसमें जागता रहता है?''

      हम अपनी कॉफी खत्म कर चुके है। मैं रोमी के सो जाने का इंतजार कर रही थी। वह सो गया है और अब मैं उसके सामने बैठी हूं। इन दो घंटों में मैंने खुद को सहज बनाने की काफी कोशिश की है। कितनी हुई हूं, पता नही.......।

      ''यह आज से चार हजार वर्ष पहले पूछा गया प्रश्न है मानसी। सौर्यायणी का प्रश्न, पिप्पलाद से। ये ऐसे व्यक्ति हैं, वास्तव में, शिष्य भी, गुरू भी, 'जो जाग रहे हैं, सोते समय भी' 'या निशा सर्वभूतेषु तस्यां जाग्रति संयमी।''

      बहुत सन्नाटे में उसकी आवाज ऐसे लगती है जैसे आसमान से बरस रही है- उसकी आवाज का उतर-चढ़ाव, उसकी सांसों का रेशा-रेशा जो उस आवाज में घुला होता है। मैं बिल्कुल ठीक-ठीक पहचानती हूं ।

      ''यदि यही प्रश्न आज पूछा जाता, तो क्या स्वरूप होता इसका?''

      ''यह या ऐसा ही प्रश्न आज के परिवेश में पूछा ही नहीं जा सकता।''

      वह हल्के से मुस्कराया-

      ''कितने लोग पूछते हैं? हर युग का अपना पुरूषार्थ होता है मानसी। इस युग का पुरूषार्थ है 'काम'। साध्य हो चुका है काम और अर्थ है इसका साधन। धर्म और मोक्ष अर्थहीन हैं, इस युग में।''

      ''और तुम, और मैं? फिर हम क्यों ऐसी बाते कर रहे हैं? क्या हम इस युक के नहीं?''

      ''बहुत सार्थक प्रश्न है मानसी यह। हम भी इसी युग के हैं। फिर भी यह बातें कर रहे हैं हम दोनों, धर्म की, मोक्ष की, आध्यात्म की बातें। 'कव्हर्ड बिहेवियर पैटर्न्स' हैं हम। और यह, इतना हमें समझ में आ जाए तो अवेयर हैं हम। जागरूक हैं अपने प्रति, सजग।''

      अभी तो मैं सिर्फ तुम्हारे प्रति अवेयर हूं सिध्दार्थ। तुम्हारी उपस्थिति किस तरह मेरा 'प्राण' बनती जा रही है। यह मैं तुम्हें कभी नहीं बता पाऊंगी। किसी क्षण मुझे लगता है, मेरे अंदर का अंतहीन 'स्पेस' है जहां सिर्फ तुम हो।

      ''मैं ऐसा नहीं मानती सिध्दार्थ। 'व्ही आर नॉट कव्हर्ड।' ज्ञान भी है हम, प्रेम भी। दोनों साथ-साथ।''

      पता नहीं क्यू मेरी आवाज भर आई।

      ''आई नो मानसी, आई नो। कम से कम तुम्हारे साथ तो यह ऐसा ही है। 'अवेयर' भी हो तुम 'अवेयरनेस' भी। यू आर मॉय अवेयरनेस। यू आर।''

      उसके टेबल पर रखे हाथों पर मैंने अपने हाथ रखे और उन्हें चूम लिया। एक गहरी व्याकुलता मेरे अंदर ठाठें मारने लगी। मैंने अपना सिर उसके हाथों पर टिका दिया। उसने एक हाथ मेरे सिर पर रखा और मेरे बाल सहलाने लगा। कई क्षण गुजर गए।

      ''मानसी, तुम ठीक हो।'' उसने आहिस्ता से पूछा।

      ''हां।'' मैंने सिर उठाया और मुस्करा दी-

      ''अब तुम मेरे सवाल का जवाब दो। तुम बहुत परेशान करते हो?''

      ''मैं करता हूं?'' उसने हंसकर पूछा।

      ''हां तुम्हीं। और कौन? तुम्हीं ने किया है आज तक।''

      ''अच्छा। फिर से पूछो, क्या पूछ रही थी तुम.....।''

      ''यदि यही प्रश्न आज पूछा जाता तो क्या स्वरूप् होता इसका? देखो, टालना मत। तुम्हें बतलाना ही है। ''

      ''आदेश है तो....बतलाना तो पड़ेगा ही........।''

      हम दोनों हंस पड़े। हमारी हंसी ड्राइंग रूम की दीवारों से टकराई.....लौटी और उसकी महक चारों तरफ फैल गई.......।

      ''इस सदी में, यदि यह प्रश्न पूछा जाता तो कुछ इस तरह होता है, ''जब व्यक्ति जाग रहा होता है, तो क्या वास्तव में वह जाग रहा होता है? क्या कुछ ऐसा नहीं है उसमें, जो उसे, उसके सोते होने की सूचना दे सके?'' कहां दब गया वह एलीमेंट? कहां गया वह तत्त्व? कब छूट गया उससे यह सबकुछ? यह भी हर कोई नहीं पूछता मानसी। मानसी पूछ सकती है यह प्रश्न......।''

      कहते हुए उसने मेरी नाक को छुआ.........यहां पहली बार.......मैंने उसके स्पर्श का एक गहरा घूंट भरा.........।

      ''और विडंबना यह कि मानसी पूछ रही है मुझसे। सिध्दार्थ से। सिध्दार्थ!! जो नहीं है। जिसके होने का अर्थ नही है।''

      ''सिध्दार्थ।'' मैंने नाराज होते हुए कहा।

      ''हां मानसी हां। जटिल है जीवन। सिध्दार्थ नहीं है। उसके होने, न -होने का अर्थ नहीं है। मेरा तो अर्थ ही तुम हो। मेरा वर्ण हो तुम। मेरा शब्द हो तुम। और मानसी, मेरा 'कल्ट' हो तुम, मेरा 'कल्चर' हो तुम। मेरा सरगम हो तुम। मेरा संगीत हो तुम। अनगढ़ है प्रेम। यही है अवेयरनेस।''

      और नहीं सहा जा रहा मुझसे। उसका चेहरा पारदर्शी हो गया है.......। मैं सहसा उठती हूं और घूमकर उसकी तरफ आती हूं ......। उसने बांहें फैला दी........और मैं उनमें समा गई ......।

      मेरा चेहरा उसके सीने से सटा है। मेरे कानों में उसके दिल की धड़कन, उसके रक्त की धप-धप सुनाई दे रही है.....। अपना 'होना' मैं उसके पोर-पोर में महसूस करती हूं .....।

      'सिध्दार्थ' मैंने बहुत आहिस्ता से कहा, उसके गले को आहिस्ता से चूमते हुए..... उसने हंसकर मुझे अपने में भींच लिया। पता नहीं, कितने युग गुजर गए......।

      मैं उसकी गोद में सिर रखकर लेटी हुई हूं .......। वह मेरे बाल सहला रहा है.....मैरे बाल......जिन्हें सहलाने को उसकी उंगलियों में एक कांपती हुई बेताबी थरथराया करती है......। इन्हें बिखेर देने को हवा से भी ज्यादा शोख होता है उसका मिजाज......ओर ये भी बुलाया करते हैं उसे अपनी तरफ......। इन्हें संवरा रहना बिल्कुल पसंद नहीं.....। ये उसके हाथों बिखर जाना चाहते हैं......।     

      मैंने अपनी दोनो बाहें उपर कीं और उसका चेहरा अपनी तरफ झुका उसके होठों को चुम लिया ......। एक बेहिस व्याकुलता मुझमें सैलाब की तरह उठती है......। जो उसकी बाहों की सख्त बेचैनी मे खो जाती है ......।

      मैंने हल्के हल्के सांस लेते फड्फड्ाते नथुने देखे उसके............सांसों में भर आए तूफान को अपने में संभाले और खदबदाती बेचैनी को अपने में भींचते।

      मैंने उसके सीने में अपना चेहरा छिपा लिया। पता नहीं कितने कल्प गुजर गए।

      और मैंने जब अगला प्रश्न पूछा, मैं उसके साथ ही सोफे पर बैठी हुई हूं...........। उसने मेरा हाथ में ले लिया है और उससे खेल रहा है............। ''जीवन खेल है इसके लिए।'' मैंने मुस्कराते हुए उसे देखा-

      सौर्यायणी पूछता है, पिप्पलाद से ''जब व्यक्ति सोता है तो क्या वास्तव में वह सोता है? क्या कुछ ऐसा है उसमें जो उसके सोते समय भी, उसमें जागता रहा है?''

      वह मेरे हाथों को देखता है--मेरी उंगलियों को तोड़ता-मरोड़ता है और अपने हाथों में छुपा लेता है। मैं उसके अंदर अपना बिला जाना महसूसती हूं........।

      ''सौर्यायणी प्रश्न कर रहा है और यह प्रश्र्नकत्ता, समय के हर कण में जाग रहा है। 'क्षण' मत कह देना इसे। समय के हर 'कण' में जाग रहा है। जान रहा है वह, 'जब देह विश्राम में होती है, तब भी कुछ है ऐसा जो जाग रहा होता है।' जब शब्द ही देना हो, अपेक्षा हो परिभाषा की, तो 'प्रज्ञा' कहते हैं हम। 'प्योर रीजन' कहता है कांट। 'शुध्द बुध्दि'''

      मैं 'प्योर रीजन' कहते हुए उसके होठों को देखती हूं। मुक्ति की तमाम आकांक्षाओं के बाद भी किसी पल कितनी असंभव लगती है यह बात.........।

      ''लेकिन पूछ क्यों रहा है सौर्यायणी? जब जान ही रहा है वह। जागरूक है वह।''

      मैं उसके अंदर छिपी-छिपी ही पूछती हूं। मैं क्यों पूछ रही हूं? जबकि मात्र तुम्हारी उपस्थिति ही सारे प्रश्नों को बिला देने को काफी है। मुझे बिला देने को काफी है।

      यह कितना मुश्किल है कि जब समंदर की उत्ताल लहरें अपने भीतर समा लेने को बुला रही होती हैं अपने हाथ हिला-हिलाकर, तुम किनारे पर खड़े सिर्फ उन्हें देख रहे होते हो। नहीं, डूब जाने का डर नहीं- पर कौन-सी चीज है जो तुम्हें वहां बांधकर रखना चाहती है......... पता नहीं।

      ''मानसी।'' उसने कहा तो मैंने अपने से बाहर आकर उसे देखा--

      ''इस संसार के आश्चयों में एक आश्चर्य यह भी है कि जो जानकार है वही पूछता है। जानना प्रारंभ है। प्रक्रिया भी यही है। लक्ष्य भी यही। जीना है, जानना। टु नो, इज टु लिव। जी रहा है वह अभी। जीना है, पूरी तरह। हर कण, हर कण। प्रेम कभी पूर्ण हुआ है मानसी?'' उसने मेरे गालों पर अपनी हथेलियां टिकायीं और उसी तरह मेरी आंखों में देखता रहा......। उसकी गर्म हथेलियां....मेरे अंदर कुछ तेजी से पिघला--मैंने बाहर नहीं आने दिया--

      ''पूर्णता है प्रेम और यही है उसका अधूरापन। मिरेकुलस अधूरापन। और यही है उसका सौंदर्य। 'क्षणे-क्षणे यन्नवता मुपैति..............।' चुकता नहीं है प्रेम। जी लो, जितना जीना हो। फिर भी भरा का भरा.......। जान रहा है वह और यह भी जान रहा है  िकवह जान रहा है और यह भी कि वह नहीं जान रहा है पूरी तरह। यही है उत्स इस प्रश्न का...............। और फिर........।'' वह रूक-सा गया।

      कहां संभाल पाई मैं कुछ भी......। मेरी पलकें हल्के से थरथराइयी और भर आई.....। क्षण भर ठहरकर उसने मेरी गीली पलकों को चूमा। मैं अपना हाथ उसके सिर के पीछे ले गई और थाम लिया उसे वहीं।

      बहुत दे रवह मेरी गीली पलकों से कुछ पीता रहा और बहुत देर मैं उसे जीती रही...........। पलकों से अपने होंठ हटाकर जब उसने मेरे होठों से टिकाए तो मेरे होंठ नमकीन हो गए। मैं भीगी हंसी हंसने लगी। वह मेरे चेहरे पर उस हंसी के टुकड़े ढूंढ़ रहा है अपने होठों से--अपने हाथों से--

      और जब वह रूका....... मैंने उसेश् देखते हुए सोचा--क्या सचमुच कोई रूक सकता है प्रेम में? नहीं न।

      उसने मेरा हाथ फिर अपने हाथ में ले लिया। उसने अपने आपकों संभाल लिया है, और जब कहने की तत्परता में है, जैसे कोई पक्षी उड़ने की तत्परता में हो--

      ''वर्ष भर पूर्व, इस प्रश्न का स्वरूप कुछ और था, जब सौर्यायणी पहुंचा था, विप्पलाद के पास। और वर्ष भर बाद, पिप्पलाद के साथ रहते हुए, यह प्रश्न बदल चुका है अपना स्वरूप।''

      ''क्या रहा होगा, इस प्रश्न का स्वरूप, वर्ष भर पूर्व?''

      ''क्या जानना जरूरी है मानसी?'' उसने मुझसे पूछा।

      ''हां सिध्दार्थ। वह सबकुछ जो तुम कहते हो, जरूरी होता है और जो नहीं कहते, वह और भी जरूरी हो जाता है, मेरे लिए।''

      मैंने उसके बाल बिखरा दिए और उसे ध्यान सेश् देखा--हां , अब ठीक है। अबअच्छेदिखि रहे हो। वह मुस्करा दिया--

      ''एलागोरिकली ही बतला सकूंगा यह। रूपक के रूप में। द्रष्टांत के रूप में।''

      ''यही सही।''

      ''कोई पूछता भी है कभी नदी से, वह सागर से मिलना चाहती भी है, या नहीं। यह स्वरूप रहा हो मानसी, वर्ष भर पूर्व, इस प्रश्न का!!''

      मैं बेतरह चौंकी। एक अजीब उत्तेजना से भरकर मैंने उसकी तरफ देखा.......। मुझे समझा में नहीं आया, मैं एकदम से क्या कहूं? मेरे होंठ कांप कर रह गए।

      ''ऑय एम सॉरी मानसी। ऑय एम सॉरी। व्हाइब्रेशनल कम्यूनिकेशन भी एक अजीब चीज है।''

      वह मुस्कराता हुआ बोला।

      ''व्हाइब्रेशनल कम्यूनिकेशन!!'' मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला।

      ''ओह, लीव इट। मैं भी क्या-क्या कह जाता हूं।'' वह धीरे से हंसा। मैंने कुछ नहीं कहा। मैं चुपचाप उसे देखती रही--तुम यूंह ी कुछ नहीं कहते सिध्दार्थ, यह मैं अच्छी तरह जानती हूं। इतना जानते हो तो यह भी जानते होंगे यह प्रश्न भी उसी तरह गिर चुका है। इसका भी स्वरूप बदल चुका है। तुम ठीक समझते हो।

      अपना इस तरह पकड़ा जाना मैं महसूसती हूं और उसकी आंखों में देखते हुए हंस देती हूं।

      ''जब व्यक्ति सोता रहा है, तो क्या कुछ है ऐसा, उसमें, जो जागता रहता है?''

      मैंने मुस्कराते हुए अपना प्रश्न फिर पकड़ा और उसे देखती रही--क्या मैं तुम्हें कभी पूरा-पूरा समझ पाऊंगी सिध्दार्थ? सब बातों के बावजूद क्यूं मुझे अक्सर लगता है, तुम्हारा कोई हिस्सा हमेशा मेरी पकड़ के बाहर रहेगा....।

      ''क्यों पीछे पड़ गई हो इस प्रश्न के?'' उसने शरारत से मेरी नाक पकड़कर हिलाई।

      ''नहीं सिध्दार्थ, यह प्रश्न तो एक निमित्त है।'' मैंने गंभीर स्वर में कहा--

      '' जानना तो मैं यह चाहती हूं, वास्तव में  िकवह क्या है तुममें? जो जागता रहता है निरंतर समय के हर कण में.....। जानते हो न सिध्दार्थ...नहीं कर रही हूं मैं-- समय के हर क्षण में..... जान रहे हो न। और तुम नहीं जानोगे, ऐसा हो भी नहीं सकता। सिध्दार्थ, पिप्पलाद का उत्तर है, सौर्यायणी के लिए। तुम्हारा उत्तर जाने दो और तब 'दी ट्रांसेंडेंट यू आर।' 'एतद् वैतद्।'

      वह सहसा चुप हो गया है। हम दोनों एक-दूसरे को देख रहे हैं सिर्फ--

      ''मानसी।'' कई पलों के बाद उसने कहा--''''जब प्रश्न किया जा रहा है, तब'जागना' और 'जागरूकता' इन शब्दों का प्रयोग 'अवेकनिंग' और 'अवेयरनेस' का प्रयोग तनाव शैथिल्य में किया जा रहा है। फ्लैक्सिबिलिटी में। लूजली निट है यह। आभास और सत् के बीच आभासी अंतर अब भी मौजूद है। यही है, शिष्य का अबोध शिष्यत्व। द इन्नोसेंट डिसिप्लिन।''

      उसकी आंखों ने मेरी पलकों को छुआ-आहिस्ता से...........। चिड़िया ने पंख फड़फड़ाए और वह वहीं बैठी रही--

      ''ऋषि कहते हैं, 'जागृति मनुष्य के सांसारिक भौतिक जीवन का प्रारंभ है। 'अवेकनिंग' प्रारंभ है यह। मानसी, यहां इसका अर्थ--'अवेयरनेस' नहीं है। 'सिंपल अवेकनिंग।' इस 'अवेकनिंग' की 'अवेयरनेस' चाहिए। क्योंकि यह 'अवेयरनेस' ही इस 'अवेकनिंग' का भी आधार है। भूल चुके हैं हम। इस 'टोटल अवेयरनेस' का '' है यह 'अवेकनिंग'। अलिफ है यह। अल्फा है यह। सृष्टि का आरंभ। विराट का भी। वैश्वानर का भी।''

      ''सिध्दार्थ, तुमसे पूछने का अर्थ है, सागर से पूछना।''

      मैंने उसके होंठ चूम लिए।

      ''नहीं मानसी, मुझसे पूछने का अथ है, खुद से पूछना। निमित्ता हूं। तुमसे ही निकलते हैं उत्तार, तुम्हें ही देता हूं। अग्नि हो तुम! शाश्वत अर्थ हो तुम!.........विराट भी तुम! वैश्वानर भी तुम.......!''

      पता नहीं, वह और क्या कहता कि मैंने उसका चेहरा अपने सीने से सटा लिया। उसके होंठ हल्के से कांपे और मुझमें खो गए।

      ''कहां बताया तुमने मुझे, अग्नि होने का अर्थ?'' मैंने कहना चाहा पर कहा नहीं पाई। उसकी बेताबी में खुद को शामिल होने से रोकना करीब-करीब असंभव हो गया है मेरे लिए।

      बहुत देर बाद जब संभला, उसने आगे कहा--

      ''मांडूक्य ऋषि कहते हैं, उन्नीस मुख हैं जागृति के। 'अवेकनिंग' के। उन्नीस रास्तों से तय होती है इसकी यात्रा। 'कारणता' और 'प्रभाव' में जीवन है इसका। 'दिक्' और 'काल' में जीवित है यह।''

      ''तुम्हारी समझ में, कितने माध्यमों से, कितने मुखों से, तय होती है 'अवेकनिंग' की यह यात्रा।''

      ''मानसी हर युग में,कुछ परंपरागत प्रचलित मान्य शब्द होते हैं, अपने विशिष्ट अर्थ के साथ। और जब भी किसी सत्य की बाबत् कोई कथन करना हो, तो माध्यम बनते हैं यही, परंपरागत प्रचलित शब्द। इन शब्दों की अंतर्निहित धरा से, उस सत्य के करीब पहुंचना होता है।.........और वह सत्य होता है कालजयी ।तो सवाल उन्नीस का नहीं है। .........अर्थ यह है इसका कि 'जागृति' जो 'प्रज्ञा' की ही बाहरी अवस्था है। 'बहि: प्रज्ञा' है जो। एक्सटर्नल अवेयरनेस।'अवेयरनेस प्रोजेक्ंटिग इटसेल्फ टुवर्ड्स द एक्सटर्नल ऑबजेक्ट्स'''

      वह क्षण भर रूका और मुझे देखता रहा--

      ''मेरी दृष्टि में यह 'बहि: प्रज्ञा' पांच ज्ञानेंद्रियों, पांच कर्मेद्रियों और मन का आधार लेकर, आधारभूत वस्तु जगत के प्रति उन्मुख होती है, अवेयर होती है।''

      ''और स्वप्न में?''

      ''स्वप्न की शर्त है, निद्रा। 'नॉन अवेकनिंग।' लेकिन मात्र निद्रा, स्वप्न की शर्तनहीं हजै। 'द ड्रीमर' वह, जो स्वप्न देखता है। द्रष्टा-उसकी उपस्थिति, अनिवार्य शर्त है, स्वप्न में।''

      ''व्हाट?'' मैं चौंकी।

      वह हंसा--

      ''विचित्र है मानसी। हम सब जानते हैं यह, फिर भी हम नहीं जानते। क्यों? इसलिए न कि हम जानना नहीं चाहते। इसलिए न कि हम ध्यान नहीं दे पाते।''

      ''वी टेक नंबर ऑफ थिंग्स, टु बी वेरी वेरी नार्मल, दो, दे आर नॉट।''

      हां सिध्दार्थ,सच कहते हो तुम! मैं मोहाविष्ट-सी उसे देखती रही--

      ''मेरा यह 'ड्रीमर'। यह स्वप्न देखने वाला। यह द्रष्टा। मुझे ही इशारा देता है कि जब मैं सोता रहता हूं, तब भी कुछ है मुझमें, जो निरंतर जागता रहता है। 'समय' और 'दिक्' की सीमाओं को लांघकर। 'कारणता' और 'प्रभाव' से हटकर। '' है यह। क्यों न कहूं ऐसे? ऊर्ध्वमुखी होता हूं मैं।अपनी अंतर्यात्रा में, अपने ही अवेयरनेस के प्रति। जागरूक। और अधिक जागरूक। अपने आपके और अधिक करीब। 'एडमायर्ड डिसऑर्डर' है यह। मेकबेथियन डिसऑर्डर।''

      वह चुप हो जाता है और मैं कई पल सोचती रह जाती हूं--

      ''स्वप्न की यात्रा, कितने माध्यमों से तय होती है सिध्दार्थ?''

      जानती हूं, बेमानी ह ैअब यह प्रश्न, फिर भी कई बार, न जानने का बहाना भी कितना सुखद होता है?

      ''यह भी, बहि: प्रज्ञा ही है, मानसी।'' मैंने बहुत पास से उसके होठों को हिलते हुए देखा- जैसे कोई फूल पलभर अपनी उंगलियां खोलती है, फिर समेट लेता है। हवा झुककर जिस तरह महक लेती है अपने में - मैंने ली- और ठिठकी रही उस महक में।

      ''ऑल द सेंसरी ऑरगन्स 'इनवाल्वड।' इसके भी, वही मुख हैं। इस अंतर के साथ, कि आधारभूत, वस्तुजगत् यहां आधारभूत मनसजगत् बन जाता है। डेप्थ सायकालॉली की बात नहीं करेंगे हम, यहां। इन सबसे बहुत ऊपर हो तुम। जानती हो तुम भी।''

      ''सिध्दार्थ, एक बात पूछूं?''

      ''हां, मानसी।''

      ''बताओंगे?'' मैंने शरारत से पूछा।

      ''तुम्हें ही बताया है अब तक।'' वह हंसा।

      ''जब गहरी निद्रा में होते हो तुम, स्वप्न भी नहीं है जहां। तब क्या कुछ घटित होता है, तुममें?''

      ''मुझमें?'' उसने मुस्कराकर मेरे हाथ पकड़ लिए। कई पल वह मेरे हाथों को देखता रहा, फिर उसकी नजरें मेरे चेहरे पर टिक गई--

      ''सभी गहरी निद्रा में होते हैं मानसी, कभी-कभी।.... और तब भी, जब वे गहरी निद्रा में होते हैं, तब भी कुछ ऐसा रहता है उनमें, जो जागता रहता है। 'सुषुप्ति' की अवस्था है यह, शब्द ही देना हो अगर। यह ीवह संधिस्थल है, जंक्चर है, जहां वे अपने आपमें होते हैं, पूरी तरह। 'इन देयरसेल्फ।' 'इन थिंग्स इटसेल्फ।' यहीं है वह वास्तविक स्वरूप । मुश्किल यह है  िकवे नहीं जानते। नहीं जानते  िकवे जी चुके हैं। क्यांकि वे गहरी निद्रा में होते हैं। गहरी निद्रा में। सोये हुए लोग!!.........मानसी, गहरी निद्रा में भी,'अवेयकर' रह सके अगर कोई........तब.........तब।''

      एक ही सांस में कह गया वह और अपनी निगाहें परे कर लीं- खिड़की के बाहर........। यह क्यों नहीं बताना चाहता? मैंने उसकी आंखों का अनुसरण किया- खिड़की के बाहर आधा चांद है- और तारों से भरा आसमान.........पर आज........आज मुझे कोई भी नहीं बांध्का सकताकृसिवाय उसके-

      ''सिध्दार्थ, मेरा प्रश्न यह नहीं है।'' मैंने उसका चेहरा अपने सामने किया, पर अपनी हथेली हटाई नहीं। उसकी आंखों में अजीब-सी बेचैनी है........कुछ है इसके अंदकर, जो यह कहना भी चाहता है, रोकना भी चाहता है खुद को। क्यों रोक रहा है? जब इतना कहा है तो........ तो सिध्दार्थ, सबकुछ कह सकते होतुम मानसी से। सिध्दार्थ, हम कितनों से कह पाते हैं, सिर्फ एक से........और उसके हम चुन लिए गए हैं। फिर?

      ''मेरे प्रश्न का जवाब दो सिध्दार्थ। ........जब तुम गहरी निद्रा में होते हो, तब...... क्या घटित होता तुममें?''

      मैंने अपनी उंगली से हल्के से उसके होंठ हुए-नर्म-मुलायम-गर्म होंठ.......मैं अपना हाथ हटाने लगी थी कि उसने थाम लिया-

      ''मानसी प्लीज।''

      ''मानसी ही तुमसे पूछ रही है सिध्दार्थ।'' मैं साधिकार कहती हूं। उसके चेहरे पर विवशता आ जाती है.......। वह पता नहीं कैसी नजरों से मुझे देखता है........। खोया-खोया सा लग रहा है वह.....। उसकी मेरे हाथों पर पकड़ भी खोई-खोई सी है। मुझे इस तरह अपनी तरफ देखता पा उसने आंखें रूुका लीं। मैंने उसका चेहरा अपनीदोनों हथेलियों में लिया-ऊपर उठाया और उसकी आंखों में देखा-

      ''मैं मानसी। जानती हूं मैं। मेरे ही पास आए हो तुम । मेरे ही अर्थ। मेरे ही संदर्भ। मेरे ही लिए। मेरे ही पास। सिध्दार्थ........।''

      मैंने अपने अंत:करण की गहराइयों से उसे पुकरा।

      ''मानसी!जब मैं गहरी निद्रा में होता हूं। तब.......हां......तब.......तुम घटित.......होती हो मानसी।''

      ''सिध्दार्थ.........! प्लीज.......।'' मैंने उसे झिंझोड़ा।

      ''यस, मानसी, यस। यस, लेट मी स्पीक देन। आस्क, बट, स्टॉप मी नॉट। .......जब मैं गहरी निद्रा में होता हूं, तब , हां .....तब.......तुमसे मिलने.......के पहले........तुमसे मानसी, प्लीज, विल यू डिस्टर्ब मी। ऑय.......वुड.......लाइक....टु बि......डिर्स्टब्ड.....बाय ......यू.......मानसी। डिर्स्टब्ड बाय यू.......।''

      असह्य व्याकुलता से उसने मेरे कंधे पकड़ लिए-

      ''प्रकृति हो तुम। ......यही है मेरी सुषुप्ति। सुषुप्ति भी कैसे कहूंत्र ज्ञानी, जिसे '' कहते हैं, वही है यह। 'एतद् वैतद्।' ......मेरी अस्मिता के साथ हूं मैं.......। ......तुम्हारे साथ, द एवर मोस्ट मीनिंगफुल, द मल्टी डायमेंशनल, अनंत विस्तार के साथ। कहां हूं मैं? होना भी क्या? जो है, यह है, एतद्-वैतद्।''

      उसका चेहरा अपनी तरफ झुकाकर मैंने उसकी पलकें चुम लीं। उन आंखों का गीलापन मैंने अपने अंदर महसूस किया......।

      उसने मेरी आंखों में देखा-

      ''और इससे भी आगे की स्थिति के बारे में.......अमात्रा के बारे में पूछोगी तुम। जानता हूं।''

      मैं सिर्फ उसे देख रही हूं। उसका चेहरा, मेरे चेहरे से सटा हुआ है.....। कहां है उसका चेहरा? एक ही चेहरा है.......सब एक ही है। द्वैत कुछ भी नहीं है यहां, सब अद्वैत है।

      ''..........तो यह भी बतला रहा हूं......।''

      उसके होंठ मेरे गालों से टिके हैं। उसके शब्द मेरे रक्त की सनसनाहट में शामिल हो रहे हैं-

      ''सुनों मानसी सुनो.......एलान वाइटल की व्यंजना में सुनो......इससे अद्वितीय है वह स्थिति, अवस्थिति है वह, तुरिया है वह! व्ह तुम हो! 'इफ ए डिजायरलेस वांट, वांट्स टू कम इन मी, लेट इन कम थ्रू यू।' लोगोस हो तुम! छी ओरिजिनल वर्ड! टक्षर हो तुम! टक्षर है प्रेम! ''ओम, इति एतद्, अक्षरं इदं सर्वम्, ओंकार एव।यच चान्यत्, त्रिकालातीतं तद अपि, ओंकार एव। ....मानसी.......!''

      ''सिध्दार्थ.......।''

      ''मानसी........।''

      ''हां, सिध्दार्थ......।''

 जया दवानी
1 जुलाई
2007

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