मुखपृष्ठ
|
कहानी |
कविता |
कार्टून
|
कार्यशाला |
कैशोर्य |
चित्र-लेख | दृष्टिकोण
|
नृत्य |
निबन्ध |
देस-परदेस |
परिवार
|
फीचर |
बच्चों की दुनिया |
भक्ति-काल धर्म |
रसोई |
लेखक |
व्यक्तित्व |
व्यंग्य |
विविधा |
संस्मरण |
साक्षात्कार |
सृजन |
डायरी
|
स्वास्थ्य
|
|
Home | Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | Feedback | Contact | Share this Page! |
|
'क्या
तुम जान पाये थे सिध्दार्थ
?''
रोमी जब हमारे बीच से चला गया
तो मैंने पूछा।यह ऐ
नये दिन की सुबह है-खुशनुमा सुबह ..........। वह सूरज की तरह मुझमें उगता है
और मैं उसकी रोशनी से सराबोर........छलकती-सी......पूरा का पूरा आसमान ही हो
जाती हूं।
''क्या?''
मैंने शरारत से पूछा। कल मैंने विक्रम के बाद,
उसे मानसिक संदेश देने
की कोशिश की थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह मेज पर पड़ी पत्रिका के पन्न
पलटने लगा तो मैं समझ गई,
वह कुछ नहीं कहेगा।
जब सचेत होती हूं तो चौंककर
दुबारा पूछती हूं। वह मुस्कराते हुए फिर बताने लगता है। पर इस वक्त मैं उसके
शब्दों की ओर ध्यान देती हूं--''मानसी,
वैसे तो मैं इस प्रकार
के किसी संदेश के संप्रेषित होने या हो सकने या न हो सकने को बहुत गंभीरता से
नहीं लेता। पर वह घटना........। मैं एक युवक को जानता हूं। वह उन्माद की
स्थितियों तक एक युवती के प्रेम में था।'' ''प्लीज, सुनों तो सही। उस युवती से प्राय: उसका मिलना संभव नहीं हो पाता था। एक रात, पास के तालाब के किनारे बैठा था वह। पता नहींकिस लोक में। अनमना-सा और धीरे-धीरे अपनी उस प्रेमिका की संवेदनाओं में डूबता गया, डूबता गया, रात गहराती गई और अचानक उस तालाब के शांत नीरव जल पर, उसकी उस प्रेमिका का प्रतिबिंब झलकने लगा। उसकी वह प्रेमिका, साक्षात् उसके सामने थी.......और भाव-विह्वल हो, अपनी सुध-बुध खो गया था वह। और ढल गई थी, रात।'' मैंने उसका चेहरा बहुत ध्यान से देखा-- ''यह तो भावतिरेक की स्थिति हुई। किसी के साथ भी संभव है यह। तीव्रमत संवेगों में। अंडर हाइयेस्ट इमोशंस।'' ''हां। किसी के भी साथ।'' उसने मेरे उस देखने को देखा-- ''जो अत्यधिक तीव्रतम संवेगों में चल रहा हो। किन्तु बात यहीं खत्म नहीं होती मानसी।' रोमी स्कूल जाने के लिए तैयार हो गया है। मेरे पास आता है-- गले से झूलता है, मुझे प्यार करता है ओर हम दोनों को 'बाय' करता हुआ चला जाता है। मैंने उसकी तरफ देखा-- कि आगे क्या.... ''आश्चर्य तब होता है, जब वही युवती, किसी अन्य दिन, हठात् उससे प्रश्न करती है.....तुम तालाब के पास आधी रात में बैठकर क्या कर रहे थे-- मैं सो भी नहीं सकी पूरी रात......वह युवती, जिसे न तालाब का पता है, न इसके वहां बैठने का। संभवत: यही टेलीपेथी है। लेकिन क्या, यह हर किसी से संभव है?'' ''क्या तुमसे यह संभव है?'' मैं उसे ही देखती रही। ''मानसी, मैं इसकी संभावनाओं पर बहुत गंभीर नहीं हूं।'' कौन थी वह युवती ओर यह उसे कैसे जानता है? कौन था वह युवक? कहीं यह वह खुद तो नहीं? और वह युवती-- कहीं उसे यह प्रेम तो नहीं करता था? अगर मैं पूछूं तो क्या यह बताएगा? नहीं, नहीं बताएगा, मैं जानती हूं। पर इससे मुझे क्या फर्क पड़ना चाहिए। यह सहसा मैं क्या सोचने लगी हूं? मैने अपना आप टटोला--क्या जानती हूं मैं इसके बारे में-- कुछ भी तो नहीं। इसका कोई अतीत होगा--कुछ पुराने संबंध होंगे। जिन्हें इसने कभी बताने की कोशिश नहीं की। न मैंने पूछने की, पर आज इसके इस तरह बताने से क्या मैं 'पजेसिव' हो रही हूं? पता नही। यह भी हो सकता है, यह वह नहीं, मैं भी ख्वाहमख्वाह कुछ भी सोचने लगती हूं। पर क्या मैं इसी से पूछ लूं? ''क्यों?'' मैंने अपने में डूबते यही कहा है शायद। ''मैं, ऐसा समझता हूं कि भावात्मक अतिरेक में तो यह हो सकता है। और उस स्थिति में यह सहज-स्वाभाविक भी है। भले हम इसके अस्तित्व को सि' न कर सकें। किन्तु किसी भी प्रकार का बौध्दिक प्रयास इसे संभव बना पाएगा, ऐसा मानने का आधार नहीं पाता हूं।'' महराज ने कॉफी लाकर हम दोनों के बीच रख दी है। मेरे अंदर अजब किस्म की बेचैनी है। जब मन परेशान हो तो शायद हम बुध्दि का सहारा लेने लगते हैं-- '' 'वासिलिएव' न तो इसे बौध्दिक प्रयास माना है। डिस्टेंट इन्फ्लुएंस' कहा है इसे। 'दूरस्थ प्रभाव'। '' मैंने कॉफी का प्याला उसकी ओर बढ़ाया। ''लेकिन यह 'दूरस्थ प्रभाव' सह 'हिप्नोटिक ट्रांस' की स्थिति में संभव हो पाता है। 'सम्मोह' की स्थिति में।'' उसने प्याला थामि लिया और एक घूंट भरा-- ''व्यक्ति स्व सम्मोहित कर ले, अपने आपको सम्मोहित कर ले, इतना िकवह किसी अन्य में पूरी तरह डूब चुका है। इसके बाद संभव होता है यह।'' ''प्रेम भी तो सम्मोहन है सिध्दार्थ। स्व सम्मोहन या पर सम्मोहन.......फर्क क्या है?'' मैं बहुत आहिस्ता से कहती हूं। वह बड़े ध्यान से मेरा चेहरा देख रहा है। उसके चेहरे पर प्रश्न उग आया है...........। ''एक बात पूछूं।'' मैं धीरे से कहती हूं। ''हां मानसी।'' ''वह युवती कौन थी और वह युवक.......जिन्हें टेलीपेथी हुई? क्या कहीं ऐसा तो नहीं िकवह तुम ही थे?'' वह हंस पड़ा-- ''मैंने तो मानसी--कभी टेलीपेथी की नहीं। पर मैं अगर तुम्हारे साथ कभी कर जाऊं तो?'' ''मैं तो चाहती हूं सिध्दार्थ, तुम करों।'' मैं हल्के से मुस्कराती हूं। ''मानसी, वह युवक मेरा रूम-मेट था--इलाहाबाद में। वर्षो पहले जिस समय मैं अध्ययनरत था। उसे तो हेलुशिनेशंस भी होते थे उस युवती के। लेकिन मानसी, एक बात मेरी समझ में नही आइ। कई बार ऐसा होता था िकवह रात के समय कमरे का दरवाजा खटखटाती थी, आवाज भी देती थी और वे आवाजें हमने भी सुनी थीं। रूम में हम चार लोग रहते थे। पर जब वह दरवाजा खोलता था, तब बाहर कोई नहीं दिखता था लेकिन युवक का कहना था िकवह युवती खड़ी है ओर अब वह उसके साथ जा रहा है। आश्चर्य है न।'' ''हां सिध्दार्थ।'' मैं हतप्रभ हो उसे सुन रही हूं। ''और मानसी, सुबह के समय लगभग पांच बजे जब हम उसे ढूंढ़ने निकलते वह नदी के किनारे अचेत पड़ा रहता था। कई दिनों तक ऐसा ही चलता रहा अैर एक दिन वह होस्टल छोड़कर चला गया।'' ''..........और वह युवती।'' ''उसका पता नहीं मानसी।'' ''यह प्रेम है सिध्दार्थ।'' ''हां मानसी, यह भी प्रेम है।'' ''कभी-कभी मैं सोचती हूं सिध्दार्थ, जब तक सम्मोहन है, तब तक है प्रेम।'' मेरी आवाज में हल्का-सा व्यंग है। क्यों? मेरी पजेसिवनेस? वह कई क्षण मुझे देखता है। फिर मुस्कराता है-- ''उसके बाद, कहां रह जाता है यह? यही न।'' मेरे अंदर, कुछ बुझ जाता है-- ''मैं नहीं मानती, ऐसा।'' मैं सिर झुका लेती हूं। ''ऐनी वे, लीव इट एसाइड।'' वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे वहां से उठा देता है। ''रूको न, सिध्दार्थ, चलते हैं अभी।'' वह वहीं ठहर गया और एक खास निगाह से मुझे देखा........ उसके इस तरह देखने से कभी-कभी मैं एक अजब-सी बेचैनी महसूस करती हूं। मुझे लगता है, उसकी निगाहें मुझे चारों ओर से घेर रही हैं-- और मैं अपने ही भीतर असहाय होने लगती हूं। और तब या तो मैं कहीं ओर देखने की कोशिश करती हूं या कोई प्रश्न ही पूछ बैठती हूं। ''अभी और रूकना है?'' उसने मेरी आंखों में देखते हुए कहा। ''हां ।'' वह कुछ नहीं बोला। खामोश मुझे देखता रहा। ''पूछ नहीं रहे, कब तक?'' ''जब तक तुम कहोगी मानसी।'' उसने बहुत धीरे कहा। फिर तुरंत ही आवाजा संतुलित कर बोला-- ''कुछ पूछना है?'' ''हां, तुम कहते हो सिध्दार्थ क 'टेलीपेथी' या 'स्टिगमाटा' या 'अपरिशंस' इन सबमें बहुत रूचि नहीं रखनी चाहिए। लेकिन, ऐसी उपलब्धियां हासिल की जा सकें अगर, तो हर्ज क्या है?'' आखिर मैंने पूछ ही लिया। कितनी देर से परेशान कर रहा है यह प्रश्न मुझे? क्यों? क्या मैं ये सब हासिल करना चाहती हूं? मेरी मंजिल तो ये नहीं है-- फिर........ उसने मुझे ध्यान से देखा। मैंने अपनी निगाहें परे कर लीं-- ''हर्ज कुछ भी नहीं है। गलत हम तब होते हैं, जब इन्हें हासिल करने में अपना कीमती समय, और परिश्रम व्यर्थ करें। और इन्हें हासिल करने के बाद, यहीं रूक जाएं, भटक जाएं आने मूल उद्देश्य से --कैसी महत्तवाकांक्षा है यह?'' उसने अपनी आवाज में आ गए आवेश को तुरंत ही संभाल लिया-- ''और फिर मानसी, जिस क्षण अपने आपको जान लोगी तुम, अपने ही समग्र को हासिल कर चुकी होगी जब, तब यह शक्तियां तुम्हारे आसपास ही होंगी। 'प्रतिभात्' वा सर्वम्' कहता है, पातंजलि। 'तारक' ज्ञान कहता है वह, जिसे हासिर करने के बाद, कुछ भी शेष न रह जाए हासिल करने को, ट्रांस के जगत् में।'' मैंने अपनी निगाहें उसके चेहरे पर टिका दीं..... कब जान सकूंगी मैं आपने आपको? कब? कब? कब तक ये मात्र शब्द रहेंगे मेरे लिए? कब हकीकत बन जाएंगे? क्या यह मेरी बेचैनी से अनभिज्ञ है? होना तो नहीं चाहिए....... ''एक बात और।'' उसने आगे कहा-- ''समग्र बोध के बाद, यह जरूरी नहीं कि 'नुइसफियर' में हासिल इन शक्तियों के प्रदर्शन की लालसा मन में रह जाए। और तभी इनका वास्तविक उपयोग भी है। 'आप्तकाम' होता है सबकुछ उस समय। 'प्रारंभ का दोष' नहीं होता तब।'' ''प्रारंभ का दोष।'' मैंने आश्चर्य से दोहराया-- ''क्या मतलब है तुम्हारा?'' ''मानसी।'' उसकी आवाज ठहरी हुई सी है-- ''कोई भी कार्य करें हम, हर किसी को संतुष्ट नहीं कर सकते। किसी न किसी को हमारे काय्र से कष्ट होना ही है। इसीलिए, हर कार्य के प्रारंभ का दोष, कत्तर्ाा को लगना ही है।'' उसकी आवाज बहुत ठहरी-सी लगती है, पर होती नहीं। हम जान तक नहीं पाते कि कब हम उसके साथ चलने लगे हैं।-और, जब वह रूकती है, हम स्वयं को एक नितांत नई जगह पर पाते हैं-- ठिठके से--चीजों को पहचानने की कोशिश में-- अपनी बेताबी से काफी दूर........ ''फिर तो काय्र के परिणाम का दोष भी कत्तर्ाा को ही लगना है।'' मैंने कहा। चीजें अभी भी अनपहचानी हैं। ''प्रारंभ का दोष, जिस तरह, इस सृष्टि की अनिवार्यता है, 'परिणाम का दोष' भी उतना ही अनिवार्य है। जब तक 'कत्तरा' है हमारे भीतर, जब तक है 'अहंकार', जब तक मैं हूं, 'अहंकार' आवेष्टित मैं, तब तक तो यह दोष लगना ही है।'' उसने कहा तो मैं कई पल उसे देखती रही........इसे ही पहचान जाऊं पहले। अभी तो यही नहीं जान पाई.......यह क्या है? कौन है? क्यों है? किसके लिए? ''कत्तरापन से कैसे हटा जाए?'' यह मैं हूं, जो कह रही हूं। ''हटना नहीं है। पहचानना है। जानना है, कि मैं कत्तरा नहीं हूं । निमित्ता हूं मैं, माध्यम हूं मैं- मात्र माध्यम। करवाया जाना है बहुत कुछ मेरे माध्यम से। कत्तरा तो वह 'चेतन नुइसफियर' है। 'डेस्टिन्ड' है सबकुछ। 'डेस्टिनी' मत कह देना इसे। नियति नहीं है। यह। अज्ञान है हमारा। हम कुछ हैं, और जो हैं, उसका हमें पता नहीं है। '' और जिसका पता है, वह हम नहीं हैं। यही है हमारा दुष्ट चक्र। ओर इससे ही पैदा होती है हमारी अंधी दौड़..............।'' ''यह संसार अंधी दौड़ ही तो है सिध्दार्थ। '' अस्फुट-सा मेरे मुंह से निकला। ''हा मानसी, आंखों पर पट्टी हैं। पैरों में गति है। अहंकार और प्रेम की अंधी दौड़ है यह। काम और क्रोध की अंधी दौड़.......।'' उसका स्वर अपनी ही बात की गंभीरता से आविष्ट हो गया। ''कैसे खत्म होगी वह 'अंधी दौड़' सिध्दार्थ? कैसे खत्म होगया यह 'दुष्ट चक्र?'' ''खत्म होने की जरूरत क्या है? सारी सृष्टि गतिशील है मानसी, हम ही कैसे स्थिर हो जाएं? होना भी नहीं है। यह 'रेस है', 'एंडलेस रेस'। यहां सिर्फ रिंग मास्टर बदलता है। हम दौड़ रहे हैं, दौड़ा रहा है कोई। यह बोध, पर्याप्त है यह। और फिर कहां के दुख और सुख कहां। 'दुखषेु अनुद्विग्नमना: सुखेषु, विगत स्पृह:, मानसी, वीतराग, भयक्रोधी स्थितधी: मुनिय उच्यते'।'' कहते हुए उसकी उजली आंखें मुझ पर टिकी रहीं। कभी-कभी उसकी आंखों के दायरे के परे जाना मेरे वश का नहीं रहता और तब मे। उसे देखते हुए देखने लगती हूं......... ''........और तब प्रारंभ का दोष नहीं लगता उसे। परिणाम की आकांक्षा नहीं है, ऐसा नहीं कहूंगा मैं? रिजल्ट आरियंटेड तो होना ही है। 'प्रागप्रेक्षा' है यह कर्म की। आसक्ति न हो, बस। इतनी ही शर्त है। 'द रियल प्रेगमेटिक ओरियंटेशन सही प्रयोजनवादी चिंतन। अनासक्त कर्म।'' ''आसान नहीं है सिध्दार्थ।'' मेरे चेहरे पर एक बेबस मुस्कराहट आ गई, ''मानसी, यकीन करोगी, तुम्हारे लिए आसान है यह। बहुत-बहुत आसारन। 'उत्तिाष्ठ जाग्रत वरान्निबोधयत।' कहते हैं यम, नचिकेतस से। मैं भी यही कहता हूं। तुमसे। लेकिन 'क्षुरस्य धरा, निशिंता, दुख्यया, दुर्ग पथस्तव' नहीं है यह। यही कहूंगा मैं। तुम्हारे लिए कठिन मार्ग नहीं है। 'क्षुरस्य धरा' नहीं है यह। 'इट इज नॉट ए शार्प एज ऑफ ए रेजर फार यू।' बहुत आसान है मानसी। यह रास्ता तुम्हारे लिए।'' ''तुम्हें ऐसा क्यों लगता है सिध्दार्थ, यह आसान है मेरे लिए। है ही यह दुधारी तलवार, बहुत कठिन है अनासक्त होना।'' मैं परेशान हो गई। हमेशा यह ऐसा ही कहता है-- ये भी आसान है, वो भी आसान है तुम्हारे लिए। जानता है, मेरी कमजोरियां, फिर भी। पता नहीं कहां प्रतिष्ठित कर रखा है मुझे इसने, अपने अंदर, कि मैं कहीं से भी इसके लिए साधारण मानवी हूं ही नहीं। कभी-कभी इसकी बातें सुनकर मैं असमंजस में पड़ जाती हूं, कि यह जो चाहता है, सोचता है मेरे लिए और जो मैं सोचती हूं, चाहती हूं अपने लिए, वह क्या मैं कभी कर पाऊंगी? क्या ऐसा दिन आएगा मेरी संपूर्णता का दिन....... ''बी इट नोन टु यू बाय मी।'' मैंने सुना, वह कह रहा है-- ''बहुत आसान है यह तुम्हारे लिए। प्रेम में हो तुम। और अनासक्त प्रेम ही 'स्टिगमाटा' हो सकता है।'' कहना चाहती हूं मैं--रूको-रूकों सिध्दार्थ! जे हो, तुम्हीं हो--जो हैं, तुम्हीं से है। जो जाना गया है, वह भी तुम्हारे द्वारा ही जाना गया है। पर तुम नहीं लोगे श्रेय......। प्रेम नहीं लेता श्रेय कि उसने किसी के छोटे से झरोखे से समंदर बहा दिए। कि किसी के नामालूम से अस्तित्व को इतना विराट बना दिया िकवह असीम ही हो गया। प्रेम नहीं लेता श्रेय। जानते हो, मेरी क्षमताएं, मेरी सीमितताएं। जानते हो, इतना विराट है आकाश और मेरे पंख बहुत छोटे हैं। देखा है मैंने इस विराट आकाश में छोटे-छोटे पंक्षियों को अपनी लंबी उड़ानों से इसे नापते। पर वह देखना सिर्फ देखना है सिध्दार्थ। खुद उस तैयारी में होना और साथ ही अपनी क्षमताओं से वाकिफ होना, ये दो अलग बातें हैं। पर तुम्हें मैं समझाऊं कैसे? तुम समझना चाहोगे नहीं। कुछ बातें तुम 'यूनिवर्सल ट्रुथ्य' के रूप में कहते हो। हां, मानव चाहे तो कर सकता है। कर सकना ओर कर पाना...... इसके बीच बड़े फासले हैं। तुम कहीं न कहीं सब समझते हो, फिर भी पता नहीं क्यों? पर मैंने यह सब उससे कुछ नहीं कहा। जो कहा, वह उससे बिल्कुल अलग था, जो में कहना चाहती थी- ''मेरा खयाल है, अब हमें चलना चाहिए।''
''आज गाड़ी तुम संभालोगे सिध्दार्थ ? मेरा मन नहीं हो रहा.........।'' गाड़ी के पास ठहरते हुए मैंने उससे पूछा। ''जरूर मानसी तुम रास्ता बताती जाना।'' वह अपनी तरफ से घूमकर मेरे पास आया। मैंने चाबियां उसे सौंपी और घूमकर दूसरी तरफ चली गई। जब उसकी तरफ मेरी पीठ होती है , तब भी हमेशा मुझे लगता है, वह मुझे देख रहा है। गाड़ी में बैठते हुए मुझे उस युवक के हेलुशिनेशंस याद आए और मन की हालत अजीब-सी हो गई। तभी शायद आबसर्वर होने पर जोर दिया जाता है। पर यह इतना आसान नहीं। जो पूर्ण होता है, वह अपने आपमें आबसर्वर होता है, हो सकता है, या कि, आबसर्वर की धारणा पूर्ण होने के अहसास के साथ ही जन्मी होगी। कौन जाने ? इस सृष्टि का क्या रहस्य है ? कौन जानता है ? या कि जानता है यह। मैंने उसे देखा....... वह गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ा चुका है। मैंने हाथ से इशारा किया तो उसने गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी.......। बहुत देर तक हममें से काई कुछ नहीं बोला। ''क्या बात है मानसी-क्या सोच रही हो ?'' उसने आहिस्ता से मेरे हाथों पर अपना हाथ रख दिया। मैंने उसका हाथ देखा- जब से वह आया है, एक धीमी-सी पुलक, धीमी-सी सिहरन भर गई है भीतर......। अंदर के तार झनझनाए जा रहे हैं। उसने हल्का-सा स्पर्श किया है और गीत बस फूटने को है........। एक हल्का-सा हवा को झोंका आता है और पूरा का पूरा वृक्ष बावला हो उठता है........। पत्ते शोर करने लगते हैं। शाखें भर लेना चाहती हैं उस हल्के से झोंके को अपने आपमें। जानते सब हैं, कह नहीं रहा कोई। जरूरत नहीं है। जो है, उसे मात्र शब्द देने की कोशिश करना, उसे छोटा कर देना है। मुझे आगस्टीन के शब्द याद आए। वे कहते हैं-''मुझसे पूछो मत तो मैं जानता हूं। और मुझसे पूछो तो मैं दिक्कत में पड़ जाता हूं।'' मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बहुत आहिस्ता से सहलाया और वापस स्टेयरिंग पर रख दिया...... ''तुम कुछ कह नहीं रहीं मानसी।'' उसने निहायत कोमल स्वर में कहा..... सामने देखते हुए- ''जब तुम कोई प्रश्न पूछती हो न, तो तुम्हारी आंखे बिल्कुल अबोध शिशु-सी हो आती हैं, जो पहली बार बहुत आश्चर्य से अपने आसपास देख रहा हो।'' मैंने उसकी तरफ देखा और एक अजब-सी उदासी मेरे अंदर फैलने लगी- प्रश्न..........प्रश्न........प्रश्न ? क्या कभी ऐसा होगा सिध्दार्थ कि मरे सारे प्रश्न झर जाएं। कुछ न पूछूं मैं........कुछ न कहूं......... बस अपने आपमें स्थित होऊं.... बिना किसी आशा-आकांक्षा के......... बिना किसी चाहना के........ और तब ही शायद मैं खुद को ठीक-ठीक समझ सकती हूं। जब से मैं इन प्रश्नों के फेर में पड़ी हूं तब से मैं और बेचैन हूं सिध्दार्थ। में सब कुछ जान लेना चाहती हूं, यह जानते हुए भी कि इस तरह अपने ज्ञान में वृध्दि और अहंकार को पोषित करने के सिवा इसका होगा क्या ? क्या होगा इससे ? पहले मैं सीमित जगहों पर भटक लेती थी, अब असीमित जगहें है भटकने की। और यहां भटकती हूं तो सोचती हूं, अपने आप को खोज रही हूं। क्या यह सच है मानसी ? मैंने अपने आप से पूछा- क्या मात्र प्रश्नों के उत्तर मिल जाने से सब कुछ जाना जा सकता है ? वह बहुत देर से मेरी प्रतिक्षा कर रहा है- मेरे बोलने की। जी चाहा, उसकी बाहों में सिर छुपा लूं और खामोश उसमें खो जाऊं पर..........। ''मानसी।'' उसनें गाड़ी की रफ्तार कम करते हुए आग्रह के साथ मुझे देखा। ''सिध्दार्थ।'' मैंने स्टेयरिंग पर रखे उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया- ''कई दिनों से मैं अजब-सा भटकाव महसूस कर रही हूं। मेरे अंदर एक गहरा काला अंधेरा है, जिसमें मैं चल रही हूं। कोई बात, कोई चीज मुझे सुकून नहीं दे रही। अपने चारों तरफ देखतीं हूं, तो लगता है- यह सारी दुनिया खत्म हो रही है धीरे-धीरे और मैं भी एक दिन खत्म हो जाऊंगी। बिना कुछ किए, बिना जिये। क्या होगा मेरे सपनों का ? कुछ नहीं ? कुछ भी नहीं ? एक धू-धू जलता ज्वालामुखी है मेरे अंदर-मैं जल रही हूं........।'' मेरी आवाज भर आई और में क्षणभर रूकी रही- ''क्या हो गया है मुझे ? क्यूं इतनी निराशा भरी जा रही है मेरे अंदर ? क्यूं कभी-कभी लगता है, मेरा कुछ नहीं होगा ?'' वह कुछ नहीं बोला! उसने अपने होंठ भींच लिए और सोचता रहा....... मैं भी पागल हूं ? पता नहीं कितने वक्त के लिए आया है यह और मैं अपनी परेशानियां ले बैठी-बजाए इसके साथ जीने के- ''मानसी, ऑय वांट टू लव यू सेवेंटी फाइव थाउजेंड टाइम्स.......।'' सहसा उसने जो कहा, उसका पहले की किसी बात से कोई संबंध नहीं था। सहसा मैं हल्की हो गई। मैंने उसकी बांह में अपनी बांह लपेटी और उसके निकट आ कंधे पर अपना सिर रख दिया। उसकी देह से कुछ तरंगे उठ रही हैं जो मुझे घेर रही हैं, मदहोश कर रही हैं.........। मैंने उसके कंधे से अपने होंठ टिका दिए और बहुत आहिस्ता से उसे चूम लिया.......। उसने वह हाथ स्टेयरिंग पर रहने दिया और अपने दूसरे हाथ से मेरा चेहरा अपने कंधे से सटा लिया- ''प्रेम जुनून है, यह अगर स्थयी हो जाए, तो जीवन अमर हो जाए।'' ''हो सकता है क्या स्थायी?'' मैंने उसके कानों के पास कहा--अपने होंठ सटाकर। ''हां, पर इसकी कला सिर्फ कुछ लोगों को आती है।'' ''उनमें से तुम हो, हो न सिध्दार्थ।'' मैंने आंखें बंद करते हुए बहुत आहिस्ता से कहा। कहां हूं मैं? मैंने खुद को ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की। उसी में हूंगी। उसी में हूं। ''ऑय डोंट नो मानसी। मैं तुम्हारे सिवा कुछ नही जानना चाहता।'' उसने ऐसे स्वर में क हा--जैसे सागर बुलाता है..........एक अजीब-सी कशिश अपने में लिए......लहरों का एक ऐसा खामोश संगीत--जिसमें आकंठ डूब जाने की मन करता है........। मैंने उसकी देह गंध का एक गहरा घूंट भरा और आराम से उसमें डूब गई। तुममें हूं तो और क्या ढूंढ़ना? और क्या पाना? तुममें हूं तो वहीं हूं, जहां सारे प्रश्न और सारे उत्तार समाप्त होते हैं। -- 00 --
''मंत्र क्या है सिध्दार्थ?'' नहीं--नहीं खत्म होते सारे प्रश्न- किसी खास पल हमें लगता अवश्य है कि अब नहीं--अब कुछ नहीं। वह पल गुजर जाता है और हम फिर प्रश्नों की तेज बौछार के नीचे खड़े होते हैं। यह उस पल मैंने शिद्दत से महसूस किया, जिस क्षण वह प्रश्न पूछा-- ''तुम फिर प्रश्नों में उलझ रही हो मानसी।'' उसने मुस्कराकर मुझे देखा तो एक बेबस मुस्कराहट मेरे चेहरे पर आ गई-- ''हां सिध्दार्थ, मैं पागल हूं।'' वह धीरे से हंस दिया-- ''एक दिन आएगा मानसी, जब तुम्हारे पास पूछने को कुछ भी न होगा। प्रश्न भी तुम होगी--उत्तार भी तुम।'' ''कब होगा ऐसा सिध्दार्थ?'' मैंने अधीरता से उसकी ओर देखा तो उसने एकदम बात बदल दी-- ''क्या पूछ रही थीं तुम, मंत्रों के बारे में?'' ''हां।'' जिस बारे में उसे बात नहीं करनी, नहीं करेगा। कहूं चाहे मैं उससे जितना भी। आश्चर्य भी होता है, क्षणों में जीने वाला उसी समय उस बात का जवाब नहीं देता। क्यो? इस बात के लिए जब भी मैं सोचती हूं, हमेशा ही मेरा ध्यान अपनी पात्रता-अपात्रता की ओर जाता है। शायद, वही सच हो। ''मानसी, फंडामेंटल मिस्टिसिज्म है यह। मूलभूत रहस्यात्मक चिंतन। आवश्यक है यह, इस समय।'' उसने जब कहना शुरू किया तो मैं उसी की तरफ मुड़ी-- ''एक ऐसा सूत्र या ऐसी प्रार्थना, जिसका उच्चारण लयबध्द तरीके से किया जाए; मंत्र है।'' '' 'ओम मणि पद्मे हुम।' बौध्द मंत्र है यह। मंत्र एक वाक्स भी हो सकता है, एक शब्द भी। एक अक्षर भी हो सकता है यह। इसकी अनिवाय्र गुणधर्मिता है--'पुनरावृत्तिा।'' पुनरावृत्तिा' यह । बहुत-बहुत गहन धारणा के साथ। ' रिपीटेड चांटिंग अंडर हाई कांसेंट्रेशन।' --ऐसा ही, एक महत्तवपूर्ण मंत्र है, हजारों वर्ष पूर्व, ऋषियों, तपस्वियों, मुनियों द्वारा अन्वेषित एक अक्षर मंत्र 'ओम' । फिर करेंगे इस पर बातें, विस्तार सें।'' ''फिर क्यों? अभी सिध्दार्थ, अभी।'' मेरी बेताबी देख वह मुस्करा दिया-- ''हां। अभी करेंगे। अभी। हियर एंड नाऊ।'' कहते हुए उसने जिस तरह से मुझे देखा, जी चाहा, इसकी आंखें चूम लूं। कभी-कभी इतनी तेज चाह पैदा होती है मन में कि उस तूफान के सामने खड़े रहना-लगता है तब, कोई परीक्षा ले रहा है धैर्य की। यह भी तो गुजरता होगा इसी सबसे। यह तो जीता ही सेंटीमेंट्स में है। इसके लिए कितना मुश्किल होता होगा इस तूफान में खड़े रहना। 'खुदाया।' मैंने एक गहरी सांस ली ओर बाहर देखते हुए खुद को सहज बनाने की कोशिश की। वह काफी देर चुप रहा तोमैंने ही कहा-- --सुना है, गुरू अपने शिष्यों को, व्यक्तिगत रूप से गुहा मंत्र दिया करते थे। गोपनीय मंत्र। जो उनके अपने निजी जीवन का 'मेडीटेशन' मंत्र होता था।'' ''हां।'' ''यह भी सुना है कि यह परंपरा प्रचलित रही वर्षो से, 'टांसेंडेंटल मेडीटेशन' में। 'भावतीत ध्यान' में।'' कहते हुए मैंने हाथ से इशारा किया कि गाड़ी उधर मोड़ लो। आज भीड़भाड़ वाले इलाकों से दूर जाना चाहती हूं मैं। ''हां, अत भी प्रचलित है यह। मानसी, भावातीत ध्यान में मंत्र का उच्चारण, लगातार 'एंडलेसली' नपहीं किया जाता। न ही इसे ध्वन्यात्मक रूप में जोर से किया जाता है। मानसिक रूप से भी नहीं। भावातीत ध्यान में, मंत्र उतना महत्तवपूर्ण नहीं है। इस पर 'ध्यान' 'अटेंशन' उतना केंद्रित नहीं किया जाता। ध्यान मंत्र पर आकर टिके, उसकी अर्थवत्ताा पर रूके ओर सूक्ष्म अस्तित्व की ओर बढ़े, यह एक तरीका है।'' वह क्षण भर रूका, फिर आगे कहने लगा-- ''ध्यान मंत्र पर न टिके, उसकी अर्थगर्भिता पर न रूके, चुनी हुई ध्वनि की अर्थवत्ताा से हटता हुआ, उसकी अर्थहीनता से गुजरता हुआ, .......सूक्ष्म अस्तित्व की ओर बढ़े........ओर अपने अंतस में प्रवेश करें। यह दूसरी विधा है।......यह दूसरी विधा ही भावातीत ध्यान है। टी.एम.। ........दोनों ही विधाएं महत्तवपूर्ण है। ........और भी विधाएं हैं, ध्यान की। .......व्यक्तिगत विभिन्नताओं, रूचियों और स्वभाव को भी ख्याल में रखना पड़ता है।'' ''कोन-सी विधा अधिक महत्तवपूर्ण है सिध्दार्थ?'' मैं पूछना चाहती थी-मेरे लिए। पर रूक गई। बाद में, कभी। ''यह निर्भर करता है अपने-आने स्वभाव पर। इतना अवश्य है-- प्रत्येक प्रकार के 'मेडीटेशन' में 'ध्यान' में ध्वनियों का अपना महत्तव है।'' उसने मेरे हााि के इशारे की दिशा में गाड़ी मोड़ी ओर आगे कहा-- ''ध्यान में जिन ध्वनियों का उपयोग किया जाता है, वे वही ध्वनियां हैं, जो हमारे तंत्रिका तंत्र में भी अवस्थित हैं, उनसे उत्पन्न होती हैं। उनमें 'लय' उत्पन्न करती हैं। ओर यह 'लयबध्दता' यह 'रेसोनेंस' ही जीवन है मानसी। जीवन को विखंडित होने से बचाता है यह। जीवन को उसके वास्तविक रूवरूप की झलक देता है यह।'' ''सुना है, 'मोंक्स' के लिए, मठवासियों-संन्यासियों के लिए, वीतरागियों के लिए-अलग तरह के मंत्र होते हैं ओर गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने वालों के अलग तरह के।'' मैंने उसका चेहरा देखा- अपने आप में डूबा एक अजब से तेज में दिपदिपाता। उसके चेहरे को अपने हाथ से छू लेने की अदम्य इच्छा अपने में थामे......... मैं.......। ''यह श्रेयस्कर भी है। मंत्रों के अपने प्रारंभिक प्रभाव अलग-अलग होते हैं। वीतरागी का एक ही 'डायमेंशन' है। एक ही सतह पर चल रहा है वह। 'वह' और उसकी अपने अंतस के 'वह' की खोज। - तनाव शैथिल्य की जरूरत नहीं है, उसे। समस्त तनावों के पार जाना है। अतींद्रिय तनाव, आध्यात्मिक तनाव। तो मंत्र अलग ही होंग, उसके लिए।'' ''और गृहस्थ........।'' मैंने पूछा। 'गृहस्थ! एक ओर संसार है उसके। संसार का आकर्षण है।......उसके अपने तनाव है......। संसार की अपनी सच्चाई है। ........और है उसका अपना ही वीतराग। द्वैत है वह। द्वंद्व है। तो मंत्र भी अलग ही होंगे, उसके।'' उसने एक तेज मोड़ लेकर गाड़ी दूसरे रास्ते पर डाल दी-- ''एक बात और मानसी। सन्यासी को गृहस्थ की ओर वापस लौटते सुना होगा तुमने। कई बार......तो, उसके अनेक कारणों में एक कारण उसका अपना 'मंत्र' भी है।.......वह मंत्र, जिसे वह जीता है। ......शक्ति हासिल करने के हमारे सारे मंत्र, अंतत: हमें संसार की ओर ही ले जाएंगे.......।......गृहस्थ की ओर, फिर चाहे उसका स्वरूप जैसा भी हो।.......और यदि किसी गृहस्थ को, धोखे से ही सही, वीतरागी का मंत्र मिल जाए। और यदि वह इसे ही अपना इष्ट मंत्र मानकर, जीने लगे इसमें, तो तय मानना मानसी, संसार छोड़ देगा वह।'' ''तो गलत क्या है इसमें सिध्दार्थ?'' ''यह मनोवैज्ञानिक कठिनाई है मानसी। सन्यास एक स्वभाव है, उस स्वभाव को पुष्ट होना है वीतराग में। सन्यासी, गृहस्थ बना अगर, तो सुखी नहीं रह सकता। ......ठीक इसी तरह गृहस्थ भी स्वभाव है, इस स्वभाव को भी उतना ही पुष्ट होना है। ......गृहस्थ, यदि सन्यासी हुआ तो 'फिर-फिर लौटेगा।' वह, मेरी ही तरह.......। तुम्हें ही ढूंढ़ता हुआ.........।'' अंतिम शब्द उसने बहुत धीरे से कहे.......। मेरी देह की तरंगों ने उन शब्दों की ध्वनि तरंगों को अपने में ले लिया। ''कहां लौटे हो सिध्दार्थ तुम, पूरी तरह। जब भी आए हो, एक खास कालखंड के लिए......।लगता है, एक खास प्रयोजन के लिए। प्रेम के अलावा एक प्रयोजन अगर मुझे दिखता है तो वह है, शायद तुम्हारे ही द्वारा मेरी यह खोज पूरी होती हो। शायद यह तय हो। तभी तुम आते हो।'' मैंने उसके माथे को अपनी आंखों से चूमा-- ''शायद तीव्र संवेदनात्मक क्षणों की मेरी पीड़ा कहीं पहुंचती हो और तुम्हें भेजा गया हो। कभी-कभी यह अविश्वसनीय लगते हुए भी इस पर यकीन करने को मन चाहता है कि यह सच है। यह 'डेस्ंटिड' है। और सबसे बड़ी बात यह 'प्रेम' है सिध्दार्थ। यह 'प्रेम' और यह 'खोज' कहीं न कहीं तो जरूर पहुंचाएगी सिध्दार्थ और कभी किन्हीं बोझिल क्षणों में यह बात मुझे राहत देती तो है।'' उसने कुछ नहीं कहा। होंठ भींचे गाड़ी ड्राइव करता रहा-- ''कभी-कभी तुमसे बातें करते वक्त पता है, मुझे क्या लगता है?'' उसने क्षण भर मुझे देखा, कहा कुछ नहीं........ ''लगता है, यह मेरी दुनिया है, जिससे मैं शायद ऊब चुकी हूं......और एक तुम्हारी दुनिया है, जिसकी खबरें मैं तुमसे सुनती हूं और चाहती हूं, तुम्हारे साथ......हां सिध्दार्थ, तुम्हारे साथ, वह सब जीना......। कभी लगता है कि अगर मैं कभी इस काबिल हो जाऊं कि छलांग बस छलांग, ओर मैं तुम्हारी दुनिया में हूं, तुम्हारे साथ......।'' ''तुम मेरे ही साथ हो मानसी। रहो तुम कहीं भी। मैं जीता तुम्हीं में हूं।'' उसकी आवाज मेरे अंतस में कोहरे की तरह उतर रही है-- और मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा ..... ''मैं सिर्फ इतना जानता हूं, जो तुम चाहती हो, वह तुम्हें पाना ही है।'' ''मैं उस सबकी हकदार तो हूं न सिध्दार्थ। कहीं ऐसा तो नहींकि तुम महज प्रेमवश......।'' ''तुम पागल हो।'' उसने हाथ बढ़ाकर मेरे बाल बिखरे दिए....बहुत देर बाद......उसकी हल्की-सही हंसी मेरी सांसों के साथ मेरे अंदर उतर गई। ''मैं तुम्हें तुमसे अच्छी तरह जानता हूं।'' ''फिर ठीक है।'' मैं मुस्करा दी.... ''अगर तुम जानते हो तो.......।'' कुछ देर तक हममें से कोई कुछ नहीं बोला। ''एक बात ओर बताओं सिध्दार्थ?'' ''क्या मानसी?'' ''मेरे लिए कौन-सा मत्र श्रेष्ठ है?'' वह कुछ देर चुप रहा। मैं प्रतीक्षा करती रही जब भी वह कुछ कहने को होता है, और मैं सुनने को। लगता है, सबकुछ शांत हो गया है। सारी सृष्टि प्रतीक्षा कर रही है, मेरे साथ, उसके बोलने की-- ''मंत्र, वाइब्रेशन्स हैं। ध्वन्यात्मक वृत्ताीय अनुगूंज है, मंत्र। हमारे शरीर की सारी संरचना वृत्ताीय है, साइकलिक। असंख्य वृत्ता। हमारी थॉट प्रोसेस वृत्ताीय है। आश्चर्य होगा, यह जानकर कि हमारे अंतस की हर गति वृत्ताीय है। ओर इसीलिए ध्वनियों का महत्तव है।'' ''किसी भी ध्वनि का।'' ''हां, हर ध्वनि का महत्तव है। व्यक्तित्व विखंडित होते हैं, लयहीन ध्वनियों से। ओर पुष्ट होता है व्यक्तित्व, लयबध्दता से। हमारे शरीर को, मन को, चेतना को, उत्तारोत्तार ताजगी देने के लिए, कुछ खास ध्वनियां हैं। हजारों वर्षो की खोज का परिणाम।'' ''तो सिध्दार्थ, इन ध्वनियों का उच्चारण खास ढंग से करना होता है।'' मैंने उसका चेहरा देखां दिन की उस रोशनी के अलावा अपने आंतरिक उजाले से चमकता-- ''हां, ध्यान करती रही हो वर्षो से, जान सका हूं। प्रेम करती हो, यह भी जान रहा हूं। कुछ खास मंत्रों का विधिपूर्वक उच्चारण, समय-विशेष में करती हो, पता है। लेकिन मानसी क्या कारण है खोज की वह तड़प अब भी बाकी है तुममें।'' ''यही तो....... यही तो जानना हेै सिध्दार्थ।'' मैंनें असह्म बेचैनी से उसकी बांह थाम ली.......। सहसा उसने गाड़ी रोक दी और मेरी तरफ देखा- ''हम यहां उतर सकते हैं........।''
--00--
पता नहीं, यह कौन-सी जगह है ? शायद मैं यहां आई हूं कभी, शायद नहीं आई। याद नहीं आ रहा........। मैं उसका हांथ पकड़े चल रही हूं........। कोई भी चीज, कोई भी यह राह पहचानी हुई नहीं लग रही........। यह बीच का कोई रास्ता है-इस दुनिया और उस दुनिया के बीच का कोई रास्ता.......। वह दुनिया, जहां से हमारा कदम उठता है....... और वह दुनिया, जहां वह कदम रखा जाता है.......। बीच के रास्ते कभी-कभी बहुत लंबे होते हैं......... बहुत धूप, धूल और प्यास से भरे.......। बहुत संघर्ष और तड़प से भरे....... वे खाली दिन........ जहां बाहर का शून्य........ लगातार हमारे अंदर भरता जाता है........। ''सिध्दार्थ, हमारी बात अधूरी रह गई थी।'' मैंने उसे याद दिलाया। ''हां, मैं कह रहा था, ध्यान करती रही हो वर्षों से........।'' उसने उसे वहीं से पकड़ा। ''हां सिध्दार्थ, पर कहां जान पा रही हूं ? क्या जानना है, यह भी कहां जान पर रही हूं, ठीक से ?'' ''अनंत विस्तार की सीमाएं नहीं होतीं मानसी। महती क्षमताओं को परिवक्व होकर अभिव्यक्त होने में समय लगता ही है।'' उसकी आवाज उस तेज धूप में मुझे ठंडी हवा के झोंके की तरह लगी। ''लेकिन सिध्दार्थ, जानने की तड़प क्यूं है ? इतनी अधिक कि........।'' मुझसे आगे कुछ नहीं बोला गया। ''जाना जा रहा है, लेकिन, जो जाना जा रहा है, वह जाना नहीं जा सक रहा है। 'इट बिकम्स डिफिकल्ट टु रिकगनाइज इट.......।'' मानसी, विशाल भूंखडों के कंटूर नहीं होते। श्रेष्ठतम ध्वनियां प्राय: बहुत ही हल्की सुनाई पड़ती हैं।'' उसकी आवाज में प्रखर तेज दिपदिपा रहा है। ''प्रेम भी कहां अभिव्यक्त हो पाता है पूरी तरह।'' यह वाक्य उसने मुझे देखते हुए मुस्कराकर कहा। मैं उसके होठों को देखती रही........। ''अपरिचित हूं सिध्दार्थ, मैं खुद से और........।'' मैं इस वक्त असहाय बेचैनी महसूस कर रही हूं। ''और जो ढूंढ़ रही हो तुम, वह तुम्हारा चिर-परिचित अपरिचय ही है। अनाम है वह। अनाम हो तुम। नाम भी तुम्हें ही देना है। 'अनिकेत' हो तुम, समझना तुम्हें ही है। 'आईसोला' हो तुम, 'विदाउट ए सेकेंड।' दूसरा नहीं हैं........ जिसकी तरफ आगे बढ़ा जाए। मैं भी नहीं।....... तब फिर 'रूकना' है तुम्हें। अपने पर। और रूकता है जो, वही जान पाता है खुद को। यही है मानसी, 'स्थिति प्रज्ञता'। यही है रास्ता- 'द वे'.........।'' कितना गहन चिंतन है इसका ? कितना ज्यादा जानता है यह मुझे ? 'दूसरा नहीं है- जिसकी तरफ आगे बढ़ा जाए, मैं भी नहीं।'' कैसे कह पाता है यह ? क्या यह संभव है ? क्या मैं कभी इसके मोह से मुक्त हो सकती हूं ? क्या यह हो सकता है ? खुद को जानना क्या इतनी बड़ी बात हो सकती है कि सभी कुछ स्वयं छूट जाए.....? कितना नामुमकिन-सा लगता है यह सुनकर ? यह खुद कितने तीव्र संवेगात्मक दबाव में जीता है ? मैं क्या जानती नहीं हूं, कितना ज्यादा जीता है यह मुझे ? हर पल....... हर क्षण......... यह मेरे अलावा और जीता क्या है ? कुछ तो नहीं, फिर भी मुझे ही समझा रहा है। ''स्थिति प्रज्ञता का अर्थ तो मैं जानती हूं सिध्दार्थ। कृष्ण का संदेश है, अर्जुन को। कर्म का संदेश। फिर भी जानना है बहुत कुछ।'' मैं चलते हुए ही पूछतीं हूं........ उसी की देह में लिपटी-लिपटी.........। उसके साथ इस तरह चलते हुए मुझे उसके साथ नैनीताल में चलना याद आ रहा है। क्या इसे कुछ याद नहीं आता ? यह कितना छिपाता है अपना-आप ? कुछ कहता भी तो नहीं। कितना बांधकर रखता है स्वयं को ? जबकि कहता है, मानसी, तुम्हें पूरा हक है, मेरी सांस-सांस जानने का, पहचानने का ? कितना फर्क आ गया है इसमें ? कितना खुलकर जिये हैं हम नैनीताल में ? एकदम सागर की तरह उमड़ा था मुझमें और मैं भर गई थी पूरी की पूरी- लेकिन अब कितना बंधा-बंधा सा है ? यह कितना भी स्वयं को संभालने की कोशिश करता होगा, उतनी ही तकलीफ से गुजरता होगा। ''हर किसी को जानना होता है। गीता जितनी बार पढ़ोगी, जितनी बार समझोगी, उसके बाद भी रह जाता है कुछ 'अतिरिक्त' समझने को। और मानसी, वह 'अतिरिक्त' जो रह जाता है, वही है भगवद्गीता। जो कहना चाहते हैं कृष्ण, और जो पहुंचता है अर्जुन तक, उसमें बहुत फर्क रह जाता है। मच डिस्टेंस।'' वह अपनी ही बात की गंभीरता में डूबा हुआ है। मेरे हांथ पर उसके हाथ की पकड़ ढीली पड़ रही है। मेरा जी किया, उसे हिलाकर कहूं, हम इस वक्त कोई और बात नहीं कर सकते ? दर्शन के सच के अलावा कोई दूसरा सच भी तो है हमारा। पर बात मैंने ही शुरू की है, मुझे ही सुनना है। कभी किसी पल मुझे लगता है, वह 'सुन' रहा है मेरे लिए, और मैं 'सुन' रही हूं। जैसे इस वक्त.......। सिध्दार्थ, मुझे अपनी बांहों मं छिपा लो, कितनी जरूरत है मुझे तुम्हारी ? कहना मैं यह चाहती हूं, और जो कहा, वह यह था- ''उस अतिरिक्त को ही समझना है।'' तुम क्यों नहीं समझ रहे इस 'अतिरिक्त' को। मेरे मन में बजा.......। पर मैंने अपनी ही बात नहीं सुनी। ''और समझने के बाद भी जो बचता है, वह भी 'अतिरिक्त' ही है। मानसी, यह संपूर्ण ब्रह्मांड निकलता है अस्तित्व से और अस्तित्व कहां से निकलता है ?'' ''रिग्रेशन से। अनवस्था दोष से।'' व्यंग करती हुई कहती हूं मैं। ओह, कितने बुध्दू हो तुम ? नहीं पूछ रहे, मानसी, तुम कहां से निकलती हो, कहां विलीन होती हो ? मैं कहां से निकलता और विलीन होता हूं ? अगर पूछो तो मैं बताऊं तुम्हें अपनी बांहाें में भरकर.......। ये शब्द तुम्हारे होठों से चुन लूं और रख दूं कुछ और शब्द........ जो मैं सुनना चाहती हूं तुमसे........ और तुम चाहते हो कहना-पर कह नहीं रहे। सिध्दार्थ, इतना भी खुद को संभालने की कोई जरूरत नहीं। ''हां, अनवस्था दोष से.......।'' बहुत गंभीर स्वर में वह कहे जा रहा है- '' 'वायड' से। 'इन द बिगनिंग एवरीथिंग वाज वायड।' और इसी रिग्रेशन पर, अनवस्था दोष पर, इसी वायड पर, इसी वायड पर, धुंध पर रूकना है। यही है 'स्थिति प्रज्ञता'।'' '' क्या मतलब है तुम्हारा ? '' मैं चौंकीं। '' जितना डूबोगी, उतना बेमालूम होओगी। जैसे अनार पकते ही फट जाता है, तुम्हारे अंतस में सत्भाव परिपक्व होते ही स्वयं फट जायेगा। स्वयं अभिव्यक्त होगा वह। ... विस्तार में खो दो अपने आपको...। और यही ' स्थिति प्रज्ञता ' है। '' कहां डूबने दे रहे हो तुम मुझे। डूब ही तो जाना चाहती हूं। जीवन का कितना बड़ा विरोधाभास है कि एक ही वक्त में हम डूबना भी चाहते हैं और स्थितिप्रज्ञ भी होना चाहते हैं। तुम बांहें फैलाओं और तुम्हारे अनंत विस्तार में खो देगी मानसी अपने आपको। वह तो खोना भी तुम्हीं में चाहती है, पाना भी तुम्हीं में.......। सिध्दार्थ........सिध्दार्थ....... आज तुम समझ नहीं रहे कुछ भी.....। ये जो मैं हाथ पकड़कर चल रही हूं तुम्हारा, क्या कह नहीं रहा तुमसे कुछ? ये जो हमोर कदम साथ उठ, साथ गिर रहे हैं और जो 'रिद्म' पैदा हो रही है इनसे.....क्या कुछ भी नहीं कह रही तुमसे.....। तुम्हीं तो कहते होक, सूक्ष्म ध्वनियां अत्यन्त धीमी सुनाई पड़ती हैं.......और तुम्हीं नहीं सुन रहें। मुझे भी तुम्हारे साथ स्थिति प्रज्ञता की बात करनी पड़ रही है- ''कृष्ण कहते हैं, जिस काल में यह व्यक्ति संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है ओर अपने से अपने में ही संतुष्ट रहता है। 'स्थिति प्रज्ञ' वह, अपने से अपने में संतुष्ट.....।'' कैसा होता होगा वह, जो समस्त कामनाओं से परे होता होगां 'आप्तकाम' स्वयं में पूर्ण। जो खुद अपने में गिरता, अपने में विलीन होता है। ''किसी वस्तु के आधिपत्य की लालसा, किसी व्यक्ति पर आधिपत्य की लालसा। मेरे अतिरिक्त वह किसी का न हो।......यह लालसा, यह 'डिजायर फॉर पजेशन' आत्म सुख के मार्ग में व्याघाती है।'' मैंने उसे देखा। क्या तुम यही समझते हो? क्या तुममें नहीं है पजेशन। क्या तुमने एक बार भी नहीं सोचा होगा कि मानसी सिर्फ मेरी होती? कि मैं पकड़ लूं इसका हाथ और इतनी दूर ले जाऊं कि, कोई देख ना पाए इसे, कोई छू न पाए.....। और मैं......मैं तो सोचना भी नहीं चाहती कि मेरे अलावा भी कुछ हो सकता है तुम्हारे जीवन में......। ''सिध्दार्थ, कभी-कभी मैं सोचती हूं, मेरे अतिरिक्त तुम किसी और के हुए तो क्या, सह पाऊंगी मैं? और क्या तुम्हारी पत्नी को पता है, तुम यहां हो, इन दिनों?'' होंठ भींचकर मैंने कह ही डाला सबकुछ। हालांकि कहते वक्त मैंने अपना सिर झुका लिया चलते-चलते कि यह सीधा न देख पाए मुझे। कभी-कभी क्यों हम उसी से सबसे ज्यादा बचते हैं, जिसके सामने सबसे ज्यादा खुल जाना चाहते हैं? कभी-कभी उसी से क्यों झिझकते है।-- जिसके सामने हमारे मन और आत्मा में हम स्वयं कुछ नहीं छिपाना चाहते--कैसा विरोधाभास है? ''......मानसी, अपने 'नौद्वारों' को समझ लें हम। काफी है। 'नवद्वारे पुरे गेही।' यही हमारा घर है। अन्य खिड़कियों की ओर न झांकें।'' उसने इस बात पर जोर दिया- ''तभी हम रास्ता बना सकेंगे। और इस रास्ते पर तो उच्चावचन आते ही है। कठिन है मार्ग। बने-बनाए रास्तों से कभी कोई नहीं पहुंचता। एक खास जगह से दूसरी खास जगह पर भटकता है बस.....।'' नही बताएगा। कितनी बार पूछा, इसकी पत्नी के बारे में, अतीत के बारे में, नहीं बताता। क्यों? कहां तो इतना समर्पण कि अपनी सांस-सांस मुझ पर कुर्बान कर देता है, और कहां इतनी घबराहट, क्यों? कुछ खास किस्म की बातें ही करता है यह। तो क्या जीवन के अन्य पक्षों का इसके लिए कोई महत्त्व नहीं? अभी तक या तो दर्शन की बात की है इसने या प्रेम की-मानसी तुम ये हो, तुम वो हो। दूसरी बातों से हटता है, क्यूं? ''और फिर, यही कुछ तो मैं उनसे भी कह सकता हूं?'' उसने कहा तो मैंने धूप में गर्म होता उसका चेहरा देखा ......उनसे भी। किससे? अपनी पत्नी से? कह पाता होगा ? मानती होगी वह इसकी बात ? ''हर किसी को हटना है, 'पजेसिवनेस' से, मुझे भी, तुम्हें भी, उन्हें भी। और मानसी, 'पजेसिवनेस' से हट जाएं अगर, तब प्रेम शिखरों पर होता है। ऊंचाइयों के। और यही है 'स्थिति प्रज्ञता।' '' होमा होगा सिध्दार्थ तब प्रेम शिखरों पर, मेरे लिए तो वह भी शिखर पर ही है। कहना आसान है, समझना मुश्किल। कब से तुम 'स्थिति प्रज्ञता' समझाए जा रहे हो, तुम्हें आती होगी समझ में- मेरे नहीं आ रही- ''यह संभव कहां है सिध्दार्थ।'' मैंने परेशान होकर कहा। मेरा मन उचट गया है इन सबसे मैं कहना चाहती हूं- बस करों अब। मुझसे नहीं सुना जा रही यह 'स्थिति प्रज्ञता'। मझे समझने में दिक्कत हो रही है। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा सिवाय तुम्हारे........। मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा सिवाय तुम्हारे। सिध्दार्थ- सिध्दार्थ, ठहर जाओ अब। मुझसे नहीं चला जा रहा-मैं थक गई हूं। मैं बहुत थक गई हूं....... मैंने परेशान होकर हाथ से अपना हाथ छुड़ाया और बेंच पर बैठने के लिए आगे बढ़ी कि उसने एक झटके से मेरा जिस्म अपनी ओर मोड़ लिया। मैं उसके ठीक सामने खड़ी हूं....... हतप्रभ-सी....... उसकी आंखों में देखती....... ''मानसी, ऑय एम पजेस्ड बॉय यू। आबसेस्ड बॉय यू। कभी-कभी लगता है, कितना आसक्त हूं मैं तुम पर, जितना आवृत्त हूं तुमसे......।'' उसके होठों से कांपते शब्द निकले.........। उसके समूचे जिस्म में हल्की-सी कंपकंपाहट है........ उसकी सांसों में........। अब कहा है तुमने। अब कहा है तो ठहरे क्यूं हो ? पूरा ही कह डालो। और कहने की भी जरूरत क्या है ? खड़ी तो हूं तुम्हारे सामने........। ''कोई न हो। इतना। यही न।'' मैं हल्के से मुस्कराती हूं....... बहुत कोशिश करके.........। और अब इतनी भी देर क्यूं लगा रहे हो सिध्दार्थ ? मैंने सोचा ही था कि मैं उसकी बांहों में थी। उसके कान को जोर से काटते हुए मैंने एक गहरी सांस ली-''सिध्दार्थ।'' उसके रोंये-रोंये ने सुना और प्रत्युत्तर दिया- ''हां मानसी। पजेसिव हूं बहुत। टू मच। ऑय डोंट नो व्हाई ? ऑय लव यू मानसी। ऑय लव यू विद् ऑल मॉय वीकनेसेस।'' उसके शब्दों का एक गहरा घूंट भरा मैंने- हां सिध्दार्थ, मैं तुम्हारी कमजोरी ही बनना चाहती हूं। इसके पहले कि वह कुछ और कहता, मेरे सब्र का बांध टूट गया....... एक जबरदस्त लहर आई और हमारे सारे शब्द बहा ले गई। ''सिध्दार्थ, तुम्हारे साथ समय की गति थमती-सी लगती है। हम साथ हैं सिध्दार्थ........ शब्द में, मौन में, विचार में। तुम्हारे साथ होना, तुम्हारें स्वप्न में, तुम्हारे विचार में, तुम्हारी आकांक्षा में, तुम्हारी चाह में, तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारी खामोशी में भी तुम्हारे साथ होना विलक्षण लगता है।'' मैंने झुककर उसकी दोनों चूमीं और झुकी रही देर तक........। कुछ अस्पर्शित शब्द मेरे होठों से निकले और उसके होठों से निकले और उसके होठों में बिला गए। एक कंचकंपाहट मेरी देह से निकली और उसकी देह में विलीन हो गई। उसने अपनी दोनों बांहे ऊपर कीं.......... मुझे समेटा और अपना चेहरा मेरे सीने में छुपा लिया.......। बहुत देर बाद उसने मुझे देखा- ''ऑय वांट टू किस यू सेवेंटी फॉइव थाउजेंड टाइम्स एट अ टाइम........।'' उसके शब्द पिघलते हुए मेरे अंदर उतर गए- ''ओनली सेवेंटी फॉइव थाउजेंड टाइम्स.........।'' मैंने उसके होठों पर अपने होठ रखते हुए कहा। ''अनकांउटेबल टाइम्स..........।'' उसने मुझ पर छाते हुए कहा- ''हां, यह ठीक है।'' मैंने उसमें खोने से पहले पलभर देखा उसे और अपनी आंखे मूंद लीं।
'उसने
प्रेम किया है मानसी,
और प्रेम में।'
छोड़ो-मैंने खुद को बरजा-अभी वह सब नहीं सोचना। अभी मुझे विक्रम को बुलाना
है-टेलीपेथी से-कैसे
?
कैसे क्या
?
मैं बैठ जाती हूं- एकाग्रचित
होकर और भेजती हूं उसे मानसिक संदेश.......। कैसे नहीं होगा कुछ,
होगा जरूर,
मैं जानती हूं। जब हमारे बिना
कुछ कहे हमारे सामने बैठा व्यक्ति हमारी सोच को पकड़ लेता है तो विक्रम कैसे
नहीं जानेगा
?
उसने मुझे ही तो जाना है आज तक।
|
|
(c) HindiNest.com
1999-2021 All Rights Reserved. |